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14 अगस्त, 2022

मक्खलि गोसाल कौन थे


©प्रेमकुमार मणि
लेखक,विचारक

 मक्खलि गोसाल के जन्म और जीवन -यापन के बारे में जैन ग्रंथ भगवती -सूत्र में कुछ जानकारी है , जिसके अनुसार उनके पिता का नाम मंखलि और माता का भद्दा ( भद्रा ) था . मंख से क्या तात्पर्य है ,इस पर विद्वानों में कई तरह के विचार हैं . इतिहासकार बाशम इसे भाट के अर्थ में  लेते हैं , जिनके अनुसार गोसाल के पिता एक ऐसे कवि-गायक  थे , जो घूमते रहते थे . भाट लोग प्रायः ऐसा करते रहे हैं . इन्हे घुमन्तु गायक भी कह सकते हैं . हालांकि बी .एम. बरुआ ने अपनी किताब में मक्खलि को मस्करीन या मस्कारा कहा है , जिसका अर्थ पाणिनि के अनुसार बाँस ढोने वाला है . संस्कृत ग्रन्थ 'दिव्यावदान ' में मक्खलि को गोसाल मस्करीपुत्र कहा गया है .  हालांकि भगवती -सूत्र में ऐसी कोई बात नहीं है . इसके अनुसार गोसाल के माता -पिता सावत्थी ( श्रावस्ती ) के थे और जैसा कि बताया गया है ,वे घुमन्तु थे . इस क्रम में वे सरवन नामक एक बस्ती में आये . यह बस्ती सरकंडों के झुरमुट से भरा था . उन दिनों मकान बनाने  में सरकंडों की बहुत जरुरत होती थी ,इसलिए संभव है बाँस की जगह वे कभी -कभार सरकंडों को बैल -गाडी से ढोने का काम करते हों . लेकिन किसी भी तरह हों ,वह घुमन्तु तो थे ही . भगवती -सूत्र के अनुसार मंखलि ने अपनी गर्भवती पत्नी भद्दा को गोबहुल नामक एक पशुपालक के यहाँ उसके गोसाले में रख छोड़ा था . इसी गोशाले में मक्खलि गोसाल का जन्म हुआ . मक्खलि या मंखलि पिता से लिया हुआ नाम हुआ और गोशाला में जन्म लेने के कारण गोसाल हो गया . बुद्धघोष  ,जो ' सामञ्जफल  सुत्त ' के व्याख्याकार हैं, के अनुसार मक्खलि का जन्म एक दास परिवार में हुआ था ,जो किसी तेल व्यापारी का तेल ढोया करता था . एक रोज असावधानी से मक्खलि ने तेल भरा मटका गिरा दिया . इससे क्रुद्ध हो उसके मालिक ने उसे पकड़ना चाहा और शायद दण्ड पाने के भय से मक्खलि ने भागना चाहा . मक्खलि का वस्त्र उसके मालिक की पकड़ में आ गया और उसके खिंच जाने से वह नंगा हो गया . अब इसी नग्न अवस्था में उसे भागना पड़ा . बुद्धघोष के अनुसार  इसी के बाद वह दिगम्बर साधु हो गया . 
ऊपर के दोनों विवरणों से एक ही बात सामने आती है कि मक्खलि एक साधारण परिवार से आता था . पिता भी ऐसे ही थे ,जिनका कोई पक्का पेशा नहीं था . आर्थिक स्थिति ऐसी ही थी कि दूसरे के गोशाले में गर्भवती पत्नी को रखे . बहुत संभव है गोसाल के पिता गाड़ीवान रहे हों और साथ में लोक गायक भी हों . ऐसे गायकों की लापरवाह जिंदगी  को लोग गंभीरता से नहीं लेते और आम तौर पर उसके प्रति कृपालु होते हैं . उसकी इसी धज पर तरस अनुभव कर  किसान गोबहुल ने  अपना गोशाला अस्थायी वास के लिए दे दिया होगा .बेचारा गायक पिता ! उसकी दयनीयता और परेशानी को समझा जा सकता है . बुद्धघोष की कथा भी विरोधाभासी नहीं है ,बल्कि एक तरह से भगवती -सूत्र की कथा का दूसरा भाग है . अब गोसाल का अपना जीवन है और इसकी जरूरतों को पूरा करने केलिए वह किसी व्यापारी के यहां चाकर है . निश्चित ही कवि मन का यह युवा दार्शनिक काम के दौरान भी कुछ न कुछ सोचता रहता होगा . ऐसे में काम का प्रभावित होना लाज़िम था . तेल का मटका गिर जाने पर मालिक का रंज होना भी स्वाभाविक था . उस कथा में केवल एक स्वाभाविक प्रसंग  ही तो है कि वह भाग रहा है और उसका कपडा मालिक द्वारा पकड़ लिया गया, जिसके फलस्वरूप वह नंगा हो गया . वह रुका नहीं . क्योंकि रुकना उसके लिए खतरनाक था . कितने  जनों के बीच से होकर इस अवस्था में वह गुजरा होगा ,इसकी कल्पना कर के तो देखिये ! एक दफा इस नग्न अवस्था में घूम आने पर उस युवा दार्शनिक के मन पर कुछ तो प्रतिक्रिया हुई ही होगी . शायद कपड़ों की निस्सारता और उससे आज़ादी का मूल्य भी उस ने जाना होगा . जनता के बीच यह आकर्षण का भी एक कारण हो सकता है ,यह बात भी उसके दिमाग में आई होगी . और फिर यह दिगम्बरता यदि उसका स्वाभाविक धर्म बन गया तो क्या आश्चर्य ! . इस पूरी कथा -यात्रा में कोई अस्वाभाविकता नजर नहीं आती . आधुनिक ज़माने में आर्कमिडीज ने नहाते वक़्त उत्प्लावन की थियरी जानी थी और कहते हैं वह राजा के पास नंगा ही दौड़ गया था  . 

