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01 अक्तूबर, 2011

कविता से पहले कवियों को दीमक के हवाले कर देना चाहिए


हमारा समय और आज की हिंदी कविता' पर राष्ट्रीय बहस बीएचयू के राधाकृष्णन सभागार में 24 सितम्बर 2011 को सात घंटे तक चलती रही.हिंदी कविता की दिशा,दशा और भविष्य को लेकर हुई .गोष्ठी से अनेक जरूरी सूत्र निकले हैं जो आज की कविता के गतिरोध,खूबी और ताकत को शिद्दत से रेखांकित करते हैं.रस्मी और फर्जी गोष्ठियों से अलग कविता से गंभीरता से प्यार करने वालों के बीच हुए वाद विवाद संवाद के सम्पादित अंश को आज की कविता के घोषणा पत्र के तौर पर श्रोताओं ने लेने की अपील की है..हम आपसे चाहते हैं कि इस बहस को आगे बढ़ाएं ताकि हिंदी में असली और नकली कविता,जनधर्मी और जनविरोधी कविता का नया पैमाना विकसित हो सके-माडरेटर 
    *दरअसल जो कवि यह मानता है कि वह काव्यात्मक तकनीक के हिसाब से पारंगत है,वह बड़ी तेजी से अपने लिए स्थान चाहता है;सफलता चाहता है,यह सफलता उसे चाहे एक छोटा सा समूह दे या एक साधारण सी समीक्षा.वह यही मानता है कि ऐसा करते हुए वह स्वयं को खोज रहा है,पर वास्तव में वह केवल उस चीज की तलाश कर रहा है जो दूसरों द्वारा तुरंत स्वीकार कर ली जाये,जो सबसे अधिक बिकनेवाली हो.-इयुजेनियो मोंताले (युद्धोतर इटली के फासिस्ट विरोधी       सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि)
ज्ञानेंद्रपति: आज के हिंदी कवि के सामने 
परंपरा की खोज की जिम्मेदारी है.उसे अपनी परंपरा से अपनी निर्मिति करनी होगी.परंपरा व्यापक धारणा है.वह भारतीय कविता के साथ लैटिन अमेरिकी सहित्य,यूरोपीय प्रगतिशील साहित्य तक जाती है.निराला जैसे कवि से हम प्रयोग के रूपों को सीख सकते हैं.कविता का कवि व्यक्तित्व से गहरा सम्बन्ध होता है.कविता की संरचना की निर्मिति कवि व्यक्तित्व की निर्मिति से जुड़ी होती है.आज की कविता को इस सवाल से टकराना होगा.हर जीवनानुभव वस्तुत: काव्यानुभव भी है.कवि का संघर्ष जीवनानुभव को रचनानुभव में बदलने का संघर्ष है.कवि के लिए ढेर सारे जीवनानुभव से चयन दृष्टि द्वारा रचना अनुभव को चुनना होगा.हम अनुभव को निथाड़कर अनुभूति में बदलते हैं.हम रचना में अनुभूति की ऐसी संरचना बनाते हैं जिसमें वर्तमान के साथ शाश्वतता भी मौजूद होती है.कथ्य के आवेग से रूप की निर्मिति होती है.हर कविता के विकास का अपना मार्ग होता है.प्रतिरोध के लिए जरूरी नहीं कि हर बार कवि अपना मुंह बाये.प्रतिरोध की खुली संरचना वाली कविता की ओर हमारी रचनाशीलता बढ़ रही है. अभियक्ति प्रणाली के आधार पर कवियों को बाँटने का एक खतरा है कि ‘इत्यादि’ छूट जाते हैं.इन दिनों सार्थक कविता को समझने का प्रयास विश्वविद्यालय परिसर कर रहा है.
