रामाज्ञा शशिधर
प्रतिबद्धता का मतलब खास तरह के मूल्य, कार्य, और वस्तु से ईमानदारीपूर्वक बंधना है। प्रतिबद्धता वस्तुआंें से इस तरह बंधना है कि उसके भीतरी और बाहरी बदलाव में अपनी भीतरी और बाहरी क्रियाशीलता का दखल हो सके। प्रतिबद्धता मनुष्य का निजी वैयक्त्तिक मूल्य है जो नैतिकता, वफादारी, सरोकार और लगाव के मिले जुले रसायन से निर्मित होता है। प्रतिबद्धता व्यक्ति के ल़क्ष्य, उद्देश्य या साध्य की साधना के लिए निर्मित तार्किक अस्था है। प्रतिबद्धता हरेक से ऐसी बद्धता है जिससे दोनांे की मुक्ति, स्वतंत्रता, निर्माण और विकास की क्रांतिकारी दिशा और दूरी तय हो सके। बाबा नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता मैं प्रतिबद्ध हूं की पंक्त्तियों से जन बुद्धिजीवी, जन संगठन और जन संस्थान की प्रतिबद्धता के दायरे को आसानी से परखा जा सकता हैः
प्रतिबद्ध हूं, जी हां प्रतिबद्ध हूं
बहुजन समाज की
अनुपल प्रगति के निमित्त
संकुचित स्व की आपाधापी
के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की
भेड़िया-धसान के खिलाफ
अंध बधिर व्यक्तियांे को
सही राह बतलाने के लिए
अपने आप को भी व्यामोह,
से बारंबार उबारने के लिए
प्रतिबद्ध हूं
जी हां शतधा प्रतिबद्ध हूं
प्रतिबद्धता का एक रूप शासक संरचना से आबद्ध और संबद्ध हो सकता है तो दूसरा रूप जनपक्षधरता से। अकादमिक संसार से जुड़े बुद्धिजीवियों की प्रतिबद्धता के भी दो रूप होते हैं। अकादमिक संसार की प्रतिबद्धता का कार्य पुराने ज्ञान का नए समय संदर्भ मंे विश्लेषण करना, नए ज्ञान की खोज करना और इन दोनों से व्यापक समाज में स्वतंत्रता, जनतांंित्रकता तथा नई मनुष्यता तैयार करना होना चाहिए। अकादमिक बुद्धिजीवियों की प्रतिबद्धता समाज में पीछे हो गए मनुष्यांें की अनुपल प्रगति से जुड़ी होनी चाहिए, संकुचित स्व और अविवेकी भीड़ की भेड़िया धसान की चेतना के विरूद्ध होनी चाहिए, जाति, वर्ग, समाज, लिंग, धर्म, सम्प्रदाय जैसी विभाजनकारी चेतना से मुक्ति से लैस होनी चाहिए। दुर्भाग्य से अकादमिक संसार भारतीय समाज में अपनी यह महान भूमिका निभाने में अनेक मोर्चों पर विफल रहा है। स्वतंत्रता के बाद और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के साथ अकादमिक संसार की प्रतिबद्धता जनता की अदालत में संदेहशील, दकियानूस, समस्याविमुख और शासनवर्ग की सेवकाई करने वाली रही है। गहरे अर्थो में स्वतंत्रता के बाद अकादमिक बुद्धिजीवियों के लिए जहां सरकार ही सरोकार थी वहां भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के साथ उनके लिए बाजार ही सरोकार है। अप्रतिबद्धता ही प्रतिबद्धता है।
आजादी के बाद भारतीय विश्वविद्यालयों के नए और पुराने दोनों ढांचों का इस्तेमाल शासक वर्ग ने अपनी विचारधारा और सत्ता वर्चस्व को बनाए रखने के लिए किया। शिक्षकों की एक ऐसी जमात तैयार की गई जो शासक वर्ग की यथास्थितिवादी विचारधारा को लागू करने के लिए जी जान से लग गई। फिलहाल विज्ञान-प्रौद्योगिकी के प्रति प्रतिबद्धता को इसलिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि नौकरशाही की गिरफ्त मंें इस क्षेत्र का चक्का ऐसा धंसा कि कालांतर में सूई से लेकर जहाज तक की खोज का सा्रेत हिन्दू-पुराणों में ढूंढ़ा जाने लगा। अर्थशास्त्र मिश्रित अर्थव्यवस्था की सेविकाई करता रहा और प्रबंधशास्त्र बाजार की। ऐसी स्थिति में मानविकी और समाज विज्ञान जैसे अनुशासनों से प्रतिबद्धता की मांग की जानी चाहिए जिनका सीधा और मूलगामी संबंध जनपक्षधरता, स्वतंत्रता और मानवीय सरोकार से रहा है। आजादी के ठीक बाद देश के एक पुरातन केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में नियुक्ति संबंधी प्रतिबद्धता की लोकचर्चा सुनिए।
