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09 जनवरी, 2014

शुक्ल के घर में हिंदी के हुडुकलुलु

'इतिहास खुद को दोहराता चलता है' इस तथ्य की पुनरावृति इन दिनों कबीर,तुलसी,प्रेमचंद,प्रसाद,रामचंद्र शुक्ल,हज़ारी  प्रसाद द्विवेदी,नामवर सिंह आदि के नगर में विचित्र काकटेल कल्चर के नवोत्थान के साथ चल रही है. समकालीन हिंदी कविता के कुख्यात एंटी हीरो विष्णु खरे द्वारा अगस्त २०१० में लिखे गए एक विवादित लेख के कुछ टुकड़े मणिकर्णिका के अकालमृत मुर्दे की तरह प्रेत बनकर बनारस में मंडरा रहे हैं.

वे प्रेत कबीरचौरा से लेकर हिंदी विभागों की स्थावर कुर्सियों में चिपके  'जीवित ब्रह्मराक्षसों' द्वारा अपनी मुक्ति की युक्ति के लिए पुकारे जा रहे हैं.ऐसे समझिए, बनारस में प्रेत भी मुक्ति दिलाते हैं.शर्त है कि वे दिल्ली,मुंबई जैसे महानगरों से  आए आंग्लविद्  ब्रांडेड प्रेत हो. कहते हैं बनारसी सेठ मोतीचंद इतने बड़े फिरंगी भक्त थे कि माउन्टबेटेन् के स्वागत के लिए मोतीझील से हवाई पट्टी तक कई मील लंबी  कालीन बिछा दी और सदा के लिए टें बोल गए.बनारस एक टूरिस्ट प्लेस है ,इसलिए यहाँ हर कोई सब कुछ के आलावा स्थाई गाइड का धंधा भी करता है. जो गाइडपने में  जितना बड़ा भौकाल दे सकता उसकी ऊपरी कमाई उतनी बड़ी होती है. साहित्य और शिक्षा दोनों  क्षेत्रों में नए फर्जी-जेनुइन गाइडों की बाढ़ है और हिंदी के नकली-असली टूरिस्टों की बहार.
                 इसी क्रम में शुक्ल के हिंदी विभाग में एक ज्ञानमार्गी हादसा हुआ है जिसे काशी हिंदी के हुडुकलुल्लू कांड के रूप चर्चा कर रही है. क्यों? इसलिए कि  विष्णु खरे ने तीन साल पहले जोर देकर कहा था-  हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महत्त्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुड़ुकलुल्लू-मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी नमूदार हुई है, जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है ...और याद रखिये यहीं के कालिया-विभूति समर्थक एक कवि शिक्षक प्रो श्रीप्रकाश शुक्ल ने विष्णु खरे के विरुद्ध अपनी पत्रिका में पूरा सम्पादकीय लिखा था और खुद को बांके सिद्ध किया था. उस पूर्वांचली युवा कवि के विभागीय  साहित्य संयोजक् रहते हुए  विभाग में  तीन घंटे का विष्णु खरिया शैली का भीषण भाषण और काव्य पाठ  पूर्वांचल की साहित्यिक प्रचंड प्रतिभाओं ने करवाया . इसमें शुद्ध देशी छौंक की  व्यवस्था भोपाल घराने की थी.किसी  ने विष्णु खरे को 'जन कवि',किसी ने 'जीवित फासिल',किसी ने 'घराना प्रवर्तक' और 'हजारों समीक्षाओं का कवि' तो किसी ने ' हिंदी का खरे खरे' कहा.और इसके बदले विष्णु खरे ने क्या कहा-लिटिल नालेज इज डेंजरस थिंग. हिंदी न पढ़ कर मैं बच गया. प्रो पर मैं कदापि विश्वास नहीं करता.प्रो सामने में जयकार और पीठ पीछे चूतिया कहता है. विष्णु खरे ने खुद को अध्यापक बताते हुए 'चूतिया' और 'साला' शब्दों की  झड़ी लगा दी मानो काशी को चुनौती दे रहे हों।   तीन घंटे की धुआंधार बल्लेबाजी का अंत एक लिजलिजे  धन्यवाद से हुआ जहाँ सवाल जवाब के लिए भी एक मिनट का वक्त किसी को नहीं दिया गया.
              खरे ने बनारस में क्या कहा उसके पहले उनका तीन साल पहले हिंदी विभागों और पूर्वांचली लेखकों कवियों पर कहा गया कुत्सित वक्तव्य दुहरा लीजिए-


