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30 जुलाई, 2015

प्रेमचंद के घर में होरी का भविष्य

                              
                          रामाज्ञा शशिधर


जेनयू और समयांतर से निकलकर बनारस आने पर ऐसा लगा कि इंडिया की आँखों से भारत नहीं,भारत की आँखों से भारत को देखना ज्यादा जरूरी है. प्रेमचंद के घर में मरते हुए लाखों होरिओं की अंतर्कथा से से महरूम बुद्धिजीवियों की लापरवाही और यथास्थितिवाद ने मुझे हिला दिया. परिणामतः यह रिपोर्ताज. पंकज  बिष्ट का समयांतर में न केवल इसे छापना, न सिर्फ आत्महत्या करते किसान-बुनकरों को गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता सम्मान की एक लाख राशि राहत-रोजगार के लिए देना बल्कि बनारस और सारनाथ पहुंचकर जनबुद्धिजीवी की सच्ची भूमिका निभाना एक सार्थक कदम था. होरिओं,गोबरों,धनियायों,मतीनों,घिसूओं,बुधियाओं की आत्महत्या व सत्ता प्रायोजित हत्या जारी है इसलिए यह रिपोर्ताज भी प्रासंगिक है.इसे रिप्रिंट करनेवाली पत्रकारिता के हम आभारी हैं.


9 अगस्त 2006।
छाही का काश्तकार छोटेलाल होरी की तरह महतो नहीं, यादव था। था, मतलब अब इस संसार मेें नहीं है। और कुछ खाने पीने को जब नहीं बचा तो करो या मरो की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपनी धनिया को छोड़कर पूरे परिवार के साथ कीटनाशक घोल पी आत्महत्या कर ली। सिर्फ साल भर पहले यहां इसी तरह एक और किसान परिवार ने सामूहिक खुदकुशी की थी। छाही के साथ पूरा पूर्वांचल मौत के मुहाने पर है।

दैनिक हिन्दुस्तान के पूर्वांचली संस्करण में अगस्त 1942 की उपलब्धियों पर अंग्रेज कलक्टर नेबलेट का
धारावाहिक छप रहा है। पुरबिया किसानों ने किस बहादुरी से फिरंगियों के छक्के छुड़ा दिए तथा गांधी टोपी की लाज रख ली। मंगल पांडेय बलिया के बहादुर किसान पुत्र थे, वारेन हेस्टिंग्स को बनारसी गुंडों ने पानी पिला दिया, सैकडों किसानों को ब्रिटिश फौज ने नीम के पेड़ों से झुला दिया था, अकाल सामा्रज्यवादियों की सौगात था-आदि मुहावरों से पचर्,े अखबार, चाय-पान दूकान भरे पड़े हैं।

अस्सी का स्टेटमेंट है-यादव के राज में यादव की मौत। कोला का एजेंट, किसान का हितैषी है। दादरी और ददुआ मुलायम के लिए दोनों कामधेनु हैं। अमरसिंह के राजनीति में आने का ही कमाल है कि मुलायम की पहली च्वाइस ज्योति बसु से विपासा बसु हो गई है। मनमोहन मिनिस्टर नहीं मार्केटर हैं। पूर्वांचल आज यूपी का विदर्भ है, कल तेलांगना होगा। समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई।
15 अगस्त 2006।
ही पंचायत की ओर बढ़ते हुए बनारस से सारनाथ के बीच स्वाधीनता के साठवें साल में प्रवेश का उछाह पूरी धूमधाम से दिख रहा था। कटी हुई रंग बिरंगी फन्नियों, प्लास्टिक, रेशम और काटन के झंडो,ं फूलों पत्तियों से सजे सरकारी गैरसरकारी संस्थानों पर उपकार का गीत मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती ऐसे फब रहा था मानो बनारसी साड़ी पर सोने के बेल बूटे मढे हों। आसमान में पूरब से आते छिटपुट सूखे बादल के टुकडे़ ऐसी मुद्राओं में मौजूद थे जैसे परेड करते स्कूली बच्चों, सलामी देती फौज, बूट की सामूहिक धमक या फिर नीलगायों से बचने के लिए भागते हुए धनखेतों के सैकड़ांे टुकड़े हों।

