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31 अगस्त, 2010

विश्वग्राम में नंदीग्राम

रामाज्ञा शशिधर

नंदीग्राम डायरी कार्यकर्ता-पत्रकार पुष्पराज की प्रतिबद्ध पत्रकारिता की आंखिन देखी दैनंदिनी है। पचपन मर्मस्पर्शी शीर्षकों में बँटा 326 पृष्ठों का यह दस्तावेज 16 मार्च, 2007 से 10 मार्च, 2008 के बीच के समय खंड के मध्य पसरा हुआ है, जिस दौरान पत्रकार नंदीग्राम की तबाही, त्रासदी और प्रतिरोध की भीषण प्रक्रिया का गवाह रहा।
नंदीग्राम की संघर्षगाथा  









नंदीग्राम डायरी भारतीय पत्र्कारिता के सामने बाजार के दौर में सरोकार का, विज्ञापनी चलन के दौर में जन-आंदोलनी ल्ोखन का, पेज थ्री के समय में भूमिगत जोखिम का, सनसनाहट के समय खलबलाहट का, उत्त्ोजना की अवधि में आलोचना का, एनजीओ बाइट के समय में बिग फाइट का तथा सत्ताबद्धता के समय में प्रतिबद्धता का पुख्ता प्रमाण है। कई कारणों से यह किताब हिन्दी और भारतीय पत्र्ाकारिता का बदलाव बिन्दु है।
डायरी हमारे समय के अनेक अनसुलझे सवालों का हल ल्ोकर आती है। मसलन, नव साम्राज्य के दमन का सर्वाधिक प्रभाव किस वर्ग पर पड़ रहा है? नव साम्राज्य के पूंजीवादी जनतंत्र्ा में कम्युनिष्ट सत्ता का जनविरोधी और श्रमविरोधी चेहरा कैसा और क्यों है? क्यों वामपंथी सत्ता उतनी ही बर्बर, हिंसक और दमनकारी हो जाती है, जितनी पूंजीवादी-फासीवादी सत्ता होती है? किसान वर्ग का भविष्य क्या है? व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया के दौरान अस्मितावादी विमर्श और संघर्ष की सीमाएँ क्या हैं? भारतीय पूंजीवाद के भीतर कम्युनिष्ट सत्ता धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता का कैसा ख्ोल रचती है? जन प्रतिरोध में जनबुद्धिजीवियों की भूमिकाएँ कैसी होनी चाहिए? जन आंदोलन के तरीके और माध्यम कैसे निर्मित होते हैं? वर्ग विभाजित व्यवस्था में हिंसा, अहिंसा और प्रतिहिंसा को किस तरह परिभाषित करना चाहिए? पूंजीवाद के बागीचे में मीडिया झूठ का पेड़ कैसे है? वैकल्पिक बड़ी राजनीति और शक्तिशाली नेतृत्व के अभाव में राजसत्ता जनता की लोकतांत्र्ािक लड़ाई और आंदोलन को किस तरह बर्बरता और क्रूरता से कुचल देती है तथा भविष्य का जनांदोलन नंदीग्राम से क्या सीख सकता है?
sadhosarai.blogspot.com
पुष्पराज खोजी पत्र्ाकारिता से जुड़े रहे हैं तथा पत्र्ाकारिता के डेस्क की तकनीक, रणनीति, शक्ति और सीमा से मुक्त हैं। इसलिए यह किताब पत्र्ाकारिता के प्रचलित खांचों और सांचों से ऊपर उठकर एक ल्ोखक और कार्यकर्ता की रचनात्मकता से ज्यादा बावस्ता रखती है। हालांकि यह डायरी श्ौली में मुद्रित है ल्ोकिन इसकी संरचना में डायरी, रिपोर्ट, रिपोर्ताज और फीचर के घुलनशील रूप शामिल हैं। साथ ही कविता, गल्प और जनांदोलनी संवेदना का भी गहरा असर है। इसलिए यह किताब अपने अध्ययन और विश्ल्ोषण में पाठक से न केवल इन विधाओं की बारीक समझ की मांग करती है बल्कि कल्पनाशीलता, संवेदना और भाषाई रचनात्मकता से ल्ौस सहृदयता की अपेक्षा रखती है। यह संघर्षधर्मी यथार्थ की ऐसी नदी है जिसकी बाढ़ में धान, मिट्टी, पेड़, झोंपड़ियाँ, मानुष, जानवर, लाश्ों, कारतूस, पर्चे, बैनर, झंडे, गीत, अतीत, भविष्य, स्वप्न, भाषण, संवाद, चीख, खामोशी, मुखौटे और जूते सबकुछ बेतरतीब और धक्केकार ढंग से बह रहे हैं। यही कारण है कि भाषा कहीं चुस्त, कहीं ढीली, कहीं ठोस, कहीं गीली, कहीं क्रान्तिकारी, कहीं विभ्रमकारी, कहीं भावुक, कहीं कठोर, कहीं डूबती हुई, कहीं उतराती हुई दिखती है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि सारी क्रियाएँ और संज्ञाएँ त्र्ाासदी और संघर्ष के रंगों में पगी हैं।

