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19 जून, 2014

गाँव में दो पीढ़ियों के बीच का धागा टूट गया

                                            रामाज्ञा शशिधर 


गाँव में दो पीढ़ियों के बीच का धागा लगभग टूट गया है.ताने को बाने का और बाने को ताने का पता नहीं है.नई पीढ़ी के लिए पुरानी पीढ़ी उस पुराने अबूझ गीत की तरह है जिसका रिमिक्स नहीं बन सकता.पुरानी पीढ़ी के लिए नई पीढ़ी डीजे का कानफोडू शोर है जो सिर्फ पुराने दिलों की धमनी को तोड़ रहा है. इसे समाजशास्त्री लोग 'जेनेरेशन गैप' कहते हैं लेकिन मेरे लिए यह बदलाव पुराने गाँव का नए बनते कथित गाँव से पूर्ण संबंध विच्छेद है.


लगभग सत्रह साल पूर्व जब मैंने प्रवीण प्रियदर्शी के साथ बेगूसराय इप्टा और प्रोवीर गुहा के नुक्कड़ नाटकों से प्रभावित होकर महाकवि  दिनकर और अपनी जन्मभूमि सिमरिया से कला संस्कृति की  जनपक्षीय संस्था 'प्रतिबिम्ब' का आरम्भ किया था तब गाँव और आसपास के इलाके से १०-१२ ग्रामीण कलाकार आसानी से मिल गए थे.बीच में चार पांच और बौद्धिक जुड़े.उसके बाद मेरा कार्य क्षेत्र बदलता रहा और मैं पूरावक्ती कभी नहीं रहा.



स्थानिक संस्कृतिकर्मी साथियों द्वारा  लगातार आसपास के गाँवों में जनगीतों,नुक्कड़ नाटकों,बहसों,नारों और प्रतिरोध के अनेक रूपों से 'प्रतिबिम्ब' का सार्थक हस्तक्षेप रहा है और उपलब्धियों की लम्बी फेहरिस्त में प्रेमचंद के उपन्यास 'निर्मला' को एनसीइआरटी से हटाने पर उसके विरुद्ध  आन्दोलन,जात पांत पूछे सब कोई,मैं हूँ भ्रष्टाचार,इ इलेक्शन की कह्ता है जैसे नुक्कड़ नाटक,जनगीत अभियान,पचासों संगोष्ठी-सेमिनार,दिनकर मंच पर सम्मानपूर्ण साहित्यिक उपस्थिति के लिए संघर्ष ,पुस्तक-पुस्तिका प्रकाशन आदि पड़ाव गाँव और प्रतिबिम्ब के रिश्तों को मज़बूत करते गए.



आज नई पीढ़ी पर  'प्रतिबिम्ब'का  कोई निर्णायक प्रभाव क्यों नहीं है?इन कारणों की पड़ताल के लिए जब हमने'प्रतिबिम्ब'के बैनर तले 'आज का गाँव और सांस्कृतिक संस्थाओं की भूमिका' विषय पर जनपद स्तरीय संगोष्ठी आयोजित की तो जो बातें सामने आईं,वे गाँव की संस्कृति को समझने  और बदलने की नई खिड़की खोलती हैं.



           अव्वल तो दिनकर पुस्तकालय के वाचनालय में मुझे लगभग सारे चेहरे वही दिखे जो दो तीन दशक से गाँव की संस्कृति की गतिविधियों में कमोवेश सक्रिय रहे हैं.मैं हिल गया कि सोलह से पचीस के बीच की पूरी नई पीढ़ी गाँव की अपनी ही जड़ों से कट गई है.उसके सोचने,जीवन जीने,प्रतिक्रिया करने,दिनचर्या चलाने,पढने-लिखने,परम्परा और टेक्नोलाजी से रिश्ते रखने के तरीकों में आमूल बदलाव हो गया है.बहस से साफ़ जाहिर


हुआ कि पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी से संस्कृति के मसले पर गहरे दुखी है और नई पीढ़ी के लिए पुरानी पीढ़ी बलुई मिट्टी का ढूर है.दोनों को एक दूसरे की


भाषा समझ में नहीं आती,एक दूसरे को संदेह और घृणा के नजरिए से देखते हैं. यह सभ्यता के इतिहास का सबसे बड़ा पीढ़ी परिवर्तन है.


