tag:blogger.com,1999:blog-8596540428280366622024-03-13T20:20:47.831-07:00अस्सी चौराहासाहित्य और विचार-विमर्श की ई-पत्रिका
रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.comBlogger162125tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-19242998171455245972023-12-03T21:41:00.001-08:002023-12-03T21:41:15.674-08:00ठलुओं का अस्सी फिर फिर जवान {राश की डायरी}<div><div> घलुए की चाय, हलुए का पान</div><div> ठलुए का अस्सी फिर से जवान</div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-rXdr8Qd_0dw/ZW1meBh3AmI/AAAAAAAADKQ/UI4yzF7C05QGVPxoussTShXaYgXdHjnwQCNcBGAsYHQ/s1600/1701668465724077-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://lh3.googleusercontent.com/-rXdr8Qd_0dw/ZW1meBh3AmI/AAAAAAAADKQ/UI4yzF7C05QGVPxoussTShXaYgXdHjnwQCNcBGAsYHQ/s1600/1701668465724077-0.png" width="400">
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</div></div><div><br></div><div>अस्सी उवाच: </div><div>आप भी सुनिए!</div><div><br></div><div> " काशीनाथ सिंह को भरम हो गया। वे माया महाठगिनी के शिकार हो गए। कलियुग माथे पर सवार होना ही था! इसीलिए तो सुंदर मुहल्ला अस्सी छोड़कर सुंदरपुर चले गए!"</div><div><br></div><div> " आजकल ' रेहन पर रग्घू' हैं।"</div><div> </div><div> "कौन चूतिया कहता है कि अस्सी मर गया! अस्सी प्रसव से गुजर रहा है! उसका पुनर्जन्म हो रहा है!</div><div><br></div><div> आप पूछेंगे, कैसे!"</div><div> </div><div> "अव्वल तू हौआ के ? पूछै वाला!"</div><div> </div><div> " पूछे तो सुन ही लीजिए!"</div><div> </div><div> "ये हैं बदरी विशाल!"</div><div> "बरसना है बदरी का-</div><div> " अस्सी पर गालियों का प्रथम रिसर्चर हूँ मैं। सिर्फ मैं बता सकता हूँ कि पृथ्वी की प्रथम गाली और प्रथम पंडिताई का जन्म यहां से हुआ है! मैं चालीस साल कवि सम्मेलन में कविता में गाली बांचता रहा। कवि सम्मेलन में मंदी आ गई तो गंगा आरती पकड़ ली। गंगा आरती में आजकल वेद मंत्र बांचता हूँ। दोनों को ज़माना दिल थाम कर सुनता है!"</div><div> " है कोई दूसरा माई का लाल जो एक साथ गाली और मंत्र को साध ले! और जिसे ज़माना स्वीकार ले!"</div><div> ...</div><div> यह तो सिर्फ 14 सेकंड की रील है। </div><div> ... </div><div> यह है ज़िंदा अस्सी! किलकारी मारता हुआ</div><div> नव शिशु!</div><div> </div><div> बीकानेर से आए मेरे लेखक साथी नवनीत पांडेय और उनके सहयात्री अवाक! </div><div> </div><div> बीकानेरी कथन का स्वाद फेल हुआ या काशीनाथ का काशी का अस्सी, यह दूरबीन से नहीं खुर्दबीन से खोजना होगा।!</div><div> </div><div> माइक्रोस्कोप से पकड़ने के लिए पहले पान का बीड़ा बनिए या नाली का कीड़ा! </div><div> </div><div> बकैती या फकैती में अस्सी आपका गुरु था, है और रहेगा!</div><div> </div><div> V लॉग से पकड़ में जो नहीं आए वह है काशी और उसका अस्सी!</div><div> -----</div><div>रामाज्ञा शशिधर</div><div> जारी...</div><div> </div></div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-71776633420601650602022-08-14T06:40:00.001-07:002022-08-14T06:42:13.829-07:00मक्खलि गोसाल कौन थे<div><br></div><div>©प्रेमकुमार मणि</div><div>लेखक,विचारक</div><div><br></div><div> मक्खलि गोसाल के जन्म और जीवन -यापन के बारे में जैन ग्रंथ भगवती -सूत्र में कुछ जानकारी है , जिसके अनुसार उनके पिता का नाम मंखलि और माता का भद्दा ( भद्रा ) था . मंख से क्या तात्पर्य है ,इस पर विद्वानों में कई तरह के विचार हैं . इतिहासकार बाशम इसे भाट के अर्थ में लेते हैं , जिनके अनुसार गोसाल के पिता एक ऐसे कवि-गायक थे , जो घूमते रहते थे . भाट लोग प्रायः ऐसा करते रहे हैं . इन्हे घुमन्तु गायक भी कह सकते हैं . हालांकि बी .एम. बरुआ ने अपनी किताब में मक्खलि को मस्करीन या मस्कारा कहा है , जिसका अर्थ पाणिनि के अनुसार बाँस ढोने वाला है . संस्कृत ग्रन्थ 'दिव्यावदान ' में मक्खलि को गोसाल मस्करीपुत्र कहा गया है . हालांकि भगवती -सूत्र में ऐसी कोई बात नहीं है . इसके अनुसार गोसाल के माता -पिता सावत्थी ( श्रावस्ती ) के थे और जैसा कि बताया गया है ,वे घुमन्तु थे . इस क्रम में वे सरवन नामक एक बस्ती में आये . यह बस्ती सरकंडों के झुरमुट से भरा था . उन दिनों मकान बनाने में सरकंडों की बहुत जरुरत होती थी ,इसलिए संभव है बाँस की जगह वे कभी -कभार सरकंडों को बैल -गाडी से ढोने का काम करते हों . लेकिन किसी भी तरह हों ,वह घुमन्तु तो थे ही . भगवती -सूत्र के अनुसार मंखलि ने अपनी गर्भवती पत्नी भद्दा को गोबहुल नामक एक पशुपालक के यहाँ उसके गोसाले में रख छोड़ा था . इसी गोशाले में मक्खलि गोसाल का जन्म हुआ . मक्खलि या मंखलि पिता से लिया हुआ नाम हुआ और गोशाला में जन्म लेने के कारण गोसाल हो गया . बुद्धघोष ,जो ' सामञ्जफल सुत्त ' के व्याख्याकार हैं, के अनुसार मक्खलि का जन्म एक दास परिवार में हुआ था ,जो किसी तेल व्यापारी का तेल ढोया करता था . एक रोज असावधानी से मक्खलि ने तेल भरा मटका गिरा दिया . इससे क्रुद्ध हो उसके मालिक ने उसे पकड़ना चाहा और शायद दण्ड पाने के भय से मक्खलि ने भागना चाहा . मक्खलि का वस्त्र उसके मालिक की पकड़ में आ गया और उसके खिंच जाने से वह नंगा हो गया . अब इसी नग्न अवस्था में उसे भागना पड़ा . बुद्धघोष के अनुसार इसी के बाद वह दिगम्बर साधु हो गया . </div><div>ऊपर के दोनों विवरणों से एक ही बात सामने आती है कि मक्खलि एक साधारण परिवार से आता था . पिता भी ऐसे ही थे ,जिनका कोई पक्का पेशा नहीं था . आर्थिक स्थिति ऐसी ही थी कि दूसरे के गोशाले में गर्भवती पत्नी को रखे . बहुत संभव है गोसाल के पिता गाड़ीवान रहे हों और साथ में लोक गायक भी हों . ऐसे गायकों की लापरवाह जिंदगी को लोग गंभीरता से नहीं लेते और आम तौर पर उसके प्रति कृपालु होते हैं . उसकी इसी धज पर तरस अनुभव कर किसान गोबहुल ने अपना गोशाला अस्थायी वास के लिए दे दिया होगा .बेचारा गायक पिता ! उसकी दयनीयता और परेशानी को समझा जा सकता है . बुद्धघोष की कथा भी विरोधाभासी नहीं है ,बल्कि एक तरह से भगवती -सूत्र की कथा का दूसरा भाग है . अब गोसाल का अपना जीवन है और इसकी जरूरतों को पूरा करने केलिए वह किसी व्यापारी के यहां चाकर है . निश्चित ही कवि मन का यह युवा दार्शनिक काम के दौरान भी कुछ न कुछ सोचता रहता होगा . ऐसे में काम का प्रभावित होना लाज़िम था . तेल का मटका गिर जाने पर मालिक का रंज होना भी स्वाभाविक था . उस कथा में केवल एक स्वाभाविक प्रसंग ही तो है कि वह भाग रहा है और उसका कपडा मालिक द्वारा पकड़ लिया गया, जिसके फलस्वरूप वह नंगा हो गया . वह रुका नहीं . क्योंकि रुकना उसके लिए खतरनाक था . कितने जनों के बीच से होकर इस अवस्था में वह गुजरा होगा ,इसकी कल्पना कर के तो देखिये ! एक दफा इस नग्न अवस्था में घूम आने पर उस युवा दार्शनिक के मन पर कुछ तो प्रतिक्रिया हुई ही होगी . शायद कपड़ों की निस्सारता और उससे आज़ादी का मूल्य भी उस ने जाना होगा . जनता के बीच यह आकर्षण का भी एक कारण हो सकता है ,यह बात भी उसके दिमाग में आई होगी . और फिर यह दिगम्बरता यदि उसका स्वाभाविक धर्म बन गया तो क्या आश्चर्य ! . इस पूरी कथा -यात्रा में कोई अस्वाभाविकता नजर नहीं आती . आधुनिक ज़माने में आर्कमिडीज ने नहाते वक़्त उत्प्लावन की थियरी जानी थी और कहते हैं वह राजा के पास नंगा ही दौड़ गया था . </div><div><br></div><div>मक्खलि के विचारों की थोड़ी समीक्षा बाद में करूँगा . फिलवक्त मेरी कोशिश उन परिस्थितियों को देखना है ,जिसमे एक युवा स्वप्नदर्शी ,जिसे जीवन और जगत के जटिल सवाल निरंतर परेशान कर रहे हैं , किस तरह स्वयं के जीवन से जूझ रहा है . मटका गिर जाने पर उसका मालिक उसे खदेड़ता है . गनीमत हुई कि वह नहीं , उसका कपडा पकड़ में आया . यदि वह पकड़ में आ जाता तो मालिक उसकी पूजा नहीं करता ,ताड़ना ही देता . रोजमर्रे के जीवन में मक्खलि इन चीजों को देख रहा होगा . यह नियति ही तो थी कि वह नहीं पकड़ में आ सका . इसमें कर्मफल कहाँ था . कर्म तो वह कर रहा था . असावधानी तो स्वयं में एक नियति है . लेकिन लोग कर्म नहीं ,परिणाम देखते हैं . और परिणाम कर्म नहीं ,नियति तय कर रहे थे . इस पर भी यह ' सर्वहारा ' कवि -दार्शनिक नियतिवादी न हो ,तो यह आश्चर्य ही होगा . उसने अपने दर्शन की धुरी ही रखी - ' नत्थि पुरिसकारे ' मनुष्य के किये -दिए में कुछ नहीं है ,जो होना होगा ,वह होगा . इसे कोई रोक नहीं सकेगा . नियंता है ,तो नियति भी है . नियति प्रबल है . </div><div><br></div><div> मैं आजीवक -दर्शन की कोई प्रशंसा नहीं,व्याख्या कर रहा हूँ ,मैं मक्खलि पर बात कर रहा हूँ .और उन परिस्थितियों अथवा कारणों को देखना -समझना चाहता हूँ ,जिस से होकर मक्खलि को गुजरना पड़ा . वह इतना साधारण नहीं है कि हम उसकी उपेक्षा करें . भारतीय चिंतन परंपरा का वह एक अध्याय है . ' भगवती -सूत्र ' और ' सामज्ज फल सुत्त ' यदि उसकी इतनी विवेचना कर रहे हैं और मौर्य राजाओं ने भी आजीवकों के लिए कहते हैं वर्तमान जहानाबाद जिले के बराबर नामक जगह में कुछ गुफाएं बनाई थीं ,तब शायद इसीलिए कि उन्हें नकारा नहीं जा सकता था . आज भी उन्हें कोई नकार नहीं सकता . बाशम और बरुआ ने उन पर यूँ ही इतने परिश्रम से काम नहीं किया है . अभी कुछ दिनों पूर्व हमारे मित्र अश्विनीकुमार पंकज ने मक्खलि गोसाल को लेकर मगही जुबान में एक उपन्यास लिखा है -' खांटी किकटिया ' अर्थात विशुद्ध कीकट वाला . यह सब ज्ञान के एक नए और जरूरी आयाम की तलाश है .</div><div> </div><div>बुद्ध और महावीर दोनों से मक्खलि उम्र में बड़े थे .( बाशम के अनुसार उनकी मृत्यु 484 ईसापूर्व में हुई थी .) महावीर तो उनके सानिध्य में कुछ वर्षों तक रहे थे .प्रामाणिक तौर पर बुद्ध की उनसे कोई मुलाकात नहीं हुई ,लेकिन गोसाल के जीवन दर्शन से वह पूरी तरह परिचित थे . शायद गोसाल को छलाँगते हुए उस समाज में दर्शन की बात करना संभव ही नहीं था . बुद्ध और महावीर से मक्खलि कहाँ जुड़े हैं और कहाँ अलग हैं ? यह यक्ष -प्रश्न है . लेकिन इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि बुद्ध और महावीर के विचारों की दुदुम्भी बज रही है ,लेकिन मक्खलि के विचार विलुप्त क्यों और कैसे हो गए . इसका जवाब सहज भी है और मुश्किल भी . सहज इन अर्थों में कि हमें और कुछ नहीं ,केवल इस पर विमर्श करना चाहिए कि बौद्ध धर्म की भारत से विदाई क्यों हो गयी थी ? चीजें दो कारणों से ख़त्म होती हैं . पहला तो यह कि नए ज़माने की जरूरतों के अनुसार वह अनुपयोगी हो जाती है और दूसरा कि किसी कारणवश उसे बलपूर्वक बाहर कर दिया जाता है . समाज के वर्चस्व-प्राप्त तबकों को जो चीज अपने अनुकूल लगती है ,केवल उसे ही सहेज कर रखते हैं . जो चीज उनके विरुद्ध होती है उसे वह खदेड़ देते हैं ,वहिष्कृत कर देते हैं . बौद्ध -धर्म वर्चस्वप्राप्त तबके केलिए जब प्रतिकूल हुआ ,उसे वहिष्कृत कर दिया गया . आजीवकों के साथ भी कुछ यही हुआ . लेकिन उनकी कथा कुछ अधिक पेचीदा है . लेकिन इन्हे समझा जाना चाहिए . बुद्ध और महावीर राज -कुलों से थे , सर्वहारा परिवारों से नहीं . उनके सामने शीश झुकाने में न बिम्बिसार को झिझक होती ,न प्रसेनजित को ,और न ही वैशाली के लिच्छवियों को . यह बुद्ध का बड़प्पन था कि वह सामान्य से सामान्य लोगों के भी संपर्क में रहे . यदि वह प्रसेनजित के जेतवन में रहे ,तो चुन्द लुहार के यहां भी . केवट -कुम्हारों और बढ़ई- नाइयों के यहां रहने -खाने को उन्होंने प्राथमिकता दी . लेकिन राजाओं के शीश झुकाने से उन्हें जो प्रतिष्ठा मिली ,उसका अपना ही प्रभाव था . क्या यह प्रतिष्ठा मक्खलि गोसाल को मिल सकी ? उत्तर होगा ,नहीं . क्या वह प्रतिष्ठा जो बुद्ध ,महावीर को मिली ,उन्हें मिल सकती थी ? मेरा फिर उत्तर होगा ,नहीं . </div><div><br></div><div>और क्यों नहीं ? इसलिए नहीं कि बुद्ध और महावीर का दर्शन मक्खलि से अधिक उपयोगी और श्रेष्ठ था ,बल्कि इसलिए कि मक्खलि कुलीन और राज परिवार से नहीं आते थे . महावीर उनसे सीख ले सकते थे ,सान्निध्य में भी रह सकते थे ,लेकिन उन्हें तो इस तत्व -ज्ञान से अपने उस धर्म -दर्शन को संवारना था ,जो व्यवसायियों-पणियों को आध्यात्मिक -सुरक्षा देता था . ये व्यवसायी ही उन्हें तीर्थंकर बना सकते थे . बुद्ध को ऐसे धर्म -दर्शन की व्याख्या करनी थी ,जो बिम्बिसार ,अजातशत्रु ,प्रसेनजित से लेकर अंबपाली तक को आध्यात्मिक संबल देने वाली थी . कालांतर में अपने युग के सब से बड़े हत्यारे अशोक केलिए आध्यात्मिक कवच मुहैय्या करने वाली थी . ऐसे में किसी गाड़ीवान के गरीब बेटे के विचारों पर विचार करने की फुर्सत किसी को कैसे और क्यों मिल सकती थी . </div><div> </div><div>मक्खलि केवल तर्क तराशने वाले दार्शनिक नहीं थे . उनकी कमजोरी या विशेषता थी कि उन्होंने अपनी उस जनता का हमेशा ख्याल रखा , जिसके बीच से वह आये थे . उनके जीवन के अध्ययनकर्ताओं ने बतलाया है कि वह हलाहल नामक एक महिला के यहां रहते थे ,जो कुम्हारगिरि करती थीं अथवा कुम्हार परिवार से थीं . निश्चय ही उनके काम में हिस्सेदारी भी करते होंगे ,क्योंकि इसके बिना पर भोजन मिलना दुष्कर था . वह बुद्ध नहीं थे कि उनके स्वागत में अंबपाली पलक -पांवड़े बिछाए हों और बड़े -बड़े राजाओं के राजप्रासाद और व्यापारियों के आरामदायक विहार उनकी प्रतीक्षा कर रहे हों . उन्हें तो अपनी कमाई का खाना था . सच्चे अर्थों में वे श्रमण थे . घूम कर भिक्षाटन करना उनकी दृष्टि में श्रम नहीं ,उसका मजाक था .इसीलिए अंततः महावीर उनके पास से भाग निकले . राजकुमार सब कर सकता था ,लेकिन शारीरिक मिहनत कैसे कर सकता था . इन अंतर्विरोध -पूर्ण स्थितियों के बीच ही हमें बुद्ध ,महावीर और मक्खलि का तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिए . </div><div><br></div><div>मक्खलि के जीवन और विचार हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं कि वह अत्यधिक संवेदनशील अथवा भावनाजीवी थे . नियतिवादी होने का दंश यह भी था यथार्थ को उसके अंतर्विरोधों के साथ वह नहीं देखना - समझना चाहते थे . समय तेजी से बदल रहा था और उन्हें भरोसा था कि प्रकृति अपनी सुरक्षा केलिए स्वयं ही कुछ करेगी . यह कहाँ होने वाला था ! उनके समक्ष जनजातीय जीवन और उसके तमाम व्याकरण एक -एक कर ध्वस्त हों रहे थे . नृत्य ,गीत , पेय सब बदल रहे थे . सब कुछ राजमहलों और राजधानियों में सिमट रहा था .