//बेगूसराय के त्रिलोचन हैं अशांत भोला//
💐मजदूर दिवस पर जन्मदिन विशेष💐
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मेरे जैसा बनकर देख!जुल्म के आगे तनकर देख
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@रामाज्ञा शशिधर,बीएचयू,बनारस
मुक्तक के मास्टर त्रिलोचन रहे।त्रिलोचन जी शुरू और अंतिम दौर में दाढ़ीमुक्त हो गए थे।अशांत भोला बिना दाढ़ी के त्रिलोचन रहे हैं।आज फेसबुक पर पहली तस्वीर दाढ़ीवाली दिख रही है।शायद कोरोना काल का असर हो।
लेखक तो बहुत हुए हैं लेकिन जनपद में त्रिलोचनी जीवन,यातना और साधना तो सिर्फ अशांत भोला की है।
अशांत भोला को मैंने अपने गांव रूपनगर(सिमरिया-2) में सबसे पहले देखा था। जब दसवीं के बाद शहर की डाल पर उतरा तो फिर पहली दोस्ती अशांत भोला से ही हुई।पड़ाव तो पंछी ने कई पेड़ों पर डाले लेकिन एक पूरे रचनात्मक वृक्ष का सुकून यहीं मिलता था।
जब पहली बार विष्णुपुर प्रेस में रतनपुर लॉज से मिलने गया तो अशांत भोला की आत्मीयता से विभोर हो उठा-पानी लोगे!प्लेट चढ़वाकर चाय पिलाता हूँ।
मशीन के शोर के बीच यह अनौपचारिक बेबनावटी आवाज़ गरीबी और संघर्ष के दिनों में बेहद अपनी आवाज़ लगी- लंबा छरहरा बदन।तीखी नाक।गोरा चेहरा।शिशुवत मुस्कान।करीने से इस्तरी किए हुए कुर्ते की शानदार चेस्ट पाकेट में कई रंगों की पेनें।हाथ पांव कागज की ओर लपकते हुए। प्रेस की रोशनाई में लिपटी हुई उंगलियां।काम में मशगूल।समय का पाबंद।
किसी भी मिलने वाले के लिए इतनी आत्मीयता और ताजगी कि जो एक बार मिला ज़िंदगी भर का दोस्त हो गया।बीच बीच में चाय के बहाने चौराहे तक घुमाई और गप्प गठाई। पान मसाले की छौंक।शब्द शब्द और शब्द।
त्रिलोचन तो बाद में मेरे प्रिय कवि बने,जनपद के त्रिलोचन से मुलाकात तो पहले ही गई।
मुझे क्यों बार बार अशांत भोला त्रिलोचन के जनपदीय संस्करण लगते हैं?
इसलिए कि त्रिलोचन की तरह जीवन भर प्रेस दर प्रेस अशांत भोला संघर्ष करते रहे।वह जमाना ट्रेडिल मशीन का था।हाथ और स्याही से खबर और कविता गढ़ने का दौर।अशांत भोला का उस दौर के प्रेस ठेकेदारों ने खूब शोषण किया।आप देखिए, सबने नगर जमीन मकान का रकबा बढ़ाया।अशांत जी ने मुजफरा में बेटी के यहां से लम्बी दूरी बस में धक्का खाते हुए या किराए के लॉज में रोटी बेलते हुए जीवन गुजार दी।कुर्ता पाजामा की व्यवस्था भी खास तरह से होती थी।
दूसरी चीज अशांत भोला की भी त्रिलोचन की तरह अनौपचारिक शिक्षा हुई।आशांत जी सम्भवतः दस की भी परीक्षा नहीं दे पाए।
अशांत भोला का बचपन कलकत्ता ने गढ़ा था।शायद संस्कृति की बारीकी,ज़िंदगी जीने का सलीका,आवारागर्दी और शब्द से प्यार में कलकत्ते जैसे विरासतदार महानगर की भूमिका थी।अनायास नहीं है कि उनके प्यारे लेखकों में राजकमल सबसे ऊपर रहते हैं।