ल्लू-मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी नमूदार हुई है, जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है। आप ‘एक्सपर्ट’ बन कर किस-किस को कहां-कहां कैसे-कैसे सेलेक्ट और रिजेक्ट नहीं कर सकते। प्रकाशक-मुद्रक-संपादक-कागज व्यापारी आपके बूट चूमने लगते हैं। हिंदी की सारी दुनिया आपके लोलुप लोचनों में छिनाल से कम नहीं रह जाती। हिंदी का प्राय: हर व्याख्याता, रीडर या प्रोफेसर इन्हीं फंतासियों में जीता है और उन्हें चरितार्थ करने में सक्रिय रहता है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अब जो कल्पनातीत और अधिकांशत: अपात्र वेतनमान लागू हैं, उनके कारण प्राध्यापक वर्ग में हिंदी के शुद्ध मसिजीवी लेखकों के प्रति हिकारत और बढ़ गयी है। सभी जानते हैं कि हिंदी विभागों में कई दशकों से यौन-शोषण चल रहा है, जो अक्सर दबा-छिपा दिया जाता है।हम यह न भूलें कि ऐसे लोगों ने वे भी पाल रखे हैं, जिन्हें लीलाधर जगूड़ी के एक पुराने मुहावरे में ‘पुरुष-वेश्या’ ही कहा जा सकता है। अनेक हिंदी विभाग दरअसल ऐसी ही ‘अक्षतयोना’ पुरुष-वेश्याओं के उत्पादक चकले बन गये हैं, जहां कायदे से ‘कामायनी’ न पढ़ा कर ‘कुट्टनीमतं काव्यं’ पढ़ाया जाना चाहिए। एक छोटा-मोटा दस्ता रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी युगों से ही उठ खड़ा हुआ था, फिर नंददुलारे वाजपेयी, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, नगेंद्र आदि के उप-युगों से होता हुआ अब नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, पुरुषोत्तम अग्रवाल से गुजरता हुआ सुधीश पचौरी और अजय तिवारी जैसे अकादेमिक बौने छुटभैयों तक एक अक्षौहिणी में बदल रहा है।देश के अन्य विश्वविद्यालय केंद्रों की कैसी दुर्दशा होगी यह सहज ही समझा जा सकता है – वहां यही लोग तो ‘एक्सपर्ट’ बन कर अपने तृतीय से लेकर अंतिम श्रेणी के भक्तों को तैनात करते हैं। अल्लाह ही बेहतर जानता है कि सूडो-नामवर सिंह होने की महत्त्वाकांक्षा रखने वाला एक हिंदी प्रोफेसर केंद्रीय सेवाओं के कूड़ेदान के लिए किस कचरे का योगदान कर रहा होगा।
                  हिंदी की साहित्यिक संस्कृति का एक अनूठा आयाम यह भी है कि प्राय: सभी लेखक और प्रकाशक आपस में मित्र या शत्रु हैं, इन दोस्तियों और दुश्मनियों में भले ही बराबरियां न हों, ये संबंध अकादमिक दुनिया तक भी पहुंचते हैं और लगातार बदलते रहते हैं। इनमें एक वर्णाश्रम धर्म और वर्ग विभाजन भी है, नवधा-भक्तियां हैं, संरक्षकत्व, अभिभावकत्व, मुसाहिबी, चापलूसी, दासता आदि जटिल तत्त्व शामिल हैं। इसमें छोटी-बड़ी पत्रिकाओं के संपादकों की भूमिकाएं भी हैं, मगर बड़ी पत्रिकाओं के प्रकाशकों संपादकों के पास अधिक सत्ता है।यह इसलिए है कि यों तो अपना नाम और फोटो छपा देखने की आकांक्षा पिछले साठ वर्षों से ही देखी जा रही है, पर लेखकों में फिर भी कुछ हया, आत्मसम्मान और स्व-मूल्यांकन के जज्बात बाकी थे। 
                   दुर्भाग्यवश अब पिछले शायद दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महत्त्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुड़ुकलुल्लू-मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी नमूदार हुई है, जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है। ‘अकविता आंदोलन’ के बाद साहित्यिक मूल्यों का ऐसा पतन सिर्फ इधर की कहानी और कविता दोनों में देखा जा रहा है। पत्रिका-जगत में ऐसे सरगनाओं जैसे संपादकों का वर्चस्व है, जो अपने-अपने लेखक-गिरोह तैयार करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद के इक्कीसवीं सदी के संस्करणों का निर्लज्ज इस्तेमाल कर रहे हैं। 
                 ऐसा नहीं है कि प्रतिभाशाली, संयमी, विवेकवान और साहसी युवा, प्रौढ़ और वरिष्ठ लेखक-लेखिकाएं बचे ही नहीं, मगर ग्रेशम के नियम के साहित्यिक संस्करण में खोटे सिक्कों ने वास्तविकों को बचाव-मुद्रा में ला दिया है जो अंतत: श्रेयस्कर ही है। 
                                                                                                     