वह जीवन -पद्धति जिससे श्रमशील जनता ने एक लय -राग बना लिया था, हर स्तर पर कमजोर हों रही थीं . उसकी कड़ियाँ एक -एक कर टूट -बिखर रही थीं . उनके सामने जनसत्तात्मक जनपदीय व्यवस्थाएं विनष्ट हों रही थीं और राजतंत्र लगातार मजबूत होते जा रहे थे . कुछ ही समय पहले अंगदेश की स्वाधीनता और वहां की गणतंत्रात्मक व्यवस्था विनष्ट हुई थीं और देखते -देखते वज्जि -वैशाली भी विनष्ट किया जा चुका था . यह सब अतिभावुक, एक दार्शनिक -कवि के लिए ऐसा था कि कि वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे क्या करना चाहिए . नयी दुनिया के व्याकरण उसकी समझ के बाहर थे . उससे तालमेल बैठना उसके लिए मुश्किल था . उसकी जो वैचारिकता थी ,उसमे विभ्रम गढ़ने की बहुत गुंजायश नहीं थी . मोक्ष ,निर्वाण और पुनर्जन्म का विभ्रम गढ़ना उसके लिए अधिक मुश्किल था . ऐसी स्थिति में उसने अपना मानसिक संतुलन खो दिया . वह अपनी प्रिया-पत्नी हलाहल के घर में ही सिमट गए . एक हाथ में प्याला लिए हुए उन्होने निरंतर गान आरम्भ कर दिया . यह पीना और नाचना उनके लिए ही नहीं उनकी समस्त जनता केलिए शायद आखिरी था . कहते हैं , इस बीच उनके एक शिष्य -मित्र आयमपुल ने उनसे जब कुछ पूछना चाहा ,तब उन्होंने इतना ही कहा - " हे प्रिय ,वीणा बजाओ ,वीणा बजाओ ." शायद यही उनकी आखिरी दास्तान थी . नृत्य करते हुए ही उनकी मृत्यु हुई . गाते -गाते वह लुढ़क गए . यही उनकी नियति थीं . </div><div>भगवती -सूत्र के अनुसार अपने आखिरी समय में सूत्र रूप में ही उनने एक संक्षिप्त -सा घोषणापत्र जारी किया ,जिसके आठ बिंदु थे . हालांकि ये विक्षिप्तावस्था के ही उद्घोष हैं ,फिर भी इस पर गौर किया जाना चाहिए ,क्योंकि इससे तत्कालीन सामाजिक -राजनैतिक स्थितियों और उस पर एक बुद्धिजीवी, जो विक्षिप्त हो चुका है , की चिंता और मनोदशा की जानकारी मिलती है . ये आठ सूत्र इस प्रकार हैं - </div><div>1 . चरिमे पाने ( अंतिम पेय ) </div><div>2 . चरिमे गेये ( अंतिम गीत ) </div><div>3 . चरिमे नत्ते ( अंतिम नृत्य ) </div><div>4 . चरिमे अंजलिकम्मे (अंतिम अभिनन्दन ) </div><div>5 . चरिमे पक्खाल -समवाते महामेहे ( अंतिम प्रलयंकारी महामेघ )</div><div>6 . चरिमे सेयने गंध -हस्ती ( सुगंध का हाथियों द्वारा अंतिम छिड़काव ) </div><div>7 . चरिमे महाशिलाकार्त संगामे (बड़े पत्थरो का अंतिम युद्ध )</div><div>8 . चरिमे तीर्थंकर (अंतिम तीर्थंकर )</div><div><br></div><div>व्यथा में डूबे गोसाल कहते हैं - हमारा सब कुछ अंतिम या आखिरी है . आखिरी पीना ,आखिरी गीत , आखिरी नृत्य , आखिरी मिलना -जुलना -अभिनंदन . उनका पागलपन बढ़ जाता है . क्रम टूटता है और वह उस सर्वनाश को देखने लगते हैं ,जो उनके ख्यालों में उभर रहा है . पांचवीं कड़ी में उस प्रलयंकारी महामेघ को देखते हैं ,जो चारों तरफ से बढ़ता आ रहा है . छठी कड़ी में राजमहलों में हाथियों द्वारा अपने सूंढ़ों से सुगंध के छिड़काव की विलासिता भी देखते हैं और फिर सातवें पायदान पर पत्थरों से लड़े जाने वाले आखिरी युद्ध (महाशिलाकाते संगामे ) को भी . फिर अपनी कुंठा भी बलबला कर बाहर आती है . वह स्वयं को चरिमे अर्थात अंतिम तीर्थंकर घोषित कर जाते हैं . </div><div><br></div><div>बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की तरह गोसाल के ये अष्टांगिक उद्गार आज हमारे ज़माने में भी एक महाप्रश्न की तरह हमसे मुखातिब है . दुनिया हमेशा बदलती है . लेकिन जब महासंक्रमण होता है ,बड़े बदलाव होते हैं ,तो कुछ लोग इसे न समझ पाते हैं ,न ही इसे सम्भाल पाते हैं . अपेक्षाकृत ये ईमानदार और प्रतिबद्ध लोग होते हैं . इन्हे जिद्दी नहीं कहा जा सकता . आधुनिक -काल में औद्योगिक दुनिया के उत्कर्ष पर अनेक बुद्धिजीवी परेशां हो रहे थे . ऐसा प्रतीत हुआ नयी दुनिया में न मनुष्यता बचेगी ,न जीवन . अनेक दार्शनिकों ने अपनी तरह से इस पर विचार किया . मार्क्स ने बदलती परिस्थितियों की एक सुसंगत वैज्ञानिक समीक्षा की ,जो कम से कम डेढ़ सौ वर्षों तक प्रासंगिक बनी रही . गोसाल अपने समय की समीक्षा करने में विफल रहे . लेकिन उनकी चिंताएं जायज थीं . बुद्ध ने उन स्थितियों की व्याख्या अपनी तरह से की . कहा जाना चाहिए कि गोसाल की विफलताएं ही बुद्ध की सफलताएं हैं . लेकिन सच यह भी है कि गोसाल अधिक ईमानदार हैं . देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय की गोसाल पर की गयी टिप्पणी से मैं कुछ सहमत हूँ ,इसलिए सीधे -सीधे उन्हें ही उद्धृत करना बेहतर समझता हूँ - </div><div>" गोसाल मात्र एक भाट या चरण कवि नहीं था . वह एक भविष्यद्रष्टा और दार्शनिक भी था .वह विश्व के सम्बन्ध में कोई दृष्टिकोण बनाना चाहता था ,अर्थात वह संसार को समझना चाहता था ,जिसमे वह रह रहा था .यही परिस्थितियां थीं जो गोसाल केलिए घातक बंधन बन रही थीं और यही अनुभव बुद्ध ने भी किया .जनजातियों का ह्रास होते जाना या नवोदित राजसत्ताओं की भीषण शक्ति के हाथों इनका विनाश होना ऐसे विकट सामाजिक परिवर्तन थे जिनका औचित्य उस युग के महानतम चिंतक की समझ से भी बाहर था .इसलिए बुद्ध समझ गए कि इन घटनाओं के कारणों के संबंध में कोई प्रश्न उठाने के बजाए लोगों के तप्त ह्रदय को शांति दिलाना अच्छा होगा . यथार्थ से जूझने की बजाए किसी समुचित भ्रम का आश्रय लेना होगा . यही बात हमें बुद्ध की सफलता और गोसाल की विफलता को समझने में सहायक होती है . बुद्ध अपने युग का सर्वाधिक सुसंगत व्यामोह उतपन्न करने के कार्य में लग गए . जबकि गोसाल यथार्थ से जूझने और ऐतिहासिक बंधनों को तोड़ने के प्रयास करते रहे . वह अपने युग के सबसे बड़े ऐतिहासिक परिवर्तन अर्थात जनजातीय व्यवस्था के पतन और राजसत्ता द्वारा प्रदत्त नए मूल्यों के उदय को समझना चाहते थे . और वह इस कार्य में विफल हो गए . उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो संसार का सञ्चालन कोई बहुत बड़ी ,प्रचंड ,अथाह और अज्ञात शक्ति कर रही है जिसे हम नहीं जानते .यह शक्ति थी भाग्य . यही उनका नियति -दर्शन था . "</div><div><br></div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-10847014839774462252022-05-17T07:31:00.001-07:002022-05-17T07:32:15.348-07:00बनारस में लोकविद्या आंदोलन<div><br></div><div> √रामाज्ञा शशिधर</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-KUt3blmXBOM/YoOx3LERNyI/AAAAAAAADGs/0hfLz9iy8m8nYkgFZY7w8acMBfDDfcE1wCNcBGAsYHQ/s1600/1652797907733041-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://lh3.googleusercontent.com/-KUt3blmXBOM/YoOx3LERNyI/AAAAAAAADGs/0hfLz9iy8m8nYkgFZY7w8acMBfDDfcE1wCNcBGAsYHQ/s1600/1652797907733041-0.png" width="400">
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</div></div><div>बात काशी की है!अस्सी घाट की है।घाट दर घाट की है।</div><div> बात शास्त्र की नहीं,लोक की है।शास्त्रार्थ की नहीं,लोकार्थ की है।वाक की नहीं,जर्नी की है।सेल्फी की नहीं, सेल्फ की है।सीढ़ी की नहीं,साधना की है।गोबर पुजैया की नहीं,ज्ञान उपासना की है।</div><div> बात दर्शन अखाड़े की है।ज्ञान पंचायत की है।लोक विद्या आंदोलन की है यानी बात सतह, धूल और गाद के नीचे छुपे हुए मानव के श्रम रस की है, बनारस के ज्ञान रस की है।</div><div> बात अपनी है और उनकी है।बात जितनी पुरानी है उससे ज्यादा नई है।जितनी नई है उससे भी आगे चली गई है।बात वाद की है,विवाद की है तथा सबसे ज्यादा संवाद की है।</div><div> तो कुछ देर के लिए प्रिंटेड पोथी से मुंह मोड़िए।जैसे आधुनिकता से पूर्व और उत्तर दोनों वक्तों ने उसे अंगूठे पर रखा है,आप भी कुछ देर तर्जनी पर रखिए।लोक में घरिए।डिजीलोक में उतरिए।</div><div> लोक लोग से होता है।लोग जीवित ध्वनि और दृश्य से बनते हैं।तरंगों पर सवार ध्वनियों के संकेतक और दृश्यों के चलचित्र ही लोक के आधार थे,हैं और रहेंगे।वाचिक लोक से उत्तर वाचिक डिजिलोक तक।बीच में प्रिंट का पमपुआ घाट आया था,अब उसका सत्य हरिश्चंद हो गया है।लोक से उत्तर लोक तक सब वाचिक ही वाचिक है।मनु से आंबेडकर तक प्रिंट के मकड़जाल हैं।</div><div> लोक विद्या आंदोलन ढाई दशक से बुद्ध की जमीन से चल रहा है।वहां पोथी की हैसियत न्यून है;प्रिंट रुतबा हाशिए पर है; शासकीय ज्ञान के केंद्र का नाभिक लिजलिजा है;लाइब्रेरी,अनुसंधान, उपदेश,डिग्री और लिखा पढ़ी के तर्क लोक पर हुकूमत के सनातन पाखंड माने जाते हैं।</div><div> लोक विद्या आंदोलन में ज्ञान का सारांश लोकज्ञान है।लोकज्ञान ही मूल,तर्कशील और अनुभवजन्य ज्ञान है।वही समाज की गति का आधार है।</div><div> लोकज्ञान के ज्ञाता किसान हैं,शिल्पी हैं,कारीगर हैं,स्त्रियां हैं,आदिवासी हैं,लघु रोजगारी हैं।वे सब लोकज्ञान के तर्कशील वैज्ञानिक हैं,दार्शनिक हैं,रूपांतरकारी सामाजिक हैं,कलाविद हैं,शिल्प शिक्षक हैं।</div><div> लोकज्ञानी जानते हैं कि घाट उत्तर आधुनिक घुड़दौड़ के मैदान नहीं,सदा से स्थिर साधना के शांति स्थल रहे हैं।लोकज्ञानी जानते हैं कि शांति के घाट अब शोर के घाट हो रहे हैं;भाव के घाट अब दांव के घाट हो रहे हैं;विचार के घाट अब प्रचार प्रसार के घाट हो रहे हैं;मोक्ष घाट अब बाजार के गलघोंट घाट हो रहे हैं।</div><div> </div><div> लोकविद्या आंदोलन का लोक संवाद बनारस के घाटों पर बनारसी साड़ी की तरह फैल रहा है।अस्सी घाट पर ज्ञान पंचायत चल रही है।राजघाट पर दर्शन अखाड़े की आजमाइश है।बीच के घाटों पर कबीर के अनहद ज्ञान हैं,रैदास के बेगमी गान हैं, कीनाराम के अघोर तान हैं।हर ओर ज्ञान और तर्क की तरल लहरी है।</div><div> 1 मई को अस्सी घाट की ज्ञान पंचायत इसकी गवाह है।नगर भर से लोकविद्यामार्गी की जमघट लगी।ओझल गंगा और अपहरित असि के संगम पर।दिवस था मजूर का।याद थी भदैनी वाले नामवर सिंह की।एक प्रिंट का इलाज होना था-दूसरी परंपरा की खोज।</div><div> सुनिए!ज्ञान पंचायत में इस अघोर का अछोर क्या है!</div><div><br></div><div><br></div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-20926516975078832882022-05-17T06:42:00.001-07:002022-05-17T06:50:29.340-07:00नए बुद्ध के लिए नए सिद्धार्थ की जरूरत है<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-twqO_hlbfmM/YoOoIvtrEKI/AAAAAAAADGk/CNCw3_2YhNkpk8kx5i_xOOMb1rh275iHgCNcBGAsYHQ/s1600/1652795419588141-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div> √रामाज्ञा शशिधर</div><div> 【हरमन हेस के 'सिद्धार्थ' को पढ़ते हुए】</div><div> </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-IsUWjeLXtRQ/YoOmykQKKMI/AAAAAAAADGc/v6Wlk8Jj8TAlPZB51FC-45uVxFlLTGNegCNcBGAsYHQ/s1600/1652795079083854-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div></div><div><br></div><div>आज बुद्ध का लोकमान्य जन्मदिन है।मानव और मानवेतर अस्तित्व के अनुभव और कर्म का खास दिवस।प्रेम,करुणा,अहिंसा और विवेक के बोधिचित्त का संयुक्त जन्मोत्सव। मेरे लिए यह खास दिन है।</div><div> मेरी दृष्टि से बुद्ध होना कठिन है लेकिन सिद्धार्थ होना कठिनतर है।</div><div> बुद्ध कम ही होते हैं क्योंकि उनमें सिद्धार्थ होने की पात्रता नहीं होती या साधना नहीं होती।</div><div> आज सिद्धार्थ उपन्यास से एक बार फिर गुजर गया।बोधिचित्त की खोज में।</div><div> बात जर्मन उपन्यास 'सिद्धार्थ' की कर रहा हूँ।जेनुइन लेखक हरमन हेस द्वारा सिद्धार्थ 1922 में रचा गया।यह सिद्धार्थ उपन्यास के जन्म का सौंवा साल है।अब यह दुनिया की अनेक भाषाओं में उपलब्ध है।हर जगह मिलता है।इसपर मूवी भी बन चुकी है।</div><div> उत्कृष्ट लेखक हरमन हेस का उपन्यास सिद्धार्थ</div><div>दुनिया के अनेक पाठकों को जीवन जीने,समझने और करुणामयी होने की कला सिखाता रहता है।</div><div> उपन्यास सिद्धार्थ बुद्ध के समकालीन भारतीय समय को केंद्र में रखकर नए सिद्धार्थ की निर्मिति की समानांतर कथा है।यह उपन्यास हमें बताता है कि बुद्ध बुद्ध रटने से नहीं,सिद्धार्थ होने से स्वयं को और समाज को जीया,समझा और बदला जा सकता है।</div><div> इस उपन्यास का नायक सिद्धार्थ ऐसा नाविक है जो मानव जाति को दूसरे तट तक पहुंचाता है,पार उतारता है। आज जब घाट,नदी और नाव जलेबीदार पिकनिक स्पॉट हैं न कि मुक्ति,शांति,विपश्यना और पार उतराई के माध्यम तब सिद्धार्थ होने की जरूरत और बढ़ जाती है।</div><div> बुद्ध की मान्यता है कि नाव पार उतारने के लिए होती है,न कि रेत पर खींचने के लिए।आज बोट वोट है, बाजार है,धंधा है,विज्ञापन है और तटशोभा है।</div><div> आज भारतीय समाज में युवा पीढ़ी चौराहे पर किंकर्तव्य विमूढ़ है।सत्ता,बाजार और समाज तीनों ने उसे भटका दिया है।</div><div>वह सर्वध्वंश,आत्मसंशय,चित्त विघटन और स्वप्नहीनता की शिकार है।तब उसके लिए एक ही रास्ता है कि सिद्धार्थ की</div><div>तरह विपस्सना (विशेष ढंग से देखना)से उस नव मार्ग की खोज करे जो स्वचेतस और सृष्टि चेतस दोनों के लिए आशा का दीप बने।</div><div> मैं सिद्धार्थ से कुछ उद्धरण दे रहा हूँ।साथ ही जिज्ञासा,प्रश्न और ऊर्जा से भरी युवा पीढ़ी से अपील करता हूँ अगर जीवन निर्माण के लिए एक ही किताब पढ़नी हो तो सिद्धार्थ पढ़िए। </div><div> आप नए भारत का सिद्धार्थ बनिए।बुद्धत्व अपने आप मिल जाएगा।</div><div> बुद्ध ने कहा था-इस जगत में अंधकार ही अंधकार है।मैं ज्ञान की आग के कुछ टुकड़े फेंक रहा हूँ।जितनी दूर तक रोशनी फैले।</div><div> </div><div> आत्ममुग्ध सेल्फीप्रकाश के समांतर आत्मबोधि सेल्फप्रकाश के कुछ टुकड़े आपके लिए है।शायद आपके चित्त में कुछ सूर्यकण स्फोट ले और अंधेरे से संघर्ष करना शुरू कर दे। </div><div><br></div><div>●वह कोई साधारण ब्राह्मण ,पूजा - पाठ करने वाला कोई आलसी पुरोहित नहीं बनेगा ; न चमत्कारी करिश्मे दिखाने वाला कोई लालची व्यापारी ; न कोई खोखला , गाल बजाने वाला वक्ता ; न कोई छुद्र , धूर्त पुरोहित ; और न ही भेड़ों के झुण्ड की कोई भली - सी , मूढ़ भेड़ भी । </div><div><br></div><div>●उसको जितना मांझी सिखा सका उससे कहीं अधिक उसने नदी से सीखा । वह उससे लगातार सीखता रहा । सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु जो उसने उससे सीखी वह थी सुनना , शांत चित्त से एकाग्र होकर , प्रतीक्षा करते हुए , खुले मन से , बिना किसी आवेग के , बिना किसी इच्छा के , किसी तरह का निर्णय दिये बिना , बिना कोई धारणा बनाये । </div><div><br></div><div>●बहुत कोमल ध्वनि कर रही थी नदी , कई - कई स्वरों में गाती हुई । सिद्धार्थ ने पानी में झाँककर देखा , और बहते हुए जल में उसके सामने छवियाँ प्रकट हुईं : उसके पिता दिखायी दिये , अकेले , अपने पुत्र के लिए शोक करते हुए ; स्वयं वह दिखायी दिया , अकेला , वह अपने दूर जा चुके पुत्र की लालसा के बन्धन में बँधा जा रहा था ; उसका बेटा दिखायी दिया , वह भी अकेला था , बच्चा , अपनी युवा इच्छाओं के दहकते हुए मार्ग पर लालच से भागता हुआ , हरेक अपने लक्ष्य की ओर भाग रहा था , हरेक अपने लक्ष्य के प्रति आसक्त था , हरेक दुःख झेल रहा था । नदी दुःख भरे स्वर में गा रही थी , चाहत से भरकर वह गा रही थी , चाहत से भरकर वह अपने लक्ष्य की दिशा में बहे जा रही थी , शोकाकुल स्वर में वह गाये जा रही थी । </div><div><br></div><div>●प्रेम सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु प्रतीत होती है । संसार को आमूलचूल समझना , उसकी व्याख्या करना , उससे घृणा करना , यह महान चिन्तकों का काम हो सकता है । लेकिन मेरी रुचि तो केवल संसार को प्रेम करने योग्य बनने में है , उससे घृणा करने में नहीं है , उससे और स्वयं से दूर भागने में नहीं है , उसको और स्वयं को और समस्त सत्ताओं को अनुराग , सराहना और भरपूर सम्मान के भाव से देखने योग्य बनने में है ।