अशांत जी की सबसे बड़ी साहित्यिक बात जो मुझे आकर्षित करती रही वह उनका भाषाबोध।वे नगर के अकेले लेखक मिले जो बातचीत का ज्यादा वक्त भाषा और भाषा पर बिताते थे।
मैं लेखक संगठनों के लेखकों-फ्रस्टेटेड अलेखकों के हाइपर राजनीतिक वाग्विलास,पत्रकारों के चरित्र हनन उपहास,प्रोफेसरों के कुर्सीनिवास और छुटभैया नेताओं के क्रांतिभड़ास से जब अशांत भोला के शब्द अहसास की तुलना करता तो मुझे सृजन सुख का आकर्षण उधर ही खींचता।
सृजन की उलझी पहेली तो त्रिलोचन और बनारस से सुलझी कि भाषा लेखक की पहली और अंतिम फसल है।बाकी चीजें तो आती जाती रहती हैं।भाव और विचार आदमी में इसलिए बड़ी मात्रा में बनते हैं क्योंकि उसके पास भाषा का संसार है।भाषा का रूपात्मक और बहुअर्थी संकेतक गुण के कारण संवाद से लेकर साहित्य तक भाषा एक केंद्रीय शक्ति है। प्रगतिवादी लेखक त्रिलोचन कहते हैं-
भाषा भाषा भाषा ,सब कुछ भाषा।
भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है।
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है।।
अशांत जी जीवन भर शब्द के सायास साधक हैं।मुझमें तो प्रथम भाषा संस्कार उन्हीं से आया।बेगूसराय की कविता वामपंथ के भाषण की तरह स्थानीय और राष्ट्रीय होने से पहले ही अंतरराष्ट्रीय होती रही।यही कारण है कि भूमंडलीकरण के बाद जहां नाटक संगीत मंचन ने स्थानीयता की शक्ति को केंद्र में लाने की कोशिश की वहीं बेगूसराय की कविता कहानी में जनपद के जन का जनपदीय रंग ढंग वाणी और भंगिमा बहुत कम है।अरुण प्रकाश के कथा साहित्य में दिल्ली जाकर भी बेगूसराय की ठाठ है।कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों पर भैया एक्सप्रेस से बड़ी हिंदी में शायद दूसरी कहानी नहीं है।कोंपल कथा से लेकर जल प्रान्तर तक।
दूसरी ओर अशांत भोला भी कविता में जीवन का स्थानिक रंग उतारने से बहुत कुछ चूक गए।बेगूसराय के हमलावर कवियों को भाषा,जीवन और लोकरंग के जटिल रिश्तों पर सोचना जरूरी है।
बेगूसराय में जरबर्दस्त कवि भी हुए,जबर्दस्ती के कवि भी हुए हैं।स्वयंभू जनकवियों की तो एक दौर में सांगठनिक ठेकेदारी चलने लगी।लेकिन पूरा जीवन शब्द के लिए देने और उसके लिए जीने मरने की जद्दोजहद करने वाले कवि अशांत भोला ही हैं।।
एक बात का जिक्र और। अशांत भोला केवल मंच के आकर्षण ही नहीं रहे बल्कि ग्राउंड जीरो की पत्रकारिता और समकालीन कविता के बड़े प्रशिक्षक भी रहे।बदलाव की पत्रकारिता के वे एक चलते फिरते ट्रेनिंग स्कूल बने जिसने देशभर में दर्जन भर पत्रकार दिए।वह जमाना धर्मयुग,दिनमान का था।
खैर उनके जैसा मनुष्य होना तो दुर्लभ है।कभी महंत नहीं बने बल्कि सबके यार सदाबहार।यह सच है कि अपने जेबखर्च के लिए पत्रिका,मंच और रेडियो स्टेशन से लगातार जुड़े रहे।बाद में स्थानिक साहित्य के जातिवाद,वामवाद और लाठीवाद ने भी उनका नुकसान किया।वे धीरे धीरे संकुचित होते गए।अपनी शर्त पर साहित्य और जीवन जीनेवाले को कीमत चुकानी होती है।साहित्य भड़ैती और लठैती कभी नहीं हो सकता।काल का प्रवाह इसका प्रमाण है।