फिर फिर गोदान
छाही लमही से लगभग पांच मील दूर बेलारी जैसा गांव है। छोटेलाल होरी से चार साल छोटा। दुर्गा भवानी पांच हजार आबादी वाले छाही के आठ पुरों में से एक पुर है जिसमें पांच सौ लोग रहते हैैंं। घर एवं पुर के लोग छोटेलाल को प्यार से छोटू कहते थे। होरी की तरह ही हंसोड़, दूसरेां के दुख दर्द में सहयोगी, तमाम परेशानियांे के बावजूद खुशमिजाज। हीरा और शोभा की तरह छोटू के भी दो भाई थे। पहले संयुक्त परिवार बाद में एकल। नारायण यादव पहले साधु हो गए, फिर शादी की, अब घर के सम्मुख दुर्गा भवानी का मंदिर बनाकर गृहस्थ संन्यासी का जीवन जी रहे हैं। किसी बरगद से ज्यादा सघन एवं तेजस्वी जटाएं। सिरी यादव भी खेती से उबकर्र इंट-गारे की मजूरी में लग गए हैं। छोटू के होरी की तरह तीन बच्चे थे। होरी के बैल की तरह एक परिया है जिसे बनारस से अधिया यानी बटाई पर लाया गया था। छोटू को होरी की तरह पांच बीघे जमीन थी। खेती के बर्बाद होते जाने, बैंकों, महाजनों और बीमारी के व्यूह में फंसकर तीन बीघे निकल गए।

होरी और छोटू की मौत या आत्महत्या या हत्या की प्रक्र्रिया, दिशा और परिणति में बहुत मामूली अंतर है। होरी किसानी से टूटकर मजदूर बना। छोटू आधा होरी, आधा गोबर एक साथ था। दोपहर तक वह अपने खेतों में सपरिवार किसानी करता था और शाम से 10 बजे रात तक बनारस जाकर पावरलूम मंे बिनकारी का काम करता था। बाद में बनारसी साड़ी के लिए बिटाई का काम करने लगा। चार साल से उसे गठिया होने के कारण एलोपैथ से लेकर नीम हकीमों तक ने चूस लिया।

मरजाद की चपेट में छोटेलाल भी आया। बड़े भाई नारायण भगत सहित मित्रों परिजनों से यह झिड़की मिलती थी कि तीन बीघे खेत बेच डाले और आज तक वह एक कमरे की पुश्तैनी मि़ट्टी की झोपड़ी मंें है। वह झोपड़ी भी कब धंस जाए पता नहीं। छोटेलाल सूदखोरों के चंगुल में पहले ही थे, एक बार फिर मरजाद की फिक्र कर पचास हजार रुपए बनारस के कबीर चौरा स्थित भूमि विकास बैंक से ले लिया। तीन कमरों का मकान अधूरा रह गया क्यांेकि बैंक और कर्जदार के बीच बिचौलियों की अंतहीन जेबें थीं।पटिया और गार्टर का कर्ज सिर पर ऊपर से हो आया। इस तरह सरकारी एवं गैरसरकारी महाजनों के मूल-सूद के पहाड़ के नीचे वह दबता चला गया।

छोटेलाल किसान था, इसलिए कायर और काहिल नहीं था। उसने खेती में कई जोखिम उठाए जो उसकी मौत में सहायक बने। पिछली बार उसने पालक की फसल लगाई। सारनाथ और पांडेयपुर मंडी के होते हुए भी पालक दो रुपए पसेरी भाव छू पाया। मजबूर परिया को घास के तौर पर खिलाना पड़ा। अपने परिवार को भूख से उबारने के लिए इस खरीफ में छोटेलाल ने बैगन की खेती एक बीघे में की। मानसून की दगाबाजी, आठ महीने से टांªसफर्मर जला रहने के कारण बंद बोरिंग, शारदा सहायक नहर के जलहीन पेट ने भंटा बैगन के खेत को झुलसाना शुरु किया। छोटेलाल की किसान बुद्धि ने सोचा था कि बाटी चोखा के शौकीन पुरबिया बाजार इस बार उसे थोड़ा उबाड़ लेंगे। जब छोटेलाल के लिए भंटा के पौधों पर महंगे कीटनाशकों के कई छिड़काव करने का पैसा नहीं रहा तो उसने पहले पांच हजार का महाजन से कर्ज लिया, फिर एक बीघे वाले दूसरे खेत की मिट्टी बेचनी शुरु की। शहर की कालोनी भरने के लिए यहां 20रु ट्रैक्टर मिट्टी बिकती है। छोटेलाल का खेत कलेजे काढ़ लिए गए खरगोश की लाश की तरह आज भी पड़ा है जिससे दो हजार रुपए की मिट्टी काट ली गई।