</div><div> ★★</div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-31550595191406224422022-03-18T03:07:00.001-07:002022-03-21T07:08:53.411-07:00राष्ट्रकवि के गांव में रंगमंच के कलागुरु ज्ञानदेव <div>*रामाज्ञा शशिधर</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-1yIY-uJ5aOI/YjRZ6vPnqCI/AAAAAAAADFc/iO0oJ_6Pv20bo9CK1lKs1aPaxCADYg6FwCNcBGAsYHQ/s1600/1647598053836952-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><br></div><div>💐ग्रामीण कलाकार को श्रद्धांजलि💐</div><div>{ज्ञानदेव नहीं,कलादेव कहिए!}</div><div>~~~~~~~~~~~~~~~~~</div><div>वे अपनी काया और माया में ठेठ व देशज कलाकार थे।वे पारसी और ग्रामीण रंगमंच के मंजे हुए अदाकार थे।वे आजीवन श्रमिक,किसान,गरीब,पिता,ग्रामीण,आम आदमी आदि की करुण भूमिका में मंच से सामाजिक व मानवीय करुणा पैदा करते रहे।</div><div> मैंने उनके बेबस किरदार की दर्दीली आवाज़ पर सैकड़ों सिमरिया वासियों को रोते देखा है।मैं अक्सर उनकी किरदारी पर भावुक हो उठता था।</div><div> जब मैं सिमरिया या बेगूसराय में था,जब दिल्ली प्रवास में रहा और जब बनारस में हूँ,जिन कुछ ग्रामीणों से मेरी दिली डोर डायरेक्ट जुड़ी रही उनमें ज्ञानदेव शर्मा अव्वल रहे।</div><div> अक्सर गांव जाने पर भगवती स्थान या प्रकाश की चाय अड़ी पर उनसे घण्टों संवाद होता था।विषय चाय की राजनीति के उलट-सिर्फ नाटक,कला,सिमरिया का कला इतिहास,बॉलीवुड के स्वप्न।</div><div> वे दिनकर पुस्तकालय के आरंभिक सीरियस पाठक थे।1990 के दौर में मुझसे वे पॉपुलर नावेल पर चर्चा करते तथा पुस्तकालय से लेकर पढ़ते।</div><div> उनके अत्यंत प्रिय नाट्यकर्मी मित्र श्रीनिवास सिंह रहे।दोनों दिली रहे,नाटक में,कारखानों की नौकरी में,ज़िंदगी में।</div><div> वे नुक्कड़ नाटक की सड़क से चलकर फिल्मकार प्रकाश झा की सोहबत तक पहुंचे थे।उन्हें कसक रही कि उनकी गरीबी ने उनकी फिल्मी यात्रा को कांटों से घेर दिया।</div><div> सिमरिया को विभूति पैदा करने आता,सहेजने नहीं आता है।दिनकर पुस्तकालय में अलग से सिमरिया कला साहित्य रत्न सेक्शन होना चाहिए।जो समाज अपने रत्नों के दस्तावेज को जीवित बनाकर रखता,वही जीवित समाज होता है।</div><div><br></div><div> बनारस में लोग आज मसानी होली खेलते हैं।ज़िंदगी के परमसत्य का उत्सव मनाते हैं।'मसाने में खेले होली दिगम्बर!'सिमरिया कलास्थान भी है और महामसान भी।</div><div>ज्ञानदेव शर्मा जीवन भर कलास्थान के कलाकार रहे,अब महामसान के महामसानी हो गए हैं।शवमय नहीं,शिवमय!!ज्ञानदेव नहीं,कलादेव!!</div><div> सिर्फ चोला बदल गया है।वे राग,आग और राख में हमेशा बने रहेंगे।</div><div>मिट्टी के छंद से मिट्टी का सम्मान है--</div><div>💐</div><div>जब कलाकार मर गया, चांद रोने आया,</div><div>चांदनी मचलने लगी, कफन बन जाने को।</div><div>मलयानिल ने शव को कंधों पर उठा लिया,</div><div>वन ने भेजे चंदन श्री-खंड जलाने को।</div><div><br></div><div>सूरज बोला, वह बड़ा रोशनीवाला था</div><div>मैं भी ना जिसे भर सका कभी उजियाली से,</div><div>रंग दिया आदमी के भीतर की दुनिया को, </div><div>कलाकार ने निज नाटक की लाली से।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-l_TYajy57Ck/YjiG8RbhrtI/AAAAAAAADFo/32geJ3db9MIRuVz7rUXKQ9hEU-mM4yjGgCNcBGAsYHQ/s1600/1647871726516866-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div> </div><div> </div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-7792989367565689312022-02-22T04:06:00.001-08:002022-02-24T03:27:46.442-08:00मातृभाषा,संवेदना और कविता का भविष्य क्या है<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-pDpFsFjfrMs/YhTSNEW6PZI/AAAAAAAADE4/U65Y7lUILXA8Euw4ImnjC1IMhBoM6KYKwCNcBGAsYHQ/s1600/1645531685915369-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div>बहस के लिए</div><div> ★रामाज्ञा शशिधर के कीबोर्ड से*</div><div> वह अचानक मेरे कमरे में नई भाषा के झोंके की तरह आया।</div><div> हाथ में लकड़ी और पटसन के ताने बाने से बने स्मृति चिह्न भेंट करने के लिए।वह चिह्न एक प्रतीक था-बांग्ला देश की मातृभाषा का।आज भी हिंदी विभाग के मेरे कमरे में सलामत है।वह हिंदी एमए का छात्र था जो ढाका से काशी हिंदी साहित्य का मर्मी व कर्मी होने आया था।</div><div> वह उस दिन बांग्ला के बादल से मुझे हिंदी में भिंगा गया।</div><div> भाषा की उन बूंदों में पानी था,पसीना था,खून था,मांस के टुकड़े थे,चीखें थीं,नारे थे,सत्याग्रह थे,गोलियां थीं,सेना के बलात्कारी हमले थे,इतिहास के घाव थे। उन बूंदों में अँगूठी में घुस जाने वाला मलमल का थान था,कटे हुए अंगूठे थे,टूटे हुए करघे थे,घण्टियाँ थीं,बाढ़ की हिलसा थी।उन बूंदों में बाउल था,चंडी थे,विद्यापति थे,नजरूल थे,रविन्द्र थे,तस्लीमा थी,सलाम आज़ाद थे।उन बूंदों में दुनिया का अकेला एक राष्ट्र था जो लंबी लड़ाई और कुर्बानी के बाद मातृभाषा की कोख से पैदा हुआ था।</div><div> यह दुनिया जड़ों से कट गई है।लोकल और ग्लोबल के हाइब्रिड दायरे में कॉकटेल गिलास की तरह सज गई है।स्थानिक मातृभाषाओं की अस्मिता की रक्षा व्यक्तिवादी इच्छाओं और लालसाओं को सामुदायिक अचेतन की इच्छाओं में बदल कर ही की जा सकती है।</div><div><br></div><div> </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-SJWMYHsBY9A/Yhdrr5jOHgI/AAAAAAAADFU/EV0XoLJKIFQCTRd-bhM7cSJ_Sy58sodhQCNcBGAsYHQ/s1600/1645702061700131-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><br></div><div><br></div><div>क्या दुनिया में मातृभाषा बनी रहेगी?</div><div> मेरा जवाब है-हां।</div><div> आप पूछेंगे,क्यों?</div><div> इसलिए कि---</div><div> जब तक सेक्स और सृजन का आधार स्त्री है तब तक कोख की गतिविधि बनी रहेगी।शिशु के मशीनी उत्पादन से पहले तक।</div><div> शिशु सृजन व मातृत्व ही वह चित्त और वृत्त है जो परिवेश में लोकल भाषिक स्वरूप का गठन करेगा।</div><div><br></div><div> यहां दो बातें गौरतलब हैं-</div><div> एक,शिशु की चित्र से भाषा की यात्रा ही उसके बचपन की चेतना और व्यक्तित्व का गठन है।शिशु चेतना और शिशु व्यक्तित्व ही मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन का बीज है।इसलिए संवेदना के कारोबार के लिए</div><div>मातृभाषा का वजूद रहेगा।</div><div> दूसरी बात,चेतना की निर्मिति की यात्रा चित्र से भाषा की ओर है।यह नियम सीमित परिवार और व्यापक सभ्यता दोनों पर लागू होता है।चूंकि बुनियादी व स्थायी इमेज परिवार से अंकुरित होते हैं,इसलिए भाषा के केंद्र में मातृत्वमूलक परिवेश केंद्रीय भूमिका में है,रहेगा।</div><div> दुनिया में संवेदना की उम्र उतनी ही है,जितनी मातृभाषा की उम्र है।</div><div> मूलगामी संवेदना का गठन यौवन की सीखी भाषा या मशीनी लैंग्वेज से असम्भव है।</div><div> कृत्रिम बौद्धिकता वाली मशीन और सेरोगेसी से क्षणिक सम्बन्ध संवेदना के विरुद्ध है,इसलिए यह संवेदना की भाषा के विरुद्ध है।</div><div> मेरा मानना है कि मातृत्व और शिशु के नव सामुदायिक परिवेश की देशजता मातृभाषा में बड़ा बदलाव करेगी।इस तरह संवेदना के रूप बदलेंगे और क्षरित भी होंगे।क्षरण का कारण जितना कृत्रिम बौद्धिकता आश्रित रोबोटीकरण होगा,उतना ही पारिवारिक मातृत्व परिवेश का विघटन।</div><div> इस संदर्भ में मातृभाषा के सघन प्रायोगिक स्वरूप और संरचना के मद्देनजर कविता पर दो चार बातें कर लूं।</div><div> यह मार्क्स का कम डिकोड किया हुआ कथन है कि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के कथन को बार बार डिकोड किया जाए कि क्यों कविता वाणी का विधान है।</div><div> 1.इस सवाल का सही जवाब अक्सर चलताऊ होता है कि कविता मातृभाषा में ही सम्भव है।आखिर मातृभाषा में ही क्यों सम्भव है?इसका व्यापक उत्तर हिंदी में इसलिए नहीं है क्योंकि यहां भाषा विज्ञान मर्चरी का लावारिश चिंगुरा हुआ मुर्दा है तथा मनोविश्लेषण भाषा के लिए एपेंडिक्स।</div><div> 2.वस्तुतः मनुष्यता मनुष्य के चित्त का गहनतम भाव है। चित्त के अचेतन का निर्माण मातृत्व परिवेश से होता है,वह वाचिक यानी वाणी से हो सकता है।शिशु के मन का वाचिक संवेदनात्मक गठन ही उसके बाद के सृजन का बीज होता है।यही कारण है कि कविता में स्मृति के तत्व तरल रूप से विरचित होते हैं।</div><div> 3.कविता में मौजूद वासना और स्वप्न के तत्व भी शिशु संवेदना के बीज से बने वृक्ष,टहनी,पत्ती,फूल,पराग,फल और नए बीज हैं।मुझे लगता है कि सूर के उपहार वात्सल्य रस के नए सिरे से अध्ययन की जरूरत है।</div><div> 4.दुनिया की समस्त भाषाओं का आंतरिक ढांचा समरूप होता है। भाषा मानस की संज्ञानात्मक व्यवस्था है।चूंकि मातृभाषा भी भाषा है,इसलिए वह सार्वभौमिक स्तर पर समझी जाने वाली इकाई है।यही कारण है मातृभाषा में व्यक्त कविता सार्वभौमिक मनुष्यता की भाषा भी होती है।</div><div>5 जब तक मातृभाषा रहेगी,तबतक संवेदना रहेगी। संवेदना की उम्र के बराबर ही कविता की उम्र होगी।न केवल रचने की बल्कि समझने की उम्र भी एक जैसी होगी।</div><div> आज अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर आत्माराम सनातन कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय में मातृभाषाओं के कवियों के बीच मैं हिंदी कवि का प्रतिनिधि था।</div><div> सोचता हूँ कि खड़ी बोली नहीं,खड़ी वाली हिंदी की कविता क्या मातृभाषा की कविता है?मैं अपनी अनेक भाषिक व राग रूपों वाली कविताओं के पाठ से इस निष्कर्ष पर हूँ कि जितनी उनमें मातृत्व की भाषिक संवेदना घुली है वे उतनी ही मनुष्यता के करीब की कला हैं।</div><div> मुझे भरोसा है कि मातृभाषा,संवेदना और कविता तीनों सभ्यता के कठोर दमन से गुजरते हुए अपने अवशेष में जिंदा रहेंगी।</div><div> ■ ◆ ■</div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-60100119861279426282021-10-27T05:18:00.001-07:002021-10-27T05:19:58.649-07:00बनारस ने दी मारे गए किसानों को श्रद्धांजलि<div><br></div><div>【शहीद किसानों को अस्सी पर श्रद्धांजलि!】</div><div>किसान विरोधी तीन कानूनों के खिलाफ देश और प्रदेश में चल रहे किसान आंदोलन को कुचलने वाले हत्यारों के विरुद्ध बनारस की कल्लू की चाय अड़ी पर जन बुद्धिजीवियों ने गहरा शोक व्यक्त किया।</div><div> काशी के जन बुद्धिजीवियों ने देश के अन्नदाताओं के आंदोलन के समर्थन में देश की जनता से आह्वान किया कि वे अन्नदाता की मांगों को साथ दें ।</div><div> उन्होंने कहा कि गुलाम भारत में किसानों पर तरह तरह के अत्याचार होते थे,आज़ाद भारत में भी वही हाल है।गांधी के देश में सरकार और उसके लोग ही जब किसानों को कुचलने लगेंगे तब भारत का भविष्य अंधकारमय है।</div><div> उन्होंने मांग की कि तीनों कानून जल्द वापस लिये जाएं।</div><div> ----- --- -----</div><div>किसान भारत का दूसरा पक्ष</div><div> ------ ----- ----- ----</div><div> 【बधाई हो इंडिया!】</div><div>ग्लोबल भुखमरी इंडेक्स में भारत पीछे से 15वें स्थान पर आ गया है।इससे ज्यादा भूखे देश अब सर्फ बदनसीब अफ्रीका महादेश के कुछ देश हैं।यह है 7 वर्षों में सबका साथ,सबका विकास।80 करोड़ आधार नम्बरों वाला भारत दाढ़ीवाला झोले में बुलडोज किसानों के खून पसीने से उपजाए 5 केजी अन्न लेकर नई संसद बनने की प्रतीक्षा कर रहा है।यह है स्टार्ट अप इंडिया,स्टैंड अप इंडिया,रन अप इंडिया,न्यू इंडिया,स्किल इंडिया,स्वच्छ इंडिया,करप्शन फ्री इंडिया,आत्मनिर्भर इंडिया।दूसरे शब्दों में न्यू आइडिया ऑफ ओल्डेस्ट इंडिया।यहां हर कोई एक ही गीत गा रहा है-</div><div>थाली उतनी की उतनी है</div><div>रोटी हो गई छोटी</div><div>कहती बूढ़ी काकी</div><div>मेरे गांव की!</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-dOYoCvR8HKc/YXlDfnTXHYI/AAAAAAAADEM/6wUZ5KYx1bI-HIp-9fek8MNcKxyOGOSPwCLcBGAsYHQ/s1600/1635337084969504-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-21057345803861006922021-10-23T10:03:00.001-07:002021-10-23T10:03:14.964-07:00अब्दुल रज़ाक गुरनाह को मिले नोबेल में विस्थापितों का दर्द है<div><span ;=""><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-aBBi1syN8WI/YXRATxpqL7I/AAAAAAAADEE/N2UTGUsNapku7-RGp0wLPhv1zuvFW7qewCLcBGAsYHQ/s1600/1635008587654373-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://lh3.googleusercontent.com/-aBBi1syN8WI/YXRATxpqL7I/AAAAAAAADEE/N2UTGUsNapku7-RGp0wLPhv1zuvFW7qewCLcBGAsYHQ/s1600/1635008587654373-0.png" width="400">
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</div></span></div><span ;=""><div>©रामाज्ञा शशिधर के की बोर्ड से</div>【कभी कभी जेनुइन पुरस्कार!】</span><br>
<span ;="">बहुत अर्से बाद पुरस्कार की पृथ्वी घूम रही है।अनेक बार सजा पाने के बाद कभी कभी धरती के अभागों को भी सम्मान मिलता है।साहित्य के नोबेल की घोषणा हुई है। </span><br>
<span ;=""> </span><span ;="">यह तीसरी दुनिया के इतिहास और भविष्य पर ध्यान देने के लिए समुचित नुक्ता है कि उत्तर औपनिवेशिक साहित्य के प्रोफेसर और कथाकार अब्दुल रज़ाक़ गुरनाह को नोबेल पुरस्कार मिला है।</span><span ;=""> </span>
<br><br><span ;=""> फ्रांसीसी कॉलोनी द्वारा तबाह कर दिये गये अफ्रीका उपमहाद्वीप की शरणार्थी संस्कृति पुरस्कार के सर्चलाइट से केंद्र में आई है।यह पुरस्कार शरणार्थी नागरिक जीवन के सांस्कृतिक फोबिया से गढ़े गये आख्यान को मिला है।</span><br>
<span ;=""> सांस्कृतिक संकरण की यह नई लहर है।</span><br>
<span ;=""> </span><br>
<span ;=""> अब्दुल रज़ाक गुरनाह तंजानिया में 1948 में पैदा हुए और जंजीबार विद्रोह से बचने के लिए वे इंग्लैंड चले गए। युनिवर्सिटी ऑफ केंट (इंग्लैंड) में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे और उसी भाषा में लिखते रहे। अब्दुल रज़ाक के दस उपन्यास प्रकाशित हैं। उनके उपन्यासों के केंद्र में अफ्रीका का समुद्री किनारा है तथा उखड़े,तनहा, तबाह,विखंडित शरणार्थी जीवन की यात्रा भी।गुरनाह का लेखन अफ्रीका के उन बदनसीबों की कथा है जो मूल से टूट गए हैं,नई दुनिया से विच्छिन्न हैं,क्रोध,घृणा,अपराधबोध और अजनबियत की यातना से अपना यूटोपिया गढ़ रहे हैं।ये वे अभागे हैं जिनके लिए ग्राम,विश्वग्राम और इंस्टाग्राम में 'घर' का एहसास एक दुःस्वप्न है।</span><br>
<span ;=""> आज शरणार्थी जीवन विश्व का सबसे बड़ा ट्रामा है।दुनिया का नया यथार्थ शरणार्थी उपाघात से बन रहा है।गुरनाह का कथा साहित्य शरणार्थी जीवन पर हो रही बर्बरता, विवाद और विरोध का गहन लेखाजोखा है।</span><br>
<span ;=""> 1994 में अब्दुल गुरनाह का पैराडाइज उपन्यास बुकर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्टेड हुआ था।उनके उपन्यास मेमोरी ऑफ डिपार्चर,पिलग्रिम्स वे,द लास्ट गिफ्ट,ग्रेभ हार्ट,बाय द सी आदि शरणार्थी जीवन के आंसुओं के जहाज हैं जिनपर पृथ्वी के बदनसीब सवार अनिश्चित विश्व की ओर बढ़ रहे हैं।</span><br>