कुछ लोग संगठन के लेखक होते हैं लेकिन अशांत भोला इतने लेखक अपनी पत्रकारिता,सोहबत और हौसला अफजाई से निर्मित कर दिए कि खुद ही संगठन दिखते रहे।
जब मैंने बेगूसराय छोड़ा तब बेगूसराय की स्थानिक साहित्यिक राजनीति लगभग अपराध की शक्ल में बदल गई थी।परिणाम हुआ कि सारे मंच मचान ढहते चले गए।आज दूर से चीजें ज्यादा साफ दिखती हैं।
आज अशांत भोला का जन्मदिन है।बनारस में अशांतजी की बेगूसरैया सोहबत की कमी खलती तो है लेकिन मालवीय के आंगन में जनपद के अधूरे कामों को बढ़ाते हुए संतोष भी मिलता है।
जनपद में दो लोगों की जेब में मुझे अक्सर पोस्टकार्ड दिखते थे।गांधीवादी वैद्यनाथ चौधरी और्वअशांत भोला।अशांत जी डाक विभाग की रोज चक्कर लगाने वाले लेखक रहे हैं।उनकी लिखावट इतनी सुंदर और साफ होती है जैसे फर्श पर मक्के के दाने।हालचाल का जरिया भी तब पोस्टकार्ड भी था।आज भी मैं किसी पोस्ट ऑफिस के पास से गुजरता हूँ तो नास्टेल्जिक हो जाता हूँ।आजतक मेरे पास लिखे अनलिखे पोस्टकार्डों की गठरी है।
खोज तो आजकल वाली आपकी कविताएं रहा था लेकिन पत्रिका संघर्ष यात्रा में दिल्ली में ही कहीं खो गई।लोग छपास रोग से ग्रस्त और मंच शिरोमणि के लिए व्यस्त तो होते हैं लेकिन अशांत जी हमेशा शांत भाव से समकालीन राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं को प्राथमिकता देते रहे ताकि बेगूसराय की पहचान जनपदीय कुर्सी पर ठेलाठेली से नहीं बल्कि राष्ट्रीय पहचान की हेला मेली से हो।
अशांत भोला की कविताओं की किताब जल्द आए तो हम लोग श्रवण सुख की जगह दृश्य वाचिक सुख भी लें।बादल जी,रामेश्वर प्रशांत और दीनानाथ सुमित्र की किताबें आईं लेकिन चंद्रशेखर भारद्वाज और अशांत भोला के संकलन का अभाव खलता है।
यह हिंदी की कितनी बड़ी विडंबना है कि जो लेखक जीवन भर प्रेस का मजदूर हो,जिसने अनेक लेखकों की किताबों के प्रूफ पढ़ते अपनी दसों उंगलियां स्याही से रंग ली हो उस रचनाकार की आंखों में कोई अपना छापा न हो।
प्रदीप जी की वाल से कुछ मुक्तक पाठकों के लिए-
💐💐💐
मुक्तक
घर बिना छत बनाए जाएंगे
लोग उसमें बसाए जाएंगे
राज आपका हो या उनका हो हुजुर
हम तो बस शूली चढ़ाए जायेंगे।
पीर पराई लिखते-लिखते
गजल-रूबाई लिखते-लिखते
अपनी सारी उमर गंवाई
भूख कमाई लिखते-लिखते
सूरज चांद सितारों में
महलों में नहीं मीनारों में
मुझे ढ़ूंढ़ना तुम्हें मिलूंगा
बासी-रद्दी अखबारों में
छोड़ो अब सब रोना धोना
होगा वही जो होगा होना
आग में सबकुछ जल जाता है
खड़ा उतरता केवल सोना
गुमसुम गुमसुम है कचनार
जैसे पहला-पहला प्यार...
1 टिप्पणी:
विस्तृत समीक्षा जरूरी, आलोचक की नजर का अब उपाश्रयी होना जरूरी।
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