मदन कश्यप: आज की कविता के सामने अनेक चुनौतियाँ हैं.जनपक्षधरता एक अमूर्त मूल्य है.जब हम इसे मूर्त बनाते हैं तो इसका अर्थ होता है समाज का उत्पीड़ित तबका.कविता का सबसे ज्यादा महत्व इसलिए है कि यह समाज के उस आखरी आदमी के पक्ष में खडा होती है जिसके पक्ष में दूसरी विधाएं खड़ी नहीं होतीं. चेतना पर शासकवर्गीय प्रभाव के कारण आलोचक या पाठक कविता में जनपक्षधर चीजों को महत्व नहीं देते,देते भी हैं तो पहले शासकवर्गीय मूल्य वाली कविता को स्वीकार करते हुए.जनपक्षधरता की कविता को वर्ग दृष्टि से जुड़ना होगा.वर्ग दृष्टि से लिखी जा रही कविता के बारे में दो पक्षों को समझना चाहिए.एक तो उत्पीड़ित समाज से आये कवियों की कविता का विश्लेषण करना होगा.दूसरे,सत्ता के वर्जित प्रदेश से आये कवियों का निषेध न कर उन्हें पहले एक्सपोज करना होगा.आज की कविता में लोक बनाम नागर की बहस गलत है.लोक का दायरा बहुत व्यापक है लेकिन नागरिक समाज का दायरा भी बढ़ा है.इसलिए सबसे बड़ी चीज वर्ग दृष्टि है.अक्सर किसान मजदूर लेखन पर फार्मूला लेखन का आरोप लगता है.लेकिन मध्यवर्गीय लेखन पर यह बात ज्यादा लागू होती है.प्रेम पर लिखी कविताएं इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं.पिछले बीस साल में कविता में वर्ग दृष्टि का आभाव हुआ है.इसलिए कविता संकटग्रस्त हुई है.हर समय में हर कवि अपनी ही रूढ़ि को रचता है. निराला ने जानकीवल्लभ शास्त्री को बड़ा कवि माना. त्रिलोचन और नागार्जुन को उन्होंने कोई महत्व नहीं दिया.हर कवि आपनी ही रूढियों में जकडता जाता है.समय के साथ नयी शक्ति स्थापित हो जाती है.अपनी रूढियों की नक़ल करने वाले नए कवि को पुराना कवि आगे बढाता है,पुरस्कार देता है जिससे नई पीढ़ी की अच्छी और बुरी कविता में फर्क करने वाले विवेक को दिक्कत होती है.आज कविता कांग्रेस के बाईस हजार वोट के पक्ष में खड़ी है या बनारस के चाय चबेना बेचने वाले के साथ खड़ी है यह फर्क करना होगा.हिंदी में कवितावाद नहीं चल सकता.कांग्रेस और भाजपा की साम्प्रदायिकता में केवल मात्रा का अंतर है.वामपंथी शक्तियों को कांग्रेस या भाजपा जैसी साम्रदायिक और दक्षिणपंथियों के साथ रखना यथार्थ का सरलीकरण होगा.हिंदी का मध्यवर्ग कभी विश्वसनीय नहीं रहा.अब तो यूरोप का मध्यवर्ग भी अविश्वसनीय हो रहा है. गलती हमारी धारा से हुई है कि हमने दोस्त और दुश्मन की ठीक ठीक पहचान नहीं की.हमें कारपोरेट दुनिया से यह सीख लेनी चाहिए कि कैसे दुश्मन की पहचान के आधार पर दोस्तों की पहचान को ठीक करें.कविता में ‘क्या  कहा जा रहा है’का अर्थ है –जो बात सर्वथा नवीन हो.फिर कैसे कहें की जरूरत नहीं रहती.दूसरी ओर अच्छी बात को बार बार कहने की जरूरत होती है.तब यह होता है कि उसे कैसे कहें.दोनों पक्ष में कोई विरोध नहीं है.कला और अवधारणा को लेकर इधर धुंध है.कला और अवधारणा के बीच अंतराल होना चाहिए.हम यथार्थ की आतंरिक गतिशीलता को कला में पहले देखते हैं,अवधारणा बाद में बनती है.इसलिए अवधारणा से बड़ी चीज यथार्थ है.कला के लिए हर चीज स्थिर आब्जेक्ट नहीं होती,उसमें आतंरिक गति और दिशा होती है जिसे देखना चाहिए.यही कारण है कि हर नई रचना के लिए पहले से बनी अवधारणा अधूरी और अपर्याप्त साबित होती है.कविता के मूल्यांकन का कोई बना बनाया फार्मूला नहीं हो सकता.आज कविता को स्थानिक होने की जरूरत है.जो स्थानिक है वही वैश्विक है.जिस कवि की कविता में लोक,देश नहीं है उसको लेकर सवाल उठाना चाहिए.हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसका समाज अब भी कौमी(जातीय) नहीं बन पाया है.हिंदी कौम(जाति) का विकास अबतक नहीं हो पाया है. जनपदीय और कौमी संस्कृति का संघर्ष यहाँ जारी है.हिंदी कविता जनपदीय भाषा और कौमी भाषा के बीच सेतु का काम करती है.आज की कविता को यह भी ध्यान रखना होगा.

