√रामाज्ञा शशिधर के की बोर्ड से
{'दार्शनिक आलोचक' पर द्विदिवसीय विमर्श}
【80 के मैनेजर पांडेय पर अंतरराष्ट्रीय परिसंवाद】
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√ कड़क आवाज़ और व्यंजक अंदाज़।नारियल की तरह बाहर से ठोस और अंदर से तरल।मैं भूल जाता हूँ तो उनका ही दूरभाष आ जाता-कैसे हो रामाज्ञा?हाल चाल तो ले लिया करो।
देश भर के मंचों पर अपनी जन व विटी शैली से दहाड़ने वाले आलोचक का बुढापा कोविड काल में भीषण तन्हाई का शिकार रहा।कहते हैं कि भाषा मनुष्य की जीवनी शक्ति है।मैनेजर पांडेय के लिए यह प्राणवायु है।
प्रो देवेंद्र चौबे सहित शिष्य व मित्र मंडल का यह निर्णय स्वागत योग्य है कि ज्ञान व दर्शन विरोधी वैश्विक समय में मैनेजर पांडेय के बहाने हिंदी आलोचना के विचारक-दार्शनिक स्वरूप पर बहस चलायी जाए।
दो दिनों के लंबे परिसंवाद में प्रिय आलोचक को चाहने व हिस्सेदारी लेने वालों की पंक्ति भी बहुत लंबी है।
पश्चिम में आलोचना और दर्शन का सम्बन्ध प्लेटो-अरस्तू से देरिदा-फ्रेडरिक जेमेसन तक सघन,मूलगामी और नवाचारमूलक है।पूरब में दर्शन से काव्य शास्त्र का आत्यंतिक,सघन और जीवंत सम्बन्ध अपेक्षाकृत कम मिलता है।संस्कृत और पालि में जहां दर्शन की समृद्ध परंपरा है वहीं संस्कृत काव्यशास्त्र के छह सिद्धांत ज्यादातर रचना के रूप पक्ष में ही उलझे हुए दिखते हैं।अंतर्वस्तु और विचारधारा के क्षेत्र में यहां सघन संघर्ष नहीं है।
हिंदी कविता के हजार साल में पूर्व औपनिवेशिक युग तक देसी कविता का कोई काव्यशास्त्र बनता ही नहीं है।संस्कृत के उधार के काव्यशास्त्र से आजतक विश्वविद्यालयी अध्यापक व आलोचक हिंदी की काव्य संरचना का कृत्रिम व अप्रासंगिक विश्लेषण विवेचन करते हैं।यह एक गहन वैचारिक आलोचकीय संकट रहा है।बौद्ध,जैन,शंकर,रामानुजाचार्य,रामानंद,बल्लभाचार्य,सूफीवाद आदि से निर्मित दर्शन धर्म-मिथक केंद्रित ज्यादा हैं वस्तुसत्ता को कम आधार प्रदान करते हैं।साथ ही इन दर्शन सरणियों का व्यवस्थित काव्यशास्त्रीय सिद्धांत नहीं बन पाया।
आधुनिक साहित्य काल जिसे मैं औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक समय कहना ज्यादा उचित समझता हूँ,हिंदी आलोचना का प्रथम गठन व निर्माण काल है।प्रथम आलोचक बालकृष्ण भट्ट से मैनेजर पांडेय तक की आलोचना यात्रा पर ध्यान दीजिए तो मुझे दो ही सघन व गहरे दार्शनिक आलोचक दिखते हैं जो भाषा,वस्तु और विचारधारा तीनों स्तरों पर आलोचना को दर्शन की बुनियाद पर सिरजते हैं।प्रथम आलोचक रामचन्द्र शुक्ल और दूसरे मैनेजर पांडेय।बीच में हजारी प्रसाद द्विवेदी,रामविलास शर्मा आदि आलोचना को दर्शन में बदलने का वैसा सघन आत्मसंघर्ष नहीं करते।हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा संस्कृति और समाज के तथ्यों व विन्यासों के आलोचक हैं।अलबत्ता रचनाकार आलोचकों में यह दार्शनिक विन्यास और संरचना का संघर्ष विचारणीय है।अज्ञेय,मुक्तिबोध,मलयज के साथ नामवर सिंह,विजयदेव नारायण शाही और नन्दकिशोर आचार्य जैसे आलोचक दर्शन की गहराई में उतरते हैं।इन आलोचकों का साहित्य सिद्धांत एक हद तक दार्शनिक आलोचना का निर्माण करता है जो हमारा पाथेय है।
