📗मालवीय चबूतरा संवाद📗
कुछ अच्छे लेखक हैं, जो कुछ बड़ा और महान रच रहे हैं, वे मारे जा रहे हैं, या जेल में बंद हैं। और कुछ पुरस्कारमार्गी लेखक हैं, जो पाँच सौ रुपए के सरकारी, गैरसरकारी पुरस्कार से लेकर, पाँच लाख के पुरस्कार तक के लिए सारा तिकड़म भिड़ाते हैं, जिन्हें मिलने से, पुरस्कार भी कमजोर होगा।
जिस दौर में एम एम कलबुर्गी कन्नड़ के लेखक मार दिए गये, और वरवर राव तेलुगू के लेखक जेल में बंद हैं, उस दौर में हिन्दी के लेखक पुरस्कार पर बहस कर रहे हैं। संस्कृति, साहित्य और स्वाधीनता जिस दौर में अलार्मिंग स्तर के खतरे पर हो, उस दौर में साहित्य-समाज की चिंता ज्यादा होना चाहिए, न कि पुरस्कार की।
भारतीय भाषाओं में पिछले दिनों बहुत बड़ा और महान साहित्य नहीं रचा गया, अगर किसी भाषा में महान साहित्य है तो उसे प्राथमिकता देनी चाहिए।
ज्ञानपीठ एक व्यापारिक घराने का पुरस्कार है। कार्पोरेट पूँजीवाद के दौर में हम हैं। देशी किस्म का पूँजीवाद जो अंग्रेजी राज के समय पैदा हुआ इनमें बिड़ला, डालमिया, गोएनका जैसे नाम थे। यह गोएनका का पुरस्कार है। यह ट्रस्ट का पुरस्कार है। यह प्राइवेट पुरस्कार है। और इस पर लेखक अगर छाती पीटते हैं तो कार्पोरेट कैपिटलिज्म के दौर में, देशी पूँजीवाद में इन्हें अपनी संभावना दिखती है, जो कि गैर प्रासंगिक हो चुका है।
गोएनका की मर्जी ज्ञानपीठ चलाए, बंद कर दे। नया ज्ञानोदय का संपादक रखे, बदल दे। क्रान्ति और आत्महत्या के दौर में केवल प्रेम का महाविशेषांक निकाले। किसी लेखक की पाँच सौ प्रतियाँ छापे, और वह भी बुक स्टाॅल तक न पहुँचाए। उस गोएनका से अपेक्षा करना कि वह भारतीय भाषाओं व हिन्दी के लिए सोचे, यह लेखकीय ईमानदारी और प्रतिबद्धता में लगे हुए घुन और दीमक का प्रमाण है।
फेसबुक इन दिनों जितना लोकतंत्र के विकास और विस्तार, तर्क-वितर्क और समाजीकरण का माध्यम है, उतना ही वह ऊल-जलूल, फालतू, गैरतार्किक और एक-दूसरे का चरित्र हनन करने का भी प्लेटफार्म है। फेसबुक ने कमसे कम एक लेखक को तो तबाह ही कर दिया है। फेसबुक ने इतना काम किया है कि हम गहरे imagination में न जाएं, गहरी स्मृति में न जाएं, समाज के मानवीय जीवन को केवल फेस के स्तर पर समझने की कोशिश करें, समाज के तनावों और जटिलताओं के बीच हम देर तक डुबकी न लगा सकें, और इन सब कारणों से मिला यह है कि गहरी राजनीति कि रचनाशीलता क्षुब्ध हुई है। और वह हमारे सामने है।
हर नयी पीढ़ी अपने दही को मीठा और पुरानी पीढ़ी के दही को माहुर और खट्टा कहती है। वह तो होना भी चाहिए, और है भी, एवं यह सिलसिला जारी रहेगा।
इसलिए अमिताभ घोष को अंग्रेजी भाषा में पुरस्कार मिलना, एक तरफ भारतीय भाषाओं की रचनाशीलता और प्रतिबद्धता को संशयग्रस्त बनाता है, और दूसरी तरफ यह सोचने के लिए मजबूर करता है कि हिन्दी में भी हम कुछ वैसा लिखें, जिस तरह से अंग्रेजी में चीजें लिखी जा रही हैं। अन्ततः पुरस्कार की राजनीति भारतीय भाषाओं के लोगों को शोभा नहीं देती है।
ज्यां-पाल सार्त्र को जब नोबेल पुरस्कार मिला था तब उन्होंने कहा था कि - 'यह पुरस्कार मेरे लिए आलू के बोरे की तरह है।' उन्होंने पुरस्कार लौटा दिया। हमें सार्त्र से प्रेरणा लेनी चाहिए, अमिताभ घोष से नहीं। 🔰प्रस्तुति:विवेक मिश्र
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