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25 सितंबर, 2012

विकास और आधुनिकता पूँजीवादी सभ्यता के दमन-शोषण के 'बीज शब्द’



  
                      भूमिका : 'अदृश्य’ प्रतिरोध की पुनर्रचना


अंतिका प्रकाशन,सी-56/यूजीएफ-4, शालीमारगार्डन, एकसटेंशन-II,गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.),फोन : 0120-2648212,मोबाइल नं.9868380797,9871856053, ई-मेल: antika56@gmail.com

 एक
साम्राजी पूँजी और पश्चिमी आधुनिकता के 'जल प्रलय’ के कारण भारतीय समाज गहरे भँवर में फँस चुका है। भारतीय खेतिहर आबादी की अस्मिता और अस्तित्वउसके प्रकृति और संस्कृति से निर्मित सतत संबंधजल जंगल जमीनसब कुछ दाँव पर है। किसान के सामने 'मुक्ति’ के तीन रास्ते हैंविस्थापनआत्महत्या और प्रतिरोध। घाटे की खेतीई-खेती,बड़े निर्माणवर्णसंकरतासेजउत्खननखुदरा व्यापारपर्यटन-पिकनिकशहरीकरण जैसी अनगिनत छीना झपटी के माध्यम से बड़ी खेतिहर आबादी को खेत से विस्थापित किया जा रहा है। लाखों किसानों ने खेती से तंग आकर आत्महत्या कर ली है और सिलसिला जारी है। लूट एवं दमन से परेशान आदिवासी-किसान और मुख्य समाज के किसान आरपार की लड़ाई फतह करने में जुटे हैं।
आज विकास और आधुनिकता जहाँ पूँजीवादी सभ्यता के दमनकारी 'बीज शब्द’ हैं वहीं आंदोलन एक विभ्रमकारी हर्फ। यह व्यापक 'सभ्यतागत सवाल’ है कि किसकी कीमत पर किसका विकासकिसकी आधुनिकता और कैसी आधुनिकताकिसका आंदोलनकैसा आंदोलन। बदनसीबी से हमारी भाषास्मृति और कल्पना चार सौ सालों से रेहन पर'औपनिवेशिक वर्चस्व’ के हवाले हैं। इसलिए बेतक्कलुफी से विनाश को विकासपश्चिमीकरण को आधुनिकता तथा स्वयं सेवी संगठन को आंदोलन कहा जाता है। यह ईस्ट इंडिया कंपनी से मोंसेंटो-वालमार्ट तक की अनवरत औपनिवेशिक यात्रा की वैचारिक-सांस्कृतिक परिणति है। तब जरूरी हो गया है कि चेतना और मनुष्यता की मुक्ति के लिए आधुनिकता और आंदोलन जैसी धारणाओं के विउपनिवेशित-वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य की खोज की जाए। यह किताब इस दिशा में केवल पारिभाषिक लफ्फाजी न होकर एक ठोस सांस्कृतिक-वैचारिक जमीन देने की शुरुआती पहल है। इतिहास और आलोचना का 'केंद्र’(मुख्य धारा) वह कसाईबाड़ा रहा है जहाँ 'अन्य’(किसान) अदृश्य हैप्रभुत्व और वर्चस्व की बलि का शिकार हैपिछड़ा हुआ प्रेत हैभाषाहीन जीभ हैसंस्कृति-विचार की चेतना से मुक्त केवल आर्थिक अस्थि ढाँचा है। हालांकि उस 'परिधि’ के कारण ही 'केंद्र’ का अस्तित्व कायम है लेकिन'परिधि’ से वह केवल 'दमन-दमन’ का खेल खेलना चाहता हैउसके उत्पादन और सृजन का भोग करना चाहता है तथा 'विकास’, 'आधुनिकता’ और 'आंदोलन’ के चक्की-चल अभियान में सत्ता को सहयोग देकर बचा खुचा 'तंदूरी स्वाद’ पाना चाहता है।

