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03 सितंबर, 2010

रिपोर्ताज

           मैला आंचल में जल प्रलय
                            रामाज्ञा शशिधर


२००८ की क़यामत बिहार के लिए, मेरे लिए कभी न भरनेवाला जख्म है. फिर फिर लौटने वाली जल-तबाही,  जन-त्रासदी और सत्ता-साजिश को शिनाख्त करने वाला  समयांतर सहित कई पत्रिकाओं में reprint यह रिपोर्ताज  फिर हाजिर है.

आजादी के ठीक बाद मैला आंचल के बावनदास पर भ्रष्टाचार से लदी पचास बैलगाढ़ियां चढ़ा दी जाती हैं। इस बार उसके एक हजार गांवों की एक करोड़ संतानों पर पूरी हिमालय गाड़ी ही दौड़ा दी जाती है। जल प्रलय से हजारों लोग अकाल काल के गाल में समा जाते हैं। लाखों जानवर, खेत खलिहान, दालान, मचान जल नृत्य के जबड़े में आ जाते हैं। भुक्खड़ों की सिर्फ टोलियां बचती हैं, न तो कोठार एवं बखार और न ही उनका मददगार नक्षत्र मलाकार। और तब! जब मैं काशी से कोसी यात्रा पर अपने छात्र निखिल के साथ निकलता हूँ...।

चैनलों और अखबारों में कोसी का मंजर कहर ढा रहा है। शहर बनारस अनक रूपों में प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर रहा है। शिक्षक, छात्र, लेखक, पत्रकार, व्यापारी, दूकानदार सभी अपनी-अपनी तरह से प्रकृति और सत्ता को कोस रहे हैं। सभी राहत कार्य में साझेदार हैं। बीएचयू के छात्र, शिक्षक रिलीफ फंड जमा कर रहे हैं। मुहल्ला अस्सी का राहत कोष जमा हो गया है। ड्राफ्ट बन चुका है। पप्पू की दूकान पर भाजपाई ताल ठोंक रहे हैं कि ड्राफ्ट भाया बिहार भाजपा राहत कोष मुख्यमंत्री राहत कोष में जाएगा। पोई के दूकान पर धर्मनिरपेक्षतावादियों के पसीने छूट रहे हैं। उनका धर्मनिरपेक्ष चंदा कम्युनल हो गया है। वे राहत की झप्पटामार कथा से आहत हैं। ... कोई चंदा चित्र में एक टांग देखकर प्रसन्न है कोई आधा ललाट। ... अतिसंवेदनशील और असहाय गुरुओं ने कलियुग लीला पर चुप्पी साध ली है।

मुगलसराय से ही बाढ़ पीड़ित परिवारों का हुजूम दिखने लगता है। तबाह एवं त्रस्त परिजन पुरजन का हालचाल लेने बिहारी भैया जालंधर, फरीदाबाद, सूरत, दादर से लौट रहे हैं। हरेक की आंखों में खौफ है, हृदय में हाहाकार है। गहरी उदासी और चौकन्नी चुप्पी से आप भांप लीजिए कि यह कोसी क्षेत्र का ही होगा।

रात के बारह बजे होंगे। बोगी के पिछले हिस्से से पुलिसिया गालियों की तेज धूल आ रही है ... तेरी मां का एफआईआर द्वारा बलात्कार करूंगा ...। हड़बड़ाकर उठता हूं। देखता हूँ। एक पैसेंजर एक बड़ी गठरी लेकर चढ़ा है, बिहार जा रहा है। रेल पुलिस उसे पीट रही है। उसने चढ़ावा नहीं दिया है। मेरे छात्रों ने जाकर हस्तक्षेप किया तब शांति बनी है। मेरी नसों में क्रुद्ध लहर दौड़ रही है। भारत मां का बेटा, भारत मां की पुलिस, भारत मां की रेल, भारत मां का बिहारी रेलमंत्री, फिर भी तेरी मां का एफआईआर द्वारा बलात्कार। एफआईआर और बलात्कार दोनों पर्याय। भारत मां रो रही होगी जार जार...।

मनीष ने बताया - गुरुजी जूते गायब हैं। निखिल ने थैला देखा - उसकी पर्स और एटीएम गायब। मैंने कुरते की जब को ऐसे पकड़ा जैसे किसी ने दिल निकाल लिया हो। दिल के तेज धक्के से रुपए धड़क रहे थे। मैंने दोनों को ऐसे ढाढ़स बंधाया जैसे सरकार बाढ़पीड़ितों के लिए करती है। बांध नहीं बंधाती, ढाढ़स बंधाती है।

रातभर नींद नहीं आ रही है। चौंककर बैठ जाता हूं। क्या यह बाढ़ पीड़ितों के लिए उफनती हुई बेचैनी है, जहरखुरानों, जेबकतरों, छिनैतों का डर है या ट्रेन पुलिस का आतंक? हावड़ा अमृतसर मेल ढाई बजे रात को पटना पहुंचती है। हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर, आज, राष्ट्रीय सहारा, सन्मार्ग सभी अखबार जल प्रलय की तस्वीरों, सुर्खियों, रिलीफ कार्यों एवं नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप से भरे हैं।

जंक्शन पर बाढ़ राहत शिविर के बैनर टंगे हैं जिसके आसपास रिलीफ वर्कर नहीं, पैसेंजर खलिहान की तरह एकत्र हैं। कोसी क्षेत्र से भागी हुई बाढ़ पीड़ितों की टोलियां विभिन्न प्लेटफार्मों पर ऐसे पसरी हुई हैं मानो डूबने वाले खेतों से छानी गईं धान की बालियां, केले के घौड़, मरी हुई मछलियां या मकई-ज्वार के चारे हों। मेहायी हुईं, धंगियाई हुईं। लुटी पिटी; ढही ढनमनाई हुई टोलियां। कहां जाना है? ... दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, सूरत, मुम्बई, पाकिस्तान, मुलतान, कब्रिस्तान ... कहीं भी। इस जहां के आगे जहां और भी हैं।

हम हाथिदह स्टेशन पर पांच बजे सुबह उतर गए हैं। यहां की गदरायी फेनियायी हुई गंगा मिथिला और मगध को बांटती है। गंगा का प्रचंड हमला ऐसा कि हाथी दह गया था। हाथीदह जीप स्टैण्ड में हम गठरी की तरह लाद दिए जाते हैं। गठरी-मोटे के साथ लदिए वरना भगिए। महेन्द्रा जीप पर अंगिका लोकगीत ... बीच बीच में लालू नीतीश का फिल्मी संवाद ....। जीप के भीतर, बाहर आगे, पीछे, ऊपर नीचे हर जगह पैसेंजर। शीशे के आगे बोनट पर भी। निकली हुई कीलों में टंगे हुए थैले - पंजाबी थैला, हरियाणी थैला, कलकतिया थैला, बंबइया थैला। खलासी जी टूटे नहीं, छूटे नहीं। कि हर थैला कलेजे से लगा लेने के काबिल है।

नेहरु युग के विकास प्रतीक राजेन्द्र पुल की जर्जर सड़क से गुजरते हुए गंगा की जटाएं अनंत तक लहराती दिखती हैं। गंगा के जबड़े में अंतिम सांसें खींचती हुई खरीफ की सिर्फ गर्दन एवं चुटिया ही बाहर हैं। दोधारी तलवार की तरह बेगूसराय की विशाल आबादी वाले आबाद खेतों को इसने काट दिया है। ... मां ने बताया थाकि जब तुम डेढ साल के थे तो गंगा की बाढ़ आंगन आकर समदन गाती थी। तुम द्वारे से पानी में कूद गए। डूब गए। ... किसी तरह बचाया हमने।

याद आते हैं विद्यापति - बड़ सुख सार पओल तुअ तीरे/ छाड़इत निकट नयन बहअ नीरे। ... गंगा किनारे राष्ट्रीय राजमार्ग पर दुखी बेरोजगार पीढ़ी फौज में भर्ती होने के लिए दौड़ अभ्यास कर रही है। आल इंडिया परमिट के ट्रकों की रफ्तार से रफ्तार मिला रही है। थर्मल का धुआं बंद, यूरिया कारखाने की जर्जर काया समाप्त, गढ़यारा यार्ड से काजू, नमक, कोयले का पलटैया खत्म। दोनों तरफ दीवारों-छप्परों पर सी कंपनी और मुन्ना बजरंगी जैसी फिल्मों के पोस्टर हैं। खलासी सुनसान में रोककर धमकाता है - पहले पैसा निकालोअह तब गाड़ी बढ़तै।

रास्ते में बीहट। बिहार का मास्को। कभी यहां लाल सेना बनती थी। दर्जन से अधिक शहीद। बिहार इप्टा का प्राण। राजनीतिक चेतना की क्रांतिकारी प्रयोगशाला। कॉमरेड चन्द्रशेखर चौक पर स्टील इंडिया कंपनी का तोरणद्वार। एम पी सूरजभान की तस्वीर। स्वास्थ्य शिविर का उद्घाटन इस्पात मंत्री करेंगे। सूरजभान उर्फ सूरज सिंह। आजीवन कारावास का सजायाफ्ता सांसद। दिनकर उर्फ सूरज उर्फ कामरेड सूर्यनारायण की धरती पर नया सूरज, दमकता हुआ। बिजली कारखाने से उड़ी हुई लाखों क्विंटल राख पर पूरब के क्षितिज को देखता हूं। सूबह का कोयलयाया हुआ सूरज उग रहा है।

रिलीफ रेल आने वाली है। चारों ओर भीड़ की बाढ़। चीख, चिक्कार, शोर, दहशत। टीटी नहीं, पुलिस नहीं, कुली नहीं। रह रहकर भोंपू बोलता है - रिलीफ रेल आ रही है। जो यात्री बाढ़ क्षेत्र से पश्चिम की ओर, पटना की ओर जाना चाहते हैं, बेटिकट यात्रा कर सकते हैं। पूछताछ काउंटर पर मैंने पूछा - और पूरब की ओर? ... रिलीफ रेल पूरब के लिए रात में आएगी। दूसरी ट्रेन से जाना है तो टिकट कटाइए। ... क्या बाढ़ पीड़ित और रिलीफ वर्कर रात तक इंतजार करेंगे? क्या एक ट्रेन में रेला अट पाएगा? ... एने ओने चढ़ने से फाइन तऊ लगवे करेगा?

