"◆रामाज्ञा शशिधर,सिमरिया
याद आ रहा है खजूर रस जैसा मेरा बचपन!गढ़हरा गांव का देहात।बागीचे और खेत से घिरा बुआ शकुन देवी का घर।सब लोग उसे सिमरिया में सकुनमा कहते थे।मेरे बाबू तीन भाई और दो बहने।मैं उन्हें दीदी कहता था।मेरा जन्म मरौछ होने के कारण वहीं हुआ।माय बताती है कि सांझ का वक्त!सूरज डूब रहा था।लगभग अंतिम किरण खत्म हो रही थी।पूस की हड्डी हिलाने लानेवाली ठंडक।पहला पख का दूसरा दिन यानी कृष्ण पक्ष द्वितीया।कुल मिलाकर यही मेरा पंचांग; यही मेरा बर्थ सर्टिफिकेट था।जुबानी जंग यानी स्मृति श्रुति का जीवित रूप।
वही बुआ नहीं रही।मेरे बचपन के रूपाकार में सिमरिया गढ़हरा की पगडंडी यात्रा का बड़ा हाथ है।कितनी पगडंडियों पर कितनी बार।
शकुन दीदी का श्राद्ध कर्म।माय भी,मैं भी।
लेकिन उसी बीच जो घट रहा वह इतिहास है।यहां बेटे ही घीसू माधव हैं और मैयो शकुन बुधिया। बड़ा बेटा कर्म थान वाले गांजा से काम चला सकता है लेकिन लघुराम को खजूर रस चाहिए ही चाहिए।रोज छककर। मैयो की याद भुलाई जा रही है।तेरहा को माँछ भात का भोज हुआ है।तो स्वाद दोगुना।
तो सुनिए घपोचन कपोचन उपकथा--
मेरा बचपन (7-12 साल तक)पढाई से नहीं आवारगी से शुरू किया गया था जिसमें
भीषण उथल पुथल थी;प्रकृति और अराजकता से ऐन्द्रिक,अनचाहा और परिस्थतिजन्य
रिश्ता था;वहां गरीबी थी;विस्थापन था;हिंसा
थी;चोरी और चरवाही थी; घर,दोआब
और घाट के बीच भैंसों गायों से दोस्ती
थी;मेरी नासिका रंध्रों और त्वचा छेदों
से फूटती बरहर कटहल आम और खजूर के रसों की सड़ांध थी;अनजानी
राहों पर पांव की ताकत और दिमागी
हालत से ज्यादा नपती दूरियां और मिलती
रिश्तेदारियां थीं।.....
इस स्मृति को 30 साल बाद फिर से
उसी भूगोल पर जांचने गया तो जो दिखा
वह उसी दिशा का विकास था।
यह खजूर यह पियक्कड़ फुफेरा भाई और ये आम
सब मुझे मेरा बचपन लौटाकर बोले-अबे
घपोचन!सुना है तू काशी में किसी नामी
कालेज का प्रोफ़ेसर हो गया है। भूल गया अपने पैदाइश वाले कोनिया घर को। मैं वही खच्चर आदमी हूँ।अभी भी खजूर के कांटे
चुभा सकता हूँ। देख!एक दोना ले कर
वही हो जा। लादकर कोई ले जाता तब
तू क्या होता। ताल मेरे लिए गाय है और
खाजूर मुर्गी। बता किस किताब से समझाएगा
!
और अपनी फुफेरे भाई ने माँ के तेरहा श्राद्ध के अंतिम पल कहा -आज मछली और तारी
नहीं लूँगा तो पूरा साल मरी माँ को कोसूंगा
!!!
आह! मेरा बचपन कहाँ और मैं कहाँ!
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