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11 जून, 2013

आंदोलन की जमीन को कला की कड़ी से मापने वाली किताब

.रामप्रकाश कुशवाहा हिंदी आलोचना में मार्क्स,आंबेडकर और निजी परंपराओं के भीतर से सूत्र विकसित करने वाले हमारी पीढ़ी के विरल आलोचक हैं.पिछले दिनों चिंतन दिशा में कवि ज्ञानेंद्रपति पर आया इनका मुकम्मल लेख पठनीय है. शोर और गठजोड़ संस्कृति से दूर रहने के कारण वस्तुओं से  सिद्धांत सृजन में उन्हें मजा आता है.समयांतर के जून २०१३ में छपित रामप्रकाश की  यह समीक्षा आपके सामने हाजिर है-माडरेटर