विदेशी छात्रों को हिंदी पढ़ाने के लिए शि़क्षक नियुक्ति होनी थी। चयन बोर्ड में दिल्ली विश्वविद्यालय के रीतिकालीन महान आाचार्य विशेषज्ञ आए हुए थे। तत्कालीन विभागाध्यक्ष को अपने प्रिय शिष्य की नियुक्ति करवानी थी। रीतिकालीन आचार्य ने आवेदक से प्रश्न किया कि यदि विदेशी छात्रांे को प्रेमचंद की कहानी ठाकुर का कुआं समझाना हो तो आप इस भाव का अनुवाद कैसे करेंगे कि ठाकुर साहब अपनी मूंछ पर ऊंगलियां फेरते हुए गंगी के सामने ताव दिखाते हैं। बेचारा आवेदक जो पहले कपड़े की दुकान में सेल्समेन था और अब गुरु की कृपा से विदेशियों को हिंदी सिखाने का सपना देख रहा था, साक्षात्कार के चक्रव्यूह में बुरी तरह फंस गया। गुरु को लगा कि चेला अब गया। गुरु विभागाध्यक्ष ने मोर्चे को थामते हुए कहा कि यह मंूछ बीच में कैसे आ गई। मूंछ तो इस बालक की अभी ठीक से निकली भी नहीं है। देख भई प्रोफेसर रीतिकाल, यहां न तेरी मंूछ न मेरी मूंछ। बात विदेशियों को हिंदी सिखाने की है और मुुझे विश्वास है कि ये संभाल लेगा। आवेदक को दंडवत प्रणाम का आदेश देकर साक्षात्कार कक्ष से तुरंत बाहर भेज दिया गया और नियुक्ति हो गई। दिलचस्प बात तो यह है कि ठाकुर का कुआं कहानी में ठाकुर साहब कहीं भी मूंछ फेरते हुए दिखते ही नहीं हैं। यह सच है कि अकादमिक खेत मे मूंछ की नई फसल रोपने के लिए दो पुरानी मूंछंे अंातरिक संगति और सहमति बैठा रही थीं। इस लोकचर्चा के बाद ठाकुर का कुआं कहानी की इन पंक्तियों को देखिएः
बा्रह्मन देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहूजी एक के पांच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है। हम तो मर भी जाते हैं, तो कोई दुआर पर झांकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएं से पानी भरने देंगे?
अकादमिक बौद्धिकता के कुएं पर सार्वजनिक कब्जे की बात तो दूर उसमें से पानी पीने की व्यावहारिक इजाजत लम्बे समय तक जोखुओं और गंगियों कों नहीं मिलना अकादमिक संसार के शासकवर्गीय दकियानूस चरित्र का पर्दाफाश करता है। नियुक्ति की इस लोकचर्चा से कोई बातें स्पष्ट होती हैं। पहला तो यह कि शिक्षकों के लिए ज्ञान-विज्ञान की प्रतिबद्धता दोयम दर्जे की चीज है और सेवकवाद प्रथम दर्जे की। दूसरी बात कि अकादमिक संसार की तथाकथित स्वायत्तता प्रशासनिक मनमानेपन और भ्रष्टाचार का रूप आजादी के बाद से ही लेती रही। तीसरी बात यह कि ज्ञान की सामाजिक सत्ता से विश्वविद्यालयी सत्ता का कोई खास संबंध नहीं रहा। आजादी के बाद से लेकर भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के पहले तक भारतीय विश्वविद्यालयों मंे मौजूद अकादमिक तंत्र सामंती और पूंजीवादी संरचना के मेल से निर्मित अमौलिक, गैरसामाजिक, दकियानूस और शासकपोषित ज्ञान एवं चेतना के कारोबार में लगा रहा। यह हालत अकादमिक, प्रशासनिक और शिक्षक छात्र संबंध तीनों क्षेत्रों में दिखाई पड़ती है।
एक अकादमिक बुद्धिजीवी से जिन प्रमुख क्षेत्रों में प्रतिबद्धता की मांग की जाती है, वे हैं अकादमिक क्षेत्र, शिक्षक छात्र संबंध का क्षेत्र तथा प्रशासनिक क्षेत्र। इन क्षेत्रों में प्रतिबद्ध भूमिका के लिए अकादमिक संस्थाओं की स्वायत्तता और बुद्धिजीवियों की स्वतंत्र बौद्धिक चेतना का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अकादमिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता के लिए शासक वर्गीय राजनीतिक, आर्थिक और विचारधारात्मक स्वायत्तता और स्वतंत्रता की जरूरत होती है। शासक वर्ग ने आजादी के बाद कुलपतियों, कुलाधिपतियों और कार्यकारिणी परिषद की नियुक्तयों का अधिकार क्षेत्र खुद के पास रख लिया, अर्थतंत्र के संचालन के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसी संस्था का गठन किया तथा विचारधारात्मक यथास्थितिवाद के लिए विश्वविद्यालयों की आंतरिक संरचना मंे अनेक छेद कर दिए। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के बाद तो इस क्षेत्र को पूर्णतः बाजार के लिए खोल दिया गया। परिणामतः ईमानदार बौद्धिकों की छोटी सी जमात लगातार हाशिए पर बनी रही और मुख्यधारा में सामंती पूंजीवादी मूल्यों की सेवकाई करनेवाली शक्तियां ऐसी फसल का निर्माण करती रही जहां से बड़ी संख्या में भ्रष्ट नौकरशाह और राजनीतिक कार्यकर्ता हासिल हुए।