प्लेटफार्म पर मदारी का खेल चल रहा है। मेरे साथ चित्रकार साथी सीताराम हो गए हैं। मैंने कहा - देखिए लोकतंत्र का खेला। जवाब - मदारी नेता है। तमाशबीन वोटर है। समय बेसमय पिटारी से कोसी का सांप निकाला जाता है। मनोरंजन जारी है। वोट दीजिए, पैसा दीजिए, रिलीफ लूटने दीजिए, बांध गटकने दीजिए, जान दीजिए ... पर खेल तो देखना ही पड़ेगा। मैंने देखता हूं, मटिहानी के पूर्व विधायक राजेन्द्र राजन आ रहे हैं। ...बाढ़ क्षेत्र चलिए। ...किसी काम से दिल्ली जा रहा हूं। ठीक से कुशलक्षेम भी नहीं कि ट्रेन आ जाती है। हम लोग दौड़कर बोगी की ओर भागते हैं। रेल चल पड़ती है।

समस्तीपुर सुपौल सवारीगाड़ी की बोगी में खचाखच भीड़। सभी बाढ़ पीड़ित। पीड़ितों का परिवार। सभी अपनी, अपने परिवार की, गांव की, जिले जवार की आत्मकथा बांच रहे हैं। हिम्मतपस्ती, किस्मतपस्ती की लकीरों से भरे हुए चेहरे। मानसी तक के सारे स्टेशनों पर राहत शिविर के बैनर। न रिलीफ वर्कर न पीड़ित। ... क्लबों, संगठनों, मंचों का प्रचार जारी है।

सूरदास जी भीड़ को चीरते हुए खंजड़ी बजा रहा है, भोले बाबा की नचारी सुना रहा है। पीड़ितों के बीच पीड़ित। भुक्खड़ों एवं भिखारी हो गए अपनों से भीख की उम्मीद। मैं सहयोग राशि देकर कहता हूं - भैया, बाढ़ पर कोई गीत है क्या? कोसी ने सब कुछ तबाह कर दिया और आप नचारी गा रहे हैं। ... बाबू ... दुख बढ़ाने से भीख नहीं मिलती, घटाने से मिलती है ... सबका हृदय भरा है। लीजिए आप लोग सुन लीजिए -

बारह तारीख कअ अमनी टुटलै/ तेरह अमरपुर बांध/ कतैक गैया भैंसी डुबलै/ कतैक गेले जान/
भारी बिपतिया परलै/ उत्तर बिहार में/ मरुआ डुबलै, खेरही डुबलै/ डुबलै मकई धान/
भाग कअ मारल किसनमा रोबै/  अब नै बचतै जान/ लुंगी पिन्हकै ससुरालि गेलिए/
बचावैल अपन जान/ सुसररियो में पानी घुसलै/ कोना बचतै जान/ जहाज चढिकै नेता अइलै/
देखै कोसी पानि/ पंखी टूटि पतैला में गिरिलै/ गिरलै खेतवा धान।

मरुआ डूब गया। खेरही डूब गई। मकई, केला, धान डूब गए। किसान तबाह हो गए। उनका नसीब खराब है। अब जान कैसे बचेगी। इतनी गरीबी कि टी शर्ट जिंस कहां से आए। सो वह पतलून पहनकर ही ससुराल चला गया। लेकिन बाढ़ ने तो उसे भी नष्ट कर दिया। गुस्सा चरम पर है। नेता जी रेल या नाव से हालचाल लेने नहीं आ रहे हैं। वे हेलीकाप्टर से हवाई सर्वेक्षण कर रहे हैं, तबाही का तांडव देख रहे हैं, बाईस्कोप से बर्बादी निहार रहे हैं। पत्रकार हेलीकाप्टर से फोटू ले रहे हैं, आकाश से कैमरा चल रहा है। छत छप्पर, बांस, बल्ली, कोरो मचान, लाश, घास, ,खटिया, बकरी, सबकी तस्वीर शूट हो रही है ... लांग शार्ट, मीडियम शार्ट, क्लोज अप, एक्सट्रीम क्लोज अप। चीख बिकेगी, हाहाकार बिकेगा, मौत बिकेगी, दहशत बिकेगी। साथ में नेता जी का बयान बिकेगा। ... इसीलिए पंखी टूटकर पाताल में गिर गई। धान के खेतों में बिखर गई। पंखी टूटने के कारण हेलीकाप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। ... संवेदना को बेचने वाले, नकली करुणा रखने वाले, लोकतंत्र के लोक से हवाई रिश्ता रखने वालों का तंत्र बर्बाद। ... कितना क्षोभ है इस गीत में। सूरदास गा रहा है ...

कहां तोहर जिला भैया/ कहां तोहर मकान/ कौन कुल के बालक छिकहो/
किए धरल छौ नाम/ खगरिया हमर जिला भैया/ भदास हमर मकान/
नाई कुल के बालक हम छी/ एल के हमर नाम/ भारी विपतिया परलै/ उत्तर बिहार में।

एल के जी अपना फूल फार्म बताइए। ... जी, लेलहू कुमार ठाकुर। भदास मेरा गांव है। खगड़िया जिले का हूं। अब सब लोग मुझे एल के ही कहते हैं। भदास गांव के लेलहू ठाकुर रेलगाड़ी में एल के हो गए हैं। वे अब न तो लेलहू यानी बताह यानी मतिमंद यानी मंदबुद्धि यानी गए गुजरे रहे और न ही पंचपनौनिया खौकार नाई। ... वे रेल पर सवार होकर एल के नाउ हो गए। नाउ भी हिन्दी वाला नहीं अंग्रेजी वाला। तबके लेहलू अब के एलके।

एलके उत्तेजित हो उठा है - कोसी मइया सब हिब रही है? हम भी हिब रहे हैं। नेताओं की करनी अच्छी नहीं है। ... तुम्हें कैसे दिखाई देती है लेलहू? ... सरकार, एल के कहिए, आप लोग रेल में भी गांव को नहीं छोड़ते हैं, हमारे हाथ में ही आंख है ... देना चाहिए पांच का सिक्का तो निकालेंगे अठन्नी, कुरते की जगह सुन्नी। अच्छा हम चलते हैं... लोटा देलै एक भोला, बेटा देलै चार...।

खगड़िया के बाद मधेपुरा सुपौल की ओर ट्रेन चलती नहीं है, रुक रुक कर स्थानीय यात्रियों का इतंजार करती है। बनारस की फटफट सेवा या दिल्ली की ब्लू लाइन से सौ गुना ज्यादा इंतजार करने में माहिर। करुआ मोड़, धमारा आदि स्टेशनों पर गाड़ी ऐसे रुकती है जैसे रेलवे विश्राम गृह के थके मांदे सफरी हो। दो मील दूर से दूध भरे केनों की कतार आ रही है ... ट्रेन में जितने यात्री उतने दूध भरे केन। करुआ मोड़ का पेड़ा, मिठाइयों में शेरा। यहां गार्ड की झंडे से गाड़ी नहीं चलती, पशुपालक किसानों के डंडे से चलती है। एक ने कहा - चलिए डराइवर जी, हो गया ... धन्यवाद।

ट्रेन चल रही है ... खरड़ खरड़ खराम खराम ...। यात्रियों में ठन गयी है, बाढ़ पर घमासान। मधेपुरा के ग्वालपारा प्रखंड का एक परिवार खगड़िया में एक रिश्तेदार के यहां था। अब दूसरे रिश्तेदार के यहां भागलपुर जा रहा है। एक मर्द, दो औरतें, तीन बच्चे। एक महिला से रोटी का कौर नहीं उठ रहा है ... फफाकर रोने लगती है। ... सास ससुर को घर में छोड़कर आए हैं। ... बकरी खूंटे में बंधी रह गई ... मंगलसूत्र कोठी में बंद था... मल्लाहों ने पैसे नहीं रहने पर जेवर ले लिये ... बूढ़े बूढ़ी बीमार थे ... पूरा गांव बह गया। ... अनाज भी डूब गया होगा ... बखार गल गया होगा... सुग्गा पिंजरे में था... खाना मिलता होगा या नहीं .... मोखे तक पानी आ गया था .... बूढ़ा बूढ़ी टस से मस नहीं हुए ... तुम लोग जाओ, सामान रख आओ... फिर आना .... आंगन से लाशें बह रही हैं... बच्चे, बूढ़े, जवान... हमारे घर की बगल से पांच लाशें हाथ पकड़े हुए बह रही थीं। फिर रोने लगती है।