कई दिनों की फाकाकशी के बाद छोटेलाल मौत से एक दिन पहले ईंट गारा का काम करने बनारस शहर गया। जर्जर कमजोर ठठरी,, कई दिनों की भूख, चिलचिलाती सावनी धूप और्र इंट गारा ढोने की आदत नहीं होने के कारण काम के वक्त ही वह मूर्च्छित हो गिर पड़ा। होरी ऐसी हालत में लू से मर गया था जबकि छोटेलाल ने दूसरी सुबह सोच विचारकर सामूहिक खुदकुशी को चुना।

छोटेलाल ने भंटा में देनेवाले कीटनाशक खुद पीकर फिर तीनांे बच्चों को जबरन क्यों पिलाया ? इस बावत सवाल करने पर उसके पुराने लंगोटिया मित्र उमाशंकर यादव कहते हैं-यह असंभव घटना लगती हैैै। वह ऐसी माटी का था कि यह सोच भी नहीं सकता था। सुबह मेरे पास चाय और खैनी लेकर घर आया और घर बंदकर जबरन अपने बच्चों कौशल्या (12),तुसली (8),एवं दयालु(4) को जहर पिला दिया। शायद उसे आगे कोई रास्ता नहीं दिख रहा था।

किसान छोटेलाल की सपरिवार आत्महत्या से जुड़े कई सवाल हमें परेशान करते रहे। क्या होरी की तरह वह साहसी नहीं था ? क्या होरी लू से बच जाता तो आत्महत्या करता ? क्या महाजन और बैंक के आतंक से छोटू दो बीघा काश्त बेचकर उबड़ नहीं सकता था ? क्या उसे यह डर था कि इस खेत के बिकने के बाद उसे अपनी बेटी कौशल्या को होरी की तरह रामसेवक महतो जैसे अधेड़ के हाथों बेचना पडे़गा ? क्या धनिया की तरह अपनी पत्नी के साहसी होने के कारण उसे खुदकुशी में शामिल नहीं किया ?

साधु काका नारायण भगत ने जिस बच्चे का नाम तुलसीदास रखा था, वह जहर खाकर भी बच गया। शायद तुलसीदास के मरने का समय अभी नहीं आया है। लेकिन दो सबसे बड़े सवाल हैं जो ढूंढ़ने अभी बाकी हैं। पहला, यह आत्महत्या थी, मौत थी या सŸाा एवं व्यवस्था द्वारा निर्मित परिस्थितिजन्य हत्या थी ? दूसरा, किसान छोटेलाल द्वारा की गई आत्महत्या के मात्र इतने छोटे और सरल कारण हैं ? हमें इन प्रश्नों की व्यापकता, जटिलता और गहराई में उतरना चाहिए।

महाजनी सभ्यता का नया दौर
छाही के दुर्गा भवानी पुर में ही पिछले साल जयचंद नामक किसान ने कर्ज और भूख से तंग आकर गर्भवती पत्नी और बच्चे सहित खुदकुशी कर ली थी। अगस्त महीने की तीन तारीख को बनारस जिले के एक किसान ने ऊबकर धोती से फांसी लगा ली। सात तारीख को एक और किसान ने आत्महत्या कर ली। अंतहीन सिलसिले की फेहरिस्त में तेईस को बलिया के एक किसान ने परिवार के चार सदस्यों सहित खुदकुशी कर ली। पूर्वांचल के जिलों में ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब भूख से मौत या आत्महत्या नहीं होती है। इसमें उन शहरी बुनकरों की विराट मौतंे शामिल नहीं हैं जिनके भविष्य का कोई खेवनहार नहीं हैै। पिछले पांच सालों में पूर्वांचल में भूख से पांच सौ अधिक मौत हुई हैं जिनकी एक चौथाई आत्महत्या की है। बगल के बंुदेलखंड में चार साल में हुई 600 आत्महत्या का यहां कोई जिक्र नहीं है।

