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30 अगस्त, 2010

लेखक संगठन: अंधेरे में प्रतिरोध

रामाज्ञा शशिधर

रस्मी आजादी की स्वर्णजयंती बीत जाने के बावजूद आजाद भारत में छपित मुक्तिबोध की किताब भारत: इतिहास और संस्कृति आज तक सत्ता द्वारा प्रतिबंधित है। दो साल बाद इस किताब के प्रतिबंधित होने की भी स्वर्णजयंती आएगी। आधी अधूरी छपित किताब की परिशिष्ट प्रश्नावली में मुक्तिबोध का नई पीढ़ी से एक प्रश्न है:“भविष्य के भारत का क्या कोई स्वप्न आपके पास है? यदि है तो क्या है? और यदि नहीं तो क्यों नहीं ? कारण सहित उत्तर दीजिए!” कवि तत्कालीन बौद्धिकता को स्वप्नहंता होने का गुनहगार मानता है-“ओ मेरे आदर्शवादी मन। ओ मेरे सिद्धांतवादी मन। अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया। उदरंभरि बन अनात्म बन गये। भूतों की शादी मंे कनात से तन गये। किसी व्यभिचार के बन गये बिस्तर। दुखों के दागों को तमगों सा पहना। अपने ही खयालांे मंे दिन रात रहना। असंग बुद्धि व अकेले मंे सहना। बहुत बहुत ज्यादा लिया। दिया बहुत बहुत कम। मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम।” असंग बुद्धि और एकांत खयाल को एकताबद्ध आंदोलन मंे बदलने वाले लेखकों-कलकारों के मातृसंगठन प्रगतिशील लेखक संघ ने स्वर्णजयंती मनाई। सच्ची आजादी को ज्यादा धारदार तरीके से खोजने का दावा करनेवाले जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के भी रजत जयंती साल बीत गए। पर, मुक्तिबोध की किताब प्रतिबंधित और प्रश्न उपेक्षित। हिन्दी बौद्धिकता में उदर बढ़ता जा रहा है, सिर और हृदय संक्षिप्त होते जा रहे हैं, भूतों की शादियां ज्यादा लकदका रही हैं, कनातों की व्यापकता और गहराई अछोर अनंत हो रही है। ऐसे समय में जनपक्षीय लेखक संगठनों की प्रतिरोधी भूमिका के इतिहास और वर्तमान पर विचार होना चाहिए। यदि 21 वीं सदी को या तो समाजवाद की सदी या बर्बरता की सदी-दो में से एक दिशा में पूर्णतः बदल जाना है-तो इसकी सांस्कृृतिक शिनाख्त और बहुआयामी प्रतिरोध की जिम्मेदारी इन्हीं लेखक संगठनों पर है।

आजकल शोषण और दमन की ताकतों और रूपों का विस्तार हो रहा है, दूसरी ओर उनसे संघर्ष करने वाले प्रतिरोधों की ताकतों और रूपों की जरूरत बढ़ती जा रही है। नव साम्राज्य भूमंडलीकरण के जिस बुलडोजर पर आरूढ़ है उसका एक पहिया बाजार का तथा दूसरा हथियार का है। उस बुलडोजर में रास्ता दिखानेवाली हेडलाइट(फं्रटलाइट ट्रूप्स) संचार क्रांति है, मीडिया है, हवाई तरंग है। चकाचाैंधपूर्ण रोशनी और छवियों भरी हेडलाइट वस्तुतः सामा्रज्यवाद का अगुआ दस्ता है, सांस्कृतिक सेना है।

नव साम्राज्य के दमन अभियान और सांस्कृतिक सेना की संस्कृति से संघर्ष करने का दायित्व जनता की विचारधारा, राजनीति और संस्कृति से जुड़े संगठनों का है। जनता की राजनीति से जुड़े होने या जुड़ने का दावा करने वाले राजनीतिक दलों के आनुषंगिक सांस्कृतिक प्लेटफार्मों में प्रतिरोध की नई संस्कृति की जरूरत इसलिए भी बढ़ गई है क्यांेकि राजनीतिक दल विचारधारा, सिद्धांत, प्रतिबद्धता, जन सरोकार, भावी कार्यक्रम के मोर्चों पर लगभग चुक गए हैं। हिंदी क्षेत्र तो इसका ठोस प्रमाण है। 10 अप्रैल 1936 को लखनऊ में हुए प्रलेस के पहले अधिवेशन में दिया प्रेमचंद का अध्यक्षीय वक्तव्य नए सिरे से प्रासंगिक हो उठा है-“साहित्यकार का लक्ष्य केवल महाफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है। उसका दरजा इतना न गिराइए। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीें बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सचाई है।” जनता की हस्ती और पस्ती से ज्यादा पार्टी लाइन की अवसरपरस्ती पर भरोसा करने और पीछे चलने की कवायद का नतीजा है कि जनपक्षीय लेखक संगठन लगातार जनता और इतिहास की निगाहों मंे संदेहशील और अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। संस्कृति के विभिन्न मोर्चों पर उनके प्रतिरोधी रूपों की शानदार परंपरा रही है लेकिन चुकने का इतिहास भी क्या कम चिंतनीय है।