<span ;=""> यह पुरस्कार अफ्रीका और यूरोप के लिए मिरर स्टेज है। कुचल दी गई अस्मिताओं और आकांक्षाओं पर फेंकी गई नई रोशनी।एक सम्मान जो सिर्फ कसक की याद दिलाता है।</span>
<br><br><span ;=""> ब्रिटेन और अमरीका जब चौथा बूस्टर से सेफ हो रहा है तब अफ्रीका के शोषित दमित जनों की सिर्फ 3 फीसदी आबादी को कोविड वैक्सीन मिल पायी है।यह नई दुनिया है जिसकी किस्मत यूरोप ने 200 सालों में तय किया है।हमें गुरनाह के कथा साहित्य से तीसरी दुनिया पर नई बहस शुरू करनी चाहिए।</span><br>
<span ;=""> </span><br><!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_bodytext_211023_222843_448.sdocx-->रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-31576600899541897512021-09-15T07:02:00.001-07:002021-09-15T07:02:41.503-07:00हिंदी की दार्शनिक आलोचना और मैनेजर पांडेय<div><br></div><div>√रामाज्ञा शशिधर के की बोर्ड से</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-zUcBCO8ZbSs/YUH8_q6BKYI/AAAAAAAADDQ/bJyYqTbndnE28rt4VcEpcmzCVW_hc2FNQCLcBGAsYHQ/s1600/1631714556918679-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><br></div><div>{'दार्शनिक आलोचक' पर द्विदिवसीय विमर्श}</div><div>【80 के मैनेजर पांडेय पर अंतरराष्ट्रीय परिसंवाद】</div><div> ==============♀==============</div><div> √ कड़क आवाज़ और व्यंजक अंदाज़।नारियल की तरह बाहर से ठोस और अंदर से तरल।मैं भूल जाता हूँ तो उनका ही दूरभाष आ जाता-कैसे हो रामाज्ञा?हाल चाल तो ले लिया करो।</div><div> देश भर के मंचों पर अपनी जन व विटी शैली से दहाड़ने वाले आलोचक का बुढापा कोविड काल में भीषण तन्हाई का शिकार रहा।कहते हैं कि भाषा मनुष्य की जीवनी शक्ति है।मैनेजर पांडेय के लिए यह प्राणवायु है।</div><div> प्रो देवेंद्र चौबे सहित शिष्य व मित्र मंडल का यह निर्णय स्वागत योग्य है कि ज्ञान व दर्शन विरोधी वैश्विक समय में मैनेजर पांडेय के बहाने हिंदी आलोचना के विचारक-दार्शनिक स्वरूप पर बहस चलायी जाए।</div><div> दो दिनों के लंबे परिसंवाद में प्रिय आलोचक को चाहने व हिस्सेदारी लेने वालों की पंक्ति भी बहुत लंबी है।</div><div> पश्चिम में आलोचना और दर्शन का सम्बन्ध प्लेटो-अरस्तू से देरिदा-फ्रेडरिक जेमेसन तक सघन,मूलगामी और नवाचारमूलक है।पूरब में दर्शन से काव्य शास्त्र का आत्यंतिक,सघन और जीवंत सम्बन्ध अपेक्षाकृत कम मिलता है।संस्कृत और पालि में जहां दर्शन की समृद्ध परंपरा है वहीं संस्कृत काव्यशास्त्र के छह सिद्धांत ज्यादातर रचना के रूप पक्ष में ही उलझे हुए दिखते हैं।अंतर्वस्तु और विचारधारा के क्षेत्र में यहां सघन संघर्ष नहीं है।</div><div> हिंदी कविता के हजार साल में पूर्व औपनिवेशिक युग तक देसी कविता का कोई काव्यशास्त्र बनता ही नहीं है।संस्कृत के उधार के काव्यशास्त्र से आजतक विश्वविद्यालयी अध्यापक व आलोचक हिंदी की काव्य संरचना का कृत्रिम व अप्रासंगिक विश्लेषण विवेचन करते हैं।यह एक गहन वैचारिक आलोचकीय संकट रहा है।बौद्ध,जैन,शंकर,रामानुजाचार्य,रामानंद,बल्लभाचार्य,सूफीवाद आदि से निर्मित दर्शन धर्म-मिथक केंद्रित ज्यादा हैं वस्तुसत्ता को कम आधार प्रदान करते हैं।साथ ही इन दर्शन सरणियों का व्यवस्थित काव्यशास्त्रीय सिद्धांत नहीं बन पाया।</div><div> आधुनिक साहित्य काल जिसे मैं औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक समय कहना ज्यादा उचित समझता हूँ,हिंदी आलोचना का प्रथम गठन व निर्माण काल है।प्रथम आलोचक बालकृष्ण भट्ट से मैनेजर पांडेय तक की आलोचना यात्रा पर ध्यान दीजिए तो मुझे दो ही सघन व गहरे दार्शनिक आलोचक दिखते हैं जो भाषा,वस्तु और विचारधारा तीनों स्तरों पर आलोचना को दर्शन की बुनियाद पर सिरजते हैं।प्रथम आलोचक रामचन्द्र शुक्ल और दूसरे मैनेजर पांडेय।बीच में हजारी प्रसाद द्विवेदी,रामविलास शर्मा आदि आलोचना को दर्शन में बदलने का वैसा सघन आत्मसंघर्ष नहीं करते।हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा संस्कृति और समाज के तथ्यों व विन्यासों के आलोचक हैं।अलबत्ता रचनाकार आलोचकों में यह दार्शनिक विन्यास और संरचना का संघर्ष विचारणीय है।अज्ञेय,मुक्तिबोध,मलयज के साथ नामवर सिंह,विजयदेव नारायण शाही और नन्दकिशोर आचार्य जैसे आलोचक दर्शन की गहराई में उतरते हैं।इन आलोचकों का साहित्य सिद्धांत एक हद तक दार्शनिक आलोचना का निर्माण करता है जो हमारा पाथेय है।</div><div> मैनेजर पांडेय समाज और वस्तुसत्ता की ज़मीन पर पश्चिम और पूरब से दर्शन के सूत्र लेते हैं तथा रामचन्द्र शुक्ल की तरह सामाजिक-तथ्यात्मक डिटेल्स को रिड्यूस करते हुए रचना सत्य के सिद्धांत का सूत्रात्मक निर्माण करते हैं।वे इसके लिए हेगेल-मार्क्स तक ही नहीं रुकते बल्कि उत्तर मार्क्सवादी दर्शन व आलोचना सरणियों व रूपों का व्यापक अध्ययन मनन कर उसे हिंदी व भारतीय चित्त के अनुरूप ढालते हैं।वे पूर्ववर्ती भारतीय व हिंदी आलोचना के सार को भी अपनी आलोचना पद्धति में शामिल करते हैं।इस प्रक्रिया में वे 'सार सार को गहि लई थोथा देइ उड़ाय' की प्रक्रिया व रणनीति का उपयोग करते हैं।</div><div> एक बार मैंने नामवर सिंह से दिल्ली की एक गोष्ठी में सुना था कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास को इसलिए सिरहाने में रखता हूँ और हर रोज एक पृष्ठ पढ़ता हूँ ताकि मेरी आलोचना की भाषा उससे प्रेरणा ले सके।मुझे लगता है कि बीएचयू हिंदी स्कूल के छात्र मैनेजर पांडेय लगातार आचार्य शुक्ल की आलोचना पद्धति के अनुसरणकर्ता रहे।उनका शुक्ल की आलोचना के दार्शनिक आधार पर मौजूद आलेख इसका प्रमाण है।</div><div> गुरु के दर्शन प्रेम का एक संस्मरण सुनाना चाहता हूँ।</div><div>उन्हें मैंने एक आयोजन में बीएचयू बुलाया था।अस्सी की प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पुस्तक शॉप हार्मोनी दिखाने की इच्छा हुई।वे वहां गए और दर्शन की अनेक पुस्तकें खरीदीं।देरिदा की एक पुस्तक ली।मैंने भी देरिदा एक पुस्तक खरीद ली-स्पेक्टर्स ऑफ मार्क्स।उन्होंने गेस्ट हाउस में जब देखा तो खुश हुए और बोले-देरिदा की मेरी पुस्तक बदल लो।इसलिए कि इसमें मार्क्सवादियों की आलोचना है।मुझे भी पहली बार ज्ञान कांड का सुअवसर मिला।मैंने कहा कि मुझे यही पसंद है।दस बार दबाव बनाकर वह किताब उन्होंने ले ही ली।यह है उनकी दर्शन पिपासा।</div><div> नामवर सिंह की एक वाचिक पुस्तक में देरिदा पर लंबा व्याख्यान है।वहां प्रूफरीडर व सम्पादक ने उस किताब का नाम शोधित कर लिख दिया है-इंस्पेक्टर ऑफ मार्क्स।यूरोप से हिंदी में आकर मार्क्स भी इंस्पेक्टर हो जाए तो अनहोनी नहीं।मैनेजर पांडेय इस वाग्जाल व कूपमण्डूकता को तोड़ते हैं।</div><div> 80 के होने पर उन्हें स्वस्थ्य व सृजन के लिए शुभकामनाएं!वे सौ साल तक सक्रिय रहें।</div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-52186724309187790502021-09-15T06:36:00.001-07:002021-09-15T06:36:25.145-07:00अस्सी पर हिंदी के सिपाही लोलार्क द्विवेदी से मिलिए<div>√रामाज्ञा शशिधर के की बोर्ड से </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-R114TAxfPak/YUH21lcfhUI/AAAAAAAADDA/iIa3NIx0Vd4H_xPTMckKMSnjZNXbDn_kACLcBGAsYHQ/s1600/1631712981959147-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>{बनारस में हिंदी}</div><div>【हिंदी दिवस पर 'हिंदी गाथा' का लोकार्पण】</div><div> ★★★★★★★★★★★★★★</div><div>आज भीतरी और बाहरी गुलाम चेतना से लड़ने वाली हिंदी का स्मरण दिवस है।ठीक से याद कीजिए और कराइए।</div><div> कबीर से नज़ीर तक।ईस्ट इंडिया कम्पनी से से आज़ादी के बाद तक।बनारस हिंदी की सामान्य व विशेष निर्मिति का उत्पादन,प्रयोग व प्रतिनिधित्व स्थल रहा है।</div><div> स्त्री मुक्ति के लिए भारतेंदु का अभियान हो,ज्ञान निर्माण और स्वाधीनता संघर्ष के लिए नागरी प्रचारिणी सभा की विराट पहल हो,किसानों की कानूनी मुक्ति के लिए मालवीय जी का कचहरी में हिंदी प्रयोग का संघर्ष हो या आज़ाद भारत का बीएचयू से आरम्भ अंग्रेजी हटाओ आंदोलन।बनारस की हिंदी यात्रा की कहानी लंबी,गहरी और बहुआयामी है।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-LRd1DkIXq7E/YUH20RjcWyI/AAAAAAAADC8/rkMcdBipIvsdUePZua2T1bvDizFfp9IgwCLcBGAsYHQ/s1600/1631712977340899-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div> हिंदी के इन्हीं सिपाहियों में एक सिपाही का नाम है लोलार्क द्विवेदी।लोलार्क द्विवेदी अस्सी साहित्य मंच के अभिभावक हैं।वे अंग्रेजी हटाओ आंदोलन से आज तक लेखन,प्रकाशन,शब्द और कर्म से हिंदी के लिए डटे हैं।वे हमेशा अस्सी की सड़क पर</div><div>खड़ी बोली की तरह खड़े मिलते हैं।</div><div> लोलार्क द्विवेदी के सुविख्यात आर्य भाषा संस्थान प्रकाशन से आधुनिक खड़ी बोली हिंदी के जन्म और विकास पर एक दिलचस्प किताब छपी है-खड़ी बोली की विकास यात्रा।लेखक हैं हिंदी मर्मज्ञ व शोधकर्ता केशरी नारायण।यह किताब ईस्ट इंडिया कम्पनी व फोर्ट विलयम कॉलेज की हिंदी निर्मिति से लेकर हिंदी उर्दू विवाद और भारत सरकार की भाषा नीति तक अनेक पहलुओं को जन हिंदी की शैली में प्रस्तुत करती है।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-oI2U3uLpns8/YUH2zU-WfOI/AAAAAAAADC4/UbgYLwEO2GMPd-LLUwxr501RnPp1pzVpACLcBGAsYHQ/s1600/1631712972241408-2.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><br></div><div> अस्सी चौराहे की बच्चन सरदार की अड़ी पर इसका लोकार्पण हम लोग कर चुके हैं।आप यह किताब तो पढ़िए ही,जब भी अस्सी जाइए तो बाजार की महामारी से मुक्त होकर हिंदी के रीयल व सीमांत हीरो लोलार्क द्विवेदी से मिलिए।वे त्रिलोचन के अभिनव संस्करण लगते हैं।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-EubjHzoFI44/YUH2x0M4AjI/AAAAAAAADC0/KU8vb1BJ3xYBHeAF_Ar1x2sTbndemVWgQCLcBGAsYHQ/s1600/1631712966897742-3.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-35091647699293707252021-08-15T10:26:00.001-07:002021-08-15T10:26:21.692-07:00बीएचयू में आज़ादी की 75वीं याद का अर्थ <div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-nJjdQhqrsUE/YRlOOgJfQ2I/AAAAAAAADCk/URArCsGoojU-6yi3yztAz1hIIh_MydByACLcBGAsYHQ/s1600/1629048363537819-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://lh3.googleusercontent.com/-nJjdQhqrsUE/YRlOOgJfQ2I/AAAAAAAADCk/URArCsGoojU-6yi3yztAz1hIIh_MydByACLcBGAsYHQ/s1600/1629048363537819-0.png" width="400">
</a>
</div><br></div><div>रामाज्ञा शशिधर </div><div> कला संकाय,बीएचयू</div><div>@छात्र सलाहकार की कलम से</div></div><div> 🎊___________🎊_________________🎊 </div><div>√कला संकाय परिसर,उसके कुछ विभागों और छात्रावासों के आसमान में तिरंगा फहरा।सादगी और जज़्बे के साथ।</div><div>√पूरे लोकवृत में विरासत की गूंज और परिस्थिति की चुनौतियों के बिंब और शब्द आकार लेते रहे।</div><div>√संकाय प्रमुख प्रो वीबी सिंह ने वक्तव्य में कहा कि आजादी को मजबूती गांधी,मालवीय,नेहरू,पटेल,जेपी के आचरण और विचार से मिलती है।देश के सामने स्वाधीनता को याद रखने और संभालने की बड़ी चुनौती है।</div><div>√भोग संस्कृति के सेल्फी युग में कोरोना प्रोटोकॉल के बीच बिड़ला बी और लाल बहादुर शास्त्री छात्रावासों के</div><div>छात्रों शिक्षकों की सादगीपूर्ण रंगारंग तैयारी बीएचयू की परंपरा के अनुरूप थी।वे बधाई के पात्र हैं।</div><div> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-GQsTghAgj7c/YRlOKy_GnQI/AAAAAAAADCg/h5LO9LnjtaIzfDFwvebgo37XFx8KXkHuQCLcBGAsYHQ/s1600/1629048339711178-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div></div><div><br></div><div> {इसे आज़ादी के उत्सव का वर्तमान रंग कहिए }</div><div> ----------------------------------------------</div><div> [ स्वाधीनता:विरासत,वर्तमान और भविष्य ]</div><div>★स्मृतिध्वंश और स्मृति विखंडन के युग में बीएचयू जैसे सार्वजनिक शैक्षणिक संस्थान की देह और चेतना से निरंतर संवाद की जरूरत बढ़ गई है।इस संदर्भ में दो बातें जोर देकर याद रखने लायक हैं।</div><div> पहली,कहते हैं जब मालवीय जी ने ब्रिटिश वास्तुकार पैट्रिक गेडीज़ से बीएचयू के नक्शे पर बातचीत करते हुए सवाल किया कि शैक्षिक भवनों से केंद्रीय कार्यालय दूर और लघु क्यों है।तब गेडीज़ ने ऑक्सफोर्ड,कैम्ब्रिज के अनुभव से उत्तर दिया था कि जब प्रशासनिक कार्यालय शिक्षणालय के नजदीक आ जाता और उसका आकार बड़ा हो जाता तब</div><div>शिक्षा का स्वास्थ्य कमजोर हो जाता है।</div><div> दूसरी चीज।आज हर शिक्षक-छात्र को बीएचयू शिलान्यास 1916 के गांधी का ऐतिहासिक महान भाषण पढ़ना चाहिए।पढ़ना ही नहीं चिंतन,मनन,अभिव्यक्ति और आचरण में शामिल करना चाहिए।वह भाषण बीएचयू के चेहरे के लिए सबसे शानदार दर्पण है।विरासत से ज्यादा भविष्य का आईना।</div><div>★अनेक गांवों-किसानों को विस्थापित कर बीएचयू की काया सुर्खी,चूना,लखौरी ईंट के मेल से बनी ऐसी विरासत है जो भारत के अंधकार युग में 'शिक्षा की वास्तुशिल्पीय मशाल' की याद दिलाती है।बाजार की भूमण्डलवादी आंधी और सामाजिक विखंडन के कारण भारतीय ग्रामीण समाज गहरे संकट से गुजर रहा है।उसके पुनर्निर्माण का रास्ता खोजने की शोधपरक ज़िम्मेदारी बीएचयू जैसी सार्वजनिक संस्था की है।नई पीढ़ी को आज़ादी से एक प्रेरणा यह भी लेनी चाहिए कि करोड़ों कटे फटे चेहरों की मरम्मत के लिए गांधी की तर्ज पर नया हिन्द स्वराज्य जैसा शोधपरक ज्ञान कैसे पैदा होगा।</div><div>★मशीनी और वित्तीय क्रूर पूँजीवाद जब हर नागरिक की देह और चेतना को यंत्र के पुर्जे में बदल देने में सफल है तब संस्थान को 'तर्कशील दार्शनिक गुरु ज्ञान' और 'गार्बेज कुकीज सूचनात्मक गूगल गुरु स्टोरेज' के फर्क को केंद्र में रखकर शिक्षा के क्षेत्र में परंपरा और नवाचार का नया मॉडल देना होगा।हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध 'मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है ' से सीख लेते हुए तय करना होगा कि 'शिक्षा का लक्ष्य माल उत्पादन नहीं, मनुष्य निर्माण है'।</div><div>★ देशभक्ति,बलिदान,विचार निर्माण,दर्शन-विज्ञान-संस्कृति का पुनर्गठन,साहित्य-कला-विचार का जन उत्पादन जैसे दर्जनों कार्य इसके फलसफे पर अंकित हैं। संस्थान को 'सतरंगे फूलों' और' इंद्रधनुषी रंगों' की तरह विविध विचारों,विमर्शों,शोधकर्मों का उच्च-उदार केंद्र बनाए रखना होगा।</div><div> निःसन्देह छात्र पीढ़ी की ज़िम्मेदारी स्वयं और राष्ट्र के निर्माण की ज्यादा है।उन्हें अपने भविष्य के लिए नए सपनों,नए पंखों और नई ज़िम्मेदारियों की जरूरत है।</div><div><br></div><div> बीएचयू भारतीय समाज में एक प्रकाश स्तम्भ की तरह है।यह करोड़ों आम जन की पाई पाई से बना है।देश में आम आदमी के बच्चे यहां सस्ती सार्वजनिक शिक्षा पाते रहें,इसकी गारंटी की जिम्मेदारी जितनी शासन सरकार की है,उससे ज़्यादा कामन मैन की संतानों की है।स्वाधीनता के घड़े से निकले इन्हीं तत्वों के मेल को अमृत कहते हैं।