छोटेलाल छाही का यादव था। उस पंचायत में चालीस फीसदी आबादी यादव काश्तकारों की है। दूसरे नम्बर पर कोयरी काश्तकार हैं। पंचायत की पचास फीसदी आबादी 2 बीघे से कम जोतदारों की है। इसका मतलब यह हुआ कि बाकी तीस फीसदी भूमिहीन मजदूरों के अतिरिक्त पचास फीसदी काश्तकार भी मजदूर ही हैं। पंचायत प्रधान गीता देवी यादव के पास सर्वाधिक काश्त जमीन 15 बीघे हैं। प्रधानी और खेती पति संभालते हैं जो नौकरी पेशे में हैं। पंचायत प्रधान के पति महोदय का मानना है कि नौकरी की कमाई भी खेत खा जाता है। पंचायत के काश्तकार एवं भूमिहीन मजदूर बनारस शहर की मंडियों में रोज श्रम बेचने जाते हैं। पंचायत की सारी खेती मजदूरी के पैसे से जिंदा है। दलित स्त्री मजदूर खेतों में काम करती हैं जिन्हंे न्यूनतम मजदूरी 30 से 40 रु से संतोष मिल जाता है।

केवल छोटेलाल के मुहल्ले से सौ से अधिक साइकिलें बनारस शहर की नाटी इमली, बड़ी बाजार ,चौकाघाट, छिŸानपुरा, लल्लापुरा, चानमारी आदि जगहों पर पावरलूम चलाने जाती हैं। मुहल्ले के सरयू यादव बताते हैं कि शहर में चार से पांच घंटे ही बिजली रह पाती है। परिणामतः दो दिनों की मेहनत से एक साड़ी बनती जिसकी मजदूरी पचास रुपए मिलती है। छाही पंचायत के चिरई प्रखंड और बनारस मुख्यालय से सटे प्रखंडों के बुनकरों की रोजाना कमाई पचीस रुपए है। किसान बुनकरों की रोज की कमाई का अधिकांश अगर उसके खेत के टुकडे़ निगल जाएं तो आप कल्पना कर सकते हैं कि उनके परिवार भोजन के नाम पर क्या खाते पीते हांेगे। पूर्वांचल के अन्य जिलों से सटे प्रखंडों के मजदूरांे की हालत और ज्यादा त्रासद है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया के बाद पूरा बिनकारी उद्योग ध्वस्त हो चुका है जिसका विवेचन यहां संभव नहीं है।

छाही पंचायत की तरह पूरे चिरई प्रखंड के किसान महाजनों और सरकारी बैकों की पूरी गिरफ्त में आ चुके हैं। दरअसल सूदखोरी यहां एकमात्र फलने फूलने वाला उद्योग या व्यापार है। सूदखोरी एक ऐसी नेटवर्क्रिंग है जिसके वेव से पूर्वांचल का कोई घर, कोई किसान, अलग नहीं रह सकता है।

बनारस के कबीर चौरा स्थित भूमि विकास बैैंक इस पंचायत का इकलौता कर्जदाता बैंक है जो यहां से
दस किलोमीटर दूर है। छोटेलाल पर भी इसी बैंक का पचास हजार मूल है। बैंक और पंचायत के बीच की दूरी ही बिचौलियों, सूदखोरों, दलालों के लिए चारागाह तैयार करती है। अनपढ़,़ अल्पसाक्षर, जटिल सरकारी नियमतंत्र से अनभिज्ञ किसानों के लिए बैंक के मैनेजर तक पहुंचना स्वर्ग के राजा तक पहुंचने जैसा है। कृषि, कृषि रोजगार एवं पशुपालन के नाम पर मिलने वाले कर्ज का मतलब है कि सूदखोर हर हाल में किसान के खेतों पर गिद्ध झपट्टा लगा सके।

