रामाज्ञा शशिधर की कविता
रेडियो ने जब गुनगुनाया
'रघुपति राघव राजाराम'
राजा का रथ कूच कर चुका का था
राजधानी से पूरब दिशा की ओर
देश की गलियों में रची जा रही थी अयोध्या
अयोध्या के भीतर रचा जा रहा था दुःख
दुःख के भीतर घृणा
घृणा के भीतर कई अयोध्याएं
रेडियो ने दुहराया जब
'पतितपावन सीताराम'
राजा आदेश दे चुका था
सीताओं के साथ
पतितपावनी सभा
खुलेआम करे रसविलास
अयोध्या में दुःख भोग रही थी सीता
लंका में दुःख भोग रही थी वह
एक दुःख अग्नि से मिला था एक लोकरीति से
एक दुःख पृथ्वी के ऊपर
एक पृथ्वी के भीतर
इस तरह वह दुःख भोग रही थी
एक रावण के हाथ
एक राम के साथ
रेडियो ने जब बांचा
'अल्ला ईश्वर तेरे नाम'
वहां राजा के नाम से बड़ा
न अल्ला था न ईश्वर
अल्लाह की जगह विराजमान था राजा
ईश्वर की जगह विराजमान था वह
आस्था की जगह वही था
अनास्था की जगह विराजमान था वही
बहुत विवेकसम्मत पंक्ति थी भजन की
'सबको सम्मति दे भगवान्'
राजा का फरमान था
उसकी सम्मति से पूरी सभा
सरयू में धो ले खून सने हाथ
पदोन्नति के लिए पधारे अवध दरबार
सरयू के जमने में किसी की
सम्मति नहीं ली गयी
सरयू के सूखने में भी नहीं
न सरयू के सरयू नहीं रहने में
इस तरह रेडियो पर सुनता हुआ भजन
एक देश झूम रहा था
एक देश जल रहा था
एक देश बस रहा था
एक देश रहा ही नहीं था देश
यह भारत माता है या सीता ? सबसे बड़े लोकतंत्र से निष्काषित हुसैन की कला |
'रघुपति राघव राजाराम'
राजा का रथ कूच कर चुका का था
राजधानी से पूरब दिशा की ओर
देश की गलियों में रची जा रही थी अयोध्या
अयोध्या के भीतर रचा जा रहा था दुःख
दुःख के भीतर घृणा
घृणा के भीतर कई अयोध्याएं
रेडियो ने दुहराया जब
'पतितपावन सीताराम'
राजा आदेश दे चुका था
सीताओं के साथ
पतितपावनी सभा
खुलेआम करे रसविलास
अयोध्या में दुःख भोग रही थी सीता
लंका में दुःख भोग रही थी वह
एक दुःख अग्नि से मिला था एक लोकरीति से
एक दुःख पृथ्वी के ऊपर
एक पृथ्वी के भीतर
इस तरह वह दुःख भोग रही थी
एक रावण के हाथ
एक राम के साथ
रेडियो ने जब बांचा
'अल्ला ईश्वर तेरे नाम'
वहां राजा के नाम से बड़ा
न अल्ला था न ईश्वर
अल्लाह की जगह विराजमान था राजा
ईश्वर की जगह विराजमान था वह
आस्था की जगह वही था
अनास्था की जगह विराजमान था वही
बहुत विवेकसम्मत पंक्ति थी भजन की
'सबको सम्मति दे भगवान्'
राजा का फरमान था
उसकी सम्मति से पूरी सभा
सरयू में धो ले खून सने हाथ
पदोन्नति के लिए पधारे अवध दरबार
सरयू के जमने में किसी की
सम्मति नहीं ली गयी
सरयू के सूखने में भी नहीं
न सरयू के सरयू नहीं रहने में
इस तरह रेडियो पर सुनता हुआ भजन
एक देश झूम रहा था
एक देश जल रहा था
एक देश बस रहा था
एक देश रहा ही नहीं था देश
4 टिप्पणियां:
बहुत खूब, लाजबाब !
ayodhya masale par aapki rai tonahin hai yahan?
maja aa gaya,sahaji ke dware par kavita de. ese sune bahut din ho gaye.aapne ek bada kam jimme liya hai,subhkamnaye.
कविता पतित पावन की थाप शुरू होती है लेकिन ये जहां जहां से गुजरती है अपने पदचाप नहीं छोड़ती.., तमाचा मारती है.., धर्म के दलालों के गाल पर..., हर उस आम आदमी के ख्याल पर जो बह जाते हैं या आ जाते हैं कुछ मुट्ठी भर मूढ़ टंडुओं के बहकावे में.........बेहद उम्दा कविता है शशिधर जी।
एक टिप्पणी भेजें