दो दिन बनारस में रहकर लौटा हूँ। इस दो दिन की अनुभव-अनुभूतियाँ सुखद तो रहीं ही,रोमांचक और प्रेरक भी।
अवसर था सुपरिचित युवा कवि रामाज्ञा शशिधर के नवीनतम कविता-संग्रह 'बुरे समय में नींद’ के लोकार्पण का। साथ ही, बनारस शहर में पहली बार अंतिका प्रकाशन की पुस्तकों की प्रदर्शनी का। अंतिका प्रकाशन अपने प्रकाशन से प्रकाशित रामाज्ञा जैसे जनधर्मी कवि के संग्रह के लोकार्पण को औपचारिक कार्यक्रम से कुछ अलग हटकर संपन्न होते देखना चाहता था। इसके लिए हमने अपने कवि के काव्य-पात्रों और उनकी कविताओं को जनकण्ठों तक पहुँचाने वाले लोकगायकों की सहभागिता चाही थी। यह सब कवि के आत्मीय सहयोग के बगैर यूँ संभव नहीं था जैसा कि हुआ। और जो संभव हुआ वह किसी बाह्य दबाव के तहत नहीं हुआ, रामाज्ञा ने बस एक बार उन काव्य-प्रेरक जनों और लोकगायकों से आत्मीय अनुरोध भर किया। और उन सब के सहयोग से यह कार्यक्रम यादगार और ऐतिहासिक बन गया।
प्रदर्शनी का दृश्य |
दर्शक दीर्घा का दृश्य |
लोकार्पण की औपचारिकता के बाद रामाज्ञा ने अपने इस संग्रह से सात-आठ कविताएँ सुनाकर व्यापक जनसमुदाय को जिस तरह प्रभावित किया, उसका प्रभाव अगले दिन अस्सी की चाय दुकान पर भी दिख रहा था। उस पाठ के बाद बिहार इप्टा से जुड़े दिलीप कुमार और उनके साथियों ने मिलकर दो कविताओं का गायन प्रस्तुत किया। फिर बीएचयू के भगत सिंह स्टडी सर्किल से जुड़े छात्रों ने 'साहब जी के द्वारे पर’ कविता का समूहगान प्रस्तुत किया।
गायन के इस सत्र के बाद मुख्य अतिथि मैनेजर पाण्डेय ने सारगर्भित वक्तव्य प्रस्तुत किया। उन्होंने रामाज्ञा की कविताओं की विस्तृत चर्चा करते हुए उन्हें नागार्जुनी परंपरा के जनधर्मी कवि के रूप में चिह्नित किया। इसी क्रम में उन्होंने बताया कि इस तरह की भीड़ और उस भीड़ में भी कवि के पात्रों की ऐसी उपस्थिति पहले कहीं नहीं देखी थी। पाण्डेय जी के बाद प्रवीण कुमार, महताब आलम, कृष्णमोहन, श्रीप्रकाश शुक्ल, अवधेश प्रधान, मदन कश्यप आदि सहित कई वक्ताओं ने लोकार्पित संग्रह पर अपने विस्तृत विचार रखे और कुछ धारदार बहसें भी हुईं। कुल मिलाकर यह बात सामने आई कि संघर्षशील लोगों के पक्ष में लिखने वाले के साथ जनता खड़ी होती है। किसान, मजदूर, बुनकर आदि के जीवन में झाँकने और उनके तकलीफों और संघर्षों को शब्द देने वाले कवि कम होते हैं, उनमें भी उन शब्दों को काव्यात्मक ऊँचाई देने वाले तो और भी कम।
कवि ज्ञानेन्द्रपति ने मार्के की बात कही कि ‘प्राचीन और आधुनिक समाज का फर्क बताता है रामाज्ञा का यह संग्रह।’ यूं उनके अध्यक्षीय वक्तव्य के समय हॉल में बिजली नहीं थी। बिजली मदन कश्यप के वक्तव्य के बीच ही जा चुकी थी। और उस उमस-गर्मी के बीच शाम का अंधेरा गहराने लगा था लेकिन श्रोता आखिर क्षण तक बैठे रहे। एक बजे से शुरू होने वाला कार्यक्रम ढाई बजे के बाद शुरू होकर पौने सात बजे तक अबाध चलता रहा। यह अनुभव मेरे लिए जितना ही नया था, उतना ही चौंकाऊ और आश्चर्यजनक।