महिला के ‘एजी’ बताते हैं कि जलकुंभियों, ईख के खेतों, केले के बागीचों, बांस के झुरमुटों में गुच्छ के गुच्छ लाशें फंसी हुई हैं। मधेपुरा और सुपौल के सैड़कों गांव नक्शे से गायब हैं। नदी ने गांवों को उखाड़कर पुरानी राह पकड़ ली है। मजबूरन मछली खाने से लोग बीमार हो रहे हैं।

कितना त्रासद है कि नदी को आदमी, आदमी को नदी, मछली को आदमी, आदमी को मछली - सभी एक दूसरे को खा रहे हैं। बीमार हुए जा रहे हैं। पूरा जनतंत्र सड़ी लाशों के ढेर पर है। लाशों का लंच, लाशों का डीनर, लाशों का ब्रेकफास्ट।

ऊपर की बर्थ से आवाज आ रही है कि जलदस्यु खाली घरों को लूट रहे हैं। जो मनमानी किराया नहीं देता बीच नदी में उसे उठाकर फेंक दिया जाता है। परिवार को छोड़कर लड़कियों को नाव पर बैठा लिया जाता है। उनका बलात्कार हो रहा है ... अंधेर है ... यह राज ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता। बगल की बर्थ बोलती है - मधेपुरा में गांव के बीच बांध काटने को लेकर लड़ाई ठन गई है ... डूब क्षेत्र वाले बांध काटना चाहते हैं, सुखाड़ वाले रोकना चाहते हैं .... गोली बारी चल रही है। लोग पानी, भूख और दवा से ही नहीं, गोली से भी मर रहे हैं। दूसरे वार्ड का कहना है कि यह कोसी का नहीं करप्सन का कहर है। ... मधेपुरा के डीएम फरार हैं, एक मंत्री को जनता ने खूब पीटा है। ... ठेकेदारों के बीच बांध मरम्मत में कमीशन एवं काम को लेकर संघर्ष है। नेता अफसर को मनमाना कमीशन नहीं मिल रहा है ... बांध टूटा नहीं तोड़ा गया है। जितने मुंह उतनी बातें। चारों ओर बातों का शोर ...। शोर के डब्बे में हम सब बंद हैं। यह देश शोर का एक डब्बा है जिसकी हम सब गूंजे हैं। अर्थ में बदलना अभी बाकी है।

हाटे बाजार सहरसा पहुंचने वाली है। जहां तहां रास्ते में हाट लगी है। जानवर बिक रहे हैं। गाय, भैंस, बछड़े, परुए, घोड़े, गदहे आदि। एक पीड़ित साथी बोलता है - हम लोगों ने बीस हजार का पशु दो हजार में बेच दिया। फेरहों के दिन लौट गए हैं। बख्तियारपुर पशु हाट में औने पौने दाम में गाय मिल रही है। चलिए, पशु डूबने से तो बचा। यात्रियों का मानना है पांच लाख से अधिक पशु डूबकर मर गए हैं। पचास हजार से ज्यादा लोग मरे हैं। घर का घर, गांव का गांव ...। गाड़ी सहरसा स्टेशन पहुंचती है। स्टेशन नहीं बाढ़ में उपलाए, दहे हुए लोगों का द्वीप। टापू पर दिन रात शरण लिए हुए।

स्टेशन मुख्य द्वार के बाहर दोनों ओर शिविरों की भरमार। लालू भोजन शिविर, रामविलास राहत शिविर, रामदेव स्वास्थ्य शिविर, किसान मजूर मोर्चा रिलीफ शिविर, माड़वाड़ी क्लब शिविर। अर्द्धनग्न, जर्जर, भूखे पीड़ितों की लंबी कतार...। पत्तल पर, कटोरे में, गिलास में, लोटे में छुरछुर खिचड़ी। खिचड़ी का पत्तल भोज। पत्रकारों, नेताओं के पदचापों, भाव भंगिमाओं की रिलीफ वर्करों द्वारा झटपट पहचान। रामदेव शिविर में बाल कंकाल को लिए मांओं की लंबी कतार। पचास ग्राम दूध चार बिस्कुल लिए हाथ भुक्खड़ों की ओर, चेहरे एवं आंखें कैमरे की ओर। खट खट ...। दैनिक जागरण...। ... स्ने...स्ने...। हिन्दुस्तान...। भूख और भीख का मर्मांतक चित्र पूरा देश देख रहा है।

हम लोग डीबी रोड के प्रमंडलीय खादी ग्रामोद्योग भंडार पहुंचते हैं। एक बड़े हाल में सामान पटक देते। लोकेन्द्र भारतीय से भेंट होती है। देश भर से हर मिनट फोन आ रहा है। .... मैं सहयोग करना चाह रहा हूं ... मेरे संगठन का रिलीफ जा रहा है ... एम्स के पांच डाक्टर पहुंच गए होंगे ... जेएनयू. से लड़के जा रहे हैं...। बाहर चिउरा गुड़, मोमबत्ती, दाल, चावल, सलाई आदि की पैकेजिंग चल रही है। खादी भंडार के साथ उसके जिलों के लोग एवं संगठन सक्रिय हैं। ... लोकेन्द्र पसीना पोछते हुए बताते हैं ... इसी कमरे में मेधा पाटेकर दीदी और पुष्पराज ठहरे हुए थे... फिर आने वाले हैं। आप कितने लोग हैं? पुष्पराज ने बताया था। ... यहीं ठहरिए।

हम लोग बाढ़ राहत शिविर का चक्कर देर रात तक लगा रहे हैं। स्थानीय लोग सहयोग के लिए तत्पर हैं। सहरसा शहर की आबादी एक लाख है। सुपौल मधेपुरा, अररिया के तीन लाख विस्थापित बाढ़ पीड़ित आ गए हैं। पहले दिन का नजारा गजब था। हर घर में आटा गुंध रहा है, रोटियां सिंक रही हैं, पीड़ित मेहमान बने हुए हैं। शहर के मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर, गुरुद्वारा, स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, मैदान, सड़क बाढ़ पीड़ितों से खचाखच हैं। जनता, छोटे संगठन और सेना के सहयोग की हर कोई तारीफ कर रहा है। दूसरी ओर सरकार एवं राजनीतिक पार्टियों के नजारे उतने ही अटपटे, बेढ़ब, फूहड़ और विवादित हैं।

यह है महादलित राहत शिविर। भारत सरकार के इस्पात मंत्रालय का पैसा है। सामग्री है। लेकिन लोजपा के झंडे और डंडे का बोलबाला है। सीताराम जी कौतूहलवश पूछते हैं कि बाढ़ पीड़ित कहां हैं? ... अभी घूमने गए हैं.... भोजन के वक्त दिन और रात में आ जाते हैं... दस हजार की भीड़ होती है ... दाल देखिए, भात देखिए, सब्जी जरा चिख लीजिए ... मंत्री जी ने पांच अधिकारियों को गड़बड सामान खरीदने के कारण सस्पेंड कर दिया है...। बिहार के साथ केन्द्र में हमेशा सौतला व्यवहार किया ...। डैम ने हमें बर्बाद कर दिया। सुपौल से कटिहार तक हजारों एकड़ जमीन में रिसाव का पानी जमा होने से कोई फसल नहीं होती है। ... मलेरिया, कालाजार की उपज रिसाव जल ही है... यहां का मीठा जल बेचकर मालामाल हुआ जा सकता है ... हमारी सरकार आएगी तो हम बांध भी बनाएंगे और पानी भी बेचेंगे।

... और यह है सेवाभारती राहत शिविर। यह संघ परिवार का शिविर है। उच्च विद्यालय का प्रांगण। चार हजार बाढ़ पीड़ितों से भरा परिवेश। शाम का वक्त! मैं बाढ़ पीड़ित कमरों की ओर बढ़ना चाहता हूं। कुछ निक्करधारी मुझे घेर लेते हैं - कहां से आप आए हैं? उधर कहां जा रहा हैं? क्या बात है? ... मैं किसी ज्यादा तबाह पीड़ित से बातचीत करना चाहता हूं। निक्करधारी मुझे एक मोटे ताजे कुर्ता धोती धारी बुजुर्ग के पास ले जाते हैं। इनसे मिलिए...। ये हमारे नेता हैं...। मैं दंग, अवाक्। क्या सबसे ज्यादा पीड़ित इस शिवर में ये सज्जन ही हैं?