मक्खलि के विचारों की थोड़ी समीक्षा बाद में करूँगा . फिलवक्त मेरी कोशिश उन परिस्थितियों को देखना है ,जिसमे एक युवा स्वप्नदर्शी ,जिसे  जीवन और जगत के जटिल सवाल निरंतर परेशान कर रहे हैं ,  किस तरह स्वयं के जीवन से जूझ रहा है . मटका गिर जाने पर उसका मालिक उसे खदेड़ता है . गनीमत हुई कि वह नहीं , उसका कपडा पकड़ में आया . यदि वह पकड़ में आ जाता तो मालिक उसकी पूजा नहीं करता ,ताड़ना ही देता . रोजमर्रे के जीवन में मक्खलि इन चीजों को देख रहा होगा . यह नियति ही तो थी कि वह नहीं पकड़ में आ सका . इसमें कर्मफल कहाँ था . कर्म तो वह कर रहा था . असावधानी तो स्वयं में एक नियति है . लेकिन लोग कर्म नहीं ,परिणाम देखते हैं . और परिणाम कर्म नहीं ,नियति तय कर रहे थे . इस पर भी यह ' सर्वहारा ' कवि -दार्शनिक नियतिवादी न हो ,तो यह आश्चर्य ही होगा . उसने अपने दर्शन की धुरी ही रखी - ' नत्थि पुरिसकारे ' मनुष्य के किये -दिए में कुछ नहीं है ,जो होना होगा ,वह होगा . इसे कोई रोक नहीं सकेगा . नियंता है ,तो नियति भी है . नियति प्रबल है . 