               


 इस टिपण्णी के बाद एक जरूरी प्रश्न उठता है कि क्या इस कार्यक्रम को लगभग अतिगोपनीय और 
फासिस्ट शैली का इसलिए बनाया गया ताकि विष्णु खरे द्वारा ऊपर लिखी गई हर बात को शुक्ल के हिंदी विभाग से पूर्ण हस्ताक्षर -मुहर मिल जाए.क्या हिंदी विभाग चकला घर होते हैं? क्या सारे  शिक्षक 'पुरुष वेश्याएं' होते हैं? क्या पूर्वांचल के  लेखक कवि  पूरे हिंदी समाज से अलग ऐसे चरित्रहीन अवसरवादी जातिवादी प्राणी हैं जो अपना कुछ भी छपाने चलाने के लिए केवल  दरबारी दलाली के नुस्खे से काम  चलाते हैं? यदि  विष्णु खरे की पिछली अगली हर बात के हाँ में  हाँ मिलाकर यह आयोजन हुआ है तब भी मैं अनैतिक फूहड़ ज्ञानविरोधी और कुत्सित सोच से उपजी अनेक तथ्यहीन  बातों को सोचने विचारने वाले  श्रोताओं के साथ खारिज करता हूँ.लेकिन उतना ही गौरतलब है कि विष्णु खरे का आयोजन वीरगाथाकाल और  भक्तिकाल की  काकटेल शैली में प्रस्तुत हुआ तथा तीन घंटे के उबाऊ, गाली-धिक्कार व्यंजक रूपक में अनर्गल प्रलाप का रायता फैलाया गया.  दूसरी ओऱ जसमिया विभागाध्यक्ष ने  किसी छात्र से एक प्रश्न करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया वह  ज्यादा ह्रदय विदारक है. यह कृत्य मूलतः मनुष्य, ज्ञान और स्वतंत्रता के मूल उत्स का  निषेध है और विश्वविद्यालय की  अवधारणा का अस्वीकार है.
                    तब क्या यह माना जाए कि इस भाषा साहित्य और ज्ञान विरोधी  शर्मनाक हादसे को अंजाम देने में बकौल मुक्तिबोध 'कवि लेखक प्राध्यापक डोमाजी उस्ताद' सभी शामिल थे? क्या  यह एक नाभिनालबद्ध रहस्यमय तिलिस्म था या रीढ़हीन समर्पण? विष्णु खरे जिस विश्व ज्ञान पर इतराते चलते हैं ,उसे मैंने पहली बार सुना और पूरा फ्राड लगा.  मैं जल्द अगले पोस्ट में विष्णु खरे के अंतर्विरोधी ज्ञानकांड पर लिखूंगा। फिलहाल रामचन्द्र शुक्ल के विभाग में, पूर्वांचली कवि श्रीप्रकाश शुक्ल के विभागीय साहित्यिक संयोजन-पदत्व में और बनारस के होनहार वीरबालक कलाकार व्योमेश शुक्ल के बनारसी विष्णु आतिथ्य अभियान के प्रयास से जो हिंदी का ऐतिहासिक हुडुकलुलु कांड हुआ है उसमे हिंदी साहित्य के पूर्वांचली नवोत्थान के बीज छुपे हुए हैं. दो सौ साल में पृथ्वी के जीवन के खात्मे की भविष्यवाणी करने वाले कालचिंतक विष्णु खरे ने यों ही उपदेश में यह नहीं कहा क़ि बनारस शहर नहीं,एक समस्या है.
                   अ़ब लोग पूछ रहे हैं-यह हुडुकलुल्लू क्या बला है?वह कैसा होता है?वह ऐसा कैसे और क्यों होता है? क्या वह केवल पूर्वांचल की मिट्टी में ही पाया जा सकता है या मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ के जंगली भूभाग में भी ?लोग तो ये पूछ रहे हैं कि हिंदी हुडुकलुल्लुओं की कुल कितनी संख्या होगी? हुडुकलुल्लू का साहित्य से क्या रिश्ता है? 
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                                        हुडुकलुलु  फेसबुकिया प्रसंग *