स्वयंसेवक जी शुरू हो जाते हैं। फर्राटेदार हिन्दी के बीच संस्कृत की छौंक। बीच-बीच में कनखी ऐसे मारते हैं जैसे हमसे प्यार हो गया हो। ... बाढ़ पीड़ितों का यह सबसे पुराना शिविर है। ... यहां हिन्दू भी हैं, मुसलमान भी हैं। ... मीडिया से हम दूर रहते हैं। हमें सेवा में विश्वास है। हर पार्टी वाला पैसा मंत्रालय से ला रहा है लेकिन चुनाव प्रचार अपना कर रहा है। हम इस बात के विरोधी हैं... यहाँ रोजा इफ्तार सब जारी है। दो मुसलमान औरतों को बच्चे हुए हैं। इंडिया टुडे ने फोटो मांगा है। पांचजन्य में खबर आ रही है। ... देखिए, इस तरह मत बोलिए... आप भी पत्रकार हैं क्या.... चेहरा मोहरा तो ऐसा ही लग रहा है। ... देखिए इधर, भारत माता की पूजा हो रही है, फिल्म चल रही है। बाढ़ पीड़ित थक गए हैं। मनोरंजन जरूरी है।

हम लोग नजारे निहारते हैं। भारत माता की विशाल तस्वीर का संध्या वंदन चल रहा है। बाढ़ पीड़ितों ने पैंतीस रुपए से आरती ली है। ... नेता जी कल मोतीचूर का दाना खरीद कर लाएंगे। ... विद्यापति पर फिल्म चल रही है ... धार्मिक गीत हो रहे हैं...।

निखिल नेता जी पर प्रश्न दागता है कि बिहार में आपकी सरकार है। आप क्या कर रहे हैं? जवाब है ... हमारा सहयोग है लेकिन पूरी सरकार नहीं। ... हमारे बाढ़ पीड़ित असली हैं ... लोजपा वालों के नकली हैं। उनके पास बाढ़ पीड़ित नहीं जा रहे हैं। केवल भोजन के समय लोग मिलेंगे ... वे खास समुदाय के लोग हैं जो आस-पास के गांवों से ज्योनार करने आते हैं। ... मीडिया वाले भी बिके हुए हैं।

चारों ओर घोर चर्चा है कि मंत्री, सांसद, विधायक रिलीफ फंड के नाम पर चुनाव फंड जमा कर रहे हैं। अगली रबी के वक्त उन्हें तीसरी फसल काटनी है। चुनाव की फसल। चर्चा यह भी है कि जनता ही नहीं रहेगी तो वोट डालेगा कौन?

पार्टियों के राजनीतिक शिविरों में मेन्यु पर बहस चल रही है। बाढ़ पीड़ितों का स्वाद बदलने के लिए, लुभाने के लिए खिचड़ी के साथ पापड़ आचार; भात दाल के साथ मिक्स सब्जी; कचौरी के साथ आलूदम। मेन्यु कार्ड बनाम वोट कार्ड का खेल चरम पर है। लोकतंत्र भूख और भीख की गली से गुजर कर विकसित भारत बना रहा है।

सैकड़ों गांव बिहार के नक्शे से गायब हो गए। सोनवर्षा राज की सहसौल पंचायत बची हुई है। वह पानी में बसती है, पानी खाती है, पानी पीती है, पानी पर सोती है, पानी से मरती है। पानी वहां अनंत आकाश बना रहा है। हम सहरसा खादी ग्रामोद्योग भंडार से एक दर्जन रिलीफ वर्करों, डाक्टरों एवं रिलीफ सामग्री के साथ पचास किलोमीटर दूर मधेपुरा की ओर यात्रा शुरू करते हैं।

दोनों ओर डूबे हुए गांव। राष्ट्रीय राजमार्ग पर दो फीट पानी दौड़ रहा है, कूद रहा है, उछल रहा है। जीप ड्राइवर हिम्मती है। गाड़ी चलती नहीं रेंगती है, कभी धारा से धकियायी जाने लगती है। सोनवर्षा प्रखंड का कार्यालय जलमग्न है। बी.डी.ओ. साहब छत पर बैठकर कार्यालय चला रहे हैं। घपले के कागजात सबसे पहले गलते हैं, दूसरी फाइलें बाद में। दोनों ओर फूस के घर। बांस का टाट जैसे चरखाने वाली साड़ियां हों। धारा में चौकी लगाकर कपड़ा धोबन कार्य चल रहा है। बच्चे वंशी से मछली मार रहे हैं।

यह मैनापुल घाट है। जेनरेटर से चलने वाली सरकारी नाव पर लगभग सौ लोग सवार। बीस रिलीफ वर्कर यानी बाढ़ पीड़ित। सभी घर लौट रहे हैं। जलदस्यु का डर सता रहा है। नाव पर पुरुष, औरत, बच्चा, गठरी, साइकिल, छाता, लाठी, बकरी सब लद गए हैं। सुरसा नदी की छाती चीरकर दस किलोमीटर जाना है।

प्रचंड धूप। दशरथ मंडल के बिना क्लिप के एक छाते के नीचे सात गर्दनें। क्लिप के बदले माचिस की तीली लग गई है। छाता तन गया है। बगल में एक मास्टर झा जी हैं। घर लौट रहे हैं। पत्नी साथ में। पान लगा रही है। कत्था डाल रही है। पनबट्टी सजाती है। पान घुलाते हुए छाता हथियाने पर उनकी नजर है। ... सरकार खिचड़ी बांट रही है और इसे राइस जूस बोल रही है। क्या कीजिएगा। लाश, मूस, मवेशी, मछली, सांप सब साथ चल रहे हैं...। ... देखिए, सुरसरि नदी है, काली कोसी के मिलने से पानी काला हो गया है। कोयले की तरह। ... हम लोग ससुराल में थे। ... मछली लेकर गांव जा रहे हैं। रोहू है। एक सौ बीस रुपए सेर। सिनेमा वाले सिनेमा बनाए तो खूब चलेगा। ... सुना है हीरो सब भी मुबई में रिलीफ जुटा रहे हैं। रिलीफ नाम की फिल्म बन जाएगी। ... जैसे चुनाव नाम की फिल्म दिखने वाली है। ... धीरे धीरे छाता की छांव झा जी के सर पर है और डंडा दशरथ मण्डल की मुट्ठियों में। ...सर, आप इधर घसक जाइए।

दोनों ओर गांव के गले तक पानी है। एक हरे पेड़ के ऊपर खंभा बंधा है। उस खंभे पर से कोयल जल विस्तार को चुपचाप निहार रही है। हनुमान मंदिर के डंडे डूब गए हैं। सिर्फ लाल झंडे दिख रहे हैं। एक मचान पर बकरी कुत्ता आदमी बैठे हैं। ... एक नाव पर महिलाएं चूल्हा सुलगा रही हैं। बंद जीप का आधा हिस्सा उगा हुआ है। ... नाव चल रही है। रह रहकर सूंस उलटती है। ... यहाँ पानी बहुत गहरा है। बादल के पीले उपले टुकड़े नदी में बोल्डर की तरह दिख रहे हैं।

एकाएक नाव बंद हो जाती है। ... घर की टक्कर से पीछे भागने लगती है ... हिलिए मत! उठिए मत! डूब जाइएगा। ... सबका चेहरा फक्क! मोबाइल से एक नाव दूसरी नाव से बतियाती है। ... बेरिंग टूट गई है। लंगर गिर रहा है। लौटती नाव सट रही है। सीताराम जी सुझाते हैं कि गमछे को लाइफ सेवर बनाया जा सकता है। हाथ पांव की उंगलियों में गमछी के चारों कोने फंसाकर पानी पर चित्त सो जाइए, नहीं डूबिएगा। ... नाव चालू हो गई।

नाव पानी पर दौड़ रही है। ... धार के विरुद्ध दौड़ रही है। नाव की बगल से नदी ढेर सारे सौगात लिये सफर पर है। जलकुंभियों के टुकड़े हाथियों की तरह दुलकते हुए ऐसे जा रहे हैं जैसे सोनवर्षा राज के जमींदार की विदाई हो। कौए, मैना, बगुले की लाशें बह रही हैं। ... सांप धार के साथ भागा जा रहा है। ... गाय, भैंस, कुत्ते, बिल्लियों के साथ आदमी की लाशें भी गंगा की ओर मोक्ष पाने दौड़ लगा रही हैं।

दूर थाह वाले रास्ते से भैंस पर चढ़कर किसान जा रहे हैं। कुछ लोग घोड़े खींचते हुए, कुछ गाय बैल की नाध पकड़े हुए पानी की थाह ले रहे हैं। सभी यात्रा पर हैं। जीवित भी मृत भी। किसान डोंगी से कमर से ऊपर ज्वार छपट रहे हैं। वरुण के बेटे मछलियों का जाल फैला रहे हैं। कुछ कृषक ऊंचे खेत में डूबे धान के सर पर से भासकर आई जलकुंभियां हटा रहे हैं। अस्तित्व बचाने की यह आखिरी लड़ाई है।

हम सहदौल पंचायत के घाट पर हैं। हजारों कंकालों का जुजूम। अर्द्ध नग्न बच्चे, बूढ़े, जवान। बाढ़ के आए पन्द्रह दिन हो गए। यहां आज से पहले कोई रिलीफ टीम नहीं आई है। यह महादलित पंचायत है। दलित मुखिया, दलित सरपंच। फिर भी राहत कार्य नहीं। अभी अभी चिऊरा गुड़ लेकर एक नाव आई थी। लूट ली गई। दबंगों की दबंगई के कारण रिलीफ कार्य दंगे में बदल गया। गंदे पानी में डूबा कुछ बचा चिउरा खाना पड़ रहा है। लोगों को पता है डाक्टर दवाइयां लेकर आ रहे हैं।

भूदानी बाबू सच्चिदानन्द सिंह का दरवाजा ही डूब से बचा है। स्वास्थ्य शिविर खुल गया है। झोला छाप डाक्टरों ने चौकी पर दवाइयां बिछा दी हैं। हजार से ऊपर रोगी हैं। महिलाएं और बच्चे ज्यादा। डायरिया, बुखार, मलेरिया, कालाजार। सबसे बड़ा रोग भूख है। कुपोषण। चिपके हुए टायर की तरह बेढंगी जर्जर काया।