    अब सुनिए पुरानी पीढ़ी की चिंता.पचीस साल से पुस्तकालय से जुड़े किसान लक्ष्मणदेव का कहना है- पुस्तक है,पाठक नहीं; सरकारी स्कूल है,पढाई नहीं बल्कि खिचड़ी है;गार्जियन को शिशु केन्द्रित होना चाहिए लेकिन वे स्वकेंद्रित हैं.


                                   

  सत्तर साल के प्राथमिक शिक्षक नवकांत झा का दुःख है कि गाँव में सरकारी स्कूल गोदाम बन गया है और बहुतायत प्राइवेट स्कूल अभिभावक और छात्र को बहलाने फुसलाने के अड्डे.गाँव के बिगड़ते माहौल को दुरुस्त किए बिना विकास असंभव है.शिक्षक वैद्यनाथ सिंह का मानना है कि प्राथमिक और हाई स्कूल की परीक्षा में कदाचार ही नई पीढ़ी को भविष्यहीन बना रही है वहीँ जितेन्द्र झा कहते हैं कि क्या सारे शिक्षक खिचड़ी ही बनाते और बच्चों को खिलाते हैं.
            
आजीवन ग्रामीण छात्रों को ट्यूशन देने वाले बद्री मास्टर साहब का पुस्तकालय से आरम्भ से जुड़ाव है. उनका कथन है कि गाँव में अब अंग्रेजियत का समय है.देहात में अंग्रेजी शब्द रटाते रटाते बच्चों की रचनात्मकता ख़त्म की जा रही है.रटंत विद्या  उनके सोचने समझने की शक्ति ख़त्म कर रही है.
             
         बौद्धमार्गी और ग्रामीण डाक्टर विद्या ठाकुर की पैनी नजर विश्वग्राम में ग्राम-बदलाव को बिलकुल नए ढंग से समझती है.गाँव भी अब शहर की तरह दौड़ रहा है.कोई गाड़ी पचास साठ की स्पीड से कम नहीं है.बच्चे रात को नाइट,सुबह को मार्निंग,शाम को इवनिंग कह रहे हैं.मोबाइल में टीवी है. टीवी गाँव की सबसे बड़ी और मजबूत सांस्कृतिक संस्था है जिसका आपरेटर अमेरिका में बैठा है.नई पीढ़ी ने ग्रामीण संस्कृति से त्याग पत्र दे दिया है.सिरोहिया अल्हुआ और अरहर की दाल से पूरा टोला गमगम करता था.अब तो चाऊ जी का मीन है तिस पर सास हसीन है.

 युवा कवि निशाकर की ठोस दृष्टि बदलते गाँव को नए पुराने तनाव के रूप में चिह्नित करती है-पहले संयुक्त परिवार था अब एकल परिवार;पहले अन्न के बिना लोग भूखे नहीं सोते थे अब भूख और कुपोषण के शिकार;पहले सूचना का साधन सीमित था अब सूचना का विस्फोट;पहले आत्मनिर्भरता अब परनिर्भरता;पहले अलाव,कीर्तन मंडल,पर्व त्योहार अब डीजे;पहले लोग अमल करते थे अब नसीहत देते हैं.


    ग्राम रत्न राजेन्द्र सिंह समृद्ध किसान हैं. उनकी मान्यता हो चली है कि सरकार किसान को अजायबघर का प्राणी बनाना चाहती है.पचहत्तर के गंगाधर पासवान आजीवन खांटी कामरेड और ठेला चालक हैं.मेरी किताबों को उन्होंने अपने ठेले से कई बार शहर छात्रावास तक पहुँचाया. वे निराश हैं कि उनकी भूख बचपन जैसी है पर अब कोई बुद्धिजीवी पार्टी क्लास या देश दुनिया का ज्ञान देने गाँव नहीं आता.