 मैं आजीवक -दर्शन की कोई प्रशंसा नहीं,व्याख्या  कर रहा हूँ ,मैं मक्खलि पर बात कर रहा हूँ .और उन परिस्थितियों अथवा कारणों को देखना -समझना चाहता हूँ ,जिस से होकर मक्खलि को गुजरना पड़ा . वह इतना साधारण नहीं है कि हम उसकी उपेक्षा करें . भारतीय चिंतन परंपरा का वह एक अध्याय है .  ' भगवती -सूत्र ' और ' सामज्ज फल सुत्त ' यदि उसकी इतनी विवेचना कर रहे हैं और मौर्य राजाओं ने भी आजीवकों के लिए कहते हैं वर्तमान जहानाबाद  जिले के बराबर नामक जगह में कुछ गुफाएं बनाई थीं ,तब शायद  इसीलिए कि उन्हें नकारा नहीं जा सकता था . आज भी उन्हें कोई नकार नहीं सकता . बाशम और बरुआ ने उन पर यूँ ही इतने परिश्रम से काम नहीं किया है . अभी कुछ दिनों पूर्व हमारे मित्र अश्विनीकुमार पंकज ने मक्खलि गोसाल को लेकर मगही जुबान में एक उपन्यास लिखा है -' खांटी किकटिया ' अर्थात विशुद्ध कीकट वाला . यह सब ज्ञान के एक नए और जरूरी आयाम की तलाश है .
 
बुद्ध और महावीर दोनों से मक्खलि उम्र में बड़े थे .( बाशम के अनुसार  उनकी मृत्यु 484 ईसापूर्व में हुई थी  .) महावीर तो उनके सानिध्य में कुछ वर्षों तक रहे थे .प्रामाणिक तौर पर  बुद्ध की उनसे कोई मुलाकात नहीं हुई ,लेकिन गोसाल के जीवन दर्शन से वह पूरी तरह परिचित थे . शायद गोसाल को छलाँगते हुए उस समाज में दर्शन की बात करना संभव ही नहीं था . बुद्ध और महावीर से मक्खलि कहाँ  जुड़े हैं और कहाँ अलग हैं ? यह यक्ष -प्रश्न है . लेकिन इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि बुद्ध और महावीर के विचारों की दुदुम्भी बज रही है ,लेकिन मक्खलि के विचार विलुप्त क्यों और कैसे हो गए . इसका जवाब सहज भी है और मुश्किल भी . सहज इन अर्थों में कि हमें और कुछ नहीं ,केवल इस पर विमर्श करना चाहिए कि बौद्ध धर्म की भारत से विदाई क्यों हो गयी थी ? चीजें दो कारणों से ख़त्म होती हैं . पहला तो यह कि नए ज़माने की जरूरतों के अनुसार वह अनुपयोगी हो जाती है और दूसरा कि किसी कारणवश उसे बलपूर्वक बाहर  कर दिया जाता है . समाज के वर्चस्व-प्राप्त तबकों को जो चीज अपने अनुकूल लगती है ,केवल उसे ही सहेज कर रखते हैं . जो चीज उनके विरुद्ध होती है उसे वह  खदेड़ देते हैं ,वहिष्कृत कर देते हैं . बौद्ध -धर्म वर्चस्वप्राप्त तबके केलिए जब प्रतिकूल हुआ ,उसे वहिष्कृत कर दिया गया . आजीवकों के साथ भी कुछ यही हुआ . लेकिन उनकी कथा कुछ अधिक पेचीदा है . लेकिन इन्हे समझा जाना चाहिए . बुद्ध  और महावीर राज -कुलों से थे , सर्वहारा परिवारों से नहीं . उनके सामने शीश झुकाने में न बिम्बिसार को झिझक होती ,न प्रसेनजित  को ,और न ही वैशाली के लिच्छवियों को . यह बुद्ध का बड़प्पन था कि वह सामान्य से सामान्य लोगों के भी संपर्क में रहे . यदि वह प्रसेनजित के जेतवन में रहे ,तो चुन्द लुहार के यहां भी . केवट -कुम्हारों और बढ़ई- नाइयों के यहां रहने -खाने को उन्होंने प्राथमिकता दी . लेकिन राजाओं के शीश झुकाने से उन्हें जो प्रतिष्ठा मिली ,उसका अपना ही प्रभाव था . क्या यह प्रतिष्ठा मक्खलि गोसाल को मिल सकी ? उत्तर होगा ,नहीं . क्या वह  प्रतिष्ठा जो बुद्ध ,महावीर को मिली ,उन्हें  मिल सकती थी ? मेरा फिर उत्तर होगा ,नहीं . 