अकादमिक क्षेत्र में शिक्षकों के लिए पाठयक्रम निर्माण, पाठयक्रम का सार्थकतापूर्वक अध्यापन, गंभीर और मौलिक शोध तथा रचनात्मक सक्रियता मूल कार्य हैं। यहां प्रतिबद्धता की बड़ी और कड़ी जरूरत पड़ती है। मानविकी और समाज-विज्ञान जैसे अनुशासनों की ओर ध्यान देने पर ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता जिसे आजादी के बाद के अकादमिक क्षेत्रों की महान सांस्थानिक उपलब्धि कहा जा सके। हिंदी विभागों में जहां थोड़ी बहुत शोध आलोचना की उपलब्धि दिखाई पड़ती है वह निजी प्रयासों की देन है न कि सांस्थानिक अर्जन। यदि आलोचना के नाम पर केवल पदोन्नतिमूलक समीक्षा बने, शोधालेखों में कट एण्ड पेस्ट प्रणाली चले, पाठयक्रम भानुमती के पिटारे की तरह संबंधवाद के दायरे में फैलता जाए तथा ऐसे शिक्षकों का रूतबा और कैरियर ज्वार की तरह बढता़ रहे जो कक्षाओं से खाली और साधो संस्कृति के खिलाड़ी हों तो यह अकादमिक संसार के भविष्य के लिए आत्मघाती कदम है। आप इस वैचारिक बौद्धिक गतिविधि को क्या नाम देंगे जब प्रगतिशील साहित्यिक संगठनों से जुड़े पाठयक्रम संयोजक शिक्षक छह महीने की मेहनत के बावजूद एमए हिंदी के पाठयक्रम के विशेष पत्र में स्त्री अध्ययन और दलित अध्ययन को शामिल करना मुनासिब नहीं समझे। एक पाठयक्रम निर्माण समिति में मुझे संघर्ष कर इन पत्रों को शामिल करवाना पड़ा। यूजीसी की नई अकादमिक रूपरेखा के बाद विश्वविद्यालयों के भीतर और आसपास कुकुरमुत्ते की तरह शोधपत्रिकाएं उग आई हैं जिनके चेहरे पर कट एण्ड पेस्ट प्रणाली के शोधाक्षर तभी उगते हैं जब पेट में शोधार्थियों और शिक्षकों द्वारा गांधी छाप नोट का दाना डाला जाता है। समाज-विज्ञान की सारी महत्वपूर्ण पुस्तकें विश्वविद्यालय के बाहर के बौद्धिक संस्थानों से उत्पादित हो रही हैं।
एक अध्यापक का सबसे बड़ा सरोकार अध्यापन है। अध्यापन और विषय से संबंधित ज्ञान की खोज के अतिरिक्त दूसरे सारे कार्य उसके लिए अकादमिक गतिविधि का विकल्प नहीं हो सकते। मानविकी और समाजविज्ञान जैसे विषयों को अकादमिक बुद्धिजीवियों ने न तो व्यापक जनपक्षधर बनाकर जनभाषा में अध्यापन का स्वरूप दिया और न ही चहारदीवारी की बाहरी दुनिया से जोड़ने का बहुआयामी प्रयास किया। न केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र बल्कि समाजविज्ञान और मानविकी के क्षेत्र भी औपनिवेशिक दासता की विचारधारा का शिकार रहे। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि ज्ञान विज्ञान के किसी क्षेत्र में भारतीय विश्वविद्यालय आज विश्व का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं।
अकादमिक प्रतिबद्धता का क्षरण करने में न केवल सामंती मूल्यों की बड़ी भूमिका रही है बल्कि सांप्रदायिकता जैसी विभाजनकारी विचारधारा ने इस तंत्र को अपना नाभिक स्थल बना लिया है। पठन-पाठन और तमाम अकादमिक गतिविधियों के केन्द्र में जब धर्मनिरपेक्षता विरोधी, जातिवादी और पितृसत्तात्मक विचार काम करने लगे तब जनतांत्रिक बौद्धिक चिंतन और ज्ञान का संकट में होना लाजिमी है। बीएचयू जैसी महान संस्थाओं में जहां विष्णु नार्लिकर जैसे गणितज्ञ, डीडी कौसंबी जैसे गणितज्ञ चिंतक, शांति स्वरूप भटनागर जैसे वैज्ञानिक, वासुदेव शरण अग्रवाल जैसे इतिहासकार और रामचंद्र शुक्ल एवं हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्यकार ज्ञान निर्माण की आधारशिला बने तथा जहां के साहित्यिक उत्पाद शिवमंगल सिंह सुमन, जानकी वल्लभ शास्त्री, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पाण्डेय आदि रहे वहां भगवा संगठनों की शाखा का दिन रात पैरेड होते रहना इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि हमारा अकादमिक सरोकार किस तरह की चेतना निर्माण में संलग्न है।
