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23 जून, 2014

तानाशाही के दौर में जादुई यथार्थवाद पर बहस जरूरी है : पंकज बिष्ट



 मई के मौसम में जब महिला कालेज रोड का आसमान  गुलमोहर के फूलों से सुर्ख हो गया था और ज़मीन पर सिर्फ भगवा रंगों की बहार थी तब पंकज बिष्ट बीएचयू के हिंदी विभाग में आए. जेनुइन कथाकार,प्रतिबद्ध पत्रकार और सरोकारी एक्टिविस्ट के रूप में वे पहली बार २००६ में तब आए थे जब प्रेमचंद के पात्र सीरियल आत्महत्याएँ कर रहे थे.उन्होंने एक लाख की गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार की राशि सारनाथ जाकर खुद वितरित की थी.दूसरी बार बिष्ट हिंदुत्व के उन्माद में डूबे कबीर के शहर में कार्पोरेट फासीवाद पर बोलने आए थे. कला संकाय के एनी बेसेंट हाल में हिंदी के छात्र, शिक्षकों और नगर के बौद्धिकों के बीच वे एक ऐसे कथा फॉर्म और शैली पर विचार करने आए थे जो तानाशाही के दौर का कला रूप है. हिंदी विभाग के लिए संभवतः यह पहला मौका था जब जादुई यथार्थवाद टर्म अपनी औपचारिक बहस के माध्यम से प्रवेश पा रहा था. आलोक कुमार गिरि द्वारा संगृहीत,लिपिबद्ध और सम्पादित यह व्याख्यान मार्क्वेज़ के बहाने हिंदी की बौद्धिक खिड़की में नया झोंका भरता है.-माडरेटर


19 जून, 2014

गाँव में दो पीढ़ियों के बीच का धागा टूट गया

                                            रामाज्ञा शशिधर 


गाँव में दो पीढ़ियों के बीच का धागा लगभग टूट गया है.ताने को बाने का और बाने को ताने का पता नहीं है.नई पीढ़ी के लिए पुरानी पीढ़ी उस पुराने अबूझ गीत की तरह है जिसका रिमिक्स नहीं बन सकता.पुरानी पीढ़ी के लिए नई पीढ़ी डीजे का कानफोडू शोर है जो सिर्फ पुराने दिलों की धमनी को तोड़ रहा है. इसे समाजशास्त्री लोग 'जेनेरेशन गैप' कहते हैं लेकिन मेरे लिए यह बदलाव पुराने गाँव का नए बनते कथित गाँव से पूर्ण संबंध विच्छेद है.