और क्यों नहीं ? इसलिए नहीं कि बुद्ध और महावीर का दर्शन मक्खलि से अधिक उपयोगी और श्रेष्ठ था ,बल्कि इसलिए  कि मक्खलि कुलीन और राज परिवार से नहीं आते थे . महावीर उनसे सीख ले सकते थे ,सान्निध्य में भी रह सकते थे ,लेकिन उन्हें तो इस तत्व -ज्ञान से अपने उस धर्म -दर्शन को संवारना था ,जो व्यवसायियों-पणियों को आध्यात्मिक -सुरक्षा देता था . ये व्यवसायी ही उन्हें तीर्थंकर बना सकते थे . बुद्ध को ऐसे धर्म -दर्शन की व्याख्या करनी थी ,जो बिम्बिसार ,अजातशत्रु ,प्रसेनजित से लेकर अंबपाली तक को आध्यात्मिक संबल देने वाली थी . कालांतर में अपने युग के सब से बड़े हत्यारे अशोक केलिए आध्यात्मिक कवच मुहैय्या करने वाली थी . ऐसे में किसी गाड़ीवान के गरीब बेटे के विचारों पर विचार करने की फुर्सत किसी को कैसे और क्यों मिल सकती थी . 
 
मक्खलि केवल तर्क तराशने वाले दार्शनिक नहीं थे . उनकी कमजोरी या विशेषता थी कि उन्होंने अपनी उस जनता का हमेशा ख्याल रखा , जिसके बीच से वह आये थे . उनके जीवन के अध्ययनकर्ताओं ने बतलाया है कि वह हलाहल नामक एक महिला के यहां रहते थे ,जो कुम्हारगिरि करती थीं अथवा कुम्हार परिवार से थीं . निश्चय ही उनके काम में हिस्सेदारी भी करते होंगे ,क्योंकि इसके बिना पर भोजन मिलना दुष्कर था . वह बुद्ध नहीं थे कि उनके स्वागत में अंबपाली पलक -पांवड़े बिछाए हों और बड़े -बड़े राजाओं के राजप्रासाद और व्यापारियों के आरामदायक विहार उनकी प्रतीक्षा कर रहे हों . उन्हें तो अपनी कमाई का खाना था . सच्चे अर्थों में वे श्रमण थे . घूम कर भिक्षाटन करना उनकी दृष्टि में श्रम नहीं ,उसका मजाक था .इसीलिए अंततः महावीर उनके पास से भाग निकले .  राजकुमार सब कर सकता था ,लेकिन शारीरिक मिहनत कैसे कर सकता था . इन अंतर्विरोध -पूर्ण स्थितियों के बीच ही हमें बुद्ध ,महावीर और मक्खलि का तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिए . 