प्रतिबद्धता का दूसरा रूप शिक्षक छात्र संबंधों में खोजा जाना चाहिए। शिक्षक छात्र के बीच अब ज्ञान दूसरी सीढ़ी पर है और अवसरवादिता पहली सीढ़ी पर। शिक्षक की प्रतिबद्धता ज्ञान के मूलगामी विस्तार से ज्यादा अपना प्रचार-प्रसार, निजी करोबार, और राजनीतिक व्यापार में सक्रिय है जहां छात्रों का उपयोग कच्चे ईंधन की तरह होता है। बेरोजगारी की मार से त्रस्त छात्र वर्ग की रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है तथा उसे गुरुभक्ति में ही ज्ञान क्रांति दिखाई पड़ने लगती है। अनेक विश्वविद्यालयों में चरणछुओ अभियान से ही विद्यार्थियों को ज्ञान वरदान मिल पाता। उत्तर आधुनिकता और मध्यकालीनता की घुलनशील छवि तब दिखाई पड़ती जब जिंस और मोबाइल से लैस छात्र गुरुजी का चरणस्पर्श करने के बदले उनके घुटने के हिस्से को छूते है और गुरूजी इसे भारतीय संस्कृति का विकास मानते हैं। विश्वविद्यालयों में पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं, प्रेक्षागृहों, संग्रहालयों के बदले मंदिरों मस्जिदों और गुरुद्वारों की सजावट पर ज्यादा ध्यान दिया जाए वहां जो बौद्धिक चिंतन होगा वह अनिवार्यतः समता स्वतंत्रता और जनतंत्रविरोधी होगा।
भूमंडलीकरण अभियान के बाद शासक वर्ग ने एक ओर अकादमिक तंत्र को बाजार के हवाले करना आरंभ किया, दूसरी ओर विश्वविद्यालय के भीतर छात्रों और शिक्षकों के संगठनों पर प्रत्यक्ष परोक्ष अनेकानेक शिकंजे कसे। परिणामतः पूरा विश्वविद्यालय तंत्र सचिवालय की तरह काम करने लगा है। एक ओर शिक्षकों और छात्रों की स्वाधीनता लगभग छिन गयी है, दूसरी ओर कुलपतियों की नियुक्ति तक में जाति, संबंध, पार्टी, अर्थ और गैरअकादमिक तत्व काम करने लगे हैं। विश्वविद्यालयों में लालफीताशाही और लाठीशाही का इतना बड़ा आतंक बढ़ता जा रहा है कि शिक्षकों-छात्रों के लिए भयहीन माहौल में अकादमिक गतिविधियां चलाना कठिन हो गया है। शिक्षकों के एक बड़े तबके की चिंता में पदोन्नति और समितियों की कुर्सियों पर पहुंचने की लालसा ने उसके सरोकार और संघर्ष को नूनी और दीमक मंे बदल दिया है। कार्यस्थलों में अकेला विश्वविद्यालय तंत्र है जहां कुंठा, द्वेष और घृणा के खौलते हुए सरसो तेल में सहकर्मी एक दूसरे को छानने तलने का सर्वाधिक उपक्रम करते रहते हैं। कुर्सियों पर बैठते ही कुंठा कुदाल में बदल जाती है, नकली सौहार्द्र्र गरदन मेें। तर्क और विवेक की खूबसरत दुनिया में जब बुद्धिजीवियों के बीच मनभेद, संबंधभेद, अवसरवादिताभेद और विचारभेद में कोई फर्क नहीं दिखे वहां ज्ञान की ऊष्मा भरी आमद की गुंजाइश कैसे हो सकती। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षक नियुक्ति का हाल यह है कि हिंदी साहित्य में पहले जहां भारतेन्दु युग, प्रेमचंद युग, चलते थे वहीं हिंदी विभागों को अब दामाद युग, पुत्र युग के नाम से पुकारा जाने लगा है। नियुक्तियों में अकादमिक गुणवत्ता की जगह जाति, अर्थ और संबंध को जब आधार बनाया जाए तब अकादमिक संसार से प्रतिबद्धता की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
पश्चिमी दुनिया के विश्वविद्यालयों में क्लासिकल पूंजीवाद के चलते अकादमिक गुणवत्ता और प्रतिबद्धता बरकार है वहीं भारत जैसे देश मंे सामंती और सामा्रजी पूंजीवाद के घालमेल के कारण हमारा पूरा अकादमिक तंत्र गुणवत्ता विहीन ज्ञानक्षेत्र बन गया है। अकादमिक संसार में नए बौद्धिक सरोकार और मूलगामी ज्ञानात्मक उपलब्धियों के लिए हमें सबसे पहले भारतीय विश्वविद्यालयों में सामंतवाद के अवशेषों और औपनिवेशिक पूंजीवाद की दासता मूलक चेतना से आरपार की लड़ाई लड़नी होगी। निर्णायक सांस्कृतिक वैचारिक संघर्ष के बिना इस नैया का कोई दूसरा किनारा नहीं है।
- तीसरी दुनिया का अकादमिक संसार पक्के तौर पर राजनीतिकतंत्र का हिस्सा है और प्रायः सभी मामलों मे अकादमिक नियुक्तियां पूरी तौर पर राजनीतिक नियुक्तियां होती हैं।