जनता, जमीन, जल, जंगल और जन संस्कृति की तबाही का कुचक्र जितना तेज होता जा रहा है उसी अनुपात में हमारे जनपक्षीय लेखक संगठन पेटी बुर्जुआ गतिविधियों के कछुआ धर्म का शिकार होते जा रहे हैं। हिन्दी लेखकों एवं लेखन के हाशिए पर बढ़ते जाने का एक कारण प्रेमचंद की उसी वक्तव्य में है-“हमें अक्सर यह शिकायत होती है कि साहित्यकारों के लिए समाज मे कोई स्थान नहीं। यदि साहित्यकार ने अमीरों का याचक बनने को जीवन का सहारा बना लिया हो, और उन आंदोलनों, हलचलों और क्रांतियों से बेखबर हो जो समाज में हो रही हैं-अपनी ही दुनिया बनाकर उसमें रोता और हंसता हो, इस दुनिया में उसके लिए जगह न होने में कोई अन्याय नहीं है।” दुर्भाग्य से पिछले तीन दशकों से हिन्दी बौद्धिकता आंदोलनों, हलचलों और क्रांतियों से बेखबर जैसी दुनिया बनाती रही वह प्रतिरोध की संगठित परंपरा के लिए घातक सिद्ध हुई है। यह समय प्रतिरोध के नए मोर्चांे, नए विचार और नए कार्यक्रम से लैस होने का है। इस पर बात करने से पहले लेखक संगठनों की ऐतिहासिक प्रतिरोधी भूमिकाओं पर एक नजर डाल लेनी चाहिए।

गुलाम हिंदुस्तान मे जनता, जनता की राजनीति और साहित्य कला के सामने सबसे बड़े प्रश्न थे- कैसी आजादी, किसकी आजादी? कैसा राष्ट्रराज्य, किसका राष्ट्रराज्य? 1930 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्यधारा की विफलता, क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के प्रभाव तथा किसान-मजदूर आंदोलनों के दबाव की कोख से प्रगतिशील लेखक संघ और इंडियन पिपुल्स थियेटर का जन्म हुआ। 1930 तथा 40 के दशक में राजनीति से ज्यादा मूलगामी कार्य सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चोंे पर हुए। विभाजित अधूरी आजादी को किसान नेता सहजानंद सरस्वती ने आजादी का फांसी दिवस कहा वहीं नागार्जुन जैसे क्रांतिकारी कवि की कविता बोल उठी- “कागज की आजादी मिलती ले लो दो दो आने में। लाल भवानी प्रगट हुई है सुना कि तेलंगाने में।” संस्कृति की प्रतिरोधी धारा जहां विचारधारात्मक संघर्ष के साथ जनता की सच्ची आजादी की पड़ताल कर रही थी वहीं तत्कालीन कांग्रेसी सत्ता मंें समाजवाद को आकार लेते देखकर वाम राजनीतिक शक्ति संसदीय रेल में बैठी तथा तेलंगाना जैसे जन आंदोलन के दमन अभियान के साथ हो गई। 1953 में प्रगतिशील लेखक संघ को भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी ने विघटित करवा दिया जब औपनिवेशिक सांस्कृतिक दासता से मुक्त होकर जनता के जनवादी राष्ट्र का निर्माण-अभियान चलना चाहिए था। यह सांस्कृतिक प्रतिरोध को जनता की राजनीति का पहला झटका था।