मैं आवाक् कि दस गांवों में बी.एच.यू. से आए डाक्टर के रूप में पहले से प्रचारित हूं। एक क्वैक संचालन करते हैं... सबसे पहले बी.एच.यू. से आए डाक्टर साहब हमें कुछ बताएंगे। मैं कान में सटकर फुसफुसाता हूं। मैं डाक्टर नहीं हूं, वहां शिक्षक हूं। ... जी सर, मैं जानता हूं... वहां डाक्टर बनाने वाले डाक्टर होते हैं ... वे सिर्फ पढ़ाते हैं... । मैं हैरान। प्रतिष्ठा, अस्तित्व सब दांव पर। ... अभी उन्हें उत्साह, हिम्मत जैसे मनोविज्ञान की जरूरत है ... भाइयो बहनों! ... आप लोग पानी पर ध्यान दीजिए .... उबाल कर पीजिए... नब्बे फीसदी रोग गंदे पानी के कारण होते हैं ...। बासी खाना मत खाए ...। कपड़े साफ रखिए। ... मैं यह क्या बकबका रहा हूं ... कहां से आएगा साफ पानी? लकड़ियां, माचिस, रोटी, सब्जी, सर्फ, साबुन, कपड़े ये सब कहां से आएंगे? छात्र निखिल कंपाउंडर की भूमिका में है। क्वैक पर्चा बनाने लगे हैं, दवा बंटने लगी है।

अब सांस लौटी। बगल में शोर हुआ... पड़ोस के गांव में हेलीकाप्टर पानी में माचिस, मोमबत्ती, ब्रेड फेंक रहा है ... कई लोग लूटने के चक्कर में डूब रहे हैं ... बड़ा अनर्थ है .... सब हवा से आ रहा है। मेरे भीतर घमासान हो रहा है -
जो तुम्हें अन्न देते हैं / वे स्वाद नहीं देंगे/
जो नारे देते हैं/ वे गीत नहीं देंगे/ जो गोलियां देते हैं/
वे हथेलियां नहीं देंगे/ माचिस देने वाले लकड़ियां नहीं देते/
जो मोमबत्तियां दे रहे हैं/ वे नहीं देंगे तुम्हें रोशनी।

आजादी के 61साल बाद भी सहसौल अंधेरे में है। कोसी क्षेत्र अंधेरे में है। बिहार अंधेरे में है। देश की तरह। पुराने जमींदार एवं भूदानी बाबू सच्चिदानन्द सिंह स्वतंत्रता संग्राम के दौर के प्रतीक हैं। उम्र 81 वर्ष। फिर भी चेहरे में चमक और वाणी में खनक खूब है। गांव में लडडू जी के नाम से मशहूर। 1942 के योद्धा। सहसौल और कोसी के मैला आंचल का इतिहास मेघ की तरह झरने लगता है...।

“इलाके का पहला मलेरिया सेंटर मेरे गांव में 1934 में खुला। मेरी जमीन पर। बंगाली डाक्टर होते थे। खूब चलता था। सेवानिवृत्ति के बाद वे आते थे। खूब आनंद भी उठाते थे। दूध, दही, माछ मिलता था। आज अस्पताल बंद है। जमीन अनुपयोगी हो गई है।”

”1943 में मैं मधेपुरा के सिरीज इंस्टीट्यूट में पढ़ता था। दस टोमी लड़कों ने हमें कहा कि रेलगाड़ी की पटरी पर बैलगाड़ी दौड़ाओ। हम कैसे दौड़ाते? वे हमें परेशान करते थे। ... टोमी का अर्थ समझते हैं आप? ... कुंवारी मां से जन्मा बच्चा। .... अंग्रेजों को कहा जाता था।“

”1942 में अंग्रेज टोमियों की गांव पर चढ़ाई की बात हुई। तांत्रिक जी ने कहा गांव के चारों ओर सरसों छींट देंगे, टोमी नहीं आएंगे। वे आते थे, कोठी तोड़कर खेरी, सावां, धान सब मिला देते थे। चूल्हे पर झाड़ा-पेशाब कर देते थे।“

”मैं 1960 में विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़ा। पैदल यात्रा, साहित्यि बिक्री, बैठक, सभा सब कुछ किया। ... जो सोचा था, आजादी के बाद वैसा कुछ नहीं हुआ। अब तो संभव ही नही है। अंग्रेजों के कुत्ते बिस्कुट चबाते थे। हमारे बच्चे भूख से बिलबिलाते थे। आज भी वही हालत है। इस गांव में आज तक अलकतरा नहीं आया है। ... पुलिस बाढ़ पीड़ित का बलात्कार कर रही है ... बापू कहते थे कि सारे वालेंटियर को पुलिस सेवा में भेज दो और सारी पुलिस को वालेंटियर बना दो।“

पंचायत के सारे टोले - लालगंज, देवदत, गरेड़ीटोल, बिचला टोल, तिनधारा, पन्नापुर, सुरहभीता, बांकी भीता, बुच्चा टोल, कुमरगंज, मुकरर्री जल की मार से जख्मी हैं। पन्नापुर मुसहरों का टोला है। बिल्कुल नदी के कंधे पर बैठा हुआ। फिर भी शांत, चुप, खामोश। सामुदायिक भवन में ताश चल रहा है। कोई फर्क नहीं। ... उन्हें पता है कि जिंदगी जैसे कट रही है वैसे ही कटेगी। कहीं से रोशनी की उम्मीद नहीं। बिना रोशनी के रहने की पुरानी आदत है। ... पूछने पर बताते हैं ... हर साल बाढ़ आती है। ... दीना भरदी की कृपा से पंजाब हरियाणा जिंदाबाद! ... यहां कोई काम ही नहीं है।... इस साल रबी भी नहीं होगी। हम लोग जीवितया पर्व के बाद निकल जाएंगे। ... मेहरारू, बच्चे यहीं रहेंगे। ... मालिक के मोबाइल से पांच रुपए देकर वह बात कर लेती है। .... डाकघर भले दह गया ... पोस्टमेन चिट्ठी ही नहीं देता है घर पर ...। ... हमारे यहां कोई नहीं पढ़ता है ... जब चिट्ठी ही नहीं मिलेगी तो पढ़ने से क्या फायदा?

69 आर्मी रेजिमेंट के आखिरी बोट पर लाइफ सेवर पहनकर हम लौट रहे हैं। स्वास्थ्य शिविर अभी लगातार दिन रात काम करेगा। ढलते सूरज की रोशनी से नदी का जिस्म खूनी रंग का हो गया है। नदी में चांद ऐसा लग रहा है जैसे किसी सद्यःजात शिशु का पीलियाग्रस्त चेहरा हो।

रात के अंधेरे में राजमार्ग पर पानी को काटती हुई मोटर सौर प्रखंड के सिलेट गांव के राहत शिविर की ओर भाग रही है। गाड़ी में टेप डेक बजाना मना है। लोग इतने दुखी हैं कि गीत बजाने पर ड्राइवर को पीट देते हैं, गालियां बकने लगते हैं।

सिलेट के शिविर में तीन शिशुओं ने जन्म लिया है। नाम रखे गए हैं, बाढ़पीडित, बालपीड़ित, कोसी। दर्जनों शिविरों में हजारों गर्भवती मांएं तबाह दुनिया को नए सृजन से भरने के लिए यातना सह रही है। क्या इस क्षेत्र की पूरी नई पीढ़ी त्रासदी और दहशत के ऐसे ही नाम प्रतीकों से बनेगी... कोसी, बाढ़पीड़ित, जल प्रलय, कहर, तबाही, महाविनाश, कटान, धसान, तटबंध, राहत शिविर, मेगा शिविर, पुनर्वास आदि।

हम लोग अंधेरे को चीरते खाद्यी ग्रामोद्योग की ओर जा रहे हैं। बीच सड़क पर एक अर्द्ध नग्न बूढ़ी हाथ थाम लेती है - ‘ऐं यौ, इ जे बैनर कअ दूकान में दिन रात बैनर लिखाय रहलै हन। हम सब बैनरै खाइके जीवै।’ फिर वह सीधे पश्चिम की ओर बढ़ जाती है। .... मेरे भीतर यह गूंज बार बार उठ रही है ... “सुनिए! बैनर दूकान में दिन रात बैनर लिखे जा रहे हैं। क्या मैं बैनर खाकर ही जिंदा रहूंगी?”

क्या एक लोकतंत्र सिर्फ बैनर, झंडे और डंडे खाकर जिंदा रह सकता है? इसका जवाब बाढ़ शिशु कोसी और बाढ़पीड़ित देने की स्थिति में नहीं हैं।

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                                    होरी का भविष्य
                          रामाज्ञा शशिधर


जेनयू और समयांतर से निकलकर बनारस आने पर ऐसा लगा कि इंडिया की आँखों से भारत नहीं,भारत की आँखों से भारत को देखना ज्यादा जरूरी है. प्रेमचंद के घर में मरते हुए लाखों होरिओं की अंतर्कथा से से महरूम बुद्धिजीवियों की लापरवाही और यथास्थितिवाद ने मुझे हिला दिया. परिणामतः यह रिपोर्ताज. पंकज  बिष्ट का समयांतर में न केवल इसे छापना, न सिर्फ आत्महत्या करते किसान-बुनकरों को गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता सम्मान की एक लाख राशि राहत-रोजगार के लिए देना बल्कि बनारस और सारनाथ पहुंचकर जनबुद्धिजीवी की सच्ची भूमिका निभाना एक सार्थक कदम था. होरिओं,गोबरों,धनियायों,मतीनों,घिसूओं,बुधियाओं की आत्महत्या व सत्ता प्रायोजित हत्या जारी है इसलिए यह रिपोर्ताज भी प्रासंगिक है.इसे रिप्रिंट करनेवाली पत्रकारिता के हम आभारी हैं.