भूमि विकास बैंक दरअसल इस इलाके के लिए भूमि विनाश बैंक साबित हुआ है। पंचायत के किसानों की एक स्वर से मांग है कि दो किलोमीटर की दूरी पर मौजूद काशी ग्रामीण बैंक को उनका कर्जदाता बैंक बनाया जाए। ऐसा संभव नहीं है। तब किसानों से लिया जानेवाला कमीशन कम हो जाएगा। पूरे पूर्वांचल की बैंकिंग संरचना कमोवेश ऐसी ही है।
खेत अब किसानों की नहीं, सूदखोरों एवं बैंकों की अघोषित स्थाई संपŸिा है। इस इलाके में और पूरे पूर्वांचल में सूदखोरों ने अपने अनुभव से इस धंधे के प्रसार और टिकाऊपन की रूपरेखा बना ली है। यहां औसतन एक सौ बीस प्रतिशत सालाना ब्याज पर किसानों को कर्ज मिलता है अर्थात एक सौ रुपए के बदले साल भर में दो सौ बीस रुपए वापस करना होगा। किसान अकसर बीमारी, मरनी, शादी विवाह एवं मंदी के सीजन में सूदखोरों से कर्ज लेते हैं। कुछ वर्षांे बाद ब्याज की मोटी रकम होने पर सूदखोर जमीन गिरवी रखवाकर किसानों को बैंक से कर्ज लेने में मदद करते हैं। दोतरफा सूद से त्रस्त किसानों पर बैंकांे द्वारा माइक कराकर पुलिस-अमीन के माध्यम से जमीन जब्ती की धमकी दी जाती है। अंततः किसानों को जमीन के टुकड़े औने पौने भाव बेचने पड़ते हैं। लेकिन इससे उन्हंे मुक्ति नहीं मिल पाती। यह प्रक्रिया चक्रा्रकार और चक्रवृ़िद्ध के तौर पर पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है।

छाही पंचायत में पांच हजार किसान हैं जिनमें एक सौ सदस्यों को सहकारी बैंकों से कर्ज मिला है। दरअसल यूपी में सहकारी बैंक व्यवस्था इतनी ध्वस्त है कि पिछले साल पचास फीसदी सूद में छूट की घोषणा के बावजूद वह पूर्ण गतिशील नहीं हो सकी है। सरकार की किसान विरोधी चेतना का पता इस बात से लग सकता है कि छाही पंचायत में अधिकांश किसान दो एकड़ से कम जोत के हैं। इसलिए सहकारी बैंक की राजनीति है कि दो एकड़ से कम रकबा वाले किसानों को कर्ज नहीं दिया जाए।

किसानों द्वारा खेत जल्दी बेचने, मोटे सूद पर कर्ज उठाने या आत्महत्या कर लेने के लिए सबसे सरल उपाय यह है कि तहसील अमीन, दारोगा एवं मैनेजर द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर पूरा गांव घुमाया जाए ताकि उनकी इज्जत-आबरू की मड़िया हो सके। महाजनी तंत्र मड़िया करने में माहिर और सफल है तथा किसान आत्महत्या करने में।

ए मौला तू पानी दे उर्फ सूखे की राजनीति
छाही और पूर्वांंचल के किसानों के दो नकली दुश्मन हैं-मानसून और सूखा। इनके दो असली दुश्मन हैं-सरकार और महाजन। सरकार, मीडिया और महाजनी ताकतों ने हमारा सारा ध्यान मानसून की तरफ पूरी राजनीति के साथ मोड़ दिया है। इन जटिलाताओं की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी हुई है।

धान का कटोरा और पूरब का पंजाब माने जाने वाले इस इलाके के मानसून, बादल और धान पर साठ के दशक में चकिया के कवि केदारनाथ सिंह ने धानों का गीत और बादल ओ जैसी मर्मस्पर्शी कविताएं लिखीं जिनमें मानसून ही धान के मुक्तिदाता हैं। सोनभद्र के युवा कवि श्रीप्रकाश शुक्ल की हड़पड़ौली कविता है जो मानसून की अगवानी के लिए सदियों से आजतक अर्द्धरा़ि़त्र में नग्न होकर हल चलानेवाली स्त्रियों के समाज की त्रासद कथा कहती है। बस्ती के कवि अष्टभुजा शुक्ल की कविताएं पुरबिया किसानों के सतरंगे दुखों से रंगी हैं।