1960 के दशक तक अदीबों-कलाकारों के सामने यह साफ हो गया कि वैकल्पिक स्वप्न के सांस्कृतिक संघर्ष की जरूरत है। साठ के दशक में कृषि संकट, मिलों की तबाही और हड़तालें, अनगिनत अकाल, सूखा और भुखमरी, युवा पीढ़ी की रोजगारहीनता, सामंती और पंूंजीवादी संरचना का दमनचक्र इतना गहरा गया कि अनेक मोर्चों पर जन आंदोलन आरंभ हो गए। नक्सलबाड़ी सशस्त्र क्रंाति और युवा आंदोलन केंद्रीय भूमिका में आ गए। मुक्तिबोध 1950 से ही इस सवाल को उठा रहे थे कि साहित्य में नए जनवादी मोर्चे की जरूरत है। मुक्तिबोध साहित्य मे नये जनवादी मोर्चे की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते हैं कि “खेत मजदूर, गरीब किसान, प्राथमिक शिक्षक, जनपद द्वारा लिगाए गए करों के बोझ से चूर दरिद्र ग्रामवासी, पटवारी, रिक्शा मजदूर, गाड़ीवान, बिक्री करों से ग्रस्त गरीब दुकानदार- आज सभी शोषण के खिलाफ न सिर्फ आवाज लगा रहे हैं, वरन उससे मुक्ति पाने के कार्य में संलग्न दिखाई पड़ते हैं।” वे प्रतिरोध के संगठित मोर्चे का आहवान करते हैं कि “जनवादी धारा के विरोधी बहुत हैं। जब तक कि साहित्य सृजन, साहित्य सिद्धांत तथा उसका प्रचार- इन सब क्षेत्रों मंे प्रतिक्रियावादियों के खिलाफ संघर्ष और मोर्चेबंदी की जाएगी, तब तक नई धारा का विकास नहीं हो सकता। वह एक ऐतिहासिक अनिवार्यता है जो लाखों विरोधों के बावजूद होकर रहेगी। सवाल यह है कि हम उस अग्नि प्रक्रिया में अपना हाथ कहां तक और कितना बंटाते हैं।” सोवियत लाइन और चीनी लाइन पर वैचारिक असहमतियों के कारण 1964 और 1967 मे जन राजनीति के संगठन विभाजित हुए। अदीबों-कलाकारों के पुराने नए तबकों में प्रतिरोधी उबाल आया जो सत्तर के दशक की रचनाशीलता में दर्ज है।

जनता और राष्ट्र के गहरे दवाब में हुआ 1973 का ऐतिहासिक बांदा सम्मेलन लेखकों की प्रतिरोधी भूमिका की जरूरत बताता है। पहल के प्रयास से छपी चिट्ठियों और मसौदों से पता चलता है कि केदारनाथ अग्रवाल के प्रयास से आयोजित अखिल भारतीय प्रगतिशील हिन्दी साहित्यकार सम्मेलन अतीत के अनेक अनुत्तरित सांस्कृतिक प्रश्नों के प्रति चिंतित था। 22 से 25 फरवरी के बीच हुए अधिवेशन में मन्मथनाथ गुप्त, सज्जाद जहीर, नागार्जुन, त्रिलोचन, विश्वंभरनाथ उपाध्याय, अमरकांत, शिवदान सिंह चौहान, सव्यसाची, सुरेंद्र चौधरी, चन्द्रभूषण तिवारी, धूमिल, वेणु गोपाल, कर्ण सिंह चौहान, खगेन्द्र ठाकुर, आनंद प्रकाश, विजेन्द्र आदि बड़ी संख्या में कई पीढ़ियांे के रचनाकार शामिल हुए। तमाम कोशिशों के बावजूद रामविलास शर्मा नहीं पहुंचे। अधिवेशन में गैरमौजूद डा.नामवर सिंह के पत्र में आग्रह है कि “हम सब के नेता डा. रामविलास शर्मा का आना बहुत जरूरी है।” सम्मेलन ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया कि ”सप्तम दशक मंे देशी विदेशी जन विरोधी शक्तियों से आम आदमी के पक्षधर तत्वों ने लगातार टक्करें ली हैं। प्रगतिशील हिन्दी साहित्यकारों के इस सम्मेलन में यही नया जन उभार प्रतिबिंबित हुआ।”

नए जन उभार की प्रगतिशील बौद्धिकता के पांचसूत्री मसौदे में कई बातें उल्लेखनीय हैं। जैसे, राष्ट्र के जीवन मे साम्राज्यवादी सांस्कृतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित करने के प्रयासों का विरोध, सामंती व्यवस्था के अवशेषों-अंधविश्वासों, धार्मिक रूढ़ियों, सांप्रदायिक विचारों, पुनरोत्थानवादी मान्यताओं तथा विवेकहीन अवैज्ञानिक धारणाओं का विरोध, पिछले 25 वर्षों के दौरान समाजवादी घोषणाओं के बावजूद शासक वर्ग द्वारा हमारे देश में विकसित किये जा रहे पूंजीवाद का विरोध, सांस्कृतिक संस्थानों, अकादमियों, पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रेस और सूचना के अन्य माध्यमों पर इजारेदार घरानों के एकाधिपत्य का विरोध तथा शासक वर्ग द्वारा किये जा रहे लेखकीय स्वतंत्रता के प्रतिरोध और दमन का विरोध। विभिन्न राज्यांे में संगठन संचालन के लिए संपर्क समिति का निर्माण हुआ। अन्य प्रस्तावों मंे एक प्रस्ताव यह भी था कि प्रगतिशील हिन्दी साहित्यकारों का यह सम्मेलन दुख प्रकट करता है कि हथियारबंद कं्राति में विश्वास करने के आरोप में देश भर में तीस हजार से अधिक व्यक्ति, जिनमें कुछ लेखक भी हैं, लंबी नजरबंदियां भोग रहे हैं। सम्मेलन भारत सरकार तथा प्रांतीय सरकारों से मंाग करता है कि नजरबंदियों को रिहा करें तथा उन्हंे अपनी जनता के बीच कार्य करने का अवसर दें। यह सम्मेलन समस्त लेखकों का आहवान करता है कि वे उनकी रिहाई के आंदोलन में भाग लें और नागरिक अधिकारों की रक्षा करें। सम्मेलन ने वियतनाम की अपराजेय जनता का अभिनंदन किया तथा अमेरिका को विश्व का सबसे बड़ा साम्राज्यवादी देश बताया।

