tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post1409481829374498375..comments2023-12-04T23:04:56.362-08:00Comments on अस्सी चौराहा: समयांतर,जून ,२०११: अनुज लुगुन की पाण्डुलिपि में पलाशरामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-56014733368576685732011-07-30T11:46:17.502-07:002011-07-30T11:46:17.502-07:00पलाश झारखण्ड की राजकीय फूल है... महक न सही परन्तु ...पलाश झारखण्ड की राजकीय फूल है... महक न सही परन्तु अपनी रंगत एक बार कही छोड़ जाये तो उतरे ही न ... ऐसी है अपनी झारखंडी संस्कृति... इसीलिए तो अनुज जी का विद्रोह लाजमी है।<br /> पाण्डुलिपि की भाषा आखिर पलाश के कारण ही तो है।<br />सर आपने पलाश के माध्यम से सत्ता और जनता के बीच संघर्ष का जो सवाल रखा है यह सोचनिए है। जंग लड़ती पलाश की आवाज तो सुनो !<br />...सुजातासुजाताhttps://www.blogger.com/profile/01616166046914725214noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-46063251972711259632011-06-19T00:01:49.371-07:002011-06-19T00:01:49.371-07:00तीसरी पाण्डुलिपि राजाज्ञा नहीं है। रामाज्ञा जी की ...तीसरी पाण्डुलिपि राजाज्ञा नहीं है। रामाज्ञा जी की खुद की गढ़ी कथा, कहानी, किवंदती या दंतकथा भी नहीं है जो इस पोस्ट में पद्य-कलरव का आभास कराते हुए प्रस्तुत है। यह प्रस्तुति मनोरंजन या विश्वरंजन के लिए नहीं; बल्कि विचार के धरातल पर बहस-मुबाहिसे के लिए हैं। संकटग्रस्त वर्तमान समय की सार्थक आवाज़ है-‘पाण्डुलिपि में पलाश।’ उम्दा अभिव्यक्ति का साधिकार प्रवेशन। पोस्ट लेखक अपने वैचारिक पैनेपन और पूरेपन को समर्थ तरीके से इस पोस्ट में अभिव्यक्त करने में सफल रहा है, तो इसमें तीसरी पाण्डुलिपि की अंतहीन ऊर्जा और चेतना प्राणबीज की तरह अंतर्निहित है। ख़ालिस कविताई नहीं है यह तीसरी पाण्डुलिपि। यह तो प्रायोजित आह-जाह से परे एक चमकदार पारा है जिसमें पलाश के रंग हैं, तो उस रंग की आड़ में पैठे बहुरुपिए ठिकानों की मुकम्मल पड़ताल भी। <br /><br />तीसरी पाण्डुलिपि अपने समय में समानांतर प्रविष्ट पाण्डुलिपियों के बारे में प्रश्नचिह्न है। युवा कवि अनुज लुगुन का ध्येय-वाक्य हैै-‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है...?’ यह प्रश्न सिर्फ बस्तर, दंतेवाड़ा, सिंगुर, नंदीग्राम, वेदान्ता और पोस्को से नहीं है। दरअसल, इसका परिधिय-भूगोल व्यापक है। <br /><br />यानी अनुज की पाण्डुलिपि पारिस्थितिक ताप-दाब से निर्मित है। यह चेतस धातु अपने समाज का प्रतिनिधि चेहरा है, दुभाषिया है, लोक, क्षितिज और निद्वंद्व कैनवास है। यह पारा स्वाभाव में तरल है, ठोस नहीं। लेकिन वह अपने बरक्स तमाम पाण्डुलिपियों के बुख़ार नाप सकता है। वैचारिक रुग्णता के शिकार लोगों की तबीयत भाँप सकता है। तीसरी पाण्डुलिपि दहकते देह और सुलगते मन का विकल्प है जो अपने विरूद्ध जारी अंतहीन साजिशों के बरअक्स वैकल्पिक व्यवस्था की खोज करने के लिए तैयार-तत्पर है। फिलहाल जोहार! साथी। <br /><br />-राजीव रंजन प्रसाद, प्रयोजनमूलक हिन्दी(पत्रकारिता)Rajeev Ranjan Prasadhttp://www.issbaar.blogspot.comnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-89254525102292713442011-06-16T03:02:37.431-07:002011-06-16T03:02:37.431-07:00गंभीर आलेख...अनुज की कविता पहली बार किसी मित्र ने...गंभीर आलेख...अनुज की कविता पहली बार किसी मित्र ने बीएचयू से निकलने वाली पत्रिका में पढवाया था.पहली बार में ही अनुज ने प्रभावित किया था...पुनः आशीष त्रिपाठी के माध्यम से उसे जानने और पढ़ने का मौका प्रगतिशील वसुधा में मिला...लगा कि आग अब भी वही है पर थोडी तीक्ष्णता आ गयी हैऔर अब आपके मार्फ़त उसे सुनने-गुनने का मौका मिला.<br />अनुज की कविता का आपने सचमुच बारीक़ और पक्षधर्मी आलोचना की है...असल में अनुज की आदिवासी समाज के प्रति पक्षधरता ही उसे महत्वपूर्ण कवि बनाती है,और इस पक्षधरता को हासिल करना और साधना कोई सहज बात नहीं...चाहे वो आदिवासी समाज में पैदा हुआ व्यक्ति ही क्यों न हो.<br />अनुज की कविताओं को सामने लाना और हिंदी की हिंस्र दुनिया में उसे प्रोत्साहित करना भी उसकी कविता और उसकी जमीन के प्रति प्रतिबद्धता ज्ञापित करना ही है, जिसके लिए आप बधाई के पात्र हैं.राही डूमरचीरhttps://www.blogger.com/profile/12899913343430149127noreply@blogger.com