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25 अक्तूबर, 2017

ठुमरी गायिका गिरिजा देवी बनारस संगीत घराने की आत्मा हैं


पूरब अंग की अप्रतिम आवाज़ कल खामोश हो गई।बनारस की गलियों घाटों से लेकर संकट मोचन संगीत समारोह तक ठुमरी कजरी चैती की ऐसी उपशास्त्रीय आवाज़ जिसे सुनने के लिए
एक पनेरी से लेकर पंडित तक बेकरार रहता था।8 मई 1929 को गुलाम बनारस में जन्मी गिरिजा देवी को हारमोनियम बचपन में ही मिल गया था।ज़मींदार रामानंद राय की यह संगीत
और स्त्री के संबंधों के प्रति बनारसी प्रगतिशीलता ही होगी कि 9 साल की नन्हीं बेटी के हाथों वाद्ययंत्र और होठों पर लोकगीत भरना शुरू कर दिया जो 24 अक्टूबर 2017 को अंतिम साँस के साथ ही छूट पाए।
         गिरिजा देवी बनारस के उपशास्त्रीय संगीत घराने की चलती फिरती प्रयोगशाला थीं।पुरबिया मिट्टी से लोकधुन और लोकगीत को चुनकर शास्त्रीय भट्ठी में तरासने का और उसे विश्व के संगीत पटल पर फ़ैलाने का उनका कार्य अनवरत चलता रहा।वे बनारसी ज़िंदादिली और सामाजिक कला की अनूठी मिसाल थीं।ठुमरी साम्राज्ञी के नाम से सुचर्चित अप्पा जी का गायन आगे आगे स्पेस बनाता था और पुरस्कार सम्मान पीछे पीछे लटककर अपनी विश्वसनीयता अर्जित करते थे।गिरिजा जी ने बीएचयू और आइटीसी रिसर्च अकादेमी कोलकाता में संगीत फेकल्टी के रूप में जितना बड़ा योगदान दिया उससे बड़ा योगदान भोजपुरिया लोकधुनों और लोकशब्दों को अनेक महान संगीत साधकों के सहयोग से राष्ट्रीय वैश्विक श्रोता वर्ग तैयार कर किया।बनारस घराने की कई पीढ़ियों का निर्माण गिरिजा देवी के हाथों हुआ है।    
            संगीत और शब्द के साधकों से अपेक्षा है कि वे गिरिजा जी के अनेक गीतों को फिर से सुनकर आएं और चबूतरा चर्चा में बनारस घराने की महान गायिका को अनूठी लोक श्रद्धांजलि दें।

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