विचारणीय है कि प्रगतिशील लेखकों की कई पीढ़ियां, कई वैचारिक धाराओं के आपसी संघर्षो के बाद यह मसौदा आया था जिसमें शासक वर्ग को एक ओर समाजवादी समझने की राजनीतिक चूक है वहीं साम्राज्यवादी, सामंती और सांप्रदायिक-पुनरोत्थानवादी मूल्यों से वैचारिक संघर्ष करते हुए राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय कं्रातिकारी जन आंदोलनों का व्यापक समर्थन है। हमें याद रखना चाहिए कि स्वतंत्रता से पूर्व प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन आदि किसान आंदोलन के मोर्चे पर जेल मे नजरबंद थे।



आपातकाल हिन्दी लेखकोें के प्रतिरोध के इतिहास और भविष्य का संक्रांतिकाल साबित हुआ। सीपीआई के आपातकाल संमर्थन से प्रगतिशील साहित्यकारों का ढुलमुलकारी खोल उतर गया। राजनीति, विचारधारा और जन सरोकार में आस्था के हिसाब से प्रगतिशील बौद्धिकता विभाजित हो गई। दो साल पूर्व बांदा में शासक वर्ग द्वारा किए जा रहे लेखकीय स्वतंत्रता के प्रतिरोध और दमन का विरोध करनेवाले लेखकों का एक हिस्सा अपातकाल के समर्थन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरूद्ध था। आपातकाल की तानाशाही का विरोध करनेवाले लेखकों को जेल जानी पड़ी, पत्र-पत्रिकाओं का स्थगन हुआ। सत्ता संस्कृति का दमनचक्र जन संस्कृति के विरुद्ध क्रूरतम रूप में मौजूद हुआ। नागार्जुन जैसे क्रांतिकारी लेखकों ने राजनीति से आगे चलने वाली सचाई की मशाल बनने का कार्य किया। यह सच है कि भारतीय संसदीय राजनीति की सीमाओं ने नागनाथ और संापनाथ को एक जैसा बनाया लेकिन नागार्जुन की वैचारिक और रचनात्मक आस्था तेलंगाना से नक्सलबाड़ी तक सशस्त्र कं्राति में थी और संशोधनवाद हमेशा उनके निशाने पर रहा। गोरख पांडेय और आलोकधन्वा तीसरी धारा के संस्कृति मंच निर्माण से पूर्व सांस्कृतिक प्रतिरोध की व्यापक जमीन गढ़ रहे थे जिसका साकार रूप अस्सी के दशक मंे सामने आया।

बीसवीं सदी के अस्सी का दशक सांगठनिक प्रतिरोध का नए सिरे से प्रस्थान दशक है। 1953 में भंग स्वतंत्रता संग्राम कालीन प्रगतिशील लेखक संघ का पुनर्गठन 1980 में जबलपुर सम्मेलन में हुआ। 1982 में जनवादी लेखक संघ गठित हुआ। पटना मंे नव जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, दिल्ली में राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक संगठन और बनारस में राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा के नाम से संचालित तीसरी धारा के लेखकों-कलाकारों के सांस्कृतिक मंचों का जन संस्कृति मंच में एकीकरण 1984 में हुआ। उत्तर प्रदेश जन संस्कृति मंच इसके पहले 1981 में गठित हो चुका था। तीनों लेखक संगठनों की वैचारिक सांस्कृतिक शक्ति और सीमा को समझने के लिए इतिहास के दो नियमों को ध्यान में रखना चाहिए जो आपातकाल के बाद एक बार फिर सच साबित हुए।

इतिहास का पहला नियम यह कि सत्ता द्वारा जनता का प्रत्यक्ष आर्थिक दमन तो संभव है किंतु प्रत्यक्ष सांस्कृतिक दमन असंभव। जनता प्रत्यक्ष सांस्कृतिक दमन का प्रतिरोध अपने अस्तित्व को दांव पर लगाकर करती है। इसलिए सत्ता जनता में सांस्कृतिक वैधीकरण की जटिल प्रक्रिया चलाती है। सत्ता इस प्रक्रिया में पदों, पुरस्कारों, यात्राओं, सुविधाओं, संस्थानों अकादमियों के माध्यम से बुद्धिजीवियों की विचारधारा, रचनाशीलता और सांस्कृतिक स्वप्न को भ्रष्ट करती है तथा उन्हें सत्ता और जनता के बीच सांस्कृतिक वैधीकरण का सेतु बनाती है। आपातकाल के दमन अभियान के बाद चालाक सत्ता वर्ग ने संस्थानों, अकादमियों के माध्यम से सांस्कृतिक करतूत को अंजाम दिया।