पाठक दोस्तो!
फेसबुक पर हुडुकलुलु प्रसंग के पोस्ट किए जाने पर वही  हुआ जो फेसबुक पर अक्सर होता रहता है. एक स्वनामधन्य प्रोफ़ेसर और दर्प-णवादी कवि ने अपने स्वाभाव के अनुसार पहले तोड़ मडोर कर मेरे लेख के जवाब में  अपना पोस्ट चिपकाया,फिर मेरे द्वारा प्रश्न-दर्पण रखने पर पोस्ट को अपनी प्रोफाइल से डिलीट कर दिया.क्यों? इसलिए कि प्रोफ़ेसर साहब को उत्तर देने में अपनी पोल खुलने और पुराने खाते खसरे के सामने उलट पुलट जाने का भय हुआ.वे हिंदी में जुगाडवाद के उत्तर आधुनिक जनक हैं और एक पत्रिका के नाम पर पूर्वांचल में चरित्र हनन की पाठशाला चलाते हैं. पत्रिका साल में एक बार छपती है और उसमें अपने किसी तारणहार,पड़ोसी,परिचित,अभिभावक,सहकर्मी, पुरस्कार वितरक, संपादक, लेखक को नायाब,कुंठित,हिंसक, व्याकरणविरोधी, मरियल और अबूझ भाषा में जी भर गलियाते हैं. उनका मानना है कि ''साहित्य एक सीढ़ी है  जो कैरियर के स्वर्ग तक पहुंचाती है''. प्रोफ़ेसर साहब के लिए शब्द टेबल टेनिस का  खेल है, कविता थोक मात्रा में लक्स साबुन का मशीनी टिकिया उत्पाद है, विचारधारा डुप्लिकेट मिलावटी धारा तेल है, शास्त्र  संस्कृत के कुछ आउटडेटेड काव्यशास्त्रियों के श्लोक सूत्र है,लोक हवाई पर्यटन की फोटोग्राफी है, मित्रता  अपने कुत्सित  कैरियर के लिए किसी को भी 'यूज मिसयूज और एब्यूज' करने की तात्कालिक शैली है, किसी को चाय पिलाना महाभोज कराना यानी श्राद्धभोज कराना है,छपासपन एक उत्कृष्ट सांस्कृतिक उत्थान है, साहित्य मंच  भाषण भूषण की बन्दर कूद है, कुर्सी वाग्देवी है, कुर्सीवान सगोत्री है, विजातीय और विधर्मी अछूत और अदृश्य है...मत पूछिए एक गद्य काव्य में उनका यशोगान संभव है. प्रोफ़ेसर साहब खुलेआम मंच से कह सकते हैं-मैं सहकर्मियों का चेहरा देखना पसंद नहीं करता,मैं चाहता हूँ कि शोध छात्र कविता पढ़ें-लिखें,शोध करने से क्या होता है.. अभी अन्य बातें जाने दीजिए.मजबूरन मैं प्रोफ़ेसर साहब की फेसबुकिया अवसरवादी टिपण्णी और अपने प्रश्न दर्पण आमने सामने आज तारीख १८ जनवरी २०१४ को  रख दे रहा हूँ ताकि इतिहास यथा समय अपना उत्तर खुद ढूंढ सके.