- भारतीय विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग सबसे ज्यादा दकियानूस और प्रतिक्रियावादी विचारों के गढ़ हैं। - नामवर सिंह
हिंदी भवन,बी.एच.यू. में कोशी बाढ़ -२००८ की त्रासदी पर बहस |
प्रतिबद्धता का मतलब खास तरह के मूल्य, कार्य, और वस्तु से ईमानदारीपूर्वक बंधना है। प्रतिबद्धता वस्तुआंें से इस तरह बंधना है कि उसके भीतरी और बाहरी बदलाव में अपनी भीतरी और बाहरी क्रियाशीलता का दखल हो सके। प्रतिबद्धता मनुष्य का निजी वैयक्त्तिक मूल्य है जो नैतिकता, वफादारी, सरोकार और लगाव के मिले जुले रसायन से निर्मित होता है। प्रतिबद्धता व्यक्ति के ल़क्ष्य, उद्देश्य या साध्य की साधना के लिए निर्मित तार्किक अस्था है। प्रतिबद्धता हरेक से ऐसी बद्धता है जिससे दोनांे की मुक्ति, स्वतंत्रता, निर्माण और विकास की क्रांतिकारी दिशा और दूरी तय हो सके। बाबा नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता मैं प्रतिबद्ध हूं की पंक्त्तियों से जन बुद्धिजीवी, जन संगठन और जन संस्थान की प्रतिबद्धता के दायरे को आसानी से परखा जा सकता हैः
प्रतिबद्ध हूं, जी हां प्रतिबद्ध हूं
बहुजन समाज की
अनुपल प्रगति के निमित्त
संकुचित स्व की आपाधापी
के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की
भेड़िया-धसान के खिलाफ
अंध बधिर व्यक्तियांे को
सही राह बतलाने के लिए
अपने आप को भी व्यामोह,
से बारंबार उबारने के लिए
प्रतिबद्ध हूं
जी हां शतधा प्रतिबद्ध हूं
प्रतिबद्धता का एक रूप शासक संरचना से आबद्ध और संबद्ध हो सकता है तो दूसरा रूप जनपक्षधरता से। अकादमिक संसार से जुड़े बुद्धिजीवियों की प्रतिबद्धता के भी दो रूप होते हैं। अकादमिक संसार की प्रतिबद्धता का कार्य पुराने ज्ञान का नए समय संदर्भ मंे विश्लेषण करना, नए ज्ञान की खोज करना और इन दोनों से व्यापक समाज में स्वतंत्रता, जनतांंित्रकता तथा नई मनुष्यता तैयार करना होना चाहिए। अकादमिक बुद्धिजीवियों की प्रतिबद्धता समाज में पीछे हो गए मनुष्यांें की अनुपल प्रगति से जुड़ी होनी चाहिए, संकुचित स्व और अविवेकी भीड़ की भेड़िया धसान की चेतना के विरूद्ध होनी चाहिए, जाति, वर्ग, समाज, लिंग, धर्म, सम्प्रदाय जैसी विभाजनकारी चेतना से मुक्ति से लैस होनी चाहिए। दुर्भाग्य से अकादमिक संसार भारतीय समाज में अपनी यह महान भूमिका निभाने में अनेक मोर्चों पर विफल रहा है। स्वतंत्रता के बाद और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के साथ अकादमिक संसार की प्रतिबद्धता जनता की अदालत में संदेहशील, दकियानूस, समस्याविमुख और शासनवर्ग की सेवकाई करने वाली रही है। गहरे अर्थो में स्वतंत्रता के बाद अकादमिक बुद्धिजीवियों के लिए जहां सरकार ही सरोकार थी वहां भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के साथ उनके लिए बाजार ही सरोकार है। अप्रतिबद्धता ही प्रतिबद्धता है।
आजादी के बाद भारतीय विश्वविद्यालयों के नए और पुराने दोनों ढांचों का इस्तेमाल शासक वर्ग ने अपनी विचारधारा और सत्ता वर्चस्व को बनाए रखने के लिए किया। शिक्षकों की एक ऐसी जमात तैयार की गई जो शासक वर्ग की यथास्थितिवादी विचारधारा को लागू करने के लिए जी जान से लग गई। फिलहाल विज्ञान-प्रौद्योगिकी के प्रति प्रतिबद्धता को इसलिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि नौकरशाही की गिरफ्त मंें इस क्षेत्र का चक्का ऐसा धंसा कि कालांतर में सूई से लेकर जहाज तक की खोज का सा्रेत हिन्दू-पुराणों में ढूंढ़ा जाने लगा। अर्थशास्त्र मिश्रित अर्थव्यवस्था की सेविकाई करता रहा और प्रबंधशास्त्र बाजार की। ऐसी स्थिति में मानविकी और समाज विज्ञान जैसे अनुशासनों से प्रतिबद्धता की मांग की जानी चाहिए जिनका सीधा और मूलगामी संबंध जनपक्षधरता, स्वतंत्रता और मानवीय सरोकार से रहा है। आजादी के ठीक बाद देश के एक पुरातन केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में नियुक्ति संबंधी प्रतिबद्धता की लोकचर्चा सुनिए।