श्रीप्रकाश शुक्ल:आज जो लोग घरानों में बाँटकर कविता को समझने की कोशिश कर रहे हैं वे कवि के स्वतंत्र चेहरों को पोछने की बजाय पोतने की कोशिश कर रहे हैं.ये सभी कविता के दुश्मन हैं.इनके असलीपन और नकलीपन में भेद किया जाना चाहिए.हिंदी कविता में असली और नकली के गुणवत्ता नियंत्रण का कोई पैमाना नहीं है.अब असली और नकली कविता के फर्क मानक पर बात होनी चाहिए.लोक और नागर कविता के भीतर छद्म और असल को लेकर बहस होनी चाहिये. उदारीकरण ने हिंदी कवियों में मुग्धता और मादकता को जन्म दिया है.मुग्धता का संबंध बाजार से है और मादकता का नवसाम्प्रदायिक चेतना से.आज कमरे में कसरत करने वाली कविता बन रही है.कविता अपनी परम्परा से कटती जा रही है. आज की कविता को एक ओर जहाँ मुग्धता और मादकता से मुक्त होना होगा वहीँ मानव की चित्तभूमि की खेती से उसे जुड़ना होगा.आज की कविता में पांच पीढियां एक साथ काम कर रही हैं.यहाँ दो प्रवित्तियां दिखाई पड़ती हैं-लोक की सत्ता विरोधी धारा जिसके प्रमुख कवि हैं केदारनाथ सिंह,विजेन्द्र,ज्ञानेंद्रपति,मंगलेश डबराल,वीरेन डंगवाल,मदन कश्यप,अरुण कमल,राजेश जोशी,असद जैदी,अनामिका,विजय कुमार,एकांत श्रीवास्तव,नीलेश रघुवंशी,बद्रीनारायण,अष्टभुजा शुक्ल,हरिश्चंद्र पाण्डेय,रामाज्ञा शशिधर,हरेप्रकाश उपाध्याय, उमाशंकर चौधरी,मनोज कुमार झा,अनुज लुगुन,अशोक कुमार पाण्डेय,निशांत आदि.लोक का सत्ता से साहचर्य की धारा है-अशोक वाजपेयी,विनोद कुमार शुक्ल,विष्णु खरे,....गिरिराज किराडू,यतीन्द्र मिश्र,गीत चतुर्वेदी,व्योमेश शुक्ल आदि. इस कलावादी पीढ़ी की परंपरा हिंदी में सर्वाधिक कमजोर है.इस पीढ़ी की विशेषता है कि हर कोई स्वयं को अद्वितीय मौलिक समझता है,एक दूसरे से बड़ा समझता है.यह पीढ़ी एक ही तरह के शिल्प की कविता रचती है. इनमें से ज्यादातर कवि जीवनानुभव के अतिरिक्त कविता को कला के अतिरिक्त माध्यमों जैसे संगीत के माध्यम से रचने की कोशिश करते हैं.मानो इनकी कविता कविता न हुई पिपिहरी हो गयी.पता किया जाना चाहिए इनकी अमृतनाभि में वैष्णवता के तत्व कहाँ तक हैं और इनकी कविताओं में नियतिवादी छवियाँ कहाँ तक उपस्थित हैं. आज की पीढ़ी में प्रतिरोध की कविता का एक प्रतिनिधि रामाज्ञा शशिधर है तो सत्ता समर्थन का प्रतिनिधि गीत चतुर्वेदी. यही स्थिति अशोक पाण्डेय और गिरिराज किराडू की कविताओं के बीच देखा जा सकता है.विनोद कुमार शुक्ल कला पीढ़ी के ऐसे कवि हैं जो सर्वाधिक शिल्पग्रस्त हैं और नई पीढ़ी को सर्वाधिक भाषा भ्रष्ट किया है.अविधा कविता का बड़ा गुण है लेकिन व्यंजना से बड़ा नहीं.आज की हिंदी कविता में अविधा शक्ति के सर्वश्रेठ उदाहरण राजेश जोशी हैं और सबसे खराब उदहारण विष्णु खरे.विष्णु खरे ने राजीव गाँधी के सम्मान में अविधा में ऐसी वीणा बजाई जो दिल्ली से बनारस आते आते युवा कांग्रेस की शहनाई में बदल गयी है.अभिनव गुप्त ने जिसे अपूर्वता कहा था वह आज की कविता से गायब होती जा रही है.हिंदी कविता में सूरन की कवकवाहट की जरूरत है.