    


              पूर्व में कीर्तनिया,फिर प्रतिबिम्ब सदस्य और अब वैज्ञानिक चेतना   के ग्रामीण अभियान केदारनाथ भास्कर का कहना है कि गाँव आज सरेंडर कर गया है.वह शहरों से घिर गया है.गाँव मर गया है,वह दुर्गन्ध से भरा एक इलाका है.गाँव में आज भी रक्ष संस्कृति और देव संस्कृति जिंदा हैं.वकील सह किसान उदय सिंह के लिए पहले शहर गाँव पर निर्भर था अब गाँव शहर पर निर्भर है.शिक्षक बबलू दिव्यांशु का कहना है कि सामाजिकता गाँव की धुरी थी वही ख़त्म हो गई तब गाँव कैसे बचेगा.


           एक दशक से प्रतिबिम्ब से जुड़े कार्यकर्ता मुचकुंद मोनू के लिए  गाँव शहर से ज्यादा उपनिवेश के निशाने पर है.आठ घंटे काम,आठ घंटे आराम और आठ घंटे मनोरंजन की धारणा छीन ली गई है.पहले देह को गुलाम बनाया जाता था अब दिमाग को गुलाम बनाया जाता है.हम ऐसे पंछी हैं जिन्हें पिंजरे में घूमने का हक़ है दीवार की तरफ देखने का नहीं.दुनिया सर के बल खड़ी हो गई है.हमसे वैज्ञानिक चेतना छीन ली गई है.

     गाँव में पत्रकारिता,टेक्नालाजी और समाज के जटिल प्रयोगकर्ता प्रतिबिम्बकर्मी प्रवीण प्रियदर्शी की सोच गौरतलब है. विकास और विनाश एक मानसिक अवधारणा है.कोई इमारत बिल्डिंग और डिस्को डांस को विकास कह सकता है कोई विनाश.गाँव से नीम चौपाल दरबाजे गायब हो गए.सभी दालान दूकान हो गए.जब प्रेमचंद पर हमला हुआ तो गाँव वालों ने लोकल डाक्टर प्रेमचन्द पर हमला समझा था.गाँव में बिना ब्रेक के किसी भी ऊँची ब्रेकर के ऊपर से सत्तर अस्सी से कम गति से बाइक जम्प नहीं करती है.गाँव का एक सच स्पीड है.दूसरा सच शराब है.सुबह को कौन सा ब्रांड चाहिए शाम को कौन सा अब भट्ठी में जाने की जरूरत नहीं.योजना मतलब भ्रष्टाचार है.


    जनपदीय कवि-गीतकार दीनानाथ सुमित्र सत्तर साल में बेरोजगारी का दंश झेलते हुए शहर में रहते हैं और अपने गाँव से घृणा करते हैं. अपने गाँव मंझौल के एक मृत्युभोज में जब ग्रामीण ने एक दिन रुककर त्रयोदशा का भात खाने को कहा तो उनका जवाब था कि मैं मृत्युभोज में मुख्यातिथि हूँ.गाँव में नहीं रुकूंगा. सुमित्र जी का कहना है कि यह भूलने का समय है .गाँव ही गाँव को भूल रहा है.मंच माइक के बिना बुद्धिजीवी गाँव में आना नहीं चाहता.वह खेत खलिहान को झांकता तक नहीं.प्रतिबिम्ब ने उनकी दो किताबें चंदे से छापी हैं जिनमें दो पंक्तियाँ हैं-


रह रहकर शूल चुभे पाँव में
रहता हूँ फिर भी इसी गाँव में


                            

              मुझे लगता है कि ग्लोबल आंधी की चोट बर्दाश्त करने में अब गाँव अक्षम हैं. अगर गाँव को बचाना है तो गाँव के बुद्धिजीवी हर टोले में एक बाल पुस्तकालय और एक बाल चेतना मंच का गठन तुरंत करे. अब शुरू से शुरू करना होगा.हमने अपने टोले में एक बाल चेतना मंच का अधूरा प्रयास शुरू किया है जिसका नेता आठ साल का गोलू है.इसमें पूरा लगना होगा.कच्ची खिचड़ी से काम नहीं चलेगा. 
  

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

Bahut badhiya......Mukund

Unknown ने कहा…

Achha lekh hai sir ji

धनंजय मिश्रा ने कहा…

अकथ दर्द है . . क्या कहा जाय
पर आपका विश्लेषण चित्रकार की तरह है।