इतिहास का एक अन्य बुनियादी नियम यह है कि कोई वस्तु, विचार, आंदोलन या संगठन अपने आंतरिक गुणों और शक्तियों से गठित, गतिशील और विकसित होता है। उसका संघटन और विनाश भी आंतरिक कारणों से होता है। बाहरी परिस्थितियां केवल प्रेरक की भूमिका निभाती हैं। भारतीय जनता की राजनीति करनेवाले दलों और जन संस्कृति की राजनीति करने वाले संगठनों पर भी यह नियम पूर्णतः लागू होता है। आपातकाल में कांग्रेसी सत्ता को साथ देनेवाली भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के आनुषंगिक सांस्कृतिक संगठन प्रगतिशील लेखक संघ का अस्सी के बाद सत्ता संस्कृति से बहुपक्षीय स्तरों पर जुड़ाव हुआ तथा विचारधारात्मक संघर्ष कम होता गया। प्रगतिशील लेखक संघ के सत्ताकरण की प्रक्रिया का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रमाण पटना प्रगतिशील लेखक संघ का बुलेटिन धारा है जिसके 1985 के पहले साल के चौथे अंक मंे ही बिहार प्रलेस ने नागार्जुन की राजनीति नामक लेख तैयार कर नागार्जुन की क्रंातिकारी राजनीति और संघर्ष प्रक्रियाओं के चित्रण को ढुलमुल और प्रतिक्रियावादी करार दिया। इसमें अपूर्वानंद का लेख था, नंदकिशोर नवल की भूमिका थी और खगेंद्र ठाकुर की बातचीत व साक्षात्कार का हिस्सा था। नागार्जुन का यह शताब्दी वर्ष है। कांग्रेसपरस्त बौद्धिकता की उपलब्धि, जन आंदोलन विरोधी विचारधारा और सांप्रदायिक शक्तियों से समझौतापरस्ती का प्रलेसी रूप हमारे सामने है। इस अंधेरे समय में प्रतिरोध की धाराओं पर फिर एकबार जन अदालत में बहस शुरू हानी चाहिए। दूसरी बात, अस्सी के दशक की हिन्दी रचनाशीलता चौथे दशक के प्रगतिवादी आंदोलन और सातवें-आठवें दशक के जनवादी आंदोलन के दौरान शुरू किए गए संघर्ष प्रक्रियाआंें के चित्रण का क्षेत्र छोड़कर व्यक्तिवादी अनुभवों और मध्यवर्गीय उत्सवधर्मी चिंताओं में धंस गई। जनवादी लेखक संघ की सीमा यह थी कि इसके लेखकों का मुख्य आधार क्षेत्र हिन्दी प्रदेश था जबकि विचारधारात्मक राजनीति के आधार क्षेत्र गैर हिन्दी प्रदेश। लेकिन केंद्रीय सत्ता से राजनीतिक संघर्ष के कारण इस संगठन की जनबद्धता कुछ ज्यादा धारदार थी।

पिछला दो दशक विश्व राजनीति, भारतीय जनतंत्र और भारतीय जनता के इतिहास में सभ्यता का सर्वाधिक उथल पुथल भरा समय खंड है। उत्पादन प्रणाली, और उत्पादन संबंध के नए रूप ने न केवल राजनीतिक-सामाजिक संबंधों को नए सिरे से परिभाषित किया है बल्कि विचारधारा, संस्कृति और साहित्य के मसले पर भी मूलगामी ढंग से विचार करने का अवसर दिया हैं। पिछले समय में जनपक्षीय लेखक संगठनों के सांस्कृतिक-वैचारिक चिंतन मनन का कार्यभार बढ़ा वहीं विघटन और ध्वंस के दौर से गुजर रही समाज व्यवस्था के दुखों और मुक्ति संघर्षो में सहयात्री होने तथा प्रक्रियाओं को रचनाशीलता में बदलने की जिम्मेदारी भी गुरुतर हुई। इस नजरिए से तीनों लेखक संगठनों की प्रतिरोधी भूमिकाओं और सांस्कृतिक वैचारिक सीमाओं पर सैद्धांतिक-व्यावहारिक ढंग से थोड़ा विचार होना चाहिए।