दो
यह किताब प्रतिरोध की पुनर्रचना का प्रयास है। प्रतिरोध मनुष्य की स्वाधीनता की आकांक्षा और संघर्ष का बुनियादी औजार है। स्वाधीनता कल्पनाशील एवं रचनात्मक सौंदर्य मूल्य है। इसलिए प्रतिरोध के भीतर यह मूल्य अंतर्निहित होता है। शोषण एक जटिल,बहुआयामीगतिशील एवं सृजनविरोधी कार्रवाई है। प्रतिरोध में सृजनशीलता के गुण होने के कारण वह ज्यादा जटिलबहुआयामी और गतिशील होता है। आंदोलन प्रतिरोध का सामाजिक और संगठनात्मक रूप है। इसलिए आंदोलन और उससे उपजे साहित्य में कल्पनाशील रूपान्तरण की संभावना सर्वाधिक होती है। उपनिवेश के दौरान संभव हुए किसान आंदोलन और किसान साहित्य इसके जीवंत प्रमाण हैं। वस्तुत: किसान आंदोलन और किसान कविता दोनों ऐसी 'सांस्कृतिक संरचना और रचना’ हैं जहाँ मुख्यधारा के'प्रभुत्व और वर्चस्व’ को चुनौती देनेवाले प्रतिरोध और मुक्ति के भरपूर यूटोपियन मसौदे मौजूद हैं।
इस किताब में किसान कविता के दो समय-खंड हैं। पहला वह पूर्वउपनिवेशी काल जिसे आजकल अकादमिक हलके में 'आरंभिक देशज आधुनिकता’ का दौर कहा जाता है। दूसरा काल-खंड 1857 से 1947 तक 'औपनिवेशिक आधुनिकता’ का है जिस दौरान हिंदी प्रदेश में स्वाधीनता आंदोलन के साथ तथा सामानांतर घमासान किसान आंदोलन हुए। इस अवधि में 'देशज आधुनिकता’ और 'मुक्ति की खोज’ में बड़ी मात्रा में 'किसान कविता’ रची गई। खासकर 1917 के अवधबिजोलिया एवं चंपारण से 1947 तक के लिए इतिहास की धूल से चुनकर अभूतपूर्व 'देशज साहित्यिक सांस्कृतिक सामग्री’ एकत्रित की गई है।
आजकल बाहरी और भीतरी औपनिवेशिक आक्रमण की मार से हिंदी साहित्य की विचारधाराज्ञान-मीमांसाचिंतनसृजन के साथ ही इतिहाससमाजशास्त्रराजनीतिशास्त्र एवं संस्कृति-अध्ययन हाँफ रहे हैं। हिंदी की युवा आलोचना ऐसी मरीज हो गई है जो 'गहन चिकित्सा कक्ष’ में भर्ती है। तब हमें 'विउपनिवेशिकृत चेतना और कल्पना’ की पुनर्रचना के लिए 'किसान कविता’ वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष की क्रांतिकारी राह दिखाती है।
किसान कविता कई कारणों से आज प्रासंगिक और बहसतलब 'औपनिवेशिक पाठ’ है। वह किसान आंदोलन का वैचारिक रूप है। वह उपनिवेशविरोधी मनोरचनाकल्पना और स्मृति के अध्ययन का परिधि पर फेंक दिया गया उपेक्षित स्रोत है। वह आंदोलन की मानसिक और सांस्कृतिक टकराहटों और द्वंद्वों को विचारधारात्मक आधार देती है। वह किसान समुदाय को 'पिछड़ी व्यवस्था’ के आरोप से मुक्त करती है। वह राष्ट्रवाद को उपनिवेशवाद के खिलाफ हथियार बनाती है और उसके दमनकारी रूप की आलोचना भी करती है। वह माक्र्सवाद को किसान मुक्ति का औजार मानती है लेकिन उसकी 'यूरोकेंद्रित मशीनी एवं तानाशाह अवधारणा’ का 'क्रिटिक’ पेश करती है। वह राष्ट्रवाद और माक्र्सवाद के द्वंद्व को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखती है।
किसान कविता पश्चिमी पूँजीवाद और आधुनिकता को प्रकृतिसंस्कृति और भाषा की विविधता का नंबर एक शत्रु मानती है। वह लाखों साल में निर्मित प्रकृति और उसकी कोख में मौजूद संसाधनों को नवसाम्राज द्वारा कुछ सालों में उपभोग कर लेने की लालसा और प्रवृति का तीखा विरोध करती है। वह संघर्ष के 'अदृश्य देशज नायक’ की खोज करती है तथा स्वतंत्रता संग्राम की 'वर्चस्वशील संरचना’ को चुनौती देती है। किसान कविता अंग्रेजी की 'औपनिवेशिक भाषाई मानसिकता’ के विरुद्ध हिंदी कविता की 'खड़ी बोली’ को जनपदीय बोलियों की कविता से समृद्ध करती है तथा लिखित और वाचिक के तनाव से कलात्मकता एवं लोकप्रियता के बुनियादी कला-नियम का हल प्रस्तुत करती है।
क्या अब हमें यह सवाल करने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि जैसे प्रभुत्वशाली सत्ता के लिए किसान वर्ग 'अन्य’ है ठीक वैसे ही वर्चस्वमूलक हिंदी आलोचना के लिए किसान कविता 'अन्य’ रही है। और, 'अन्य’ इतिहास की कब्र का वह प्रेत हैजब जिन्दा होता है तब पूरा हिसाब माँगता है। 