समता के मटके में स्वतंत्रता का आनंद अमृत पिया जा सकता है।बिना विविधता और समानता के स्वतंत्रता अमृत के नाम पर मृत तत्व है। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-qHTfn9Tsrkw/YRlOE9M3ejI/AAAAAAAADCc/8ta1DRClA2IOwSHX-bLAunz0taeGXDjuACLcBGAsYHQ/s1600/1629048325168830-2.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div> </div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-56448257007884775992021-06-10T04:26:00.001-07:002021-06-10T04:54:34.930-07:00सीमांत कवि 'शक्र' पर बहस क्यों जरूरी है<div>/रामाज्ञा शशिधर/</div><div> ★★★</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-aXR651QLk0o/YMH2_nqhKEI/AAAAAAAADBs/T7vTJpRRoAwxZ7sHj4sq7yKo6_f76-OvwCLcBGAsYHQ/s1600/1623324406009936-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div></div><div> [2 फरबरी 1911-10 जून 1988 ]</div><div> शक्र दलित उपेक्षित के जरूरी किंतु लगभग लापता स्वर हैं।वे औपनिवेशिक ग्रामीण भारत की क्षतिग्रस्त संस्कृति और चेतना के भुक्तभोगी रचनाकार हैं।वे ब्रिटिश शासन के देसी और विदेशी दोनों आधारों को चुनौती देनेवाले सीमांत राग हैं।उनका मूल्यांकन होना अभी बाकी है।स्मृति नाश की राजनीति और संस्कृति के जख्मी माहौल में शक्र की कविता देहाती श्रमशील समाज के भिन्न भिन्न स्तरों का जायजा लेती हुई लम्बी यात्रा करती है।</div><div> वे सिर्फ कवि नहीं बल्कि मजदूर, एक्टिविस्ट,सम्पादक,शिक्षक और सामंती-व्यापारिक दमन के भोक्ता-द्रष्टा शिल्पी भी हैं।</div><div> गंगा में घास से लेकर लाश तक ढोता हुआ कितना पानी गुज़र गया लेकिन जनता के सच्चे कवि का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है।</div><div> बिहार के सामाजिक न्याय के भोंपुओं और संस्कृति उत्सव के घन्टा घड़ियालों के समानांतर मृदंग की थाप से शक्र की कविता खुलेगी।मृदंगिया की खोज जारी है।</div><div> लंबे प्रयास के बाद वे जन्मभूमि रूपनगर चौराहे पर मूर्तिमंत हो चुके हैं।फूल भी चढ़ रहे हैं और स्वर भी बन रहे हैं।दिनकर-शक्र का यह उर्वर क्षेत्र इलाके में नेता से ज्यादा कवि पैदा कर रहा है।कवियों का झुंड जब सिमरिया की धरती पर सप्तम स्वर उठाता है तब राजनीति हांफने लगती है।कविता के खेत में अगर कविता की फसलें उगती रहीं तो जरूर एक दिन शक्र पुरखे किसान की तरह नई पीढ़ी को राह दिखाएंगे।</div><div> 33वीं निधन तिथि पर मैं अपने ग्रामीण जनकवि को सेल्यूट करता हूँ।</div><div> प्रस्तुत है रामावतार यादव शक्र की एक चर्चित कविता।</div><div> {एक घूंट}</div><div>कहा किसी ने नहीं आज तक,</div><div>क्यों इतना निष्ठुर संसार।</div><div>बढ़ता हूँ ज्यों-ज्यों आगे,</div><div>पथ में मिलते हैं बटमार।</div><div>वर्तमान को छोड़ विकल मैं</div><div>जाता हूँ विस्मृति-जग में।</div><div>आह! विन्दु के ही वियोग में</div><div>सूख रहा सागर लाचार।</div><div><br></div><div>जीवन में अतृप्त तृष्णा ले</div><div>बना हुआ मैं दीवाना।</div><div>पढ़ पाया मैं नहीं आज तक</div><div>अपना अनमिल अफसाना।</div><div>एक घूँट के लिए तरसता,</div><div>शान्ति-सलिल का पता नहीं।</div><div>भटकेगा जग मुझे खोजने,</div><div>जब होगा मेरा जाना।</div><div>-1933 ई.</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-SMzjfIj27R8/YMH29KLoslI/AAAAAAAADBo/PULO9FLEmuY5ZDC_akcgIyd7gckIzuqwwCLcBGAsYHQ/s1600/1623324398324711-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-28567466518300721772021-06-02T01:22:00.001-07:002021-06-02T01:22:44.624-07:00काशी में मछली भोज<div>रामाज्ञा शशिधर :मेरी डायरी के पन्नो से पुरानी थाती</div><div>#काशी में माछ रोटी #</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-8MTERsKKDBk/YLc_0eKK8fI/AAAAAAAADA8/C8yqr4ELPcEVhSFgJD5mQUeMiMns6gh_QCLcBGAsYHQ/s1600/1622622156288383-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>काशी के दशाश्वमेध घाट पर जब परमहंस का प्रिय प्रसाद,</div><div>विवेकानन्द का परमप्रिय व्यंजन और</div><div>बाबा नागार्जुन की सुस्वादू तरकारी</div><div>से मुलाकात हुई तो मेरे लिए काशी</div><div>और हिन्दू तत्व का दूसरा द्वार खुला।</div><div>बड़े प्रेम से इचना उर्फ़ झींगा उर्फ़ प्रांस उर्फ़ चेम्मिन को बंगाली शैली</div><div>में बनाया। न्यौता तो कइयों को दिया</div><div>लेकिन पास सिर्फ चौबे महाराज हुए।</div><div>मक्के की रोटी के साथ नारियल पेस्ट</div><div>वाले माछ खाकर चौबे बाबा 24 घंटे</div><div>सोए रह गए। बोले ऐसा नशा तो कभी</div><div>आया ही नहीं। बेचारे तिवारी जी,</div><div>उपाध्याय जी,पांडे जी लोकलाज के</div><div>फेर में पानी फल से वंचित रह गए।</div><div>जब से उन्हें यह पता चला है कि विवेका</div><div>नन्द के अंतरराष्ट्रीय दिमाग में माछ</div><div>का बड़ा योगदान था वे अपनी खोपड़ी</div><div>से बेहद खफा हैं। अगली बार मैं 10</div><div>शैलियों में अपनी चिर परिचित दूसरी </div><div>पाक शैली अर्थात मैथिल झोर शैली का प्रयोग</div><div>करूंगा। आप भी कंठी तोड़कर आ जाइए।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-v1NVfDFjSfI/YLc_yQtMJeI/AAAAAAAADA4/umddWF-UkUkjuWPvQNF3k2sVWESG-yp3QCLcBGAsYHQ/s1600/1622622151711839-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-67955761232256058122021-06-02T00:56:00.001-07:002022-02-23T03:34:47.085-08:00रामाज्ञा शशिधर की डायरी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-CEIgj_IG_EU/YLc5tmfCRcI/AAAAAAAADAw/F4EWwNCf7A8_naShew6aq3XtP-hWBqLwwCLcBGAsYHQ/s1600/1622620590267708-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><div><br></div><div>{कोविड समय}</div><div>कठिन समय के दो साथी हैं:1.प्रकृति 2.किताबें</div><div> ऑनलाइन कक्षाएं ब्लैक होल की तरह लगती हैं।जहां बातचीत का कोई सिरा ही नहीं मिलता।</div><div>आप पूछेंगे कि कॉफी-चाय रेस्त<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-QNnyIqBV0go/YhYb02bbD3I/AAAAAAAADFE/ReOzJfubRGUEVuEpBXtTQUbk6fpay6-AQCNcBGAsYHQ/s1600/1645616078431549-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-ctYXFELZ6lw/YhYbytK6CVI/AAAAAAAADFA/2xwrc5-vS2w5VCm4h67ODlhxXTTpvpikACNcBGAsYHQ/s1600/1645616068598501-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div>रां से दूर डायलॉग किस्से करता हूँ तो:</div><div>-दोस्त की तरह संवादी 1.गौरैया,बगेड़ी,मोर,कोयल,टिटहरी,काठखोदवा</div><div>2.छितवन,बादाम,गुलमोहर,बेल,जामुन,कटहल,आम,आंवला(ओह!पारिजात विपत्ति में सूख गया है!)</div><div>3.बुद्ध,कबीर,फ्रायड,मार्क्स,गांधी,नेहरू,दिनकर</div><div>4.व्हिटमैन,ब्रेख्त,मार्खेज, महमूद दरवेश</div><div>5.ग्रीन टी,वेनेगर,क्वाथ,गिलोय,सत्तू,सलाद और गरम पानी</div><div>6.मिट्टी,आकाश,सूर्य,चांद, सितारे और अंधकार</div><div>7.जो गुज़र गए या संघर्षरत</div><div> इंतज़ार फेसबुक पर नई अनहोनी का रहता है और जनता के इंकलाब का।</div><div> फेसबुक खोलते ही लगता है कि श्रद्धांजलि ही सरोकार है।</div><div> /ज़िंदगी इतनी सी है/</div><div> ∆रामाज्ञा शशिधर</div><div>@दिनकर लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर,वाराणसी</div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-54523896739180378012021-05-28T22:36:00.001-07:002021-05-28T22:56:54.129-07:00मदन कश्यप पूरावक्ती प्रतिबद्ध कवि हैं।<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-H_RKUeGmYwE/YLHSxVTy5yI/AAAAAAAADAc/RB7S1vr1ThUWaq8i89a1uLcRpt4ct-cVgCLcBGAsYHQ/s1600/1622266562036464-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div></div><div><br></div><div>[आज 29 मई को मदन कश्यप के 67वें जन्मदिन पर विशेष]</div><div>===============================</div><div>"वे जब भी मिलते हैं,पूर्णचन्द्र की शीतल और विकसित</div><div>मुस्कान के साथ मिलते हैं।वे जब भी कहते हैं भादो की गहरी नदी के निचले तल से आती हुई आवाज़ से कहते हैं।वे जब भी सुनते हैं तो हिरन की तरह चौकन्ने होकर सत्ता से आती हुई खड़क को सुनते हैं।वे जब भी होते हैं तो हरेक के साथ पूरे होते हैं।हां, कई बार वे जैसा दिखते उससे ज्यादा अदृश्य होते हैं।"</div><div> मदन कश्यप मेरे लिए इतने निजी हैं कि बहुत कुछ कहना सुनना लंबा चल सकता है।उन्हें सुनकर पढ़कर बड़ा हुआ हूँ।वे</div><div>जितने बिहारी हैं,उतने ही बनारसी और उतने ही डेहलाइट।वे जितने इंकलाबी हैं उतने ही पारिवारिक।अब तो उनका एक घर बनारस भी है।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-64rxQdIxTfw/YLHSv0JIxPI/AAAAAAAADAY/auk_ePEakUIsiCk9D2Y3oCBVCqAiDnYaACLcBGAsYHQ/s1600/1622266551434999-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><br></div><div> मदन जी इतने संवेदनशील इंसान हैं कि कोविड काल में अपने खोए हुए लेखक साथियों,बौद्धिकों,लोगों से हिल गए हैं।भीतर से टूट गए हैं।बाजार,व्यापार और सरकार को कामधेनु समझने वाली,दूहने वाली और गटकनेवाली बौद्धिकता से वे बहुत अलग हैं।लेकिन वे घिरे हुए भी हैं।यह एक प्रतिबद्ध कवि की मुश्किल है।</div><div> मदन कश्यप जीवन भर लिखते रहे।उनसे ज्यादा उनकी बात बोलती रही।कभी कविता में,कभी पत्रकारिता में,कभी संगठनों में,कभी डैश पोडियम पर,कभी चौराहों पर।इंकलाब आए न आए मुट्ठी तनी रही।लेखक के लिए सरकारी नौकरी छोड़ना बिहारियों का साहस है।तीन नाम तुरत याद आ रहे हैं-ज्ञानेन्द्रपति,मदन कश्यप और अरुण प्रकाश।नख कटाकर शहीद होने वाले बड़बोले लेखकों के बीच यह सच्चे जोखिम की हिम्मत है।</div><div> लगभग आधा दर्जन काव्य संकलन है।गद्य इतना लिखा है कि कई संग्रह हो।भाषणों,रपटों,साक्षत्कारों के अनेक संकलन हो सकते हैं।नामवर जी के साथ दूरदर्शन पर </div><div>चलाए पुस्तक विवेचन अभियान की सामग्री भी काफी होगी।मदन कश्यप शर्मीले,धीमे और चूजी हैं।आमिर खान की तरह परफेक्टनिष्ट!</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-JuGfZcc5v8w/YLHStEKPEUI/AAAAAAAADAU/6-Uz7kFvGtQhg6IDmBZK8OQuRJGFUMYaQCLcBGAsYHQ/s1600/1622266541179314-2.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://lh3.googleusercontent.com/-JuGfZcc5v8w/YLHStEKPEUI/AAAAAAAADAU/6-Uz7kFvGtQhg6IDmBZK8OQuRJGFUMYaQCLcBGAsYHQ/s1600/1622266541179314-2.png" width="400">
</a>
</div><br></div><div> मदन जी साहित्य प्रकाशन जगत के ऐसे रणनीतिकार हैं जिनके कारण हिंदी में कई प्रकाशक लेखक जम गए।यह सच है कि मिशन और स्पर्धा की राह पर चलते हुए कई बार वे जेनुइन के साथ कूड़े कचरे के भी ब्रांड एंबेसडर बन जाते हैं।यह युगीन संकट है।</div><div> मदन जी से बड़ा सहज और मिलनसार व्यक्ति हिंदी में कम ही दिखता है।बीएचयू परिसर में दिनकर लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर,वाराणसी का उद्घाटन उनके हाथों हुआ है।पेड़ के नीचे बैठकर वे समारोह में मुख्य वक्तव्य देने की</div><div>मार्क्सीय जनतांत्रिकता रखते हैं!</div><div> हिंदी साहित्य के ऐसे पीढ़ी निर्माता योद्धा लेखक को जन्मदिन पर सौ साल बोधिवृक्ष बने रहने की शुभकामनाएं!</div><div>-----------</div><div>मदन कश्यप की कविता:रीढ़ की हड्डियां</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-Kyxu96XyVEk/YLHSqea5E6I/AAAAAAAADAQ/yRazq_AQvwkFg3otT_xKUtQd4sH2HeYwACLcBGAsYHQ/s1600/1622266529023049-3.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div></div><div><br></div><div>रीढ़ की हड्डियाँ</div><div>मानकों की तरह होती हैं</div><div>टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी फिर भी जुड़ी हुई</div><div>ताकि हम तन और झुक सकें</div><div><br></div><div>यह तो दिमाग को तय करना होता है</div><div>कि कहाँ तनना है कहाँ झुकना है</div><div><br></div><div>मैं एक बच्चे के सामने झुकना चाहता हूँ</div><div>कि प्यार की ऊँचाई नाप सकूँ</div><div>और तानाशाह के आगे तनना चाहता हूँ</div><div>ताकि ऊँचाई के बौनेपन को महसूस कर सकूँ !</div><div> ©रामाज्ञा शशिधर,बनारस</div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-4992943109984952982021-05-27T03:00:00.001-07:002021-05-27T03:00:20.283-07:00नेहरू की भारत माता यहां कैद हैं<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-Gnly9su4FVM/YK9trjPdIqI/AAAAAAAAC_w/9EtuyNY-44oWjmQ46yFk6ddCQNdm9ytkACLcBGAsYHQ/s1600/1622109596113512-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div></div><div>{निधन दिवस,27 मई}</div><div> ==========♀==========</div><div> ©रामाज्ञा शशिधर,बनारस</div><div> ★</div><div> आज भारतीय गणतंत्र के सर्वश्रेष्ठ शिल्पकार जवाहरलाल नेहरू की निधन तिथि है।</div><div> स्वाधीनता संग्राम के सच्चे लड़ाकों की 'विविधवर्णी कल्पनाशीलता' से भारतीय गणतंत्र और जनतंत्र की नींव रखनेवाले नेहरू ने 1947 से 1964 के बीच जिस 'आइडिया ऑफ इंडिया' की स्थापना की,आज उसके स्तम्भों को क्रोनी पूंजी के कट्टर दीमक या तो खोखला कर रहे हैं या बाजार में कौड़ी के मोल बेच रहे हैं।</div><div> अंग्रेजी की सामग्री से अलग राष्ट्रकवि दिनकर की पुस्तक 'लोकदेव नेहरू' और आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल की संपादित पुस्तक 'भारत माता कौन हैं' हर युवा को पढ़नी चाहिए।</div><div> दिनकर लाइब्रेरी रिसर्च सेंटर,वाराणसी से भी बनारस के युवा इन पुस्तकों को हासिल कर पढ़ सकते हैं।</div><div> बात बात पर जेपी को 'लोकनायक' कहने वाले भूल जाते हैं कि विनोबा भावे ने जयप्रकाश नारायण को दिए संबोधन से पहले नेहरू को सोच समझकर 'लोकदेव' कहा था।</div><div> आजकल कट्टर,क्रूर और पाखंडी शासक को 'परलोक देव' बनाने की संघी मुहिम के समांतर नेहरू के 'लोक देव' वाली छवि पर नई बहस की जरूरत है।</div><div> कहना न होगा कि दिनकर ने सत्ता,समाज,इतिहास और राजनीति के कड़े आलोचक होते हुए नेहरू की निर्मम समीक्षा की है।उसके बावजूद वे उनकी नजर में लोकतांत्रिक भारत के ठोस निर्माता थे।</div><div> एक दशक से हवाट्सप यूनिवर्सिटी के माध्यम से 'गोबरग्रस्त सामूहिक दिमाग' निर्माण के लिए एकसूत्री कुतर्क व चरित्रहनन अभियान चल रहा है जिसमें नेहरू खानदान की जितनी खुदाई हुई है उतनी खुदाई अगर कट्टर व कुतर्क सेवक हिन्दू सभ्यता की कर लेते तो उसका सचमुच उद्धार हो गया होता।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-DXqg3Tb1ALo/YK9tlE2pHhI/AAAAAAAAC_s/-jJ7hWnB7fUAL0acidKizc4Zfhd6ydkEQCLcBGAsYHQ/s1600/1622109575109508-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div> सबसे ज्यादा वैचारिक धुंध भारतीय गणतंत्र को मटियामेट करने के लिए फैलाया गया है।</div><div> आज भारत माता कौन है -का उत्तर नई पीढ़ी के पास मुश्किल से मिल सकता है।