सभागार के गेट के करीब अंतिका प्रकाशन के स्टॉल लगे थे। उस स्टॉल पर रामाज्ञा की लोकार्पित पुस्तक बड़ी संख्या में रखी गई थी, तो प्रकाशन की अन्य लगभग 90 शीर्षक पुस्तकें भी न्यूनतम पाँच प्रतियों से लेकर अधिकतम 25 प्रतियों तक की संख्या में रखी गई थीं। लगभग डेढ़ घंटे में अनिल यादव का कहानी-संग्रह 'नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़तीं’ की 25 प्रतियाँ खत्म हो गईं और लोग उसकी प्रतियाँ माँगने सीधे मुझ तक पहुँचने लगे। लगभग दो घंटे के भीतर सुरेन्द्र चौधरी की तीन खण्डों में प्रकाशित आलोचनात्मक पुस्तकों के सात सेट भी खत्म। उसके लिए भी लोग उसी तरह पूछताछ करने लगे। 'बया’ के नए-पुराने जो भी कुछ अंक वहाँ रखे गए थे पाठकों ने हाथोंहाथ ले लिए। शाम तक वीरेन डंगवाल का कविता-संग्रह 'स्याही ताल’, विष्णु नागर का 'घर के बाहर घर’, लीलाधर मंडलोई का 'एक बहुत कोमल तान’, अशोक भौमिक के 'बादल सरकार : व्यक्ति और रंगमंच’ और 'मोनालीसा हँस रही थी’ भी स्टॉल पर नहीं दिखे। लोकार्पित की गई पुस्तक 'बुरे समय में नींद’ की प्रतियों की बड़ी ढेर भी एक सौ तेरह पेपरबैक और आठ सजिल्द प्रतियों की बिक्री के साथ छोटी हो गई। बची किताबें एक छोटी थैली भर रह गई थीं जिन्हें वहाँ के छात्रों के आग्रह पर उन्हीं की तरफ से अगले दिन नौ सितम्बर को वहाँ आयोजित बाबा नागार्जुन पर केंद्रित कार्यक्रम के समय बाहर रखकर प्रदर्शित की गईं तो जल्द ही खत्म भी हो गईं। दोनों दिन मिलाकर 'बुरे समय में नींद’ की एक सौ सत्ताइस पेपरबैक प्रतियाँ और चौदह सजिल्द प्रतियाँ बिकीं।
बिक्री की यह घटना कोई बड़ी बात नहीं हो सकती है। लेकिन ऐसे समय में जब अमूमन कविता-संग्रहों के खरीदार दुर्लभ होते जा रहे हों, हमारे लिए यह एक प्रेरक घटना है। हमने ऐसा भी देखा है कि जिस कवि की सोलह प्रतियाँ दो साल में बिकती हैं, उन्हें आठ पुरस्कारों से नवाजा जाता है। यह पुरस्कार कैसे मिलता है वो हम-आप जानते हैं। रामाज्ञा को ऐसा पुरस्कार शायद नहीं ही चाहिए होगा जो सत्ता-केंद्रों की कृपा पर दिया जाता हो और जो रचनाकार को रीढ़विहीन करता हो। मेरे लिए इस किताब का यह पाठकीय स्वागत इसलिए बड़ी बात है कि यहाँ हमने आमलोगों का अपने रचनाकार से जो जुड़ाव और लगाव देखा, वह अब दुर्लभ होता जा रहा है। इन जनलगावों से वंचित हमारे महान-महान रचनाकार जिनकी किताबें लाइब्रेरियों की तहखाने में दीमक को समर्पित रहती हैं, क्या वे अपने भीतर झाँकना चाहेंगे?