डायरी बताती है कि नंदीग्राम क्या है? पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम प्रथम और द्वितीय तमलुक सब डिवीजन (जिला-पूर्वी मेदिनीपुर) के अंदर दो अलग-अलग ब्लॉक हैं। सेज परियोजना के तहत नंदीग्राम प्रथम की 19 हजार एकड़ भूमि पर बिना पुनर्वास व्यवस्था के, इंडोनेशिया की साल्ोम ग्रुप कंपनी द्वारा विशाल रासायननिक कारखाना के लिए, अधिग्रहण अभियान आरंभ हुआ। लगभग तीन लाख की आबादी वाल्ो नंदीग्राम क्ष्ोत्र्ा के किसान वर्ग के सीपीआईएम सांसद लक्ष्मण सेठ के नेतृत्व में अति उपजाऊ धरती के कब्जे की घोषणा के बाद सत्र्ाह पंचायतों की वाम जनता में खलबली मच गई। हजारों किसानों के जन प्रतिरोध का नतीजा यह हुआ कि 2007 की जनवरी, मार्च और नवंबर के तीन रक्तपातों में कुल 66 लोग मारे गए और 100 से ज्यादा स्त्र्ाियों के साथ बलात्कार ऑफ द रिकार्ड हुआ। सरकार ने किसानों को कभी साम्प्रदायिक तो कभी माओवादी बताया। महाश्वेता देवी ने 14 मार्च, 2007 की घटना की तुलना जालियांवाला बाग से की तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार ने नवंबर 2007 के इलाका दखल को गोधरा की उपमा दी। ल्ोकिन विश्वग्राम के दौर में नंदीग्राम की दास्तान इतनी इकहरी और सरल नहीं है। यह इक्कीसवीं सदी के पहल्ो दशक में नव साम्राज्य के नए विकास मॉडल के प्रयोजन और परिणाम का महाख्यान भी है। पेच बहुत गहरी और जटिल है।

डायरी बताती है कि नंदीग्राम के किसानों से उनकी मर्जी के खिलाफ सरकार ने भूमि उच्छेद (अधिग्रहण) की योजना बनाई। नंदीग्राम के किसान लघु एवं मझोल्ो काश्तकार हैं जिनकी जिंदगी और सांस इन्हीं बहुफसली व उर्वर ख्ोतों के सहारे चलती हैं। नव साम्राज्य की सेजनीति में केन्द्र सरकार से कहीं ज्यादा दिलचस्पी पश्चिम बंगाल की सीपीआईएम सरकार दिखा रही थी। ख्ोतों के कब्जियाने और नई जमींदारी व्यवस्था में किसानों को बेदखल करने की मुहिम के विश्वमुखिया अमरीका के साथ मार्क्सवाद में आस्था रखने वाली सत्ता बराबर की भूमिका अदा कर रही थी। सिंगूर और लालगढ़ से भी ज्यादा सत्ता का तीखा और दमनकारी रूप नंदीग्राम में उभरकर आया। नंदीग्राम के किसान मानते हैं कि जैसे तालाबों में पुनर्वास से मछली खत्म हो जाती है, वही हालत हमारी होगी। डायरी बताती है कि “2 से 4 बीघा औसत जमीन के जोतदार नंदीग्राम के इलाके में जितने खुशहाल हैं, यह खुशहाली एशिया का सबसे पहला किसान पैदा करने वाल्ो निमाड़ (नर्मदा घाटी क्ष्ोत्र्ा) या बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के गाँवों में कहाँ दिखती है।“