मित्रों .रामाज्ञा जी के इस पोस्ट में मुझसे सम्बंधित जो" साहित्य संयोजक के रहते कार्यक्रम के होने की " बक्र मार्गी कर्ण कुटिल सूचना दी गई है ,उसमे मेरा कहना सिर्फ इतना है की मैं विष्णु खरे के इस विभागीय आयोजन से पूरी तरह असहमत था और अध्यक्ष बलिराज पांडे को इसके बारे में बता चुका था की यदि यह कार्यक्रम हुआ तो मैं उपस्थित नहीं रहूँग और मैं गया भी नहीं .लेकिन साथ में यह भी राय दी थी की यदि विभाग का कोई शिक्षक आयोजन करना चाहता है तो उसमें कोई हर्ज नहीं क्योंकि ऐसा करना किसी का भी हक़ है .अब मैं कोई धरना तो दे नहीं सकता था !

पांडे जी के पहले इस पूरे कार्यक्रम के संयोजक ,इन दिनों काशी में विविध साहित्यिक कृतियों को रंगमंच पर उतरने को उद्यत ,व्योमेश शुक्ल से मैंने अपनी तीखी असहमति दर्ज की थी और यहाँ तक ध्यान दिलाया था की इन विष्णु भगवांन ने अभी अभी उस अशोक बाजपाई के खिलाफ कविता का विश्व विलाप किया है जिनसे आपने एक लाख की फेलोशिप पाई है .यह भी कहा था की आपके ये मुख्य अतिथि इस लिए बहुत हिंसक हैं क्योंकि मूलतः बहुत कुंठित हैं .फिर भी वे हिंदी विभाग में अपने भगवान को अवतरित करने के पक्ष में किन लोगों से संपर्क साधे और अवतरण की इस प्रक्रिया में कैसी बधाइयाँ बजीं ,यह तो वहां उपस्थित छात्रों के "हाय हाय " से ही पता चल सकता है .इस सन्दर्भ में मैं अभी भी अपने लिखे स्टैंड पर कायम हूँ और रामाज्ञा भाई को यह पता ही है की विभाग में ४० लोग हैं जिसमे साहित्य हो या न हो ,संयोजक की क्षमता तो बहुतों में है .हाँ ,इतना अवश्य है की खरे जी ने विभाग में जो वक्तव्य दिया है और जैसा खुद रामाज्ञ जी ने अपने रिकॉर्ड के मुताबिक मैत्री जलपान ग्रिह में बताया है .वह विभाग के लिए बहुत शर्मनाक था और मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसे मुग्ध नायकों के वक्तव का खंडन करता हूँ .

अब जैसे की आत्मप्रचार की यह बानगी -जो मेरी कविता सुनकर आत्म हत्या करना चाहते हों ,वे व्योमेश द्वारा अभी अभी तैयार की गई 3 घंटे की मेरी सी डी सुन लेंगे .यह सब मुझे लगभग २० छात्रों की उपश्थित में रामाज्ञा ने खुद बताया और यह भी की पूरा भासन रिकॉर्ड किया है.अब पूर्वांचल के सबसे बड़े ,बकौल खरे जी ,चकला घर में ,कविता के रंगमंच के साथ आने की ,कहें की अवतरित होने की, यह बचैनी क्यों ,!क्या देश के अन्य चकला घर प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिये हैं !