मानसून के लिए स्त्रियों का नग्न होकर इंद्र के सामने भोग के लिए प्रस्तुत होना, तेंतीस कोटि देवताओं की यज्ञाहुति देना, पूजा-पाठ, गीतनाद, जुलूस, धरना, प्रदर्शन सहज बातें हैं। जुलूस निकालने वाली किसान कतारों का एक कातर गीत है- काल कलौटी, उज्जर राटी/ ए मौला तू पानी दे/ भूखे बैल,प्यासी बकरी/ ए मौला तू पानी दे। चार सालों के सूखा-अभियान के बाद इस बार इन्द्र ने जुलाई में डेरा डाला, फिर तंबू उखाड़कर चले गए।

छाही पंचायत के खेतों में दरारें हैं, धान के बच्चे आसमान को निहारते हुए असमय दम तोड़ रहे हैं। पंचायत की नहर, कुएं, बोरिंग में कहीं पानी नहीं है। ग्रामीण वेदी यादव बताते हैं कि हमारी हालत छोटू से अच्छी नहीं है। यही हालत रही तो पूरे गांव को बहुत जल्दी खुदकुशी करनी पड़ेगी।

सरकारी तंत्र छाही में पूरी तरह ध्वस्त,गैरजवाबदेह और भ्रष्ट है। किसानों का कहना है कि नहर अधिकारी पानी का गेट खोलते ही नहीं हैं। नहर विभाग के तहसील अधिकारी घूमते रहते हैं तथा दो फीट बरसाती पानी से किसी ने दस डलिया खेत में डाल दिया तो सिंचाई कर लग जाता है। पूरी पंचायत में मात्र एक सरकारी बोंिरंग है जो 1970 के आसपास लगी थी। सिंचाई विभाग से सेवानिवृत किसान राजदेव यादव का कहना है कि एक बोरिंग की सिंचाई का कमांड एरिया सौ एकड़ होता है लेकिन व्याहारिक तौर पर वह पचीस एकड़ पटवन ही कर पाता है। छाही पंचायत मंे हजार एकड़ से ज्यादा जमीन है। बोरिंग भी इन दिनों इसलिए बंद है कि लंबे समय बाद जब जला टांसफर्मर बदला गया तब मोटर तक बिजली ले जाने वाले केबल तार की किल्लत हो गई।

प्राइवेट बोरिंग नाम मात्र के हैं जिनके पास दोहरे संकट हैं-बिजली मात्र चार पांच घंटे मिलना और नहर में पानी नहीं आने से जलस्तर का नीचे भाग जाना। छोटूलाल की आत्महत्या किसानों के लिए शुभ हुई कि गांव में जिलाधिकारी आए। परिणामतः महीनों से जले टाªंसफर्मर को बदला गया। ट्रांसफर्मर बदलने के लिए बिजली विभाग द्वारा मांगी जा रही घूस तो बच गई मगर अब किसान से केबल तार जोड़ने के लिए घूस मांगी जा रही है। मतलब कि बोरिंग बंद है। पंचायत में पचास कुएं हैं जो सूखे पड़े हैं। बनारस जिले को पिछले साल नौ करोड़ रुपए तालाब खुदाई के लिए मिले ताकि बरसाती जलसंग्रह से इलाके का जलस्तर ऊपर बना रहे। किसानों का कहना है कि जरूरी जमीन रहते हुए वह तालाब पंचायत तक नहीं पहुंचा है। डीजल महंगा होने से पम्पसेट चलाना बहुत मुश्किल है।

किसान ज्यादा पानी पीनेवाले बौनी मंसूरी और सरयू-52 से बचते हुए कम पानी की जरूरत वाले पंथ -चार किस्में लगाते हैं लेकिन यह कोई सामाधान नहीं है। धान की किस्में भूख से लड़ने मंे अक्षम हैं। शारदा सहायक नहर के खाली पेट में दो तीन फीट बरसाती पानी है जो सेर दो सेर मछलियां बच्चों के झोले में रोज डाल देता है। बारह साल के अनिल मोची ने बंसी मे नन्हीं पोठिया फंसाते हुए कहा कि जब पानी ज्यादा रहे तो नहर में टेंगरा, वामा, चिहलवा, रोहू, पैना, चिनगा सहरी, झिंगवा ,डिंडा ,लपचा आदि मछलियां खूब आती हैं। हमलोग बेचकर सौ पचास कमा लेते हैं। हम मछली ले जाएंगे तो मां को सब्जी नहीं खरीदनी पडे़गी।