डायरी बोलती है कि नंदीग्राम में निर्मित भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति गैरराजनीतिक और व्यापक परिप्रेक्ष्य के साथ खड़ी हुई जिसमें अनेक राजनीतिक दलों के लोगों के अतिरिक्त आम किसान थ्ो। जब किसानों ने अहिंसा के रास्ते लोकतांत्र्ािक अधिकारों के लिए संगठित धरना, प्रदर्शन, मार्च शुरू किया तो सीपीआईएम को सत्ता के लिए यह अहं, अपमान और सत्ता को चुनौती दिया जाने वाला मुद्दा लगा। डायरी बताती है कि किसानों के संगठित अहिंसक संघर्ष को कुचलने के लिए सीपीआईएम ने अपनी हरमात वाहिनी (सशस्त्र्ा कैडर संगठन) और राज्य पुलिस का हिंसक आक्रमण आरंभ किया। हरमात वाहिनी ऐसी पार्टी सेना है जिसके पास एसएलआर, एके 47, 56, अत्याधुनिक बम और अन्य अस्त्र्ा-शस्त्र्ा के जखीरे बंगाल के गाँव-टोल्ो तक होते हैं। नंदीग्राम के किसानों ने बचाव एवं संघर्ष के लिए जन आन्दोलन के तरीके और माध्यम अपनाए। उन्होंने पेड़ काटकर सड़कें जाम कीं, पुलिया तोड़ डाली और राहों को काट दिया।

डायरी बताती है कि नंदीग्राम वह इलाका है जहाँ 1942 के आंदोलन में साम्राज्यवादी सत्ता के समानांतर दो साल तक जनता की अपनी सत्ता रही थी। 1946-47 में जमींदारों के विरुद्ध बटाईदारों का महान तेभागा आंदोलन चला था जिसकी जीत बटाईदार किसानों के पक्ष में थी। दोनों घटनाओं से नंदीग्राम ने क्रांतिकारी सीख ल्ोते हुए अनेक संगठन बनाए, लड़ाई के तरीके अपनाए। 1942 के आंदोलन में शहीद मातंगिनी हाजरा के नाम पर महिलाओं ने मातंगिनी हाजरा समिति का गठन किया। जनतांत्र्ािक और अहिंसक स्थानीय जन आन्दोलन को पूरी बर्बरता के साथ कुचला गया। शारीरिक-मानसिक दमन, बलात्कार, हत्याएँ, सशस्त्र्ा आक्रमण, लूटपाट, आगजनी अपने ही वोटर-किसानों के साथ लगभग ग्यारह महीने तक जारी रही। सत्ता और पार्टी के दमनकारी रूपों को चुनौती स्थानीय किसानों ने महीनों तक अहिंसक ढंग से दी, फिर हिंसा के खिलाफ छिटपुट प्रतिहिंसा की भी मदद ली। इस तरह हिंसा, अहिंसा और प्रतिहिंसा की नई संस्कृति रची गई।

डायरी बताती है कि जैसे ब्रिटिश साम्राज्य के दौर में 1942 और तेभागा किसान आन्दोलन के किसानों को पुलिस डायरी में अपराधी, गुंडे, बलवाई बताए जाते थ्ो उसी तरह इस बार आंदोलनकारी किसानों के लिए माओवादी, आतंकवादी, सांप्रदायिक अपराधी आदि शब्द दर्ज किए गए। डायरी बताती है कि हरमात वाहिनी के अपराधियों को शहीद और भूमि-उच्छेद प्रतिरोध समिति के शहीदों को अपराधी की संज्ञा दी गई। डायरी एक भयानक तथ्य को खोलती है कि भारतीय सेना में सूबेदार मेजर आदित्य बेरा एक दशक से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ल्ोकर ग्राम-समाज के बदलाव अभियान में लगे थ्ो। 10 नवम्बर, 2007 को 20 हजार से ज्यादा किसान-मजदूरों के शांति मिशिल जत्थ्ो पर हरमात वाहिनी की अंधाधुंध फायरिंग हुई। देशभक्त आदित्य बेरा की टांग में गोली लगी थी। वह तब से लापता है। डायरी का कहना है कि एक जनश्रुति के अनुसार वह जिंदा होगा, दूसरी जनश्रुति के मुताबिक ‘‘उनकी खोपड़ी को पहल्ो ईंट-पत्थर से चूर-चूर कर दिया गया, फिर गर्दन काट दी गई। क्या सच है कि उनकी लाश को ख्ोजूरी के एक पोखर में पेट चीर कर डुबो दिया गया?“ नंदीग्राम डायरी के समानांतर पुलिस डायरी में यह घटना हाशिए पर फेंक दी गई तथा नोटिस ल्ोने के लायक नहीं रह गई है।