मैनेजर पांडेय समाज और वस्तुसत्ता की ज़मीन पर पश्चिम और पूरब से दर्शन के सूत्र लेते हैं तथा रामचन्द्र शुक्ल की तरह सामाजिक-तथ्यात्मक डिटेल्स को रिड्यूस करते हुए रचना सत्य के सिद्धांत का सूत्रात्मक निर्माण करते हैं।वे इसके लिए हेगेल-मार्क्स तक ही नहीं रुकते बल्कि उत्तर मार्क्सवादी दर्शन व आलोचना सरणियों व रूपों का व्यापक अध्ययन मनन कर उसे हिंदी व भारतीय चित्त के अनुरूप ढालते हैं।वे पूर्ववर्ती भारतीय व हिंदी आलोचना के सार को भी अपनी आलोचना पद्धति में शामिल करते हैं।इस प्रक्रिया में वे 'सार सार को गहि लई थोथा देइ उड़ाय' की प्रक्रिया व रणनीति का उपयोग करते हैं।
एक बार मैंने नामवर सिंह से दिल्ली की एक गोष्ठी में सुना था कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास को इसलिए सिरहाने में रखता हूँ और हर रोज एक पृष्ठ पढ़ता हूँ ताकि मेरी आलोचना की भाषा उससे प्रेरणा ले सके।मुझे लगता है कि बीएचयू हिंदी स्कूल के छात्र मैनेजर पांडेय लगातार आचार्य शुक्ल की आलोचना पद्धति के अनुसरणकर्ता रहे।उनका शुक्ल की आलोचना के दार्शनिक आधार पर मौजूद आलेख इसका प्रमाण है।
गुरु के दर्शन प्रेम का एक संस्मरण सुनाना चाहता हूँ।
उन्हें मैंने एक आयोजन में बीएचयू बुलाया था।अस्सी की प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पुस्तक शॉप हार्मोनी दिखाने की इच्छा हुई।वे वहां गए और दर्शन की अनेक पुस्तकें खरीदीं।देरिदा की एक पुस्तक ली।मैंने भी देरिदा एक पुस्तक खरीद ली-स्पेक्टर्स ऑफ मार्क्स।उन्होंने गेस्ट हाउस में जब देखा तो खुश हुए और बोले-देरिदा की मेरी पुस्तक बदल लो।इसलिए कि इसमें मार्क्सवादियों की आलोचना है।मुझे भी पहली बार ज्ञान कांड का सुअवसर मिला।मैंने कहा कि मुझे यही पसंद है।दस बार दबाव बनाकर वह किताब उन्होंने ले ही ली।यह है उनकी दर्शन पिपासा।
नामवर सिंह की एक वाचिक पुस्तक में देरिदा पर लंबा व्याख्यान है।वहां प्रूफरीडर व सम्पादक ने उस किताब का नाम शोधित कर लिख दिया है-इंस्पेक्टर ऑफ मार्क्स।यूरोप से हिंदी में आकर मार्क्स भी इंस्पेक्टर हो जाए तो अनहोनी नहीं।मैनेजर पांडेय इस वाग्जाल व कूपमण्डूकता को तोड़ते हैं।
80 के होने पर उन्हें स्वस्थ्य व सृजन के लिए शुभकामनाएं!वे सौ साल तक सक्रिय रहें।
1 टिप्पणी:
Wow kya post likha hai aapne bahut acha lgascience, technology computer ki knowledge ke liye ek bar vigyantk.com pr jarur aaye
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