सदी के अंतिम दशक के आरंभ में समाजवाद के पुराने मॉडल सोवियत संघ का बिखराव, चीनी मॉडल का पूंजीवाद के रास्ते पर तीव्र प्रस्थान, भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक फासीवाद का उभार, आरक्षण की राजनीति से क्षेत्रीय दलों का संसदीय वर्चस्व ऐसी घटनाएं हैं जिन्होंने जनपक्षीय लेखक संगठनों के वर्ग दृष्टिकोण और वर्ग संघर्ष के सांस्कृतिक रचनात्मक एजेंडे को हिलाकर रख दिया। विभ्रमकारी सामा्रज्यवाद विरोधी दृष्टिकोण, सांप्रदायिकता को लेकर संसदीय तुष्टीकरण का चिंतन तथा कांग्रेसी और क्षेत्रीय अस्मिताओं के बीच दो पाटन के बीच पीसते चले जाने की नियति के कारण जहां वाम राजनीति रसातल की ओर बढ़ती गई वहीं प्रलेस और जलेस जैसे लेखक संगठनों में आनुषंगिक मशाल के लिए जरूरी तेल, कपड़े और हाथ तीनों कम होते गए। दो दशकों के विचारधारात्मक हस्तक्षेप और विचलन देानों को लेखक संगठनों के रुख से समझा जा सकता है।

तीनों लेखक संगठनों के लखकों के सांगठनिक आधार क्षेत्र पर ध्यान दीजिए तो प्रलेस मध्य प्रदेश, बिहार ओर राजस्थान में ज्यादा सक्रिय है, जलेस दिल्ली विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में गतिशील है तथा जन संस्कृति मंच बिहार और उत्तर प्रदेश में संघर्षशील है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद तीनों संगठनों ने संस्कृति संगम नाम से अनेक साम्प्रदायिकता विरोधी सेमिनार किए। भाजपा के केंद्रीय शासन और गुजरात दंगांे के दौरान जलेस की सांप्रदायिकता विरोधी भूमिका प्रशंसनीय रही। 1857 को लेकर तीनों संगठनों ने न केवल अनेक आयोजन किए बल्कि लेखन-प्रकाशन अभियान भी शानदार ढं़ग से चलाया। जनसंस्कृति मंच का भगत सिंह शताब्दी वर्ष के बहाने अनेक जनपदों में विचार अभियान महत्वपूर्ण रहा। बनारस में वाटर फिल्म शूटिंग पर हमले के दौरान तीनों संगठनों का साझा प्रतिरोधी प्रयास, नंदीग्राम के विरूद्ध और तसलीमा नसरीन के समर्थन में जसम का कलकत्ता मार्च ऐतिहासिक महत्व रखता है।

साम्राज्यवाद विरोध, सांप्रदायिक फासीवाद विरोध तथा सामंती-ब्राहमणवादी विचारधारा से संघर्ष-तीनों मोर्चों पर हमारे लेखक संगठन पेटी बर्जुआ अवसरवाद, सुविधावाद और व्यवहारवाद के शिकार रहे हैं। आंतरिक जनतंत्र का अभाव, आलोचना और आत्म आलोचना के स्पेस को लगातार कम करने की प्रवृति और नेतृत्व की पूंजीवादी-सामंती मनोगत वृत्तियों के कारण लेखक संगठन लगातार अप्रासंगिक हुए हैं।संगठनों में जेनुइन लेखकों से ज्यादा संगठन के लेखक हावी होते रहे हैं। बिहार प्रलेस इसका अच्छा उदाहरण है। वहां के वर्तमान महासचिव सीपीआई के पूर्व विधायक हैं, मजदूरों और ठीकेदारों से धन उगाही के उस्ताद हैं, तथा जलसा भोज के कुशल प्रबंधक भी हैं। इस गुण की बदौलत वे विधान सभाई भाषणों की किताब छपाकर लेखक कहलाते हैं, देशभर के साहित्यकारों को अपने कस्बे में बुलाकर जबरदस्त जलसा कराते हैं, अपने ऊपर फिल्म बनाकर शो चलाते और बुद्धिजीवियों पर धाक जमाते हैं तथा पार्टी और प्रतिबद्ध लेखकों को हांकते चराते हैं। संगठन में आंतरिक जनतंत्र इतना कम है कि जिस उम्र में नेतृत्व को आदरणीय और फादरणीय मंडल में लौट जाना चाहिए, उस उम्र में नेतृत्व संगठन को पालकी और पालने की तरह इस्तेमाल करता है।

साम्राज्यवाद विरोध का एक रूप वामपंथियों के सहयोग से निर्मित कांग्रेसी सत्ता के दौरान हमारे सामने आया तो दूसरा रूप पश्चिम बंगाल मे नंदीग्राम, सिंगूर के साम्राज्य विरोधी जन आंदोलन के वक्त। जनवादी लेखक संघ की भूमिका कितनी कं्रातिकारी रही कि नंदीग्राम के किसानों के समर्थन मंे पश्चिम बंगाल के सैकड़ों कलाकार-लेखक सड़क पर उतरे लेकिन हिन्दी प्रदेश के जलेसी पार्टी लाइन पर बहस करते रहे। नंदीग्राम विरोधी भूमिका पर पश्चिम बंगाल सरकार की आलोचना के हस्ताक्षर पत्र पर जलेस के संस्थापक सदस्य एवं प्रथम महासचिव चंद्रबली सिंह ने हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। आदिवासी किसानों क जल, जंगल जमीन और खनिज को लूटनेवाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सरकार की दमनकारी हिंसा को सहयोग देने वाले और सलवा जुडुम के समर्थक लोगों के सांस्कृतिक अभियान में प्रलेस, जलेस और जसम की भूमिका जगजाहिर है।