9 अगस्त 2006।
छाही का काश्तकार छोटेलाल होरी की तरह महतो नहीं, यादव था। था, मतलब अब इस संसार मेें नहीं है। और कुछ खाने पीने को जब नहीं बचा तो करो या मरो की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपनी धनिया को छोड़कर पूरे परिवार के साथ कीटनाशक घोल पी आत्महत्या कर ली। सिर्फ साल भर पहले यहां इसी तरह एक और किसान परिवार ने सामूहिक खुदकुशी की थी। छाही के साथ पूरा पूर्वांचल मौत के मुहाने पर है।

दैनिक हिन्दुस्तान के पूर्वांचली संस्करण में अगस्त 1942 की उपलब्धियों पर अंग्रेज कलक्टर नेबलेट का
धारावाहिक छप रहा है। पुरबिया किसानों ने किस बहादुरी से फिरंगियों के छक्के छुड़ा दिए तथा गांधी टोपी की लाज रख ली। मंगल पांडेय बलिया के बहादुर किसान पुत्र थे, वारेन हेस्टिंग्स को बनारसी गुंडों ने पानी पिला दिया, सैकडों किसानों को ब्रिटिश फौज ने नीम के पेड़ों से झुला दिया था, अकाल सामा्रज्यवादियों की सौगात था-आदि मुहावरों से पचर्,े अखबार, चाय-पान दूकान भरे पड़े हैं।

अस्सी का स्टेटमेंट है-यादव के राज में यादव की मौत। कोला का एजेंट, किसान का हितैषी है। दादरी और ददुआ मुलायम के लिए दोनों कामधेनु हैं। अमरसिंह के राजनीति में आने का ही कमाल है कि मुलायम की पहली च्वाइस ज्योति बसु से विपासा बसु हो गई है। मनमोहन मिनिस्टर नहीं मार्केटर हैं। पूर्वांचल आज यूपी का विदर्भ है, कल तेलांगना होगा। समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई।
15 अगस्त 2006।
ही पंचायत की ओर बढ़ते हुए बनारस से सारनाथ के बीच स्वाधीनता के साठवें साल में प्रवेश का उछाह पूरी धूमधाम से दिख रहा था। कटी हुई रंग बिरंगी फन्नियों, प्लास्टिक, रेशम और काटन के झंडो,ं फूलों पत्तियों से सजे सरकारी गैरसरकारी संस्थानों पर उपकार का गीत मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती ऐसे फब रहा था मानो बनारसी साड़ी पर सोने के बेल बूटे मढे हों। आसमान में पूरब से आते छिटपुट सूखे बादल के टुकडे़ ऐसी मुद्राओं में मौजूद थे जैसे परेड करते स्कूली बच्चों, सलामी देती फौज, बूट की सामूहिक धमक या फिर नीलगायों से बचने के लिए भागते हुए धनखेतों के सैकड़ांे टुकड़े हों।

फिर फिर गोदान
छाही लमही से लगभग पांच मील दूर बेलारी जैसा गांव है। छोटेलाल होरी से चार साल छोटा। दुर्गा भवानी पांच हजार आबादी वाले छाही के आठ पुरों में से एक पुर है जिसमें पांच सौ लोग रहते हैैंं। घर एवं पुर के लोग छोटेलाल को प्यार से छोटू कहते थे। होरी की तरह ही हंसोड़, दूसरेां के दुख दर्द में सहयोगी, तमाम परेशानियांे के बावजूद खुशमिजाज। हीरा और शोभा की तरह छोटू के भी दो भाई थे। पहले संयुक्त परिवार बाद में एकल। नारायण यादव पहले साधु हो गए, फिर शादी की, अब घर के सम्मुख दुर्गा भवानी का मंदिर बनाकर गृहस्थ संन्यासी का जीवन जी रहे हैं। किसी बरगद से ज्यादा सघन एवं तेजस्वी जटाएं। सिरी यादव भी खेती से उबकर्र इंट-गारे की मजूरी में लग गए हैं। छोटू के होरी की तरह तीन बच्चे थे। होरी के बैल की तरह एक परिया है जिसे बनारस से अधिया यानी बटाई पर लाया गया था। छोटू को होरी की तरह पांच बीघे जमीन थी। खेती के बर्बाद होते जाने, बैंकों, महाजनों और बीमारी के व्यूह में फंसकर तीन बीघे निकल गए।

होरी और छोटू की मौत या आत्महत्या या हत्या की प्रक्र्रिया, दिशा और परिणति में बहुत मामूली अंतर है। होरी किसानी से टूटकर मजदूर बना। छोटू आधा होरी, आधा गोबर एक साथ था। दोपहर तक वह अपने खेतों में सपरिवार किसानी करता था और शाम से 10 बजे रात तक बनारस जाकर पावरलूम मंे बिनकारी का काम करता था। बाद में बनारसी साड़ी के लिए बिटाई का काम करने लगा। चार साल से उसे गठिया होने के कारण एलोपैथ से लेकर नीम हकीमों तक ने चूस लिया।

मरजाद की चपेट में छोटेलाल भी आया। बड़े भाई नारायण भगत सहित मित्रों परिजनों से यह झिड़की मिलती थी कि तीन बीघे खेत बेच डाले और आज तक वह एक कमरे की पुश्तैनी मि़ट्टी की झोपड़ी मंें है। वह झोपड़ी भी कब धंस जाए पता नहीं। छोटेलाल सूदखोरों के चंगुल में पहले ही थे, एक बार फिर मरजाद की फिक्र कर पचास हजार रुपए बनारस के कबीर चौरा स्थित भूमि विकास बैंक से ले लिया। तीन कमरों का मकान अधूरा रह गया क्यांेकि बैंक और कर्जदार के बीच बिचौलियों की अंतहीन जेबें थीं।पटिया और गार्टर का कर्ज सिर पर ऊपर से हो आया। इस तरह सरकारी एवं गैरसरकारी महाजनों के मूल-सूद के पहाड़ के नीचे वह दबता चला गया।

छोटेलाल किसान था, इसलिए कायर और काहिल नहीं था। उसने खेती में कई जोखिम उठाए जो उसकी मौत में सहायक बने। पिछली बार उसने पालक की फसल लगाई। सारनाथ और पांडेयपुर मंडी के होते हुए भी पालक दो रुपए पसेरी भाव छू पाया। मजबूर परिया को घास के तौर पर खिलाना पड़ा। अपने परिवार को भूख से उबारने के लिए इस खरीफ में छोटेलाल ने बैगन की खेती एक बीघे में की। मानसून की दगाबाजी, आठ महीने से टांªसफर्मर जला रहने के कारण बंद बोरिंग, शारदा सहायक नहर के जलहीन पेट ने भंटा बैगन के खेत को झुलसाना शुरु किया। छोटेलाल की किसान बुद्धि ने सोचा था कि बाटी चोखा के शौकीन पुरबिया बाजार इस बार उसे थोड़ा उबाड़ लेंगे। जब छोटेलाल के लिए भंटा के पौधों पर महंगे कीटनाशकों के कई छिड़काव करने का पैसा नहीं रहा तो उसने पहले पांच हजार का महाजन से कर्ज लिया, फिर एक बीघे वाले दूसरे खेत की मिट्टी बेचनी शुरु की। शहर की कालोनी भरने के लिए यहां 20रु ट्रैक्टर मिट्टी बिकती है। छोटेलाल का खेत कलेजे काढ़ लिए गए खरगोश की लाश की तरह आज भी पड़ा है जिससे दो हजार रुपए की मिट्टी काट ली गई।

कई दिनों की फाकाकशी के बाद छोटेलाल मौत से एक दिन पहले ईंट गारा का काम करने बनारस शहर गया। जर्जर कमजोर ठठरी,, कई दिनों की भूख, चिलचिलाती सावनी धूप और्र इंट गारा ढोने की आदत नहीं होने के कारण काम के वक्त ही वह मूर्च्छित हो गिर पड़ा। होरी ऐसी हालत में लू से मर गया था जबकि छोटेलाल ने दूसरी सुबह सोच विचारकर सामूहिक खुदकुशी को चुना।

छोटेलाल ने भंटा में देनेवाले कीटनाशक खुद पीकर फिर तीनांे बच्चों को जबरन क्यों पिलाया ? इस बावत सवाल करने पर उसके पुराने लंगोटिया मित्र उमाशंकर यादव कहते हैं-यह असंभव घटना लगती हैैै। वह ऐसी माटी का था कि यह सोच भी नहीं सकता था। सुबह मेरे पास चाय और खैनी लेकर घर आया और घर बंदकर जबरन अपने बच्चों कौशल्या (12),तुसली (8),एवं दयालु(4) को जहर पिला दिया। शायद उसे आगे कोई रास्ता नहीं दिख रहा था।

किसान छोटेलाल की सपरिवार आत्महत्या से जुड़े कई सवाल हमें परेशान करते रहे। क्या होरी की तरह वह साहसी नहीं था ? क्या होरी लू से बच जाता तो आत्महत्या करता ? क्या महाजन और बैंक के आतंक से छोटू दो बीघा काश्त बेचकर उबड़ नहीं सकता था ? क्या उसे यह डर था कि इस खेत के बिकने के बाद उसे अपनी बेटी कौशल्या को होरी की तरह रामसेवक महतो जैसे अधेड़ के हाथों बेचना पडे़गा ? क्या धनिया की तरह अपनी पत्नी के साहसी होने के कारण उसे खुदकुशी में शामिल नहीं किया ?