</div><div> झंडों,डंडों,नारों,गलियों,तालियों,हत्याओं,दंगों,चुनावों,</div><div>ट्रोलों,अम्बानियों,नादानियों,युद्धों,हथियारों में भारतीय राष्ट्र की खोज करने वाले दिमाग 'गोदी मीडिया' के दिग्भर्मित व स्मृतिविहीन क्राफ्ट हैं जिन्हें अपने निकट अतीत से काटकर सुदूर पुराण युग में फेंक दिया गया है।</div><div> ऐसे समय में नेहरू और उनकी भारत माता की खोज से हम ज्ञान की उस दुनिया में प्रवेश कर सकते हैं जहां गणतंत्र के ढहते अवशेष को बचाया जा सके।इतना ही नहीं,अब तो नए सिरे से कोशिश करनी होगी कि बिखरते हुए जनतंत्र का ठोस नवनिर्माण कैसे हो।</div><div> आधुनिक भारत के सच्चे निर्माता,भारतीय आत्मा के इतिहासकार,स्वाधीनता सेनानी और विख्यात स्कॉलर को 135 करोड़ जन की ओर से निधन तिथि पर राष्ट्रीय श्रद्धाजंलि!</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-ZQ5OsdchgDs/YK9tgwPaPkI/AAAAAAAAC_o/A8Wob2I9ZCQ5N4sVa4fnP25TgpX97BwYACLcBGAsYHQ/s1600/1622109548208926-2.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-64765432350591589972021-05-21T19:57:00.001-07:002021-05-22T08:50:01.913-07:00खजूर के पत्तों से ढंका मेरा बचपन<div>"◆रामाज्ञा शशिधर,सिमरिया</div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-LCMTKkJwemE/YKhzBuwNIYI/AAAAAAAAC_Q/PxXY1fStJP8G-OaF4peXMifKpVmrPMuEgCLcBGAsYHQ/s1600/1621652207469029-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>याद आ रहा है खजूर रस जैसा मेरा बचपन!गढ़हरा गांव का देहात।बागीचे और खेत से घिरा बुआ शकुन देवी का घर।सब लोग उसे सिमरिया में सकुनमा कहते थे।मेरे बाबू तीन भाई और दो बहने।मैं उन्हें दीदी कहता था।मेरा जन्म मरौछ होने के कारण वहीं हुआ।माय बताती है कि सांझ का वक्त!सूरज डूब रहा था।लगभग अंतिम किरण खत्म हो रही थी।पूस की हड्डी हिलाने लानेवाली ठंडक।पहला पख का दूसरा दिन यानी कृष्ण पक्ष द्वितीया।कुल मिलाकर यही मेरा पंचांग; यही मेरा बर्थ सर्टिफिकेट था।जुबानी जंग यानी स्मृति श्रुति का जीवित रूप।</div><div> वही बुआ नहीं रही।मेरे बचपन के रूपाकार में सिमरिया गढ़हरा की पगडंडी यात्रा का बड़ा हाथ है।कितनी पगडंडियों पर कितनी बार। </div><div>शकुन दीदी का श्राद्ध कर्म।माय भी,मैं भी।</div><div>लेकिन उसी बीच जो घट रहा वह इतिहास है।यहां बेटे ही घीसू माधव हैं और मैयो शकुन बुधिया। बड़ा बेटा कर्म थान वाले गांजा से काम चला सकता है लेकिन लघुराम को खजूर रस चाहिए ही चाहिए।रोज छककर। मैयो की याद भुलाई जा रही है।तेरहा को माँछ भात का भोज हुआ है।तो स्वाद दोगुना।</div><div>तो सुनिए घपोचन कपोचन उपकथा--</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-MXITUixFFdw/YKhy7wFffvI/AAAAAAAAC_M/lDeaTTXr4ug4jtczXdHn57V8XRXFQfiTwCLcBGAsYHQ/s1600/1621652200151947-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>मेरा बचपन (7-12 साल तक)पढाई से नहीं आवारगी से शुरू किया गया था जिसमें</div><div>भीषण उथल पुथल थी;प्रकृति और अराजकता से ऐन्द्रिक,अनचाहा और परिस्थतिजन्य</div><div>रिश्ता था;वहां गरीबी थी;विस्थापन था;हिंसा</div><div>थी;चोरी और चरवाही थी; घर,दोआब </div><div>और घाट के बीच भैंसों गायों से दोस्ती</div><div>थी;मेरी नासिका रंध्रों और त्वचा छेदों </div><div>से फूटती बरहर कटहल आम और खजूर के रसों की सड़ांध थी;अनजानी</div><div>राहों पर पांव की ताकत और दिमागी</div><div>हालत से ज्यादा नपती दूरियां और मिलती</div><div>रिश्तेदारियां थीं।.....</div><div>इस स्मृति को 30 साल बाद फिर से </div><div>उसी भूगोल पर जांचने गया तो जो दिखा</div><div>वह उसी दिशा का विकास था। </div><div> यह खजूर यह पियक्कड़ फुफेरा भाई और ये आम</div><div>सब मुझे मेरा बचपन लौटाकर बोले-अबे</div><div>घपोचन!सुना है तू काशी में किसी नामी</div><div>कालेज का प्रोफ़ेसर हो गया है। भूल गया अपने पैदाइश वाले कोनिया घर को। मैं वही खच्चर आदमी हूँ।अभी भी खजूर के कांटे</div><div>चुभा सकता हूँ। देख!एक दोना ले कर</div><div>वही हो जा। लादकर कोई ले जाता तब</div><div>तू क्या होता। ताल मेरे लिए गाय है और</div><div>खाजूर मुर्गी। बता किस किताब से समझाएगा</div><div>!</div><div> और अपनी फुफेरे भाई ने माँ के तेरहा श्राद्ध के अंतिम पल कहा -आज मछली और तारी</div><div>नहीं लूँगा तो पूरा साल मरी माँ को कोसूंगा</div><div>!!!</div><div>आह! मेरा बचपन कहाँ और मैं कहाँ!</div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-60600566847439717732021-05-21T08:25:00.001-07:002021-05-21T08:25:29.485-07:00बनारस में विश्व चाय दिवस <div><br></div><div><br></div><div><br></div><div><br></div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-0nziINEpGKE/YKfQ5o1ugMI/AAAAAAAAC_E/LyTBcAdjPswBQdVEoGdSyDKrbDE8jrclQCLcBGAsYHQ/s1600/1621610719085976-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><br></div><div><br></div><div>अब आप चाय लेंगे या कॉफी!</div><div>ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार में चाय की भूमिका असंदिग्ध है।भारतीयों को निक्कमा,निठल्ला,ठलुआ,बकलोल,उदररोगी और रूढ़िहल्ला बनाने में चाय की भूमिका महत्तम है।अंग्रेजीराज से लेकर आजतक चायबागान में मजूरों के लाल खून से ही चाय रंग पकड़ती है।</div><div> 1929 की मंदी के बाद भारत और बनारस में अंग्रेजों ने चाय की लत लगायी।शुरू में तो फ्री में बनारस की गलियों सड़कों पर गर्म गर्म चाय और पत्ती मिलती थी।दूध,दही,मिठाई,मलइयो की जुबान को कड़वी चाय थू थू जैसी लगती थी।1930 के बाद एक सेना रिटायर्ड बंगाली दादा ने नगर को चाय की आदत बांटी-द रेस्टोरेंट,गोदौलिया।</div><div> आज़ादी के बाद 1952 के आसपास केदार मंडल और कुछ कामरेडों ने दूध,पानी और चीनी के घोल में चीकट मथना शुरू किया।वहां लेखक टाइप के जीव जुटने लगे।अब तो यह आम बीमारी है जिसका शिकार मैं भी हुआ हूँ।</div><div> 2014 से चाय के भांड नृत्य ने पूरे भारत को ऐसा नचाया कि 2021 तक देश सी ग्रेड पत्ती का सड़ा हुआ बाल्टा लग रहा है।</div><div> चाय दिवस पर कुछ बात उसके विकल्प की।यानी बात कॉफी की।कहते हैं दुनिया के दो तिहाई थिंक टैंक यानीलेखक,पत्रकार,चिंतक,एक्टविस्ट,आवारा,दार्शनिक,</div><div>राजनीतिज्ञ और बैचेन आत्मा एक बार कॉफी हाउस जरूर जाते हैं।कहते हैं कि फ्रांसीसी क्रांति कहवा के गिलास से निकली थी।कहते हैं भारत की सम्पूर्ण क्रांति में कॉफी हाउसों की बड़ी भूमिका है।कहते हैं कि कॉपरेटिव कॉफी हाउस को सरकारों ने नीलाम कर दिया।</div><div> कहते हैं कि काफी बाजार अब देश और दुनिया के सबसे फेवरेट पेय के बाजार के रूप में उभर रहा है।भारत और बनारस में कैफे वाले वे भी हैं जो कॉफी पिलाते हैं,वे भी जो मोमो बेचते हैं,वे भी जो इंटरनेट पर बेरोजगारों का आवेदन अप्लाई करवाते हैं।मैं कॉफी का भी लती हूँ।</div><div> विश्व चाय दिवस आज है तो विश्व कॉफी दिवस भी होगा ही।</div><div> आप बोर हो गए तो बताइए -चाय लेंगे या कॉफी!!</div><div> ©रामाज्ञा शशिधर</div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-80190843850685225482021-05-15T06:47:00.001-07:002021-05-15T06:47:38.886-07:00दिनकर ग्राम सिमरिया के रंगकर्मी की गुमनाम मौत<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-zC3Psph0ACQ/YJ_Q-PbVEhI/AAAAAAAAC-4/_2FX13oBp_EiarCWaJjZ0P-KB8xqNjMxgCLcBGAsYHQ/s1600/1621086449583221-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div> ©रामाज्ञा शशिधर </div><div> दिनकर लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर,वाराणसी</div><div> ========================</div><div>अमर होने के लिए मरना पड़ता है लेकिन जरूरी नहीं कि हर मौत अमरता की गारंटी है।गुमनाम ग्रामीण रंगकर्मी की 54 साल में हुई मौत ऐसी ही परिघटना है।</div><div> यह याद आँखन देखी हमसफ़र की दास्तां से जुड़ी है।वे उन लाखों ग्रामीण कलाकारों में एक थे जो बिहार के (वि)ख्यात ग्राम सिमरिया में पैदा हुए,वहीं पले, बढ़े,किसानी की,किताबी कीड़े बने,पारसी मंच के दिग्गज रंगकर्मी हुए,गुमनाम हुए,बीमार हुए,इलाज से महरूम रहे,मर गए और अमरता की सीढ़ी से बाहर रह गए।</div><div> वे दिनकर की कविता के सारांश रहे-जो अगनित लघु दीप हमारे/तूफानों में एक सहारे/जल जलकर बुझ गए किसी दिन/मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल।समाज की आत्मा जिस धरातल पर है वहाँ कोई आगे बढ़कर कहने वाला नहीं कि कलम आज उनकी जय बोल।</div><div> उनका नाम अर्जुन था।कला और किसानी में सव्यसाची थे।वे बचपन से ही मृदुभाषी,मिलनसार और एकांतप्रिय थे।मध्य विद्यालय और दिनकर उच्च विद्यालय, सिमरिया से पढ़ाई हुई।वहां तब दिनकर जयंती का बीज पड़ गया था।अर्जुन सिंह का परिवार किसानी का था।इसलिए बचपन से ही पढ़ाई और</div><div>खेती-पशुपालन की ज़िम्मेदारी कंधे पर रही।</div><div> वे दिनकर की विरासत से जुड़े हुए थे।उनके बड़े भाई महेंद्र सिंह इतने त्यागी थे कि पूरा जीवन ग्रामीण दिनकर पुस्तकालय को लाइब्रेरियन के रूप में दान कर दिया।जबतक जिंदा रहे,वे किताब और अस्थमा को सीने से लगाए रहे।माहो दा की मौत भी लाइब्रेरी की हजारों किताबों के बीच हुई।बड़े भाई ने छोटे में लोकप्रिय उपन्यास पढ़ने की आदत डाली।</div><div> जिसे हम फुटपाथी उपन्यास कहते हैं,उसने समाज में करोड़ों वास्तविक पाठक पैदा किए हैं।मुझे याद है कि बाद में हमलोगों के पुस्तकालय प्रचार अभियान के समय अर्जुन दा देवकीनन्दन खत्री और प्रेमचंद की किताबें बड़े चाव से पढ़ते थे।कल्पना कीजिए जब चारों ओर गैंगवार हो रहा हो तब ठेठ गांव का कोई नौजवान खेत के मेड़ पर एक हाथ में खुरपी और दूसरे हाथ में किताब रखे मिले तब जो छाप एक किशोर मन पड़ पड़ती है,आज भी मेरे चित्तपट्ट पर चिपकी हुई है।</div><div> पारसी रंगमंच का चलन तो सिमरिया के आसपास के गांवों में ब्रिटिश समय से रहा है।लेकिन सिमरिया गांव में 1975 के बाद आकार ले पाया।लगभग 1980से 1995 के बीच सिमरिया और उसके आसपास के गांवों में एक चलन तेज़ हुआ।वह था ग्रामीण रंगमंच और पारसी रंगमंच के मेल से त्योहारी थियेटर को सक्रिय करना।</div><div> सिमरिया के साथ एक विशेष चीज जुड़ी।दिनकर जयंती की शुरुआत और प्रचार प्रसार से प्रेरणा लेकर विभिन्न टोलों में दिनकर स्मृति नाटक ग्रुप का निर्माण।उन्हीं में एक टोले का मंच था दिनकर अभिनय कला केंद्र।किशोर अर्जुन सिंह जल्द ही अभिनय क्षमता से कला के केंद्र में आ गए।स्त्री पुरुष,पढ़े लिखे बेरोजगार और डाकू की भूमिका में बहुत फबते थे।याद होगा कि तब गांव में लड़की या स्त्री का पार्ट पुरुष को ही अदा करना होता था।माहौल बहुत नहीं बदला है।</div><div> तब दिनकर ग्राम और जयंती के विकास के लिए चार पांच लोगों की एक समिति बनी-दिनकर स्मृति विकास समिति।देखा देखी हर टोले में नाटक की टीम और बैनर खड़े होने लगे।टोले के हिसाब से कलाकार और दर्शक कई ग्रुप में बंट गए।</div><div> इन मंचों की खास विशेषता थी कि दर्शक,कलाकार और निर्देशक लगभग आदान प्रदान होते थे लेकिन बैनर अलग होता था।भागलपुर और मेरठ की पारसी नाट्य पुस्तकों से लेकर पारसी नाटक लिखने वाले तक दिनकर ग्राम में तैयार हो चुके थे।कलाकारों की फेहरिस्त तीन पीढ़ियों तक फैल गई।</div><div> अर्जुन सिंह इस व्यापक पारसी रंगमंच अभियान के स्टार कलाकार की तरह उभरे और आस पास के गांवों तक उनकी पहचान बन गई।मैं खुद ग्रामीण रंग मंच से 1989 से सक्रिय रूप से 2001 से जुड़ा रहा।</div><div> अर्जुन दा की आवाज़ में एक खास तरह की नफासत,शुद्धता,गूंज और सुरलहर थी।उनकी ट्रेनिंग रंगमंच से होने के कारण आम लोगों की ढेलेदार आवाज़ से उनकी बोलचाल आजीवन विशिष्ट और लोकप्रिय रही।</div><div> अगर उनकी पढ़ाई बाहर होती,रंगमंच से प्रोत्साहन मिलता और थियेटर-सिनेमा की दुनिया तक पहुंच पाते तो एक ग्रामीण कलाकार आज गुमनाम नहीं होता।</div><div> बाद में वे जनपद में नुक्कड़ नाटक टीम में सक्रिय हुए।लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारी के कारण गाड़ी सिग्नल पर ही अटक गई।अर्जुन जी आजीवन गांव में ही रहे।वे रहमदिल और सहयोगी प्रवृति के बने रहे।एक किसान की दया और करुणा से आत्मा बनी थी।प्रतिभा का प्रोत्साहन उनका नैसर्गिक गुण था।</div><div> डॉक्टर ने एक सप्ताह पहले हृदय सम्बन्धी समस्या बतायी थी।कुछ दवा दी और कहा कि आराम कीजिए ठीक हो जाएंगे।सुबह घूमकर आए और अचानक गिर पड़े।अर्जुन दा की मौत इलाज की सुविधा के अभाव में हुई।एक गुमनाम मरीज की तरह।उनका असमय निधन सिमरिया की सांस्कृतिक क्षति है।मैं व्यक्तिगत रूप से मर्माहत हूँ।श्रद्धांजलि में बस दिनकर के दो बोल हैं-कलम आज उनकी जय बोल।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-d_J04wpp_H8/YJ_Q8hyTPdI/AAAAAAAAC-0/XPOvIyYSq44Oo2B2FOqhOmN2a68Pr-A8ACLcBGAsYHQ/s1600/1621086443803054-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://lh3.googleusercontent.com/-d_J04wpp_H8/YJ_Q8hyTPdI/AAAAAAAAC-0/XPOvIyYSq44Oo2B2FOqhOmN2a68Pr-A8ACLcBGAsYHQ/s1600/1621086443803054-1.png" width="400">
</a>
</div><br></div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-86537369905799752922021-05-03T05:27:00.001-07:002021-05-03T23:00:17.894-07:00संस्मरण:सिमरिया के दिनकर रत्न मुचकुंद की मृत्यु असंभव है<div>★रामाज्ञा शशिधर</div><div>【संस्मरण】</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-H1jEe4nCYms/YI_sKkpGr2I/AAAAAAAAC98/o9eMiwSW_HsvDJMEqgDiFNJcygfbmxfSwCLcBGAsYHQ/s1600/1620044830648762-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><br></div><span ;="">◆</span><br>
<span ;="">पूर्वज दिनकर की पुस्तक 'संस्मरण और श्रद्धांजलियां' की पहली पंक्ति है कि अपने समकालीनों की चर्चा करना बहुत ही नाजुक काम है।मेरे लिए मुझसे तेरह साल छोटे सिमरिया की दोमट माटी पर उगे और असमय मुरझाए मुचकुंद पर चर्चा करना असंभव काम है।लेकिन काल के आदेश को </span><br>
<span ;="">कैसे ठुकरा सकता हूँ।उसकी जैसी मर्जी!</span><br>
<span ;=""> मुचकुंद की बात कहां से शुरू करूँ!आरम्भ और अंत दोनों मातम से भरा है।इसलिए बीच से करता हूँ।वहां आग भी है और जनराग भी ।</span><br>
<span ;=""> बात 2003 की है।मैं जेएनयू से किसान आंदोलन और हिंदी कविता के रिश्तों पर रिसर्च के दौरान जनपद जनपद भटक रहा था।उनदिनों क्षय रोग से उबरकर गांव आया था।</span><br>
<span ;=""> जून का महीना।तपती दोपहरी।दालान के आगे पिताजी द्वारा पोसे गए जामुन के पेड़ के नीचे मेरी खाट।देखता हूँ- सांवली त्वचा और कमजोर काया का एक किशोर।उम्र लगभग 20 साल।धूप में तमतमाया तांबे सा चेहरा।खुली मुस्कान।हाथ में समयांतर।उसकी तह के नीचे इतिहास</span><br>
<span ;="">का नोट्स।नमस्कार करते हुए खड़ा हुआ।पहचानने की कोशिश की।पहचान नहीं पाया।</span><br>
<span ;=""> संजीव फिरोज़ ने अपनी धीमी गति का समाचार शुरू किया -यह मोनू हैं।मेरे भाई लगेंगे।ननिहाल में रहते थे।अब गांव में रह रहे हैं।इनके घर मे चार मर्डर हुआ था।आपको याद होगा।प्रतिबिंब की चर्चा सुनी है।आप से मिलना और बात करना चाहते थे।</span><br>
