©रामाज्ञा शशिधर
दिनकर लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर,वाराणसी
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अमर होने के लिए मरना पड़ता है लेकिन जरूरी नहीं कि हर मौत अमरता की गारंटी है।गुमनाम ग्रामीण रंगकर्मी की 54 साल में हुई मौत ऐसी ही परिघटना है।
यह याद आँखन देखी हमसफ़र की दास्तां से जुड़ी है।वे उन लाखों ग्रामीण कलाकारों में एक थे जो बिहार के (वि)ख्यात ग्राम सिमरिया में पैदा हुए,वहीं पले, बढ़े,किसानी की,किताबी कीड़े बने,पारसी मंच के दिग्गज रंगकर्मी हुए,गुमनाम हुए,बीमार हुए,इलाज से महरूम रहे,मर गए और अमरता की सीढ़ी से बाहर रह गए।
वे दिनकर की कविता के सारांश रहे-जो अगनित लघु दीप हमारे/तूफानों में एक सहारे/जल जलकर बुझ गए किसी दिन/मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल।समाज की आत्मा जिस धरातल पर है वहाँ कोई आगे बढ़कर कहने वाला नहीं कि कलम आज उनकी जय बोल।
उनका नाम अर्जुन था।कला और किसानी में सव्यसाची थे।वे बचपन से ही मृदुभाषी,मिलनसार और एकांतप्रिय थे।मध्य विद्यालय और दिनकर उच्च विद्यालय, सिमरिया से पढ़ाई हुई।वहां तब दिनकर जयंती का बीज पड़ गया था।अर्जुन सिंह का परिवार किसानी का था।इसलिए बचपन से ही पढ़ाई और
खेती-पशुपालन की ज़िम्मेदारी कंधे पर रही।
वे दिनकर की विरासत से जुड़े हुए थे।उनके बड़े भाई महेंद्र सिंह इतने त्यागी थे कि पूरा जीवन ग्रामीण दिनकर पुस्तकालय को लाइब्रेरियन के रूप में दान कर दिया।जबतक जिंदा रहे,वे किताब और अस्थमा को सीने से लगाए रहे।माहो दा की मौत भी लाइब्रेरी की हजारों किताबों के बीच हुई।बड़े भाई ने छोटे में लोकप्रिय उपन्यास पढ़ने की आदत डाली।
जिसे हम फुटपाथी उपन्यास कहते हैं,उसने समाज में करोड़ों वास्तविक पाठक पैदा किए हैं।मुझे याद है कि बाद में हमलोगों के पुस्तकालय प्रचार अभियान के समय अर्जुन दा देवकीनन्दन खत्री और प्रेमचंद की किताबें बड़े चाव से पढ़ते थे।कल्पना कीजिए जब चारों ओर गैंगवार हो रहा हो तब ठेठ गांव का कोई नौजवान खेत के मेड़ पर एक हाथ में खुरपी और दूसरे हाथ में किताब रखे मिले तब जो छाप एक किशोर मन पड़ पड़ती है,आज भी मेरे चित्तपट्ट पर चिपकी हुई है।
पारसी रंगमंच का चलन तो सिमरिया के आसपास के गांवों में ब्रिटिश समय से रहा है।लेकिन सिमरिया गांव में 1975 के बाद आकार ले पाया।लगभग 1980से 1995 के बीच सिमरिया और उसके आसपास के गांवों में एक चलन तेज़ हुआ।वह था ग्रामीण रंगमंच और पारसी रंगमंच के मेल से त्योहारी थियेटर को सक्रिय करना।
सिमरिया के साथ एक विशेष चीज जुड़ी।दिनकर जयंती की शुरुआत और प्रचार प्रसार से प्रेरणा लेकर विभिन्न टोलों में दिनकर स्मृति नाटक ग्रुप का निर्माण।उन्हीं में एक टोले का मंच था दिनकर अभिनय कला केंद्र।किशोर अर्जुन सिंह जल्द ही अभिनय क्षमता से कला के केंद्र में आ गए।स्त्री पुरुष,पढ़े लिखे बेरोजगार और डाकू की भूमिका में बहुत फबते थे।याद होगा कि तब गांव में लड़की या स्त्री का पार्ट पुरुष को ही अदा करना होता था।माहौल बहुत नहीं बदला है।
तब दिनकर ग्राम और जयंती के विकास के लिए चार पांच लोगों की एक समिति बनी-दिनकर स्मृति विकास समिति।देखा देखी हर टोले में नाटक की टीम और बैनर खड़े होने लगे।टोले के हिसाब से कलाकार और दर्शक कई ग्रुप में बंट गए।
इन मंचों की खास विशेषता थी कि दर्शक,कलाकार और निर्देशक लगभग आदान प्रदान होते थे लेकिन बैनर अलग होता था।भागलपुर और मेरठ की पारसी नाट्य पुस्तकों से लेकर पारसी नाटक लिखने वाले तक दिनकर ग्राम में तैयार हो चुके थे।कलाकारों की फेहरिस्त तीन पीढ़ियों तक फैल गई।
अर्जुन सिंह इस व्यापक पारसी रंगमंच अभियान के स्टार कलाकार की तरह उभरे और आस पास के गांवों तक उनकी पहचान बन गई।मैं खुद ग्रामीण रंग मंच से 1989 से सक्रिय रूप से 2001 से जुड़ा रहा।
अर्जुन दा की आवाज़ में एक खास तरह की नफासत,शुद्धता,गूंज और सुरलहर थी।उनकी ट्रेनिंग रंगमंच से होने के कारण आम लोगों की ढेलेदार आवाज़ से उनकी बोलचाल आजीवन विशिष्ट और लोकप्रिय रही।
अगर उनकी पढ़ाई बाहर होती,रंगमंच से प्रोत्साहन मिलता और थियेटर-सिनेमा की दुनिया तक पहुंच पाते तो एक ग्रामीण कलाकार आज गुमनाम नहीं होता।
बाद में वे जनपद में नुक्कड़ नाटक टीम में सक्रिय हुए।लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारी के कारण गाड़ी सिग्नल पर ही अटक गई।अर्जुन जी आजीवन गांव में ही रहे।वे रहमदिल और सहयोगी प्रवृति के बने रहे।एक किसान की दया और करुणा से आत्मा बनी थी।प्रतिभा का प्रोत्साहन उनका नैसर्गिक गुण था।
डॉक्टर ने एक सप्ताह पहले हृदय सम्बन्धी समस्या बतायी थी।कुछ दवा दी और कहा कि आराम कीजिए ठीक हो जाएंगे।सुबह घूमकर आए और अचानक गिर पड़े।अर्जुन दा की मौत इलाज की सुविधा के अभाव में हुई।एक गुमनाम मरीज की तरह।उनका असमय निधन सिमरिया की सांस्कृतिक क्षति है।मैं व्यक्तिगत रूप से मर्माहत हूँ।श्रद्धांजलि में बस दिनकर के दो बोल हैं-कलम आज उनकी जय बोल।
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