तीन
किसान साहित्य और किसान आंदोलन की अदृश्यइतिहास की धूल में फेंकी हुईजनता की जुबान से लिपटी हुई तथा ज्ञान के मुर्दाघरों में पड़ी हुई इस 'कच्ची सांस्कृतिक-वैचारिक सामग्री’ तक पहुँचने की यात्रा पर बात नहीं करना बेईमानी होगा जिस कारण हिंदी ज्ञान-मीमांसा की भाषा आजतक नहीं हो पाई है। हिंदी बौद्धिकों की दो विशेषताएँ हैंमाल उड़ाओ पर सन्दर्भ मत बताओ तथा ज्ञान को निजी मिलकियत की तरह उपयोग करो। यह संस्कृति ब्राह्मïणवादी-सामंती संस्कार की केंचुल नहीं उतरने और पूँजीवादी विचार के कूड़ेदान से कूड़ा बीनने के कारण बनी है जो जनपक्षीय ज्ञान के 'शिखरपुरुषों’ में भी खूब दिखाई देती है। यह प्रवृति ज्ञान की आतंरिक औपनिवेशिक मानसिकता की भी उपज है। जो ज्ञान-उत्पादन खुद सामाजिक नहीं हो सकता वह समाज को स्वतंत्रता का रास्ता खाक दिखाएगा!
            किसान साहित्य से जुडी सामग्री के लिए मुझे तत्कालीन मौखिक स्रोतों,पुस्तिकाओंपत्र-पत्रिकाओंट्रेक्टोंइश्तिहारोंपर्चोंसाक्षात्कारोंकिताबों और पांडुलिपियों पर निर्भर होना पड़ा। दस साल तक यह खोजबीन चलती रही। बिहारउत्तर प्रदेश और राजस्थान की पगडंडियों से मुलाकातों ने इस यात्रा को और समृद्ध किया। तीनमूर्ति पुस्तकालयजेएनयू पुस्तकालयमाडवाड़ी पुस्तकालयसाहित्य अकादेमी पुस्तकालयकेंद्रीय सचिवालय पुस्तकालयराष्ट्रीय अभिलेखागार (दिल्ली)राष्ट्रभाषा परिषदअजय भवन पुस्तकालय (पटना)नेशनल पुस्तकालय (कोलकाता)मोतीलाल तेजावत शोध संस्थान (उदयपुर)हिंदी साहित्य सम्मलेनभारती पुस्तकालय (इलाहाबाद)नागरी प्रचारिणी पुस्तकालय (वाराणसी) आदि महत्त्वपूर्ण सहयोगी रहे हैं।
इस सामाजिक ज्ञान उत्पादन के लिए गुरु मैनेजर पाण्डेय ने विषय सुझायानामवर सिंह और वीर भारत तलवार ने विषय को प्रश्नांकित कर इसे धार देने में मदद कीबद्रीनारायण ने इसकी रचनात्मक सम्भावना की ओर इशारा किया। किसान आंदोलन विशेषज्ञ राघवशरण शर्मा से किसान आंदोलन के राजनीतिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को समझने में बहुत मदद मिलीउन्होंने मगही गीतों के अनेक टुकड़े उपलब्ध कराए। त्रिलोचनकपिल कुमार,लालबहादुर वर्मात्रिवेणी शर्मा सुधाकरहुकुमचंद मेहता सहित अनगिनत व्यक्तियों के साक्षात्कारों से इस अध्ययन को पुष्ट करने में सहायता मिली है। प्रो. रामबक्षमुरली मनोहर प्रसाद सिंहअवधेश प्रधानगीतेश शर्माजब्बार आलमधीरज कुमार नाईटनिहाल अहमद और पल्लव के सहयोग के बिना यह अध्ययन पूरा ही नहीं होता। गौरीनाथ के कारण यह पाठकों के पास है वरना मैं तो अपनी आदत के अनुसार खोज-यात्रा में ही होता। मैं इन सबका दिल से शुक्रगुजार हूँ। उम्मीद है हिंदी की दुनिया इसे गंभीरता से लेगी।