<span ;=""> मोनू विचार की तरह शुरू हो गए-समाज इतिहास से सीख लेकर बदलता है।सिमरिया ने दिनकर से कितना सीखा है।जब दिनकर और उनकी किताबें गॉंव को नहीं बदल</span><br>
<span ;="">पा रही तब आपलोग नाटक,गीत,झाल,ढोल से समाज कैसे</span><br>
<span ;="">बदल देंगे।समाज को बदलने के लिए नया विचार और उस विचार का प्लेटफॉर्म चाहिए....इसलिए प्रतिबिंब में विचारबिंब होना चाहिए।</span><br>
<span ;=""> मैं चुपचाप अपनी आदत के विरुद्ध पहली बार सुन रहा था-चीख से भरा स्वर।थूक के छींटों में लिपटी ध्वनियां।लहराते हुए हाथ।नाचती हुई लाल आंखें।फड़कती हुई भौंह।जैसे आग का पिघलता हुआ गोला हो!जैसे दिनकर का रश्मिरथी।जैसे सिमरिया घाट का प्रफुल्ल चाकी।जैसे जनकवि शक्र की इंकलाबी छापे की मशीन।जैसे घड़ियालों,मगरमच्छों की गंगा के ताल जल में नन्हीं मछरी।जैसे सिमरिया के फैले हुए उद्यानों बागीचों के बीच गूंजती हुई</span><br>
<span ;="">कोई दमदार चिड़िया।</span><br>
<span ;=""> तब से जीवनपर्यंत मुचकुंद विचार की अलख जगाते रहे;बदलाव के नारे दोहराते रहे;डफली की धुन पर गीत गुनगुनाते रहे।और एक दिन कबीर की कविता हो गए-हंसा जाई अकेला/जग दर्शन का मेला।</span><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-8vnYci2jE-o/YI_sHMqVeDI/AAAAAAAAC94/LJqYVl_1oXsO_XyDtbGg82tOXqbaMCH_gCLcBGAsYHQ/s1600/1620044817639368-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br>
<span ;=""> ◆</span><br>
<span ;=""> टर्नर,जिम और दिनकर तीनों सही थे।टर्नर ने कहा कि 1918 की महमारी युद्ध के जहाज पर चढ़कर यूरोप से भारत आयी और लगभग 2 करोड़ मनुष्यों को लील गई।जिम ने कहा कि सिमरिया- मोकामा घाट के अनेक श्रमिक</span><br>
<span ;="">महामारी के गाल में समा गए।दिनकर ने देखा कि सिमरिया के दो सौ से अधिक परिजन पुरजन महामारी से खत्म हो गए।दिनकर ने यह भी देखा कि बचपन की पाठशाला के गुरुजी भूख के कारण महुआ चुनकर खा रहे हैं।ब्रिटिश दस्तावेज,औपनिवेशिक साहित्य से लेकर दिनकर-शक्र के लेखन में अकाल महामारी के दबे निशान को खोजने वाला </span><br>
<span ;="">प्रतिभा सिमरिया में एक ही थी,मुचकुंद।मैंने साहित्य की यात्रा में ये चिह्न देखे और इतिहास प्रेमी मुचकुंद को उत्साहित किया।उसने वादा किया था कि बेगूसराय में घर बनाने के बाद आपके बताए तरीके और लिखे गए संक्षिप्त विवरण से सहयोग लेकर सिमरिया का विस्तृत इतिहास लिखूंगा।यह कार्य सिमरिया का कौन सपूत करेगा,अभी कोई</span><br>
<span ;="">प्रकाश नहीं।</span></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-9u_PsW5bKLk/YI_sD_2EIXI/AAAAAAAAC90/H0uPwGZu7IkxGja6Sglq3O0oB-MFVmd3gCLcBGAsYHQ/s1600/1620044807134256-2.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><br></div><div><br>
<span ;=""> ◆</span><br>
<span ;=""> आह!मोनू हम सबको छोड़कर वेबक्त चले गए।अभी उनके जाने की उम्र नहीं थी।उनके जाने से सिमरिया और जनपद दोनों जगहों में रिक्ति बन गई है। उससे भी ज्यादा मेरे भीतर रेत की आंधी उड़ रही है।उनकी उपस्थिति का अभाव हम सबको लंबे समय तक परेशान और दुःखी करेगा।</span><br>
<span ;=""> मोनू का मूल नाम तो मुचकुंद था।मुचकुंद यानी खुशबूदार सफेद फूलों का वृक्ष।लंबा, मजबूत और अल्हड़।</span><br>
<span ;="">यह नाम तो ननिहाल से मिला होगा।सिमरिया तो तब ही छूट गया जब वे गर्भ में थे।दिनकर के यहां कुछ ही फूल हैं,वेणुवन है,दूब है,कास है।मुचकुंद सफेद,पीले सुगंधित फूलों का बौर। मुचकुंद के वृक्ष की उम्र लंबी होती है ।यह क्षणभंगुरता अनहोनी ही है।</span><br>
<span ;=""> 2019-21 इस पृथ्वी और भारत के लिए वैसे ही विनाशकारी है जैसे 1918-22 के महामारी वर्ष थे।1918-19 में महामारी से सिमरिया में लगभग दो सौ किसानों की मौत हुई थी।जनपद में शवों की संख्या बड़ी थी। तत्कालीन सिमरिया घाट शवों से पट गया था।इसका उल्लेख दिनकर से जुड़े साहित्य में भी मिलता है।दिनकर ने बाद की महामारी पर कविता भी लिखी है।</span><br>
<span ;=""> मुचकुंद का जन्म और मरण दोनों दुखांत है।अक्सर जन्म खुशी का द्योतक होता है और मृत्यु मातम का।मुचकुंद का जन्म 27 जुलाई 1983 को हुआ।जब वे पैदा नहीं हुए थे ,उनके घर में चार हत्याएं हुईं।लगभग पूरा घर खत्म हो गया।दो चाचा भागवत सिंह और सिंकदर सिंह मारे गए,पिता रज्जन सिंह(राजेन्द्र प्रसाद सिंह)मारे गए,बुआ राजवती देवी मारी गई।गोली खाकर भी मां छुप गई और गर्भ रत्न को बचा लिया।आज पत्नी एकता ,ढाई वर्ष का नन्हा बेटा नयन प्रकाश के साथ बूढ़ी मां की मजबूत लाठी खो गई।</span><br>
<span ;=""> वह दौर ऐसा ही था। तब सिमरिया में कविता की नहीं,बंदूक की खेती होती थी। इतिहास से बेखबर गांव को आजतक इहलाम नहीं है कि उसका बड़ा दुश्मन सात समुद्र पार है।ब्रिटिश रेलवे द्वारा डाले गए 100 वर्ष पुराने विष बीज अब विष वृक्ष बन रहे थे।कई दर्जन लाशें गिरी होंगी।मेरा बचपन भी उस माहौल से लगभग तबाह हो गया।वह कहानी और कभी।</span><br>
<span ;="">◆</span></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-D-RWClPAcSc/YI_sBK5O2fI/AAAAAAAAC9s/aQIo3x-aDI0HZ09hcXEMwqg-EaoW4FhuACLcBGAsYHQ/s1600/1620044787956341-3.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><br><br>
<span ;=""> मुचकुंद 19 अप्रैल,दिन सोमवार 2021 की सुबह हम सबको अलविदा कह गए।तब वे पीएमसीएच पटना में थे।उनकी मौत भी कोरोना वायरस की तरह काल के आघात से,अस्तव्यस्त,रहस्यमय और हृदयविदारक हुई। </span><br>
<span ;=""> 15 अप्रैल की शाम कलाकार साथी सीताराम जी ने पहली सूचना दी कि मोनू कोविडग्रस्त हैं।बेगूसराय के सृष्टि जीवन अस्पताल में ऑक्सीजन पर हैं।डॉक्टर का कहना है कि रेमडेसिविर दवा से ही जान बच सकती है।बेगूसराय में दवा की किल्लत है।</span>
<br><br><span ;=""> मैंने डीएम,सीएमओ,सांसद से फेसबुक अपील की कि तुरत रेमडेसिविर की व्यवस्था हो।कल होकर दवा दिल्ली से आ गई।दवा दी गई लेकिन सीटी स्कैन में फेफड़े का अधिकांश हिस्सा घिर चुका था।डॉक्टर ने हाथ उठा दिया।रामनाथ सिंह ने पटना ले जाने का सुझाव दिया।</span><br>
<span ;=""> मैंने सीएम और स्वाथ्यमंत्री को ट्वीटर टैग करते हुए निवेदन किया कि दिनकर की धरती के लाल को एम्स,पटना में एक बेड चाहिए।वह अंधड़ में बगुले की खबर थी।तभी स्वास्थ्यमंत्री ट्वीटर पर टैग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक बुजुर्ग कार्यकर्ता की बेड बिना मौत की खबर पढ़ी।बेटे का दर्द मंत्री पर गुस्से में फूट पड़ा था।मैं निराश हो गया।</span><br>
<span ;=""> जिस दिनकर मंच पर नेता,मंत्री आकर माला से लद जाते,वैधता पाते और सुर्खी बटोरते,उस मंच के सबसे सुगंधित फूल के लिए कोई राहत और चाहत नहीं।हे दिनकर!ग्रामीण मित्र अवधेश कुमार से आग्रह किया कि जनपद के सांसद या सत्ताधारी दल के किसी नेता से निवेदन कीजिए।</span><br>
<span ;="">उन्होंने बताया कि बीजेपी जिलाध्यक्ष श्री राजकिशोर सिंह ने</span><br>
<span ;="">स्वास्थ्य मंत्री से आग्रह किया है।कल होकर पता चला कि उनकी बात और फोन को मंत्री अनसुनी कर गए।</span><br>
<span ;=""> यह भाग्य कहिए कि मुचकुंद की साली पीएमसीएच में नर्स हैं और सिर्फ उनकी कोशिश से भर्ती हुई।सीटी स्कैन की हालत से साफ था कि परिणाम कुछ भी हो सकता है।परिणाम सामने आया।</span><br>
<span ;=""> बाद में रामप्रवेश सिंह,प्रवीण प्रियदर्शी,बब्लू दिव्यांशु,विनोद बिहारी और मेरे विद्यार्थी पंकज कुमार व रूपम से जो जानकारी मिली उससे समझ में आया कि नानी के शव संस्कार से लौटने के बाद मोनू बेगूसराय-बरौनी लगातार भागते हुए डॉक्टरों के निर्देशानुसार कोविड टेस्ट,अन्य टेस्ट एवं दवा से सम्बद्ध थे।</span><br>
<span ;=""> ◆</span></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-cNlFVa7MLmg/YI_r8ZdKcqI/AAAAAAAAC9o/6rukREHKzuE6sEYhpF13nECvxw7gApwJACLcBGAsYHQ/s1600/1620044764400762-4.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><br>
<span ;=""> मेरा मानना है कि अगर समय पर उचित स्वास्थ्य व्यवस्था व सलाह मिलती तो मुचकुंद की जान बच सकती थी।यह हैरानी होगी कि एंटीजन और आरटी-पीसीआर दोनों टेस्ट निगेटिव आए और एंटीजन ने भरम पैदा किया।सिस्टम की बलिहारी कहिए कि दूसरा टेस्ट मौत के बाद मिला और सरकार के खाते में मुचकुंद नॉन कोविड मरीज हैं।</span><br>
<span ;=""> दुनिया भर के डॉक्टर और वैज्ञानिक कह रहे हैं कि</span><br>
<span ;="">तीस फीसदी टेस्ट रिपोर्ट गलत है,रेमडेसिविर सिर्फ पहले सप्ताह में मोडरेट मरीज पर सिर्फ ऑक्सीजन लेवल बनाए रखने के लिए सफल है, आवश्यक दवा और परहेज पहले दिन से जरूरी है।उसके बावजूद मुचकुंद का</span><br>
<span ;="">इलाज उचित दिशा में शायद नहीं रह पाया।सिमरिया के साथी रामप्रवेश जी से मुचकुंद लगातार संपर्क में थे।उनका भी यही मानना था।खैर!पब्लिक स्वस्थ्य सिस्टम के लिए</span><br>
<span ;="">मोनू भविष्य के आंदोलन के प्रतीक बन सकते हैं ताकि भविष्य में लाखों मोनू को बचाया जा सके।</span><br>
<span ;=""> ◆</span></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-hpjaGL0SCkM/YJDi7i79c4I/AAAAAAAAC-Y/OOOASeVPHzMG9QehZWHu-njVoPILanRjACLcBGAsYHQ/s1600/1620108009773040-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><br>
<span ;=""> </span><span ;="">मुचकुंद की मृत्यु विचार की मृत्यु है।वे सिमरिया की दोमट मिट्टी पर विचार के पेड़ थे।उनके साथ बिताए संस्मरण व कार्यों का वर्णन करूँ तो एक किताब बन सकती है।</span><br>
<span ;=""> कुछ यादें यहां जरूरी हैं।वे 2003 में प्रतिबिंब से जुड़े। उनके कारण 1998 से सक्रिय प्रतिबिंब गीत,नुक्कड़ नाटक,कविता पाठ से ग्रामीण क्षेत्र में विचार निर्माण की ओर मुड़ गई।संस्कृति का क्रांतिकारी पहलू पुस्तिका इस बात का प्रमाण है कि दर्जनों गोष्ठियां गांव गांव हुईं।हमलोगों ने जनेऊ और कोका-पेप्सी दोनों से सामूहिक मुक्ति ली।मनुवाद और साम्राज्यवाद दोनों पर प्रहार।प्रेमचंद की किताब सरकार द्वारा पाठ्यक्रम से हटाने पर मुचकुंद के नेतृत्व में प्रेमचंद कथा अभियान चला।मुचकुंद एक्टिविस्ट बने,संगठन कर्ता हुए,इतिहास के विद्यार्थी हुए। समयांतर पत्रिका अपने ग्रामीण पते पर मंगाकर जनपद को बांटने लगे।इसतरह जनपद के बौद्धिकों लेखकों से संपर्क संवाद घना होता गया।</span><br>
<span ;=""> </span><span ;="">प्रतिबिम्ब के कारवां में शामिल प्रवीण प्रियदर्शी,केदारनाथ भास्कर, तरुण,पंकज,चेतन,शिवदास,मुकेश दास,अविनाश अशेष,</span><br>
<span ;="">संजीव फ़िरोज,राधे,श्यामनंदन निशाकर,बबलू दिव्यांशु,अशोक झा,विनोद बिहारी झा आदि नामों का एक</span><br>
<span ;="">कारवां है जिन्होंने कला,साहित्य,संस्कृति और विमर्श के माध्यम से सिमरिया और आस पास के गांवों में जन जागरण</span><br>
<span ;="">का अभियान चलाया।मेरे द्वारा लिखे दो नुक्कड़ नाटक 'जात पांत पूछे सब कोई' और 'मैं हूँ भ्रष्टाचार' को लेकर प्रतिबिंब गांव गांव तक पहुंचा।मोनू इसी टीम के सक्रिय साथी थे।</span><br>
<span ;=""> ◆</span><br>
<span ;="">बीएचयू में बीएड के दौरान एडमिशन से लेकर अंतिम सत्र तक उनके निर्माण में मैं जो कुछ सहयोग कर सकता था,करता रहा।काशी अस्सी क्षेत्र मेरे लिए साधना और मुक्ति का क्षेत्र है।चाय,काफी,पान के दर्जनों अड्डे और सैकड़ों बुद्धिजीवी,कवि,लेखक,पत्रकार,नेता,शिक्षक,गुंडे,पर्यटक,एक्टिविस्ट,पागल,साधु,गाउल सब मेरी जान हैं।तुलसीदास,धूमिल,नामवर सिंह,काशीनाथ सिंह और मेरी उसी अस्सी की </span><br>
<span ;="">की अंतरराष्ट्रीय चाय अड़ी के वे स्पीकर भी हुए।</span><br>
<span ;=""> ◆</span></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-qY7kAVTubRs/YI_r2SjmKdI/AAAAAAAAC9k/6l9YgtOwv_omELxYbeC_4fwAAQat3TkcwCLcBGAsYHQ/s1600/1620044746425403-5.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><br>
<span ;=""> बीएचयू से बीएड करने के बाद मुचकुंद डीएवी में शिक्षक भी हुए।शिक्षा दान के साथ दिनकर मिशन के लिए उनका बाद का जीवन पूर्णतः समर्पित हो गया।दिनकर पुस्तकालय और दिनकर मंच से साहित्य की गंगा बहाकर उन्होंने दिनकर पुस्तकालय के साहित्यिक स्वरूप को जनपद,राज्य और राष्ट्र की हलचल से नए सिरे जोड़ दिया।</span><br>
<span ;=""> मुचकुंद का एक गुण नई पीढ़ी के लिए ज्यादा प्रेरणादायक है।वह गुण है उनका पढाकूपन।वे जब दिनकर पुस्तकालय से जुड़े,तब जनपद से लेकर जनपद से बाहर तक दिनकर पुस्तकालय के पाठक फैल गए।वे जिस तरह</span><br>
<span ;="">जनपद भर में समयांतर पत्रिका घूमघूमकर बांटते थे,वैसे ही</span><br>
<span ;="">दिनकर पुस्तकालय की किताब झोले में लेकर लोगों को पढ़ाने लगे।वे चलता फिरता पुस्तकालय हो गए जिनके झोले</span><br>
<span ;="">में किसिम किसिम की पुस्तकें रहती थीं।शिक्षक,लेखक,पत्रकार,नाट्यकर्मी,नेता,अफसर सभी को उन्होंने पुस्तक संस्कृति और अध्ययन स्वभाव से जोड़ा।यह अक्षर विरोधी दौर में उनका बड़ा योगदान था।पाठक संस्कृति को बनाकर ही पुस्कालय जीवित रह सकता है।</span><br>
<span ;=""> मुझे याद है।जब वे बीएड करने बीएचयू आए तो अपनी</span><br>
<span ;="">अदा के अनुसार झगड़ा कर मेरी मेंबरशिप रिनुअल की और</span><br>
<span ;="">एक मुश्त वर्षों का सदस्यता शुल्क लिया।उनका तर्क अकाट्य था कि आप दिनकर पुस्तकालय के भीम राव आंबेडकर हैं।आपके हाथों लिखे संविधान के नियमानुसार हमलोग चुनाव समिति का करते और नेता बनते हैं।आपने पुस्तकालय दीवार निर्माण में ईंट, सीमेंट,बालू व्यव्यस्था लेकर पुस्तक की खरीद,ढुलाई, जिल्दसाजी तक की है तब उससे दूर कैसे हो सकते हैं।इतना ही नहीं वे</span><br>
<span ;="">मेरे लिए पुस्तकालय से पुस्तक निर्गत कराकर बनारस में लाते और पढ़ाते थे।मोनू को नई किताबें और नए विचार किसी भी चीज़ से ज्यादा पसंद थे।इस आदत के कारण</span><br>
<span ;="">मैं उन्हें ज्यादा चाहने लगा था।जब भी कोई नई किताब</span><br>
<span ;="">चर्चित होती,मैं उन्हें तुरत सूचित करता।कुछ किताबें उपलब्ध</span><br>
<span ;="">भी कराता।वे कोशिश करते कि पहले उसे पढ़ें और जरूरी</span><br>
<span ;="">हो तो दिनकर पुस्तकालय के लिए खरीद करवाएं।गुरुवर</span><br>
<span ;="">प्रो मैनेजर पांडेय द्वारा संपादित गुलाम भारत के आर्थिक शोषण पर आधारित सखाराम देउस्कर की दुर्लभ पुस्तक 'देश की बात' जब मैंने उन्हें सिमरिया में भेंट की,वे उछल पड़े।बोले-इसे पुस्तकालय में हरहाल में होना चाहिए।इसे</span><br>
<span ;="">हर नौजवान को पढ़ना चाहिए ताकि पता चले कि हमारा शोषण किस तरह हुआ था।</span>
<br><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-DXyJuvXlSzo/YJDi5lt8PpI/AAAAAAAAC-U/hSHVsd6KyqkydRuOR7IfoZTvOOVFyArqwCLcBGAsYHQ/s1600/1620107997813505-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://lh3.googleusercontent.com/-DXyJuvXlSzo/YJDi5lt8PpI/AAAAAAAAC-U/hSHVsd6KyqkydRuOR7IfoZTvOOVFyArqwCLcBGAsYHQ/s1600/1620107997813505-1.png" width="400">