जहां तक सांप्रदायिक फासीवाद के विरोध का प्रश्न है, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ प्रलेस की स्थानीय इकाइयों का सांप्रदायिक सत्ता के पदों, पुरस्कारों विज्ञापनों और सुविधाओं से कितना गहरा संबंध ह,ै हिंदी बुद्धिजीवियों को बताने की जरूरत नहीं। प्रलेस के मुखिया नामवर सिंह राजनाथ सिंह और जसवंत सिंह के मंच पर जाते है, भाजपाई सरकार के मुख्य अतिथि बनते है तथा भाजपाई मुख्यमंत्री को बुलाकर अपनी पूर्व पाठशाला में सम्मानित हाते हैं। पिछले दिनों यूपी प्रलेस राज्य सम्मेलन के मंच से नामवर सिंह का यह कहना कि सोवियत संघ के विघटन के बाद विचारधारा गैरप्रासंगिक चीज हो गई है, बताता है कि सांप्रदायिकता के एजेंडे पर बहस के लिए प्रलेस के पास कुछ नहीं है। तसलीमा नसरीन के बंगाल और देश निष्कासन पर निर्णयकारी आंदोलन का न करना तथा मकबूल फिदा हुसैन जैसे चित्रकार का विदेशी नागरिकता लेना ऐसे प्रश्न हैं जो लेखक संगठनों के धार्मिक और सांप्रदायिक रुख को स्पष्ट कर देते हैं। कलाकारों-लेखकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अस्तित्व की लड़ाई लेखक संगठन नहंी लडें़गे तो किससे उम्मीद की जा सकती है।

आजकल अच्छी और बुरी सांप्रदायिकता की बहस बुद्धिजीवियों का अवसरवादी शगल है। जनवरी 1934 की प्रेमचंद की टिप्पणी नए सिरे से बहस के केन्द्र में आनी चाहिए कि “अगर सांप्रदायिकता अच्छी हो सकती है तो पराधीनता भी अच्छी हो सकती है, मक्कारी भी अच्छी हो सकती है, झूठ भी अच्छा हो सकता है-क्योंकि पराधीनता मंे जिम्मेदारी की बचत होती है, मक्कारी से अपना उल्लू सीधा किया जाता है और झूठ से दुनिया को ठगा जाता है।“ बनारस में अच्छी और बुरी सांप्रदायिकता के दो उदाहरण लेखक संगठनों से जुड़े हैं। कुछ वर्ष पूर्व बेनियाबाग पुस्तक मेले में उग्र हिन्दुत्व संगठन शिवसेना ने हिन्दू धर्म की आलोचना करने वाली एक पुस्तक के प्रकाशन का स्टाल उजाड़ दिया और किताब की प्रतियां जलाई। दूसरे दिन जलेस के तत्कालीन जिला अध्यक्ष ने उस कृत्य का समर्थन किया। दूसरी घटना जसम की है।बनारस जैसी जगह जहां सत्तर और अस्सी के दशक में गोरख पांडेय, माहेश्वर और अवधेश प्रधान जैसे तीसरी धारा के बुद्धिजीवी रात दिन सांस्कृतिक क्रांति का सपना बुनते थे, इन दिनों जन संस्कृति लेखकविहीन निर्जन संस्कृति बनी हुई है। एक दशक से जिला सम्मेलन तक नहीं हुआ है। विनोद मिश्र जैसे क्रांतिकारी विचारक के विचार का संवहन करनेवाली जन संस्कृति बनारस मंे सांप्रदायिक एवं पुनरोत्थानवादी सत्ता व रचनाशीलता से संबद्ध विद्यानिवास मिश्र की बासमती गंधी श्राद्धोत्सव संस्कृति में सक्रिय भूमिका निभाती हो तथा बुद्धि दर्शन से ज्यादा बल प्रदर्शन में भरोसा करती हो वहां प्रेमचंद के सांप्रदायिकता संबंधी चिंतन के लिए कोई जगह नहीं बचती है।

लेखक संगठनों में सामंती-ब्राहमणवादी मनोवृत्तियांें के हावी होने के कारण वर्ग और वर्ण की संश्रयकारी बहसों को निर्णायक रास्ता नहीं मिला। दलित और स्त्री अस्मिताओं की वर्गीय मुक्ति का प्रश्न वामपंथी लेखक संगठनों का कभी केंद्रीय प्रश्न नहंीं बन पाया। नतीजा सामने है कि वर्ग संघर्ष और वर्ग दृष्टिकोण से दूर जाते हुए ये सांस्कृतिक विमर्श साम्राज्यवादी ताकतों के इस्तेमाल की संस्कृति बन रहे हैं।