नहर में सालों भर पानी रहे तो इलाके की आधी समस्या खत्म हो जाएगी। दरअसल केन, टांेस, मगई जैसी बरसाती नदियों के बदले गंगा, सरयू, घाघरा, गोमती से नहरों का जाल निकालकर बिछा दिया जाए तो एक ओर सिंचाई और पेयजल का संकट दूर हो जाएगा वहीं महाजन और चुनावी दलों का धंधा चौपट हो जाएगा। धंधा जारी रहे इसलिए नहर में पानी का मंदा रहना जरूरी है।

सूखे की राजनीति से सरकार और महाजन दोनों खुशहाल हैं। सरकारी बोरिंग आवंटित नहीं करने का तर्क है कि पूर्वांचल में जलस्तर तेजी से गिर रहा है। सिंचाई का पानी निकालने से दस साल बाद यहां की आबादी के सामने पेयजल संकट पैदा हो जाएगा। मानसून नहीं है तो नदी सूखी है, नदी के कारण नहर सूखी है, नहर के कारण जलस्तर गिर गया है, जलस्तर गिरने से कुएं बोरिंग सूखे हैं, इस कारण खेत सूखा है और किसान भूखे हैं। किसानों की भूख महाजनों, बैंकों के लिए लूट और शोषण की औजार है, राजनीति के लिए चुनावी हथकंडा है।

इन दिनों पूर्वांंचल में सूखा सत्ता  के लिए सबसे मालदार फसल है।

लोकतंत्र का चौथा शेर
छाही को छोड़ते हुए हम जब सारनाथ की तरफ बढ़ रहे थे तो गांव के निकट बाजार में पांच सौ का नोट रेजगारी के लिए निकला। परेशानी, तनाव और दवाब से घिरी हालत में देखता क्या हूं कि नोट से अशोक स्तम्भ का चौथा शेर गायब है। मुझे लगा कि शायद सारनाथ के अशोक स्तम्भ में वह सलामत मिले। हम सब सारनाथ के पुरातत्व म्यूजियम आए। झिलमिलाती आंखों ने वहां भी चौथा शेर नहीं देखा। हालांकि लोकतंत्र के तीनों शेर अभी विश्राम की मुद्रा में अघाए हुए पगुरा रहे थे ।

बनारस की तरफ भागते हुए हम इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि अहिंसा  और समता की विशाल बुद्ध मूर्ति  की नाक के नीचे से गायब चौथा शेर पूर्वांचल के गांवों कस्बों में बेफिक्र दहाड़ता हुआ रोज शिकार कर रहा है। वह अहिंसक शेर मानसून की आंखों में, नहरों के पेट में, महाजनों, सूदाखोरों की चेतना में, सत्ता  और राजनीति की आत्मा में, कारगिल के बीजों में, बैंकों के लॉकरों में, सरकारी तंत्र की फाइलों में प्रवेशकर चुका है जिसकी हिंसा का आखेट छोटेलाल जैसे किसान, छाही जैसे गांव, बनारस जैसे जनपद पूर्वांचल जैसा इलाका, उत्तर प्रदेश जैसे प्रांत और पूरे लोकतंत्र के हाशिए के अदृश्य समाज हो रहे हैं।

बुद्ध  के ज्ञान और धर्म को मौर्य के सुशासक अशोक ने चार शेरों में ढालकर विजय स्तम्भ बनाया था। चारों शेर बुद्ध के ज्ञान और धर्म को चतुर्दिक दिशाओं में फैलाने वाले जाग्रत चेतना, जाग्रत शक्ति के विराट प्रतीक हैं। चारों शेर बुद्ध के चार आर्य सत्यों-दुख है, दुख का कारण है, दुख का निवारण संभव है, दुख निवारण के उपाय हैं-के समर्थ नियंता थे। चौथा शेर के लापता होने का मतलब बुद्ध के चौथे आर्य सत्य का अपहरण होना है। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह शेर हम बुद्धिजीवियों के नजरिए और कलम में आकर चुपचाप बैठा है। अगर नहीं तो हमें बताना होगा कि होरी का भविष्य क्या है।

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