विदेशी छात्रों को हिंदी पढ़ाने के लिए शि़क्षक नियुक्ति होनी थी। चयन बोर्ड में दिल्ली विश्वविद्यालय के रीतिकालीन महान आाचार्य विशेषज्ञ आए हुए थे। तत्कालीन विभागाध्यक्ष को अपने प्रिय शिष्य की नियुक्ति करवानी थी। रीतिकालीन आचार्य ने आवेदक से प्रश्न किया कि यदि विदेशी छात्रांे को प्रेमचंद की कहानी ठाकुर का कुआं समझाना हो तो आप इस भाव का अनुवाद कैसे करेंगे कि ठाकुर साहब अपनी मूंछ पर ऊंगलियां फेरते हुए गंगी के सामने ताव दिखाते हैं। बेचारा आवेदक जो पहले कपड़े की दुकान में सेल्समेन था और अब गुरु की कृपा से विदेशियों को हिंदी सिखाने का सपना देख रहा था, साक्षात्कार के चक्रव्यूह में बुरी तरह फंस गया। गुरु को लगा कि चेला अब गया। गुरु विभागाध्यक्ष ने मोर्चे को थामते हुए कहा कि यह मंूछ बीच में कैसे आ गई। मूंछ तो इस बालक की अभी ठीक से निकली भी नहीं है। देख भई प्रोफेसर रीतिकाल, यहां न तेरी मंूछ न मेरी मूंछ। बात विदेशियों को हिंदी सिखाने की है और मुुझे विश्वास है कि ये संभाल लेगा। आवेदक को दंडवत प्रणाम का आदेश देकर साक्षात्कार कक्ष से तुरंत बाहर भेज दिया गया और नियुक्ति हो गई। दिलचस्प बात तो यह है कि ठाकुर का कुआं कहानी में ठाकुर साहब कहीं भी मूंछ फेरते हुए दिखते ही नहीं हैं। यह सच है कि अकादमिक खेत मे मूंछ की नई फसल रोपने के लिए दो पुरानी मूंछंे अंातरिक संगति और सहमति बैठा रही थीं। इस लोकचर्चा के बाद ठाकुर का कुआं कहानी की इन पंक्तियों को देखिएः
बा्रह्मन देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहूजी एक के पांच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है। हम तो मर भी जाते हैं, तो कोई दुआर पर झांकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएं से पानी भरने देंगे?
अकादमिक बौद्धिकता के कुएं पर सार्वजनिक कब्जे की बात तो दूर उसमें से पानी पीने की व्यावहारिक इजाजत लम्बे समय तक जोखुओं और गंगियों कों नहीं मिलना अकादमिक संसार के शासकवर्गीय दकियानूस चरित्र का पर्दाफाश करता है। नियुक्ति की इस लोकचर्चा से कोई बातें स्पष्ट होती हैं। पहला तो यह कि शिक्षकों के लिए ज्ञान-विज्ञान की प्रतिबद्धता दोयम दर्जे की चीज है और सेवकवाद प्रथम दर्जे की। दूसरी बात कि अकादमिक संसार की तथाकथित स्वायत्तता प्रशासनिक मनमानेपन और भ्रष्टाचार का रूप आजादी के बाद से ही लेती रही। तीसरी बात यह कि ज्ञान की सामाजिक सत्ता से विश्वविद्यालयी सत्ता का कोई खास संबंध नहीं रहा। आजादी के बाद से लेकर भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के पहले तक भारतीय विश्वविद्यालयों मंे मौजूद अकादमिक तंत्र सामंती और पूंजीवादी संरचना के मेल से निर्मित अमौलिक, गैरसामाजिक, दकियानूस और शासकपोषित ज्ञान एवं चेतना के कारोबार में लगा रहा। यह हालत अकादमिक, प्रशासनिक और शिक्षक छात्र संबंध तीनों क्षेत्रों में दिखाई पड़ती है।
एक अकादमिक बुद्धिजीवी से जिन प्रमुख क्षेत्रों में प्रतिबद्धता की मांग की जाती है, वे हैं अकादमिक क्षेत्र, शिक्षक छात्र संबंध का क्षेत्र तथा प्रशासनिक क्षेत्र। इन क्षेत्रों में प्रतिबद्ध भूमिका के लिए अकादमिक संस्थाओं की स्वायत्तता और बुद्धिजीवियों की स्वतंत्र बौद्धिक चेतना का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अकादमिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता के लिए शासक वर्गीय राजनीतिक, आर्थिक और विचारधारात्मक स्वायत्तता और स्वतंत्रता की जरूरत होती है। शासक वर्ग ने आजादी के बाद कुलपतियों, कुलाधिपतियों और कार्यकारिणी परिषद की नियुक्तयों का अधिकार क्षेत्र खुद के पास रख लिया, अर्थतंत्र के संचालन के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसी संस्था का गठन किया तथा विचारधारात्मक यथास्थितिवाद के लिए विश्वविद्यालयों की आंतरिक संरचना मंे अनेक छेद कर दिए। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के बाद तो इस क्षेत्र को पूर्णतः बाजार के लिए खोल दिया गया। परिणामतः ईमानदार बौद्धिकों की छोटी सी जमात लगातार हाशिए पर बनी रही और मुख्यधारा में सामंती पूंजीवादी मूल्यों की सेवकाई करनेवाली शक्तियां ऐसी फसल का निर्माण करती रही जहां से बड़ी संख्या में भ्रष्ट नौकरशाह और राजनीतिक कार्यकर्ता हासिल हुए।
