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25 अप्रैल, 2020

कोरोना काल में रामचन्द्र शुक्ल पर बवाल क्यों:रामाज्ञा शशिधर

//कोरोना काल में शुक्ल पर बवाल क्यों//
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 औपनिवेशिक काल का यह यह चित्र उस चित्र के ऊपरी हिस्से से मेल खाता है जिसमें आम्बेडकर शुक्ल की तरह फिरंगी टाई और कोट से लैस हैं।पहनावे का अंतर सिर्फ इतना है कि आंबेडकर नीचे फुलपेंट पहनते थे और शुक्ल धोती। इसलिए आंबेडकर और शुक्ल दोनों
पर औपनिवेशिक पाश्चात्य चेतना का  प्रभाव है।उपनिवेशवाद हमारी भलाई के लिए नहीं आया था,अब यह जगजाहिर है।कहना न होगा कि उपनिवेशवाद ने किस तरह भारतीय बौद्धिकता में एक ओर परंपरा विच्छेद का अभियान चलाया दूसरी ओर जातिवाद और साम्प्रदायिकता का विषवृक्ष भी तैयार किया।
      शुक्ल पर प्राच्य जातिवादी साम्प्रदायिक चेतना का प्रभाव है और आंबेडकर पर परंपरा से टूट का।लेकिन इस पर कमोवेश बहस लंबे समय से होती रही है।फिर इसमें नया क्या है?नया है देश काल और उसका प्रोडक्ट।।     

         कोरोना काल में बड़ी मानवता की हिफाजत के बजाए जात धरम पर बहस सत्ता और मीडिया कर रहे हैं और हम उसके असर के शिकार मनीषा हो चुके हैं।मुझे दुख है कि हिंदी के ढेर सारे पढ़े लिखे बौद्धिक हंसुआ के विवाह में खुरपी के गीत जैसी कहावत के ट्रैक में फंस गए हैं।यह अमानवीय कर्म भी है।
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      बात चली है तो ध्यान रखिए कि यह सनसनी साहित्य में सोशल डिस्टेंसिंग और क्वारन्टीन की उपज है। एकेडमिक जगत पाखण्ड और अवसरवाद के लॉक डाउन का शिकार लंबे समय से है। इसलिए नियति के ये दिन आने ही थे।
         हिंदी के कुएं में पानी जैसे जैसे कम होता जाएगा,मेढ़क की टर्र टर्र बढ़ती जाएगी।सच तो यह है कि आलोचना और शोध से छत्तीस के आंकड़े रखनेवाले के एकेडमिक कुल का विस्तार लगातार होता रहा और उसको हमारे योग्य आचार्यों ने बेशर्म बढ़ावा दिया।आज उसकी कूट फसल यह पीढ़ी है।
        जब शोध और आलोचना के नाम पर घर धुलाई,कार पोछाई,ओझाई और  चेलाई ही करवानी है तो उसका सह उत्पाद ऐसा ही होगा।।     
         हिंदी के शीर्ष आलोचकों ने विश्व ज्ञान को साधा था,तब कुछ दे गए।जो दे गए चाहे शुक्ल-द्विवेदी हों या नामवर-मैनेजर उनकी जड़ें प्राच्य और पश्चिम की ज्ञान और साहित्य परम्परा में सतर्क ढंग से धंसी हुई है।
      दुनिया के दो समकालीन मार्क्सवादी  आलोचक टेरी ईगलटन और फ्रेडरिक जेमेसन को पढ़िए तो पता चलता है कि वे अपनी परंपरा से कितने जुड़े हैं।
         असहमति का साहस और सहमति का विवेक दोनों हमारे आसपास रणनीति के तहत नष्ट किए गए हैं। जातिवादी और कुलीन ब्राह्मण समुदाय को शुक्ल जी पसंद हैं तो यह दोनों का दुर्भाग्य है और इसी कारण दलित को शुक्ल जी से घृणा है तब भी दोनों की बदनसीबी है।
         वस्तुतः नवकुल नक्काल की भड़ैती ही उनका साहित्यिक शगल है।एक कहावत है यथा गुरु तथा चेला/मांगे गुड़ दे ढेला। 
     मुझे तो इस बहस में सनसनी,उत्तेजना,अनपढपन और तथ्यहीनता ही ज्यादा दिख रही है।जिस बहस का मूल ही अनपढपन और अवसरवादी सनसनाहट का शिकार हो उसके अतिरिक्त विस्तार का नतीजा रिक्त ही होगा।
         कोरोना महामारी की विकट घड़ी में जिस तरह सत्ता जात धरम की राजनीति से मानवता को घायल कर रही है,उसी का बाई प्रोडक्ट यह उथला एकालाप है।जहाँ देखिए हिंदी के मास्टर और एकेडमिक जगत से परमकुंठा पालने वाले कथित लेखक मच्छर गान गाए जा रहे हैं।न राग न लय, फिर भी प्रलय!!!

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