निर्णायक सुविख्यात कवि एवं कथाकार उदय प्रकाश की अनुज लुगुन के कविता चयन पर वस्तुनिष्ठ टिप्पणी:
उलगुलान‘ किसी अन्य अस्मिता की किसी विजातीय भाषा के शब्दकोश से आयातित एक अटपटा-सा लगने वाला कोई शब्द भर नहीं है, जिसकी आनुप्रासिक ध्वन्यात्मकता किसी प्रगीत-काव्य के लिए उपयुक्त हो और यह हिंदी की सवर्ण-नागर कविता के छंद-प्रबंध और उसके ऐंद्रिक-मानसिक आस्वाद की किसी शातिर सांस्कृतिक परियोजना में खप कर निरर्थक हो जाए और अपना ऐतिहासिक-मानवीय संदर्भ खो डाले। ‘अघोषित उलगुलान’ में इतिहास और सामुदायिक स्मृति की गहरी, उद्वेलनकारी, बेचैन-खंडित स्वप्नों और अनिर्णीत आकांक्षाओं की उथल-पुथल से भरी एक ऐसी अनुगूंज है, जिसे आजादी के बाद की हिंदी कविता में पहली बार इतनी सघनता और तीव्रता के साथ युवा कवि अनुज लुगुन की कई कविताओं में लगातार सुना-पढ़ा जा रहा है।
अनुज लुगुन की कविता ‘अघोषित उलगुलान’ उन्नीसवीं सदी के ब्रिटिश राज के उत्पीड़न और गुलामी से अपनी मुक्ति और ‘अबुआ दिसूम’ (स्वाधीनता) के लिए संघर्ष करते और बलिदान देते आदिवासियों के ऐतिहासिक महावृत्तांत की आजादी के 64 साल बाद भी विडंबनापूर्ण समकालीन निरंतरता को बहुत गहरी मार्मिकता, आलोचनात्मक विवेक और अंतर्दृष्टि के साथ व्यक्त करती है। कॉर्पोरेट पूंजी और नयी तकनीकी के आक्रामक साम्राज्य द्वारा अपदस्थ की जा चुकी लोकतांत्रिक और विचारधारात्मक राजनीति के पतन और विघटन के बाद, अपनी धरती, घर, जंगल और अपनी पहचान तक के लिए जूझते और आत्मरक्षा या प्रतिरोध के न्यूनतम प्रयत्नों के लिए भी अभूतपूर्व दमन और संहार झेलते आदिवासियों के कठिन जीवन अनुभवों को व्यक्त करने वाली यह कविता समकालीन हिंदी कविता की अब तक परिपोषित, पुरस्कृत और परिपुष्ट परंपरा में एक विक्षेप या प्रस्थान की तरह है। उस ओर प्रस्थान, जहां इतिहास की मुख्यधारा से बाहर, हाशिये में फेंक दी गईं जातियां, वर्ग, समुदाय और दबी-कुचली निरस्त्र अस्मिताएं समूचे प्राणपन के साथ अपने अस्तित्व और अधिकार के लिए जूझ रही हैं। कविता में उस दिशा की ओर प्रस्थान जहां हिंदी की समकालीन युवा कविता तत्सम की चतुर वक्रोक्तियों और दयनीय श्लेष या फारसी के अधपके-अधकचरे छद्म भाषिक अभिजात का सतही कौतुक नहीं रचती, बल्कि जहां कविता अपने समय और सभ्यता के गहरे अंतर्विरोधों और संकटों में फंसे सबसे वंचित और सत्ताहीन मनुष्यता के मूल अनुभवों की ओर जाती है। यह कविता की एक बार फिर अपनी जड़ों की ओर वापसी है, जहां से वह अपनी संरचनाओं और अभिव्यक्तियों के लिए एक नयी, जीवित, व्यवहृत और प्रासंगिक काव्य-भाषा हासिल करेगी। गहरे अनुभवजन्य आलोचनात्मक विवेक के साथ अनुज लुगुन की कविता इस जीवन के विरोधाभासी और द्वंद्वात्मक प्रसंगों और बिंबों को विरल सहजता के साथ अपने पाठ में विन्यस्त करती है और अपने समय के सत्य के बारे में एक ऐसा ऐतिहासिक वक्तव्य देती है, जिसे छुपाने और ढांकने के लिए भाषा के अन्य उद्यम, संसाधन और उपकरण पूरी ताकत और तकनीक के साथ वर्षों से लगे हैं। वह सच यह है कि किसी भी अस्मिताबहुल राज्य और समाज में स्वतंत्रता, विकास, अधिकार, संस्कृति, भाषा और कविता का कोई एकल, इकहरा, एकात्मक और इकतरफा रूप नहीं होता। कुछ की स्वतंत्रता, विकास और संस्कृति बहुतेरी वंचित अस्मिताओं के औपनिवेशीकरण, विनाश और उनके सांस्कृतिक उन्मूलन का जरिया बनती है।
अनुज लुगुन की कविता ‘अघोषित उलगुलान’ को वर्ष 2010 का प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार देते हुए मुझे गर्व और सार्थकता, दोनों की अनुभूति हो रही है।
पुरस्कृत कविता
अघोषित उलगुलान
अलसुबह दांडू का काफिला
रुख करता है शहर की ओर
और सांझ ढले वापस आता है
परिंदों के झुण्ड-सा
अजनबीयत लिये शुरू होता है दिन
और कटती है रात
अधूरे सनसनीखेज किस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन!
वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
जहर बुझे तीर से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आंच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल
शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल
लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ
गुफाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ
इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गये
रेमंड का सूट पहनने के बाद।
कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लवारिस लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता
बोलते हैं बोलने वाले
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
बोलते हैं लोग केवल
उनके धर्मांतरण पर
चिंता है उन्हें
उनके ‘हिंदू’ या ‘इसाई’ हो जाने की
यह चिंता नहीं कि
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलबे
और लोहे की ढेंकी में
कूटती है उनकी आत्मा
बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।
लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल।
दांडू जाए तो कहां जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में।
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में।
3 टिप्पणियां:
अनुज की तीक्ष्णता में आदिवासी ज़िंदगी की मौजूदा विडंबना जिस तरह मुखर होती है.निश्चित ही उनकी कवितायें हिन्दी काव्य इतिहास में निर्मला पुतिल के बाद नया मील का पत्थर है. शशिधर भाई कहीं न कहीं आपकी उपस्थिति का दखल अनुज को नयी राह देगा.
lekh/ kavita ke madhyam se bahut kuchh ujagar hota hai,parantu rajnitigya padadhikari ise dekhte,padhte nahi,paalan kahan se karenge.
दांडू किसका प्रतीक है?
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