अकादमिक क्षेत्र में शिक्षकों के लिए पाठयक्रम निर्माण, पाठयक्रम का सार्थकतापूर्वक अध्यापन, गंभीर और मौलिक शोध तथा रचनात्मक सक्रियता मूल कार्य हैं। यहां प्रतिबद्धता की बड़ी और कड़ी जरूरत पड़ती है। मानविकी और समाज-विज्ञान जैसे अनुशासनों की ओर ध्यान देने पर ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता जिसे आजादी के बाद के अकादमिक क्षेत्रों की महान सांस्थानिक उपलब्धि कहा जा सके। हिंदी विभागों में जहां थोड़ी बहुत शोध आलोचना की उपलब्धि दिखाई पड़ती है वह निजी प्रयासों की देन है न कि सांस्थानिक अर्जन। यदि आलोचना के नाम पर केवल पदोन्नतिमूलक समीक्षा बने, शोधालेखों में कट एण्ड पेस्ट प्रणाली चले, पाठयक्रम भानुमती के पिटारे की तरह संबंधवाद के दायरे में फैलता जाए तथा ऐसे शिक्षकों का रूतबा और कैरियर ज्वार की तरह बढता़ रहे जो कक्षाओं से खाली और साधो संस्कृति के खिलाड़ी हों तो यह अकादमिक संसार के भविष्य के लिए आत्मघाती कदम है। आप इस वैचारिक बौद्धिक गतिविधि को क्या नाम देंगे जब प्रगतिशील साहित्यिक संगठनों से जुड़े पाठयक्रम संयोजक शिक्षक छह महीने की मेहनत के बावजूद एमए हिंदी के पाठयक्रम के विशेष पत्र में स्त्री अध्ययन और दलित अध्ययन को शामिल करना मुनासिब नहीं समझे। एक पाठयक्रम निर्माण समिति में मुझे संघर्ष कर इन पत्रों को शामिल करवाना पड़ा। यूजीसी की नई अकादमिक रूपरेखा के बाद विश्वविद्यालयों के भीतर और आसपास कुकुरमुत्ते की तरह शोधपत्रिकाएं उग आई हैं जिनके चेहरे पर कट एण्ड पेस्ट प्रणाली के शोधाक्षर तभी उगते हैं जब पेट में शोधार्थियों और शिक्षकों द्वारा गांधी छाप नोट का दाना डाला जाता है। समाज-विज्ञान की सारी महत्वपूर्ण पुस्तकें विश्वविद्यालय के बाहर के बौद्धिक संस्थानों से उत्पादित हो रही हैं।
एक अध्यापक का सबसे बड़ा सरोकार अध्यापन है। अध्यापन और विषय से संबंधित ज्ञान की खोज के अतिरिक्त दूसरे सारे कार्य उसके लिए अकादमिक गतिविधि का विकल्प नहीं हो सकते। मानविकी और समाजविज्ञान जैसे विषयों को अकादमिक बुद्धिजीवियों ने न तो व्यापक जनपक्षधर बनाकर जनभाषा में अध्यापन का स्वरूप दिया और न ही चहारदीवारी की बाहरी दुनिया से जोड़ने का बहुआयामी प्रयास किया। न केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र बल्कि समाजविज्ञान और मानविकी के क्षेत्र भी औपनिवेशिक दासता की विचारधारा का शिकार रहे। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि ज्ञान विज्ञान के किसी क्षेत्र में भारतीय विश्वविद्यालय आज विश्व का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं।
अकादमिक प्रतिबद्धता का क्षरण करने में न केवल सामंती मूल्यों की बड़ी भूमिका रही है बल्कि सांप्रदायिकता जैसी विभाजनकारी विचारधारा ने इस तंत्र को अपना नाभिक स्थल बना लिया है। पठन-पाठन और तमाम अकादमिक गतिविधियों के केन्द्र में जब धर्मनिरपेक्षता विरोधी, जातिवादी और पितृसत्तात्मक विचार काम करने लगे तब जनतांत्रिक बौद्धिक चिंतन और ज्ञान का संकट में होना लाजिमी है। बीएचयू जैसी महान संस्थाओं में जहां विष्णु नार्लिकर जैसे गणितज्ञ, डीडी कौसंबी जैसे गणितज्ञ चिंतक, शांति स्वरूप भटनागर जैसे वैज्ञानिक, वासुदेव शरण अग्रवाल जैसे इतिहासकार और रामचंद्र शुक्ल एवं हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्यकार ज्ञान निर्माण की आधारशिला बने तथा जहां के साहित्यिक उत्पाद शिवमंगल सिंह सुमन, जानकी वल्लभ शास्त्री, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पाण्डेय आदि रहे वहां भगवा संगठनों की शाखा का दिन रात पैरेड होते रहना इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि हमारा अकादमिक सरोकार किस तरह की चेतना निर्माण में संलग्न है।