आठ सितम्बर को कार्यक्रम था। नौ की सुबह हम फुर्सत के-से क्षण में अस्सी की चाय दुकान पर पहुँचे। वहाँ उस कार्यक्रम की विशद और बहुकोणीय चर्चा जारी थी। यह अपने ढंग की अलहदा चर्चा-गोष्ठी ही थी! यह वह अस्सी है जहां के अड़ीबाज संसद और ह्वाइट हाउस तक को अंगूठे पर रखते हैं और अपनी चाय की बेंच से टस-से-मस तक नहीं होते, वह अस्सी समाज भी जैसे वहां पूरा का पूरा उनट आया था। बनारस के लगभग हरेक अखबार ने प्रमुखता से इस कार्यक्रम को कवर किया था जिनकी चर्चा अब उन पन्नों से चलकर अस्सी सहित वाया बनारस-मुगलसराय बाहर के आमजनों के बीच फैलने लगी थी।
नौ सितम्बर की रात लगभग पौने दस बजे जब मैं ट्रेन पकडऩे मुगलसराय के लिए टैक्सी पर बैठ रहा था, सुबह से लेकर तब तक जितने भी लोग मिले सब एक स्वर से इस कार्यक्रम की सराहना कर रहे थे। बुनकर, पनवाड़ी (छन्नूलाल जी एवं अन्य), चाय वाले, किताब-पत्रिकाओं के दुकानदार आदि सब के लिए भी यह एक अलग तरह का कार्यक्रम रहा और उन सबका सहयोग मिला। अखबारों के माध्यम से मदद करने वाले मीडियाकर्मियों के प्रति आभारी हूँ। आभारी हूँ शाम में मिले विश्वविद्यालय प्रकाशन के अनुराग मोदी के प्रति, जिन्होंने उनके दफ्तर घुसते ही एकदम से चौंका दिया इस कार्यक्रम से संबंधित उस दिन के तमाम अखबारों की कतरनें भेंट करके।
बनारस में अंतिका प्रकाशन के इस कार्यक्रम को इस अंजाम तक पहुँचाने में रामाज्ञा का सहयोग तो रहा ही, बीएचयू हिंदी विभाग का सहयोग भी महत्त्वपूर्ण रहा। विभागाध्यक्ष राधेश्याम दूबे, अवधेश प्रधान, श्रीप्रकाश शुक्ल, राजकुमार आदि का हार्दिक सहयोग याद रहेगा। भगत सिंह स्टडी सर्किल के साथियों, बेगूसराय से आए दिलीप कुमार एवं उनके साथियों, चित्रकार सीताराम जी के साथ ही बुनकर समाज के प्रतिभागियों, बलिया-मउ-रोहतास-मुगलसराय आदि जैसे दूर-दराज से इसी कार्यक्रम के लिए पधारे सुधीजनों के प्रति मैं विशेष रूप से आभारी हूँ। बनारसवासी समस्त साहित्यानुरागी पाठकों-श्रोताओं का ऋणी तो हूँ ही। आभारी हूँ आदरणीय मैनेजर पाण्डेय,ज्ञानेन्द्रपति, काशीनाथ सिंह, मदन कश्यप आदि के जिनके सहयोग हमारे इस प्रयास को वैचारिक दिशा देने में आगे भी मिलते रहेंगे।
अंत में, वहाँ के छात्रों-शोधार्थियों के प्रति भी कृतज्ञता जाहिर करना चाहूँगा जिनपर इस कार्यक्रम का लगभग सारा दारोमदार था। प्रचार-प्रसार कार्यक्रम के निमित्त भागदौड़ से लेकर अंतिका प्रकाशन की पुस्तक प्रदर्शनी की जिम्मेदारी भी इन छात्रों ने ही संभाली थी।
3 टिप्पणियां:
'सोलह प्रतियाँ दो साल में बिकती हैं, उन्हें आठ पुरस्कार' अजीब हाल है, आश्चर्यजनक। कुछ कविताएँ पढ़वा देते शशिधर जी की तो अच्छा लगता।
बेहतरीन पोस्ट और जानकारी बीते दिनों की याद आ गयी भाई बहुत -बहुत बधाई और शुभकामनायें
समस्या यह है कि जिन कुछ धारदार बहसों की बात आपने की उनका उल्लेख करने से बच निकले. प्रकाशक की गदगदी किताबों के बिकने की है. मैनेजर पांडे ने रामाज्ञा को नागार्जुनी परंपरा का बताया. इसके पहले भी वे कइयों को इसी परंपरा का बता चुके हैं. नामवर सिंह तो न जाने कितनों को मुक्तिबोध घोषित कर चुके हैं. 'मैं तेरी खुजाऊं तम मेरी खुजा' के इस दौर में सब संतों को सादर नमन
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