</a>
</div><br><span ;=""> एक संस्मरण और।2007 में जब दिनकर शताब्दी वर्ष आने वाला था।गर्मी छुट्टी में मैं बीएचयू की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर एक महीने ग्राम सुख लेने सिमरिया पहुंचा।मोनू आ धमके।बोले-दिनकर जी हमलोगों को माफ नहीं करेंगे।मैंने कहा-ऐसा क्यों बोल रहे हो?वे शुरू हो गए-सरजी,गांव का माहौल ठीक नहीं है।समिति भी बिखर गई है।दिलीप भारद्वाज,सेठ जी,परमानंद जी और राजेश जी-सब पिछले साल से ही मुंह फुलाकर अपने अपने घर बैठे हैं।दिनकर शताब्दी सर पर है।लोग क्या कहेंगे!फिर मुचकुंद जी ने अपनी अदा से मुझपर महाजाल फेंक दिया-सर जी!अगर आप हरेक के दरबाजे पर चलकर कहिए तो एका हो सकता है।हुआ भी वही।मैं महीनों लगा रहा। दिनकर शताब्दी वर्ष कैसे मने और सिमरिया भूमि को साहित्यिक तीर्थ कैसे बनाया जाए,यह योजना शुरू में मुचकुंद, प्रवीण,सजीव फिरोज़ और मैंने मौखिक रूप से तैयार की।दिनकर पुस्तकालय पर बैठक करवायी।फिर क्या था!भूली हुई शक्ति</span><br>
<span ;=""> दिनकर पंथियों को याद आ गई।वे चल पड़े।कारवां बन</span><br>
<span ;="">गया।2007 में जेएनयू से बड़े आलोचक और मेरे शोधगुरु मैनेजर पांडेय,पटना से अग्रज कवि अरुण कमल और मेरे विभाग से प्रखर दिनकर अध्येता प्रो अवधेश प्रधान साहित्य</span><br>
<span ;="">मंच पर आए।सचाई तो यह है कि दिनकर सदी वर्ष के लिए मैंने जिस तरह ग्रामीण दिनकरपंथियों को जोड़ा तथा सालभर की पूरी रूपरेखा प्रकाशित कर दी;इसका मूल कारण तो मोनू की प्रतिबद्धता ही है।</span><br>
<span ;=""> जबतक सिमरिया और दिनकर के अक्षर रहेंगे मुचकुंद उस साहित्यिक प्रांगण में रश्मिरथी की तरह चमकते रहेंगे।सिमरिया को मुचकुंद की यादों के लिए बहुत कुछ दिल खोलकर करना चाहिए।जब भी मैं गांव आऊंगा और सिमरिया की दीवारों पर दिनकर की उगी हुई काव्य पंक्तियां देखूंगा तब मेरी आँखें भर उठेंगी।</span><br>
<span ;=""> मुचकुंद!तुम विज्ञापन-प्रचार के दौर में सुलगते हुए विचार थे।तुम दुनिया बदलने आए थे,खुद ही बदल गए।मैं स्वीकार करता हूँ कि तुम मेरे गुरू थे,मैं तुम्हारा शिष्य।तुम्हारी हर फटकार से प्यार का अमृत झरता था।तुम सिमरिया के आकाश का ध्रुवतारा हो।अटल और अमर!सेल्फी युग में लाइट ऑफ सेल्फ!युवा बुद्ध!</span><br>
<span ;=""> --------</span><br>
<span ;="">दिनकर मुचकुंद के लिए गाते रहेंगे-</span><br>
<span ;=""> </span><br>
<span ;=""> आवरण गिरा,जगती की सीमा शेष हुई</span><br>
<span ;=""> अब पहुंच नहीं तुमतक इन हाहाकारों की</span><br>
<span ;=""> नीचे की महफ़िल उजड़ गयी, ऊपर कल से</span><br>
<span ;=""> कुछ और चमक उट्ठेगी सभा सितारों की</span></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-Qw2p3Y2RLMo/YI_ryIaQM1I/AAAAAAAAC9g/vqdQKPB6SoIwioJdPokcCQKendjiA1ixQCLcBGAsYHQ/s1600/1620044726607883-6.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-Dh4lCavvMlc/YJDi2itqNXI/AAAAAAAAC-Q/WfTIovI_EUYtrRfATzazOYcCNJEd4ORhgCLcBGAsYHQ/s1600/1620107989471654-2.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://lh3.googleusercontent.com/-Dh4lCavvMlc/YJDi2itqNXI/AAAAAAAAC-Q/WfTIovI_EUYtrRfATzazOYcCNJEd4ORhgCLcBGAsYHQ/s1600/1620107989471654-2.png" width="400">
</a>
</div><br>
</a>
</div><br>
<span ;=""> </span><br>
<span ;=""> </span><br>
<span ;=""> </span><br>
<span ;=""> </span><br>
<span ;=""> </span><br>
<span ;=""> </span>
<br><br><span ;=""> </span><br>
<span ;=""> </span><!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_bodytext_210503_174354_955.sdocx--></div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-28701385702560506112021-04-30T03:59:00.000-07:002021-04-30T03:59:40.708-07:00Social Media Platforms<p> </p>
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</html> रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-15258269053488817322021-04-28T06:08:00.001-07:002021-04-28T06:08:24.387-07:00हिंदी समांतर कोश के कोशकार अरविंद कुमार नहीं रहे<div><br></div><div>वे हिंदी की किसी संस्था से अकेले बड़े थे।वे भाषा के सच्चे सागर थे।</div><div> 20 साल तक अनवरत श्रम करते हुए 1800 पृष्ठों और 268000 अभिव्यक्तियों की पांडुलिपि से हिंदी का समांतर कोश तैयार करने वाले अरविंद कुमार आज 95 वर्ष की उम्र में कोविड के आक्रमण से गुज़र गए।</div><div> उन्होंने 1960 के दशक में फिल्मी पत्रिका माधुरी का संपादन ही नहीं किया बल्कि उसके माध्यम से कला सिनेमा आंदोलन को दिशा भी दी।समांतर सिनेमा जैसे पद को रचने का सार्थक कार्य किया।</div><div> हिंदी भाषा और समाज को अरविंद कुमार और उनकी पत्नी कुसुम जी के श्रम और योगदान का ऋणी होना चाहिए ।</div><div> हिंदी विभाग,बीएचयू,मालवीय चबूतरा,ताना बाना(बनारस)प्रतिबिम्ब(बेगूसराय) की ओर से उन्हें मार्मिक श्रद्धांजलि।</div><div> -रामाज्ञा शशिधर,बनारस</div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-68601563075447165072021-04-25T00:52:00.001-07:002021-04-25T00:52:55.706-07:00कोविड कविता:सुनो पीपल की पत्तियो <div>【सुनो पीपल की पत्तियो】</div><div> ©रामाज्ञा शशिधर, बनारस</div><div> ★★★★</div><div>आओ पीपल की पत्तियो</div><div>वक़्त कम है</div><div>तुम फेफड़े बन जाओ</div><div><br></div><div>मेरी शिथिल देह में </div><div>फेफड़े होकर भी वे नहीं हैं</div><div>वे अब काम नहीं कर रहे हैं</div><div>थक गए हैं </div><div>भीतरी और बाहरी दुश्मनों से लड़ते हुए</div><div><br></div><div>हे धरती</div><div>तुम मुझे वरदान दो</div><div><br></div><div>मेरी राख पर उगाना</div><div>एक पीपल का पेड़</div><div>उसमें पत्तियों की जगह फेफड़े लगाना </div><div><br></div><div>जब भी </div><div>करोड़ों सूक्ष्म दुश्मन हवा के सारे रास्ते बंद कर दे</div><div><br></div><div>बाजार के घोड़े पर सवार तानाशाह </div><div>लोहे के पेड़ से जुटाए प्राणवायु जब्त कर ले</div><div><br></div><div>मैं पीपल का पत्ता </div><div>एक साथ</div><div>ऑक्सीजन और फेफड़ा </div><div>दोनों बनकर</div><div>तुम्हारी कोख के सबसे खूबसूरत सृजन को </div><div>मानव भविष्य की पताका बनने के लिए </div><div>बचा लूं</div><div><br></div><div>अगले जन्म में मुझे पीपल ही बनाना धरती</div><div>फेफड़े और प्राणवायु से गझिन</div><div> ---------------------</div><div> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-MWQElu3KOkA/YIUfxygTJFI/AAAAAAAAC9Y/JO2FWDPDhX8EPX-f9xBVzNrF-7TREr-cQCLcBGAsYHQ/s1600/1619337156201045-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div></div><div> ------------------अंग्रेजी अनुवाद---------</div><div> ★Ghanshyam Kumar </div><div> लेखक और अनुवादक</div><div> ◆</div><div>Hark! The Peepal-leaves</div><div> ***************</div><div><br></div><div>O Peepal leaves!</div><div>Come</div><div>I've very little time</div><div>Be the lungs</div><div><br></div><div>My sluggish body</div><div>Seems to contain no lungs despite their being inside</div><div><br></div><div>They now appear to have stopped working </div><div>They are dog-tired </div><div>Fighting with foes, outward and inward</div><div><br></div><div>O Earth!</div><div>Grant me a boon-- </div><div><br></div><div>Over my ashes</div><div>Grow a peepal tree</div><div>With lungs hanging in lieu of leaves</div><div><br></div><div>Whenever </div><div>Crores and crores of the micro-enemies close all the pathways for the air</div><div>And the Dictator riding the horses of the market seizes the oxygen obtained from the iron-trees,</div><div><br></div><div>I, a Peepalleaf,</div><div>Turning myself at the same time into both oxygen and a lung</div><div>Earnestly wish to save the most beautiful creation of your womb</div><div>In order to become the emblem of the future of mankind</div><div><br></div><div>In my next birth</div><div>Make me just the peepal densely laden with lungs and oxygen!</div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-65041421001384715202021-04-22T23:33:00.001-07:002021-04-22T23:33:09.242-07:00महामारी और ऑक्सीजन आपातकाल से मुक्ति चाहिए<div><br></div><div> ©रामाज्ञा शशिधर</div><div><div> सोशल मीडिया पर कोविड 19 जैसी महामारी को भय और भरम बताने और हल्के में लेने का एक सरल और सत्तामुखी ट्रेंड बढ़ता जा रहा है।यह कॉमन चेतना को कन्फ्यूज करने और खतरे में ढकेलने की </div><div>कुसमय कोशिश है।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-QtYf7sEMQZI/YIJqIY_zdWI/AAAAAAAAC9I/mlIdic_x08g8iqCrwxJwG6r1N_aCgBNtACLcBGAsYHQ/s1600/1619159578902047-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div></div><div><br></div><div> मैं इस परिपाटी से असहमत हूँ।यह खाए अघाए और सेफ जोन में बैठे लोगों का जुमला हो सकता है या अनजान लोगों की अज्ञानता या दाढ़ीबाबा बनने का शौक!</div><div> </div><div> आप सिक्के का एक पहलू रखकर लोगों को भय और भरम से मुक्त रहने का दृष्टांत दे रहे हैं।इतिहासबोध बताता है कि इसी प्लेग और स्पेनिश फ्लू (1892-1922) से भारत में लाखों नहीं,करोड़ में लोगों का सफाया हो गया था।तब आबादी भी कम थी।</div><div> इटली,जर्मनी,ब्रिटेन,अमेरिका की बड़ी आबादी स्वाहा हो गई है।</div><div> हमारा ग्रामीण साथी मोनू चला गया।बनारस और देश में 100 से अधिक परिचित 15 दिन के अंदर खत्म हो गए।</div><div> जीवमनोविज्ञान का अध्ययन बताता है कि भूकम्प,बाढ़,आपदा,दुश्मन को वे पशु पक्षी पहले भांप लेते हैं जो भय और सतर्कता का अभ्यास करते हैं।कृषि,टेक्नोलॉजी,भोग और आलस्य ने मनुष्य का बड़ा नुकसान किया है।जंगल में वे ज्यादा स्मार्ट थे।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-Gc_jqhXs8v8/YIJqGIx0nLI/AAAAAAAAC9E/DnWEHl-fLgYDbUK46IpkKmnya1gVIYBXQCLcBGAsYHQ/s1600/1619159573938657-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><br></div><div> दूसरी बात।कोरोना का नया वेरिएंट दो गज की दूरी,मास्क है जरूरी से आगे निकल गया है।लेंसेन्ट और विश्व स्वास्थ्य संगठन का तथ्य गौरतलब है कि </div><div>यह और हल्का होकर हवा में लंबे समय तक बना रहता और कई गुना ज्यादा संक्रमित करता है।</div><div> महानगरों के बाद भैया एक्सप्रेस की वापसी से अब गांवों की बारी है।साथ ही इस म्यूटेट ने ऑक्सीजन की जरूरत को बढ़ा दिया है।</div><div> बुद्धिजीवियों और जनजीवियों को यह सवाल चीखकर उठाना चाहिए कि एक साल में बेड, ऑक्सीजन,दवा,वेक्सिनेशन और पूरे हेल्थ सिस्टम को जनता की जरूरत के हिसाब से क्यों मजबूत नहीं किया गया।</div><div> ब्रांडिंग,वाहवाही,मंदिर निर्माण,चुनाव,कुम्भ और बेशर्म प्रोपगैंडा का परिणाम सामने है कि श्मसान में लाशें रखने और जलाने की जगह नहीं है।अभी तूफान आना बाकी है।</div><div> ऑक्सीजन इमरजेंसी के दौर में हमें भयभीत भी होना है और डर के पार भी जाना है।इस बात पर जनमत को एकमत से केंद्रीय सत्ता से सवाल पूछना चाहिए कि जब देश में ऑक्सीजन जमा करने की जरूरत थी,जब वेक्सिन आंदोलन की जरूरत थी,जब रेमडेसिविर संग्रह करने की जरूरत थी तब सरकार ने इसका बड़े पैमाने पर निर्यात क्यों किया। सरकार जनता के सम्मुख योग्यता और नैतिकता खो चुकी है।</div><div> इसलिए पब्लिक हेल्थ सिस्टम की बड़ी लड़ाई की तैयारी तुरत शुरू करनी चाहिए।रीयल और वर्चुल दोनों स्तरों पर।</div><div> -रामाज्ञा शशिधर</div><div> #दिनकर लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर,वाराणसी</div><div> #मालवीयचबूतराबीएचयू </div><div> #प्रतिबिम्बसिमरिया</div><div> #तानाबानाबनारस<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-4oxExXPuxeQ/YIJqE_I1c7I/AAAAAAAAC9A/heh5sHJFfF0ACDup_vst1q5Xnd-cXK8mQCLcBGAsYHQ/s1600/1619159556956549-2.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div></div></div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-859654042828036662.post-17471724528139549262021-03-23T22:58:00.001-07:002021-03-23T22:58:48.770-07:00विचारों के खेत में भगत सिंह की याद<div>©रामाज्ञा शशिधर</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-vb5wEqpkVy0/YFrVFHKteeI/AAAAAAAAC8c/yPLiQkzJdP8YrSVrFgUNLLWSQEQOcXWdwCLcBGAsYHQ/s1600/1616565515784777-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://lh3.googleusercontent.com/-vb5wEqpkVy0/YFrVFHKteeI/AAAAAAAAC8c/yPLiQkzJdP8YrSVrFgUNLLWSQEQOcXWdwCLcBGAsYHQ/s1600/1616565515784777-0.png" width="400">
</a>
</div><br></div><div>~~~~♀~~~~~~~~~</div><div>भारतीय समाज और साहित्य को गांधी के विचार और आचरण ने जितना बदला है,भगत सिंह के विचार और आचरण उससे कम नहीं।</div><div> गांधी का राजनीतिक सांस्कृतिक दुरुपयोग थोड़ा मुमकिन है लेकिन भगत सिंह के सामने आते ही राष्ट्र और मानवता के हमसफ़र और गद्दार अलग अलग चमकने लगते हैं।</div><div> मेरे लिए भगत सिंह तक पहुंचना अपनी जन्मभूमि सिमरिया,प्रफुल्लचंद चाकी की स्थानिक विरासत,आज़ादी की लड़ाई में शामिल अपने लड़ाकू पुरखे किसान,महाकवि दिनकर साहित्य के माध्यम से हुआ।</div><div> आजकल नख कटाकर क्रांतिकारी और गाली ताली</div><div> चलाकर उग्र राष्ट्रवादी बनने वाले उचक्कों की बहार है।वे भगत सिंह से भागते और ओझा भगत को पूजते हैं।उन्हें कौन समझाए कि भाषणवीरता और विचारशीलता में बहुत फर्क है।</div><div> किसान और उनके जवान बेटे 1857 में भी सच्चे देशभक्त थे,आज भी हैं और कल भी रहेंगे।</div><div> लोदी,फिरंगी और भक्तरंगी आते हैं और इतिहास के खलनायक होकर पुरातत्व बन जाते हैं।</div><div> मेरे किसान पिता को गौरव था कि एक बेटे के हाथ में बॉर्डर की हिफाज़त की बंदूक,दूसरे के हाथ में सृजन का हथौड़ा और मेरे हाथ में जड़ता चीरने की कलम थमायी।</div><div> आजकल लुटेरे व्यापारी और उनके दल्ले लल्ले फर्जी</div><div>देशभक्ति और सत्ता की शक्ति के खेल खेल रहे हैं।झूठ और नफरत के खेल का पुरस्कार राख का तूफान होता है।</div><div> बदलाव की आग और जुड़ाव के राग वाले चिरयुवा भगत सिंह की चेतना,विचार और स्वप्न को रूहानी प्रणाम!इंकलाब जिंदाबाद के अर्थ में ही भगत सिंह रहा करते हैं।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-44RKLhKKBY4/YFrVCgtINVI/AAAAAAAAC8Y/2JzNsuGzOcwR8KPmFeV2tKtGLifzbPEWQCLcBGAsYHQ/s1600/1616565511169261-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div>रामाज्ञा शशिधरhttp://www.blogger.com/profile/17268266467005907983noreply@blogger.com0