प्रतिबद्धता का दूसरा रूप शिक्षक छात्र संबंधों में खोजा जाना चाहिए। शिक्षक छात्र के बीच अब ज्ञान दूसरी सीढ़ी पर है और अवसरवादिता पहली सीढ़ी पर। शिक्षक की प्रतिबद्धता ज्ञान के मूलगामी विस्तार से ज्यादा अपना प्रचार-प्रसार, निजी करोबार, और राजनीतिक व्यापार में सक्रिय है जहां छात्रों का उपयोग कच्चे ईंधन की तरह होता है। बेरोजगारी की मार से त्रस्त छात्र वर्ग की रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है तथा उसे गुरुभक्ति में ही ज्ञान क्रांति दिखाई पड़ने लगती है। अनेक विश्वविद्यालयों में चरणछुओ अभियान से ही विद्यार्थियों को ज्ञान वरदान मिल पाता। उत्तर आधुनिकता और मध्यकालीनता की घुलनशील छवि तब दिखाई पड़ती जब जिंस और मोबाइल से लैस छात्र गुरुजी का चरणस्पर्श करने के बदले उनके घुटने के हिस्से को छूते है और गुरूजी इसे भारतीय संस्कृति का विकास मानते हैं। विश्वविद्यालयों में पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं, प्रेक्षागृहों, संग्रहालयों के बदले मंदिरों मस्जिदों और गुरुद्वारों की सजावट पर ज्यादा ध्यान दिया जाए वहां जो बौद्धिक चिंतन होगा वह अनिवार्यतः समता स्वतंत्रता और जनतंत्रविरोधी होगा।
भूमंडलीकरण अभियान के बाद शासक वर्ग ने एक ओर अकादमिक तंत्र को बाजार के हवाले करना आरंभ किया, दूसरी ओर विश्वविद्यालय के भीतर छात्रों और शिक्षकों के संगठनों पर प्रत्यक्ष परोक्ष अनेकानेक शिकंजे कसे। परिणामतः पूरा विश्वविद्यालय तंत्र सचिवालय की तरह काम करने लगा है। एक ओर शिक्षकों और छात्रों की स्वाधीनता लगभग छिन गयी है, दूसरी ओर कुलपतियों की नियुक्ति तक में जाति, संबंध, पार्टी, अर्थ और गैरअकादमिक तत्व काम करने लगे हैं। विश्वविद्यालयों में लालफीताशाही और लाठीशाही का इतना बड़ा आतंक बढ़ता जा रहा है कि शिक्षकों-छात्रों के लिए भयहीन माहौल में अकादमिक गतिविधियां चलाना कठिन हो गया है। शिक्षकों के एक बड़े तबके की चिंता में पदोन्नति और समितियों की कुर्सियों पर पहुंचने की लालसा ने उसके सरोकार और संघर्ष को नूनी और दीमक मंे बदल दिया है। कार्यस्थलों में अकेला विश्वविद्यालय तंत्र है जहां कुंठा, द्वेष और घृणा के खौलते हुए सरसो तेल में सहकर्मी एक दूसरे को छानने तलने का सर्वाधिक उपक्रम करते रहते हैं। कुर्सियों पर बैठते ही कुंठा कुदाल में बदल जाती है, नकली सौहार्द्र्र गरदन मेें। तर्क और विवेक की खूबसरत दुनिया में जब बुद्धिजीवियों के बीच मनभेद, संबंधभेद, अवसरवादिताभेद और विचारभेद में कोई फर्क नहीं दिखे वहां ज्ञान की ऊष्मा भरी आमद की गुंजाइश कैसे हो सकती। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षक नियुक्ति का हाल यह है कि हिंदी साहित्य में पहले जहां भारतेन्दु युग, प्रेमचंद युग, चलते थे वहीं हिंदी विभागों को अब दामाद युग, पुत्र युग के नाम से पुकारा जाने लगा है। नियुक्तियों में अकादमिक गुणवत्ता की जगह जाति, अर्थ और संबंध को जब आधार बनाया जाए तब अकादमिक संसार से प्रतिबद्धता की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
पश्चिमी दुनिया के विश्वविद्यालयों में क्लासिकल पूंजीवाद के चलते अकादमिक गुणवत्ता और प्रतिबद्धता बरकार है वहीं भारत जैसे देश मंे सामंती और सामा्रजी पूंजीवाद के घालमेल के कारण हमारा पूरा अकादमिक तंत्र गुणवत्ता विहीन ज्ञानक्षेत्र बन गया है। अकादमिक संसार में नए बौद्धिक सरोकार और मूलगामी ज्ञानात्मक उपलब्धियों के लिए हमें सबसे पहले भारतीय विश्वविद्यालयों में सामंतवाद के अवशेषों और औपनिवेशिक पूंजीवाद की दासता मूलक चेतना से आरपार की लड़ाई लड़नी होगी। निर्णायक सांस्कृतिक वैचारिक संघर्ष के बिना इस नैया का कोई दूसरा किनारा नहीं है।