मक्खलि के जीवन और विचार हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं कि वह अत्यधिक संवेदनशील अथवा भावनाजीवी थे . नियतिवादी होने का दंश यह भी था यथार्थ को उसके अंतर्विरोधों के साथ वह नहीं देखना - समझना चाहते थे . समय तेजी से बदल रहा था और उन्हें भरोसा था कि प्रकृति अपनी सुरक्षा केलिए स्वयं ही कुछ करेगी . यह कहाँ होने वाला था ! उनके समक्ष जनजातीय जीवन और उसके तमाम व्याकरण एक -एक कर ध्वस्त हों रहे थे . नृत्य ,गीत , पेय सब बदल रहे थे . सब कुछ राजमहलों और राजधानियों में सिमट रहा था .वह जीवन -पद्धति जिससे श्रमशील जनता ने एक लय -राग बना लिया था, हर स्तर पर कमजोर हों रही थीं . उसकी कड़ियाँ एक -एक कर टूट -बिखर रही थीं . उनके सामने   जनसत्तात्मक जनपदीय व्यवस्थाएं विनष्ट हों रही थीं और राजतंत्र लगातार मजबूत होते जा रहे थे . कुछ ही समय पहले अंगदेश की स्वाधीनता और वहां की गणतंत्रात्मक व्यवस्था विनष्ट हुई थीं  और देखते -देखते वज्जि -वैशाली भी विनष्ट किया जा चुका था . यह सब अतिभावुक, एक दार्शनिक -कवि के लिए ऐसा था कि कि वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे क्या करना चाहिए . नयी दुनिया  के व्याकरण उसकी समझ के बाहर थे . उससे तालमेल बैठना उसके लिए मुश्किल था . उसकी जो वैचारिकता थी ,उसमे विभ्रम गढ़ने की बहुत गुंजायश नहीं थी . मोक्ष ,निर्वाण और पुनर्जन्म का विभ्रम गढ़ना उसके लिए अधिक मुश्किल था . ऐसी स्थिति में उसने अपना मानसिक संतुलन खो दिया . वह अपनी प्रिया-पत्नी हलाहल के घर में ही सिमट गए . एक हाथ में प्याला लिए हुए उन्होने निरंतर गान आरम्भ कर दिया . यह पीना और नाचना उनके लिए ही नहीं उनकी समस्त जनता केलिए शायद आखिरी था . कहते हैं , इस बीच उनके एक शिष्य -मित्र आयमपुल ने उनसे जब कुछ पूछना चाहा ,तब उन्होंने इतना ही कहा - " हे प्रिय ,वीणा बजाओ ,वीणा बजाओ ." शायद यही उनकी आखिरी दास्तान थी .  नृत्य करते हुए ही उनकी मृत्यु हुई . गाते -गाते वह लुढ़क गए . यही उनकी नियति थीं . 
भगवती -सूत्र के अनुसार अपने आखिरी समय में सूत्र रूप में ही उनने एक संक्षिप्त -सा घोषणापत्र जारी किया ,जिसके आठ बिंदु थे . हालांकि ये विक्षिप्तावस्था के ही उद्घोष हैं ,फिर भी इस पर गौर किया जाना चाहिए ,क्योंकि इससे  तत्कालीन सामाजिक -राजनैतिक स्थितियों और उस पर एक बुद्धिजीवी,  जो विक्षिप्त हो चुका है , की  चिंता और मनोदशा की जानकारी मिलती है . ये आठ सूत्र इस प्रकार हैं - 
1 . चरिमे पाने ( अंतिम पेय ) 
2 . चरिमे गेये  ( अंतिम गीत ) 
3 . चरिमे नत्ते ( अंतिम नृत्य ) 
4 . चरिमे अंजलिकम्मे  (अंतिम अभिनन्दन ) 
5 . चरिमे पक्खाल  -समवाते महामेहे  ( अंतिम प्रलयंकारी महामेघ )
6 . चरिमे सेयने गंध -हस्ती ( सुगंध का हाथियों द्वारा अंतिम छिड़काव ) 
7 . चरिमे महाशिलाकार्त संगामे (बड़े पत्थरो का अंतिम युद्ध )
8 . चरिमे तीर्थंकर (अंतिम तीर्थंकर )

व्यथा में डूबे गोसाल कहते हैं - हमारा सब कुछ अंतिम या आखिरी  है . आखिरी पीना ,आखिरी गीत , आखिरी नृत्य , आखिरी मिलना -जुलना -अभिनंदन . उनका पागलपन बढ़ जाता है . क्रम टूटता है और वह उस सर्वनाश को देखने लगते हैं ,जो उनके ख्यालों में उभर रहा है . पांचवीं  कड़ी में उस प्रलयंकारी महामेघ को देखते हैं ,जो चारों तरफ से बढ़ता आ रहा है . छठी कड़ी में राजमहलों में हाथियों द्वारा अपने सूंढ़ों से सुगंध के छिड़काव की विलासिता भी देखते हैं और फिर सातवें पायदान पर पत्थरों से लड़े जाने वाले आखिरी युद्ध (महाशिलाकाते संगामे ) को भी . फिर अपनी कुंठा भी बलबला कर बाहर आती है . वह स्वयं को चरिमे अर्थात अंतिम तीर्थंकर घोषित कर जाते हैं . 

बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग  की तरह गोसाल के ये अष्टांगिक उद्गार आज हमारे ज़माने में भी एक महाप्रश्न की तरह हमसे मुखातिब है . दुनिया हमेशा बदलती है . लेकिन जब महासंक्रमण होता है ,बड़े बदलाव होते हैं ,तो कुछ लोग इसे न समझ पाते हैं ,न ही इसे सम्भाल पाते हैं . अपेक्षाकृत ये ईमानदार और प्रतिबद्ध लोग होते हैं . इन्हे जिद्दी नहीं कहा जा सकता . आधुनिक -काल में औद्योगिक दुनिया के उत्कर्ष पर अनेक बुद्धिजीवी परेशां हो रहे थे . ऐसा प्रतीत हुआ नयी दुनिया में न मनुष्यता बचेगी ,न जीवन . अनेक दार्शनिकों ने अपनी तरह से इस पर विचार किया .  मार्क्स ने बदलती परिस्थितियों की एक सुसंगत वैज्ञानिक समीक्षा की ,जो कम से कम डेढ़ सौ वर्षों तक प्रासंगिक बनी रही . गोसाल अपने समय की समीक्षा करने में विफल रहे . लेकिन उनकी चिंताएं जायज थीं . बुद्ध ने उन स्थितियों की  व्याख्या अपनी तरह से की . कहा जाना चाहिए कि गोसाल की विफलताएं ही बुद्ध की सफलताएं हैं . लेकिन सच यह भी है कि गोसाल अधिक ईमानदार हैं . देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय की गोसाल पर की गयी  टिप्पणी से मैं कुछ सहमत हूँ ,इसलिए सीधे -सीधे उन्हें ही उद्धृत करना बेहतर समझता हूँ - 
" गोसाल मात्र एक भाट या चरण कवि नहीं था . वह एक भविष्यद्रष्टा और दार्शनिक भी था .वह विश्व के सम्बन्ध में कोई दृष्टिकोण बनाना चाहता था ,अर्थात वह संसार को समझना चाहता था ,जिसमे वह रह रहा था .यही परिस्थितियां थीं जो गोसाल केलिए घातक बंधन बन रही थीं और यही अनुभव बुद्ध ने भी किया .जनजातियों का ह्रास होते जाना या नवोदित राजसत्ताओं की भीषण शक्ति के हाथों इनका विनाश होना ऐसे विकट सामाजिक परिवर्तन थे जिनका औचित्य उस युग के महानतम चिंतक की समझ से भी बाहर था .इसलिए बुद्ध समझ गए कि इन घटनाओं के कारणों के संबंध में कोई प्रश्न उठाने के बजाए  लोगों के तप्त ह्रदय को शांति दिलाना अच्छा होगा . यथार्थ से जूझने की  बजाए किसी समुचित भ्रम का आश्रय लेना होगा . यही बात हमें बुद्ध की सफलता और गोसाल की विफलता को समझने में सहायक होती है . बुद्ध अपने युग का सर्वाधिक सुसंगत व्यामोह उतपन्न करने के कार्य में लग गए . जबकि गोसाल यथार्थ से जूझने और ऐतिहासिक बंधनों को तोड़ने के प्रयास करते रहे . वह अपने युग के सबसे बड़े ऐतिहासिक परिवर्तन अर्थात जनजातीय व्यवस्था के पतन और राजसत्ता द्वारा प्रदत्त नए मूल्यों के उदय को समझना चाहते थे . और वह इस कार्य में विफल हो गए . उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो संसार का सञ्चालन कोई बहुत बड़ी ,प्रचंड ,अथाह और अज्ञात शक्ति कर रही है जिसे हम नहीं जानते .यह शक्ति थी भाग्य . यही उनका नियति -दर्शन था . "

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