रामाज्ञा शशिधर:आज की हिंदी कविता से कवकवाहट गायब होती जा रही है.इसका शिकार बाजार और सत्ता अपनी तरह से कर रहे हैं.सूरन एक विचार है.नींबू भी एक विचार है.हिंदी कविता में दोनों विचारधाराओं में घमासान है.सूरन पर नींबू निचोड़कर विचारों के संतुलन की तीसरी काव्यधारा भी चल रही है.आज की हिंदी कविता के सामने पहला संकट जीवनानुभव का अभाव है.कविता से ऐन्द्रिकबोध गायब है,जीवन संघर्ष और कला संघर्ष लापता है.आज की ज्यादातर कविता विमर्शों की अभिव्यक्ति है,सूचना और तथ्य की प्रदर्शनी है,विवरण और विचार की तलछट है,भाषा और शब्द का शुष्क कौशल है. हिंदी पाठक की पहली मांग होनी होनी चाहिए कि कविता का काव्य खनिज,काव्य श्रोत कहाँ से आएगा.नवसाम्राज्य के बुलडोजर का चक्का सत्ता के सहयोग से हाशिए की जनता पर पड़ा है. सौ में अस्सी की थाली में जहाँ दाल नहीं है,सब्जी नहीं है,सौ में चालीस के पास जहाँ एक शाम का भोजन नहीं है,जिसे जल,जंगल,जमींन से बर्खास्त कर दिया गया है,जिनके खेत छीने जा रहें हैं,लाखों की संख्या में जो अपने ही खेत के श्मसान में दफन हो रहे हैं, जिनके घर को आजमगढ़ के बदले आतंकगढ़ घोषित किया जा रहा है,जिनके लिए रोजगार नहीं है कविता का खनिज वहीं से आये.हिंदी कविता की हजार साल की परंपरा में देश इस तरह गायब नहीं हुआ था.आज की  कविता में देश विहीन समय है. वर्चस्व और प्रतिरोध के संघर्ष में ग्लोबल को कविता का लोकल ही चुनौती दे सकता है.कविता में क्या कहा जा रहा है और कैसे कहा जा रहा है, यह केवल रूप और अंतर्वस्तु का मसला नहीं है .यह कला की राजनीति का मामला है जिसका संबंध मनुष्य और कविता दोनों की मुक्ति से जुडता है.यह सभ्यता के इतिहास की सबसे कठिन घड़ी है.पूरी मनुष्य जाति का भविष्य दांव पर है.विकास और जीवन शैली की पश्चिमी आंधी पूरी पृथ्वी के पेड़ को हिला रही है.बहुतों के विनाश पर मुट्ठी भर का विकास मुमकिन है. ऐसी घड़ी में कविता के लिए चिड़िया के स्वर से ज्यादा चिड़िया,चिड़िया से ज्यादा पेड़,पेड़ से ज्यादा जंगल,जंगल से ज्यादा पानी और सबसे ज्यादा समग्रता में मनुष्य और उसके आदिम परिवेश को बचाने की जरूरत है.आज कविता में मनुष्यतावाद  से ज्यादा मनुष्य के अस्तित्व कैसे बचे, इस पर बहस होनी चाहिए. मनुष्य बचेगा तो कवि भी बचेगा.कब्र कविता नहीं नहीं पढ़ती है. कारपोरेट पूंजीवाद में औद्योगिक पूँजीवाद की तरह सकारात्मक मूल्य नहीं है.आज हत्यारा भी कविता लिख रहा है.इसलिए केवल कविता लिखना मनुष्य होने की पहचान नहीं है.एक लेखक के लिए रचने और लड़ने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है.दुनिया भर के उदहारण से हिंदी वाले चाहे तो प्रेरणा ले सकते हैं.हिंदी कविता में अप्रासंगिक-पिछड़ी बौद्धिकता कभी-कभी इस बात पर कुतर्क करती है कि किसान संवेदना पिछड़ी है और नागर संवेदना अगडी.यह चीनी क्रांति से पहले की पिछड़ी दृष्टि है. हमारे समाज में आदिवासी किसान ज्यादा उन्नत चेतना रखकर लड़ रहे हैं या मध्यवर्ग?आज भारतीय समाज का मुख्य अंतर्विरोध साम्राज्यवाद बनाम भारतीय आम जन है.आम जन यानी किसान ,आदिवासी,स्त्री,दलित,अल्पसंख्यक,मजूर,बेरोजगार. कविता विषय चुनाव के कारण उन्नत या पिछड़ी चेतना की नहीं होती बल्कि विचार और विश्वदृष्टि के कारण.आज मध्यवर्ग पिज्जा,बर्गर,माल और अन्य भोगवादी मृगमरीचिका  का सबसे ज्यादा शिकार है.हिंदी कविता की कई दिशाएँ हैं-एक वह जो साम्राज्य और बाजार की सत्ता को पूर्ण चुनौती दे रही है.दूसरी वह जो संसदीय अभिकर्ता जनतंत्र में पक्ष विपक्ष की तरफदारी करती है.तीसरी वह जो विपक्षी जनतंत्र के नाम पर बाजार की समर्थक है हा लाकि वह बाजार विरोध के शाब्दिक नारे भी लगाती है.आज की हिंदी कविता का नाश करने में पुराने पुरस्कार चयनकर्ता पुरखों का सबसे बड़ा हाथ है.अपनी महंथई और पाखंड चलाने के लिए उन्होंने लगातार फर्जी कविता को बढ़ावा दिया गया.इसका सबसे बड़ा प्रमाण २००० से अब तक का भारतभूषण अग्रवाल सम्मान है. आर.चेतन क्रांति और अनुज लुगुन को छोड़कर सारे कवि मीडियोकर और सत्ता विमर्श की फर्जी कविता लिखने वाले हैं जिस पर अलग से विचार किया जाना चाहिए.हिंदी कविता को अपनी शक्ति अपनी जनता से बटोरनी होगी.कक्ष कविता,कक्षा कविता और कानफूँकू कविता ने हिंदी पाठकों का सर्वनाश कर दिया.कविता को दीमक के हवाले करने से पहले कवियों को दीमक के हवाले कर देना चाहिए.आज दुर्भाग्य से हिंदी आलोचना में कोई प्लेटो नहीं है.