जनचेतना निर्माण के मोर्चों पर जनपक्षीय सांस्कृतिक संगठन दक्षिणपंथी सांस्कृतिक संगठनों से बहुत पीछे छूट गए हैं। तैंतीस हजार स्कूलों, दर्जनों प्रेस, सैकड़ों पुस्तिकाओं और स्थानिक संगठन निर्माण के माध्यम से सांप्रदायिक पनरुत्थानवादी विचारधारा ने जनता के दिमागों में जहर घोलने का अभूतपूर्व कार्य किया है। गोलवलकर से लेकर सुदर्शन तक के विचारों के जनोन्मुख शैली में पुस्तिका निर्माण और वितरण ने सांप्रदायिक संस्कृति के विस्तार मंे अहम भूमिका निभाई है। दूसरी ओर राहुल सांस्कृत्यायन, नागार्जुन और सव्यसाची जैसे लेखकों की पुस्तिका निर्माण परंपरा को आगे बढ़ाने में लेखक संगठन असफल रहे। पिपुल्स पब्लिसिंग हाउस बेच दिया गया। इन दिनों पीपीएच पाठय पुस्तकों की महंगी किताबें छापता है। लेखक संगठनों के मुख पत्र वसुधा, नया पथ, समकालीन जनमत के अंकों का कार्य साहित्य और विचारधारा की नई संस्कृति या प्रस्थानक संस्कृति का निर्माण जनोन्मुख भाषा और शैली में करना था लेकिन लंबे समय से वे विश्वविद्यालीय गरिष्ठ व कट एंड पेस्ट चिंतन प्रणाली से ग्रस्त रही हैैैं। तीनों पत्रिकाओं की जरूरत अग्रगामी विचार और साहित्य के दिशा निर्देशन की रहीे है, वर्चस्व और प्रतिरोध की संस्कृति को तीव्रतर करने की रही है तथा जन संघर्षो के अनुभवों को लेखकों-पाठकों तक पहुंचाने की रहीं है। इस कार्य मंे वे पूर्णतः असफल हैं। इप्टा की इकाइयां निष्क्रिय हैैं तथा जन नाटय मंच शहरों में नाटय प्रदर्शन करता है। क्रंातिकारी कवि महेश्वर द्वारा 1981 में स्थापित हिरावल की पटना इकाई और बनारस के कला कम्यून के सहारे जन संस्कृतिमंच का श्रव्य-दृश्य अभियान चलता है।

निःसंदेह लेखक संगठनों की इतिहास में प्रतिरोध की क्रांतिकारी भूमिका रही है लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उन्हें वैचारिक और रचनाकार स्तर पर नए सिरे से संगठित, क्रियाशील और प्रतिबद्ध हाने की जरूरत है। नंदीग्राम सिंगूर और सलवा जुडुम जैसी सांस्कृतिक घटनाएं ऐसे प्रस्थान बिंदु हैं जहां से वे भरतीय समाज में परिव्याप्त मुख्य अंतर्विरोध तथा अंतर्विरोध के मुख्य और गौण पहलुओं की पहचान करते हुए सांस्कृतिक संघर्ष तेज कर सकते हैं। सोवियत संघ के ढह जाने के बाद जार्ज आरवेल के अन्यास एनिमल फार्म को फिर से पढ़ने की जरूरत है। नव साम्राज्य जिस बर्बर दुनिया का निर्माण कर रहा है वहां जनपक्षीय राजनीति और संस्कृति से जुड़े संगठनों के लिए एनिमल फार्म का यह गीत वास्तविक और छदम चेतना की पहचान में मदद करेगा-

चार पैर अच्छा

दो पैर ज्यादा अच्छा

अथवा

सारे जानवर बराबर हैं

पर कुछ जानवर औरों से ज्यादा बराबर हैं



इन गीत पंक्तियों मंे चार पैर समाजवादी संस्कृति के प्रतीक हैं तथा दो पैर पंूजीवादी संस्कृति केे। हमारे जनपद मंे एक किस्सा मशहूर है कि सोवियत के जमाने मंे एक कामरेड लेखक थे। उनके पुत्र अभियंता बनने रूस भेजे गए, पांच साल के बाद वे अखरोट व्यापारी बनकर भारत लौटे। कहते हैं, 1992 के बाद हिन्दी के अनेक कामरेड लेखकों बुद्धिजीवियों का यही धंधा अमेरिका के साथ आरंभ हुआ है। अंततः यह बाजार का युग है जिसे लेखक-कलाकार सुविधा के लिए डंडीमार विचार का युग कहते हैं। जनता के सरोकार से कटकर कोई संस्कृति आमूल रूपांतर की दिशा में नहीं जाएगी।