डायरी अनुसंधान करती है कि साम्राज्य और सत्ता विरोधी जन आंदोलन ने जाति, धर्म, लिंग और दूसरी अनेक संकीर्णताओं की दीवारें ढाह दीं। नंदीग्राम की आधी आबादी मुसलमान किसानों की है। हिन्दू-मुस्लिम दोनों पूरे दौर में हमसफर रहे। गोरांगो पूजा (कृष्णपूजा) में मुसलमानों ने समान रूप से हिस्सा लिया और अनुष्ठान के दौरान हरमात वाहिनी की बंदूकें गरजने लगीं और गोलियों की बौछार से धर्मस्थल रक्तरंजित हो उठा। अनेक बार राजसत्ता ने सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की पर नाकाम रही। डायरी अनुसंधान करती है कि तसलीमा नसरीन के बंगाल-बदर अभियान में सत्ता का नंदीग्राम से ध्यान अलग हटाने का एजेंडा था। सीबीआई के इशारे पर मुट्ठी भर कलकतिया मुसलमानों के राजनीतिक ख्ोल से नंदीग्राम और तसलीमा दोनों को निशाने पर लिया गया।

डायरी शोध करती है कि ममता बनर्जी और तृणमूल की नंदीग्राम जन-आंदोलन में कोई भूमिका नहीं है, उसके बड़बोल्ोपन का कोई वैकल्पिक वैचारिक आधार नहीं है। नंदीग्राम आन्दोलन का माओवाद से कोई संबंध नहीं। केन्द्र सरकार की भूमिका राज्य सरकार के साथ सहयात्र्ाी की रही है।

डायरी स्पष्ट करती है कि नंदीग्राम किसान आंदोलन के दौरान बांग्ला शिल्पकारों और बुद्धिजीवियों की क्रांतिकारी भूमिका रही है। बांग्ला बुद्धिजीवी इस महाभारत में धृतराष्ट्र, दुर्योधन, दुःशासन, भीष्म और शकुनी की भूमिका में नहीं थ्ो। डायरी बताती है कि नंदीग्राम में महाश्वेता देवी, वरवर राव, मेधा पाटेकर सहित सैकड़ों शिल्पकार अपनी रचनात्मक उपस्थिति के साथ सक्रिय रहे, वहीं कलकत्ता की सड़कों पर बाँग्ला बुद्धिजीवियों की कतार इतनी लंबी और प्रतिरोधी थी कि पश्चिम बंगाल की सत्ता सिहर उठी। नंदीग्राम प्रतिवाद के लिए “फोरम ऑफ आर्टिस्ट, कल्चरल एक्टीविस्ट एंड इंटेल्ोक्चुअल्स’’ का बैनर खड़ा हो गया था। इतना ही नहीं फारवर्ड ब्लाक, सीबीआई, रेवेलूशनरी समाजवादी पार्टी आदि राजनीतिक दल के नेता भी कोलकाता की सड़कों पर सत्ता विरोध में आने लगे।

डायरी के विश्ल्ोषण से पता चलता है कि सत्ता वर्चस्व की हिंसा, बर्बरता, क्रूरता और जनद्रोही कार्यक्रम के प्रतिरोध में खड़े अस्मितावादी आंदोलनों की सीमाएँ हैं। अस्मितावादी आंदोलनों की हस्ती इतनी कम है कि वह शोषण के विराट आख्यान के विरुद्ध मुक्ति का महाख्यान नहीं रच सकते हैं। दूसरी ओर वर्ग संघर्ष बिना व्यापक राजनीतिक नेतृत्व के सफल नहीं हो सकता है। मेधा पाटेकर और आदित्य बेरा की सीमाओं को नंदीग्राम ने चिह्नित किया है। डायरी दर्ज करती है कि “लाल झंडा, लाल झंडे से टकरा रहा है। सरकार के हाथ में लाल, जनता के हाथ में लाल, असली कौन है?“ भविष्य में असली और नकली का फर्क तेज होगा, नंदीग्राम से सबसे बड़ी सीख यही मिलती है। नंदीग्राम डायरी से और भी अनेक सीख्ों मिलती हैं जिनका बोध डायरी से गुजरते हुए ही हो सकता है। सत्ता और जनता के बीच ज्यों-ज्यों मनुष्यता विरोधी खाइयाँ बढ़ेंगी, वर्चस्व और जनवर्चस्व का अभियान तीखा होता जाएगा। काल प्रवाह में वही पत्थर तैरेगा जो जनसमुद्र का हिमायती होगा।