कृष्णमोहन:समय इतनी तेज गति से चल रहा है कि हम अवधारणा और यथार्थ को परिभाषित नहीं कर पा रहे हैं.अब वामपंथ और दक्षिणपंथ में अवधारणा के स्तर पर कोई अंतर नहीं रह गया है.जिस चीज को दक्षिणपंथ तेजी से लागू करता है,वामपंथ मानवीय चेहरे के साथ लागू करना चाहता है.मुझे कोई कम सांप्रदायिक दीखता है कोई ज्यादा सांप्रदायिक.हमारे समय में अवधारणा और यथार्थ में विलोम का सम्बन्ध है. कवि कविता लिखे,उससे सामाजिक भूमिका की मांग नहीं की जानी चाहिए.दुनिया एक बार फिर सर के बल खड़ी हो गयी है,उसे फिर पांव पर खड़े होने की कोशिश करनी चाहिए.कविता में संश्लिष्ट समय की पहचान कैसे हो? हमारी पहचान दुश्मन से होती है,समर्थकों से नहीं.कविता किसके विरोध में खड़ी है यह महत्वपूर्ण है.कविता में सत्य से ज्यादा शक्ति होनी चाहिए.कविता के लिए यह समय सत्यमेव जयते की जगह शक्तिमेव जयते का है.कविता तभी कविता है जब उसमे कोई नई बात आ गयी हो या नए ढंग से कहे गए को कहा गया हो.आज की कविता घिसे पिटे मुहावरे और घिसी पिटी शैली में चल रही है.विष्णु खरे की कविता मुरीद है जिसमें कवि को अपने चापलूस के भविष्य में दुश्मन बन जाने की चिंता सता रही है.यानी चापलूस हमेशा चापलूस ही रहे कभी सामने तने नहीं.अरुण कमल पुराने इलाके को नया इलाका समझ बैठे हैं.नए इलाके के नाम पर पुराने इलाके में ले जाते हैं.पुराना को पुराना समझते तब भी कोई बात बनती.

आशीष त्रिपाठी: समकालीन कविता आपातकाल के बाद की कविता है.समकालीन कविता साधारणता के महात्म्य के क्राफ्ट को प्रकट करने वाली कविता है.इसमें इतिवृति,वास्तु,घटना का ब्योरेवार वर्णन,आख्यान,प्रगीत,लिरिक,नाटकीयता,चित्रण सबकुछ शामिल है.दुनिया की महँ कविता इतिवृत को इस्तेमाल करती है. समकालीन कविता को मैं शिल्प घरानों में बाँट कर देखना चाहता हूँ.इन संरचना,शिल्प घरानों को आठ खण्डों में बांटूंगा जिनके प्रतिनिधि कवि हैं-१.केदारनाथ सिंह २.चंद्रकांत देवताले ३.विनोद कुमार शुक्ल ४.विष्णु खरे ५ भगवत रावत ६.ज्ञानेंद्रपति ७.विनय दुबे ८.अष्टभुजा शुक्ल .इन कवियों का आज की कविता पर प्रभाव है.केदारनाथ सिंह का काव्यशिल्प बुर्जुआ है.चंद्रकांत देवताले का शिल्प रेडिकल है.मदन कश्यप जैसे कवि देवताले की परंपरा के हैं.ज्ञानेंद्रपति और विनय दुबे अपने घराने के एकलौते कवि हैं.