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23 अक्तूबर, 2021

अब्दुल रज़ाक गुरनाह को मिले नोबेल में विस्थापितों का दर्द है

©रामाज्ञा शशिधर के की बोर्ड से
【कभी कभी जेनुइन पुरस्कार!】

बहुत अर्से बाद पुरस्कार की पृथ्वी घूम रही है।अनेक बार सजा पाने के बाद कभी कभी धरती के अभागों को भी सम्मान मिलता है।साहित्य के नोबेल की घोषणा हुई है। 
      यह तीसरी दुनिया के इतिहास और भविष्य पर ध्यान देने के लिए समुचित नुक्ता है कि उत्तर औपनिवेशिक साहित्य के प्रोफेसर और कथाकार अब्दुल रज़ाक़ गुरनाह को नोबेल पुरस्कार मिला है।

       फ्रांसीसी कॉलोनी द्वारा तबाह कर दिये गये अफ्रीका उपमहाद्वीप की शरणार्थी संस्कृति पुरस्कार के सर्चलाइट से केंद्र में आई है।यह पुरस्कार शरणार्थी नागरिक जीवन के सांस्कृतिक फोबिया से गढ़े गये आख्यान को मिला है।
     सांस्कृतिक संकरण की यह नई लहर है।
          
       अब्दुल रज़ाक गुरनाह तंजानिया में 1948 में पैदा हुए और जंजीबार विद्रोह से बचने के लिए वे इंग्लैंड चले गए। युनिवर्सिटी ऑफ केंट (इंग्लैंड) में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे और उसी भाषा में लिखते रहे। अब्दुल रज़ाक के  दस उपन्यास प्रकाशित हैं। उनके उपन्यासों के केंद्र में अफ्रीका का समुद्री किनारा है तथा उखड़े,तनहा, तबाह,विखंडित शरणार्थी जीवन की यात्रा भी।गुरनाह का लेखन अफ्रीका के उन बदनसीबों की कथा है जो मूल से टूट गए हैं,नई दुनिया से विच्छिन्न हैं,क्रोध,घृणा,अपराधबोध और अजनबियत की यातना से अपना यूटोपिया गढ़ रहे हैं।ये वे अभागे हैं जिनके लिए ग्राम,विश्वग्राम और इंस्टाग्राम में 'घर' का एहसास एक दुःस्वप्न है।
      आज शरणार्थी जीवन विश्व का सबसे बड़ा ट्रामा है।दुनिया का नया यथार्थ शरणार्थी उपाघात से बन रहा है।गुरनाह का कथा  साहित्य शरणार्थी जीवन पर हो रही बर्बरता, विवाद और विरोध का गहन लेखाजोखा है।
      1994 में अब्दुल गुरनाह का पैराडाइज उपन्यास बुकर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्टेड हुआ था।उनके उपन्यास मेमोरी ऑफ डिपार्चर,पिलग्रिम्स वे,द लास्ट गिफ्ट,ग्रेभ हार्ट,बाय द सी आदि शरणार्थी जीवन के आंसुओं के जहाज हैं जिनपर पृथ्वी के बदनसीब सवार अनिश्चित विश्व की ओर बढ़ रहे हैं।
       यह पुरस्कार अफ्रीका और यूरोप के लिए मिरर स्टेज है। कुचल दी गई अस्मिताओं और आकांक्षाओं पर फेंकी गई नई रोशनी।एक सम्मान जो सिर्फ कसक की याद दिलाता है।

      ब्रिटेन और अमरीका जब चौथा बूस्टर से सेफ हो रहा है तब अफ्रीका के शोषित दमित जनों की सिर्फ 3 फीसदी आबादी को कोविड वैक्सीन मिल पायी है।यह नई दुनिया है जिसकी किस्मत यूरोप ने  200 सालों में तय किया है।हमें गुरनाह के कथा साहित्य से तीसरी दुनिया पर नई बहस शुरू करनी चाहिए।
           

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