साधु काका नारायण भगत ने जिस बच्चे का नाम तुलसीदास रखा था, वह जहर खाकर भी बच गया। शायद तुलसीदास के मरने का समय अभी नहीं आया है। लेकिन दो सबसे बड़े सवाल हैं जो ढूंढ़ने अभी बाकी हैं। पहला, यह आत्महत्या थी, मौत थी या सŸाा एवं व्यवस्था द्वारा निर्मित परिस्थितिजन्य हत्या थी ? दूसरा, किसान छोटेलाल द्वारा की गई आत्महत्या के मात्र इतने छोटे और सरल कारण हैं ? हमें इन प्रश्नों की व्यापकता, जटिलता और गहराई में उतरना चाहिए।

महाजनी सभ्यता का नया दौर
छाही के दुर्गा भवानी पुर में ही पिछले साल जयचंद नामक किसान ने कर्ज और भूख से तंग आकर गर्भवती पत्नी और बच्चे सहित खुदकुशी कर ली थी। अगस्त महीने की तीन तारीख को बनारस जिले के एक किसान ने ऊबकर धोती से फांसी लगा ली। सात तारीख को एक और किसान ने आत्महत्या कर ली। अंतहीन सिलसिले की फेहरिस्त में तेईस को बलिया के एक किसान ने परिवार के चार सदस्यों सहित खुदकुशी कर ली। पूर्वांचल के जिलों में ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब भूख से मौत या आत्महत्या नहीं होती है। इसमें उन शहरी बुनकरों की विराट मौतंे शामिल नहीं हैं जिनके भविष्य का कोई खेवनहार नहीं हैै। पिछले पांच सालों में पूर्वांचल में भूख से पांच सौ अधिक मौत हुई हैं जिनकी एक चौथाई आत्महत्या की है। बगल के बंुदेलखंड में चार साल में हुई 600 आत्महत्या का यहां कोई जिक्र नहीं है।

छोटेलाल छाही का यादव था। उस पंचायत में चालीस फीसदी आबादी यादव काश्तकारों की है। दूसरे नम्बर पर कोयरी काश्तकार हैं। पंचायत की पचास फीसदी आबादी 2 बीघे से कम जोतदारों की है। इसका मतलब यह हुआ कि बाकी तीस फीसदी भूमिहीन मजदूरों के अतिरिक्त पचास फीसदी काश्तकार भी मजदूर ही हैं। पंचायत प्रधान गीता देवी यादव के पास सर्वाधिक काश्त जमीन 15 बीघे हैं। प्रधानी और खेती पति संभालते हैं जो नौकरी पेशे में हैं। पंचायत प्रधान के पति महोदय का मानना है कि नौकरी की कमाई भी खेत खा जाता है। पंचायत के काश्तकार एवं भूमिहीन मजदूर बनारस शहर की मंडियों में रोज श्रम बेचने जाते हैं। पंचायत की सारी खेती मजदूरी के पैसे से जिंदा है। दलित स्त्री मजदूर खेतों में काम करती हैं जिन्हंे न्यूनतम मजदूरी 30 से 40 रु से संतोष मिल जाता है।

केवल छोटेलाल के मुहल्ले से सौ से अधिक साइकिलें बनारस शहर की नाटी इमली, बड़ी बाजार ,चौकाघाट, छिŸानपुरा, लल्लापुरा, चानमारी आदि जगहों पर पावरलूम चलाने जाती हैं। मुहल्ले के सरयू यादव बताते हैं कि शहर में चार से पांच घंटे ही बिजली रह पाती है। परिणामतः दो दिनों की मेहनत से एक साड़ी बनती जिसकी मजदूरी पचास रुपए मिलती है। छाही पंचायत के चिरई प्रखंड और बनारस मुख्यालय से सटे प्रखंडों के बुनकरों की रोजाना कमाई पचीस रुपए है। किसान बुनकरों की रोज की कमाई का अधिकांश अगर उसके खेत के टुकडे़ निगल जाएं तो आप कल्पना कर सकते हैं कि उनके परिवार भोजन के नाम पर क्या खाते पीते हांेगे। पूर्वांचल के अन्य जिलों से सटे प्रखंडों के मजदूरांे की हालत और ज्यादा त्रासद है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया के बाद पूरा बिनकारी उद्योग ध्वस्त हो चुका है जिसका विवेचन यहां संभव नहीं है।

छाही पंचायत की तरह पूरे चिरई प्रखंड के किसान महाजनों और सरकारी बैकों की पूरी गिरफ्त में आ चुके हैं। दरअसल सूदखोरी यहां एकमात्र फलने फूलने वाला उद्योग या व्यापार है। सूदखोरी एक ऐसी नेटवर्क्रिंग है जिसके वेव से पूर्वांचल का कोई घर, कोई किसान, अलग नहीं रह सकता है।

बनारस के कबीर चौरा स्थित भूमि विकास बैैंक इस पंचायत का इकलौता कर्जदाता बैंक है जो यहां से
दस किलोमीटर दूर है। छोटेलाल पर भी इसी बैंक का पचास हजार मूल है। बैंक और पंचायत के बीच की दूरी ही बिचौलियों, सूदखोरों, दलालों के लिए चारागाह तैयार करती है। अनपढ़,़ अल्पसाक्षर, जटिल सरकारी नियमतंत्र से अनभिज्ञ किसानों के लिए बैंक के मैनेजर तक पहुंचना स्वर्ग के राजा तक पहुंचने जैसा है। कृषि, कृषि रोजगार एवं पशुपालन के नाम पर मिलने वाले कर्ज का मतलब है कि सूदखोर हर हाल में किसान के खेतों पर गिद्ध झपट्टा लगा सके।

भूमि विकास बैंक दरअसल इस इलाके के लिए भूमि विनाश बैंक साबित हुआ है। पंचायत के किसानों की एक स्वर से मांग है कि दो किलोमीटर की दूरी पर मौजूद काशी ग्रामीण बैंक को उनका कर्जदाता बैंक बनाया जाए। ऐसा संभव नहीं है। तब किसानों से लिया जानेवाला कमीशन कम हो जाएगा। पूरे पूर्वांचल की बैंकिंग संरचना कमोवेश ऐसी ही है।
खेत अब किसानों की नहीं, सूदखोरों एवं बैंकों की अघोषित स्थाई संपŸिा है। इस इलाके में और पूरे पूर्वांचल में सूदखोरों ने अपने अनुभव से इस धंधे के प्रसार और टिकाऊपन की रूपरेखा बना ली है। यहां औसतन एक सौ बीस प्रतिशत सालाना ब्याज पर किसानों को कर्ज मिलता है अर्थात एक सौ रुपए के बदले साल भर में दो सौ बीस रुपए वापस करना होगा। किसान अकसर बीमारी, मरनी, शादी विवाह एवं मंदी के सीजन में सूदखोरों से कर्ज लेते हैं। कुछ वर्षांे बाद ब्याज की मोटी रकम होने पर सूदखोर जमीन गिरवी रखवाकर किसानों को बैंक से कर्ज लेने में मदद करते हैं। दोतरफा सूद से त्रस्त किसानों पर बैंकांे द्वारा माइक कराकर पुलिस-अमीन के माध्यम से जमीन जब्ती की धमकी दी जाती है। अंततः किसानों को जमीन के टुकड़े औने पौने भाव बेचने पड़ते हैं। लेकिन इससे उन्हंे मुक्ति नहीं मिल पाती। यह प्रक्रिया चक्रा्रकार और चक्रवृ़िद्ध के तौर पर पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है।

छाही पंचायत में पांच हजार किसान हैं जिनमें एक सौ सदस्यों को सहकारी बैंकों से कर्ज मिला है। दरअसल यूपी में सहकारी बैंक व्यवस्था इतनी ध्वस्त है कि पिछले साल पचास फीसदी सूद में छूट की घोषणा के बावजूद वह पूर्ण गतिशील नहीं हो सकी है। सरकार की किसान विरोधी चेतना का पता इस बात से लग सकता है कि छाही पंचायत में अधिकांश किसान दो एकड़ से कम जोत के हैं। इसलिए सहकारी बैंक की राजनीति है कि दो एकड़ से कम रकबा वाले किसानों को कर्ज नहीं दिया जाए।

किसानों द्वारा खेत जल्दी बेचने, मोटे सूद पर कर्ज उठाने या आत्महत्या कर लेने के लिए सबसे सरल उपाय यह है कि तहसील अमीन, दारोगा एवं मैनेजर द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर पूरा गांव घुमाया जाए ताकि उनकी इज्जत-आबरू की मड़िया हो सके। महाजनी तंत्र मड़िया करने में माहिर और सफल है तथा किसान आत्महत्या करने में।

ए मौला तू पानी दे उर्फ सूखे की राजनीति
छाही और पूर्वांंचल के किसानों के दो नकली दुश्मन हैं-मानसून और सूखा। इनके दो असली दुश्मन हैं-सरकार और महाजन। सरकार, मीडिया और महाजनी ताकतों ने हमारा सारा ध्यान मानसून की तरफ पूरी राजनीति के साथ मोड़ दिया है। इन जटिलाताओं की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी हुई है।