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Ramagya Shashidhar आदरणीय प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल जी! आपके पोस्ट को पढते हुए ऐसा लगता है कि आप सुविधावाद की खेती करके पूरे मसले से निकल भागना चाहते हैं ताकि अनाज आपके बखार में भरा रहे और खंखर दूसरों की आँखों को कंचियाता रहे.क्या आप श्रोताओं-पाठकों के कुछ प्रश्नों का ईमानदारी से जवाब देना उचित समझेंगे? १.क्या विष्णु खरे द्व्रारा की गई टिपण्णी कि आप पूर्वांचली लोग हुडुकलुलु मार्का लेखक हैं जो केवल छपने के लिए किसी स्तर तक उतर सकते हैं ,से कितनी फीसदी सहमत असहमत हैं और क्यों?२. क्या विष्णु खरे की अश्लील टिपण्णी कि सारे हिंदी विभाग चकलाघर हैं और सारे प्रोफ़ेसर पुरुष वेश्याएं,से आप सहमत हैं? हिंदी विभाग के साहित्य संयोजक होने के नाते आपकी जिम्मेदारी उपस्थित होकर अपनी बात कहने और विरोध करने की नहीं थी ?क्या आप अध्यक्ष के हर स्टेंड में उनके साथ नहीं हैं ,तब इसमें आपकी अनुपस्थिति एक रणनीति क्यों नहीं हो सकती? ३. छोटी छोटी बातों पर आप अपनी पत्रिका में किसी को भी कुंठा और हिंसा के चरम बिंदु तक नोचने चोथने से नहीं चुकते,तब यहाँ विष्णु में भगवान और व्योमेश में इंद्र कैसे दिखने लगा? क्या जिस व्योमेश ने आपकी कविता को बीसवीं कार्बन कांपी लिखा और आपने उन्हें पत्रिका में नाजायज संतान तक कहा, आपको कविता सीडी में डालते ही इतने नातेदार हो गए कि आप रजा फेलोशिप और अशोक वाजपेयी की दुहाई देकर उन्हें नैतिकता का पाठ पढाने लगे? क्या आपकी और व्योमेश की साहित्यिक नैतिकता केवल नामवर-कालिया-विभूति-अशोक-खरे को साधकर छपने पुरस्कार झपटने तक है? दोनों की हालिया विष्णु मार्गी भूमिका और गतिविधि से खरे की बात को मुहर लगती नहीं दिखती है?४.क्या यह सही नहीं है कि व्योमेश पहले अशोक से फेलोशिप ली,फिर विभूति से मांगकर नाटक खेला और अब अशोक वाजपेयी के नवक्षोभी विष्णु से मुहर ले रहे हैं?५ क्या आपका कालिया विभूति स्वार्थ पूरा हो जाने के बाद यह नया विष्णु-व्योमेश सफर नहीं है जहाँ हिंदी,हिंदी विभाग,पूर्वांचल के समाज और जीवन से ज्यादा आपका कैरियर सर चढ़कर बोल रहा है? ५. खरे के भाषण और कविता के बाद कई छात्र और मैं खुद बोलना चाहते थे लेकिन संवाद के लिए एक मिनट नहीं देना लोकतंत्र का गला घोंटना नहीं है?इस पर आपका कुर्सी चिपकू चुप्पापन क्या दर्शाता है?क्या आप साहित्य संयोजक पद से आगे भी कुछ उठ पायेंगे?६.,जसम ,प्रलेस की चादर का दुरूपयोग क्या विचारधारा और जनता और खुद के साथ धोखा नहीं है? क्या साहित्य इतना बौना क्षेत्र है कि आप लोग बिना बैशाखी और हरि कीर्तन के सार्थक नहीं हो सकते हैं? जो खरे कक्षा में दस बार चूतिया साला बोल सकते हैं उनके उनके द्वारा कहे हुडुकलुलु शब्द के बारे में आपका शास्त्र और लोक क्या कहता है?January 11 at 11:39pm · Like · 1