धान का कटोरा और पूरब का पंजाब माने जाने वाले इस इलाके के मानसून, बादल और धान पर साठ के दशक में चकिया के कवि केदारनाथ सिंह ने धानों का गीत और बादल ओ जैसी मर्मस्पर्शी कविताएं लिखीं जिनमें मानसून ही धान के मुक्तिदाता हैं। सोनभद्र के युवा कवि श्रीप्रकाश शुक्ल की हड़पड़ौली कविता है जो मानसून की अगवानी के लिए सदियों से आजतक अर्द्धरा़ि़त्र में नग्न होकर हल चलानेवाली स्त्रियों के समाज की त्रासद कथा कहती है। बस्ती के कवि अष्टभुजा शुक्ल की कविताएं पुरबिया किसानों के सतरंगे दुखों से रंगी हैं।

मानसून के लिए स्त्रियों का नग्न होकर इंद्र के सामने भोग के लिए प्रस्तुत होना, तेंतीस कोटि देवताओं की यज्ञाहुति देना, पूजा-पाठ, गीतनाद, जुलूस, धरना, प्रदर्शन सहज बातें हैं। जुलूस निकालने वाली किसान कतारों का एक कातर गीत है- काल कलौटी, उज्जर राटी/ ए मौला तू पानी दे/ भूखे बैल,प्यासी बकरी/ ए मौला तू पानी दे। चार सालों के सूखा-अभियान के बाद इस बार इन्द्र ने जुलाई में डेरा डाला, फिर तंबू उखाड़कर चले गए।

छाही पंचायत के खेतों में दरारें हैं, धान के बच्चे आसमान को निहारते हुए असमय दम तोड़ रहे हैं। पंचायत की नहर, कुएं, बोरिंग में कहीं पानी नहीं है। ग्रामीण वेदी यादव बताते हैं कि हमारी हालत छोटू से अच्छी नहीं है। यही हालत रही तो पूरे गांव को बहुत जल्दी खुदकुशी करनी पड़ेगी।

सरकारी तंत्र छाही में पूरी तरह ध्वस्त,गैरजवाबदेह और भ्रष्ट है। किसानों का कहना है कि नहर अधिकारी पानी का गेट खोलते ही नहीं हैं। नहर विभाग के तहसील अधिकारी घूमते रहते हैं तथा दो फीट बरसाती पानी से किसी ने दस डलिया खेत में डाल दिया तो सिंचाई कर लग जाता है। पूरी पंचायत में मात्र एक सरकारी बोंिरंग है जो 1970 के आसपास लगी थी। सिंचाई विभाग से सेवानिवृत किसान राजदेव यादव का कहना है कि एक बोरिंग की सिंचाई का कमांड एरिया सौ एकड़ होता है लेकिन व्याहारिक तौर पर वह पचीस एकड़ पटवन ही कर पाता है। छाही पंचायत मंे हजार एकड़ से ज्यादा जमीन है। बोरिंग भी इन दिनों इसलिए बंद है कि लंबे समय बाद जब जला टांसफर्मर बदला गया तब मोटर तक बिजली ले जाने वाले केबल तार की किल्लत हो गई।

प्राइवेट बोरिंग नाम मात्र के हैं जिनके पास दोहरे संकट हैं-बिजली मात्र चार पांच घंटे मिलना और नहर में पानी नहीं आने से जलस्तर का नीचे भाग जाना। छोटूलाल की आत्महत्या किसानों के लिए शुभ हुई कि गांव में जिलाधिकारी आए। परिणामतः महीनों से जले टाªंसफर्मर को बदला गया। ट्रांसफर्मर बदलने के लिए बिजली विभाग द्वारा मांगी जा रही घूस तो बच गई मगर अब किसान से केबल तार जोड़ने के लिए घूस मांगी जा रही है। मतलब कि बोरिंग बंद है। पंचायत में पचास कुएं हैं जो सूखे पड़े हैं। बनारस जिले को पिछले साल नौ करोड़ रुपए तालाब खुदाई के लिए मिले ताकि बरसाती जलसंग्रह से इलाके का जलस्तर ऊपर बना रहे। किसानों का कहना है कि जरूरी जमीन रहते हुए वह तालाब पंचायत तक नहीं पहुंचा है। डीजल महंगा होने से पम्पसेट चलाना बहुत मुश्किल है।

किसान ज्यादा पानी पीनेवाले बौनी मंसूरी और सरयू-52 से बचते हुए कम पानी की जरूरत वाले पंथ -चार किस्में लगाते हैं लेकिन यह कोई सामाधान नहीं है। धान की किस्में भूख से लड़ने मंे अक्षम हैं। शारदा सहायक नहर के खाली पेट में दो तीन फीट बरसाती पानी है जो सेर दो सेर मछलियां बच्चों के झोले में रोज डाल देता है। बारह साल के अनिल मोची ने बंसी मे नन्हीं पोठिया फंसाते हुए कहा कि जब पानी ज्यादा रहे तो नहर में टेंगरा, वामा, चिहलवा, रोहू, पैना, चिनगा सहरी, झिंगवा ,डिंडा ,लपचा आदि मछलियां खूब आती हैं। हमलोग बेचकर सौ पचास कमा लेते हैं। हम मछली ले जाएंगे तो मां को सब्जी नहीं खरीदनी पडे़गी।

नहर में सालों भर पानी रहे तो इलाके की आधी समस्या खत्म हो जाएगी। दरअसल केन, टांेस, मगई जैसी बरसाती नदियों के बदले गंगा, सरयू, घाघरा, गोमती से नहरों का जाल निकालकर बिछा दिया जाए तो एक ओर सिंचाई और पेयजल का संकट दूर हो जाएगा वहीं महाजन और चुनावी दलों का धंधा चौपट हो जाएगा। धंधा जारी रहे इसलिए नहर में पानी का मंदा रहना जरूरी है।

सूखे की राजनीति से सरकार और महाजन दोनों खुशहाल हैं। सरकारी बोरिंग आवंटित नहीं करने का तर्क है कि पूर्वांचल में जलस्तर तेजी से गिर रहा है। सिंचाई का पानी निकालने से दस साल बाद यहां की आबादी के सामने पेयजल संकट पैदा हो जाएगा। मानसून नहीं है तो नदी सूखी है, नदी के कारण नहर सूखी है, नहर के कारण जलस्तर गिर गया है, जलस्तर गिरने से कुएं बोरिंग सूखे हैं, इस कारण खेत सूखा है और किसान भूखे हैं। किसानों की भूख महाजनों, बैंकों के लिए लूट और शोषण की औजार है, राजनीति के लिए चुनावी हथकंडा है।

इन दिनों पूर्वांंचल में सूखा सत्ता  के लिए सबसे मालदार फसल है।

लोकतंत्र का चौथा शेर
छाही को छोड़ते हुए हम जब सारनाथ की तरफ बढ़ रहे थे तो गांव के निकट बाजार में पांच सौ का नोट रेजगारी के लिए निकला। परेशानी, तनाव और दवाब से घिरी हालत में देखता क्या हूं कि नोट से अशोक स्तम्भ का चौथा शेर गायब है। मुझे लगा कि शायद सारनाथ के अशोक स्तम्भ में वह सलामत मिले। हम सब सारनाथ के पुरातत्व म्यूजियम आए। झिलमिलाती आंखों ने वहां भी चौथा शेर नहीं देखा। हालांकि लोकतंत्र के तीनों शेर अभी विश्राम की मुद्रा में अघाए हुए पगुरा रहे थे ।

बनारस की तरफ भागते हुए हम इस नतीजे पर पहंुच चुके हैं कि अंिहंसा और समता की विशाल बुद्धर्मूिर्त की नाक के नीचे से गायब चौथा शेर पूर्वांचल के गांवों कस्बों में बेफिक्र दहाड़ता हुआ रोज शिकार कर रहा है। वह ंिहंसक शेर मानसून की आंखों में, नहरों के पेट में, महाजनों, सूदाखोरों की चेतना में, सŸाा और राजनीति की आत्मा में, कारगिल के बीजों में, बैंकों के लॉकरों में, सरकारी तंत्र की फाइलों में प्रवेशकर चुका है जिसकी हिंसा का आखेट छोटेलाल जैसे किसान, छाही जैसे गांव, बनारस जैसे जनपद पूर्वांचल जैसा इलाका, उŸार प्रदेश जैसे प्रांत और पूरे लोकतंत्र के हाशिए के अदृश्य समाज हो रहे हैं।

बुद्ध  के ज्ञान और धर्म को मौर्य के सुशासक अशोक ने चार शेरों में ढालकर विजय स्तम्भ बनाया था। चारों शेर बुद्ध के ज्ञान और धर्म को चतुर्दिक दिशाओं में फैलाने वाले जाग्रत चेतना, जाग्रत शक्ति के विराट प्रतीक हैं। चारों शेर बुद्ध के चार आर्य सत्यों-दुख है, दुख का कारण है, दुख का निवारण संभव है, दुख निवारण के उपाय हैं-के समर्थ नियंता थे। चौथा शेर के लापता होने का मतलब बुद्ध के चौथे आर्य सत्य का अपहरण होना है। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह शेर हम बुद्धिजीवियों के नजरिए और कलम में आकर चुपचाप बैठा है। अगर नहीं तो हमें बताना होगा कि होरी का भविष्य क्या है।