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30 मार्च, 2014

क्या बनारस में जसम,जलेस और प्रलेस के लेखक मोदी मार्ग को आसान कर रहे हैं?

 पाठक मित्रो! बुद्ध,कबीर,प्रेमचंद और बिस्मिल्लाह खान का बनारस इन दिनों सियासी जंग का उग्र मैदान हो गया है.जिन घाटों और गलियों में लोग शांति और मस्ती की खोज करते थे वहाँ बाहरी और इलाकाई युवा हिंदू वाहिनी,राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ,विश्व हिंदू परिषद्,बजरंग दल,शिवसेना और एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने लिखित-वाचिक अफवाह और झूठ के साथ डेरा डाल दिया है. उधर गुजरात और दिल्ली से बड़ी संख्या में मोदीमार्गी टीम आ रही है जो अनेक रूपों में समाज में घुसपैठ कर भ्रम फैला रही है.'हर हर मोदी घर मोदी ' और 'या मोदी सर्वभूतेषू राष्ट्ररूपेण संस्थिताः' के आक्रामक संदेशों से काशी के बहुमिश्रित जन मन और जनपक्षीय नागरिकों के भीतर खौफ का बीज डाला जा रहा है.ऐसे में काशीनाथ सिंह के १७ मार्च को बीबीसी में छपे मोदी समर्थक बयान ने उस सवाल को और गहरा दिया जो  समयांतर,मार्च में प्रकाशित हुआ है.जन संस्कृति मंच,जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ का शानदार सांस्कृतिक इतिहास है लेकिन फासीवाद के उभरते इस कठिन दौर में उनकी चुप्पी भी उतनी ही चिंतनीय है.मेरे जैसे सरोकारी और निःसहाय सोचने विचारने वाले नागरिक के पास आपसे अपील करने के अतिरिक्त क्या है.क्या यह देश के बुद्धिजीवियों,लेखकों,अदीबों,कलाकारों,संस्कृतिकर्मियों की सामूहिक जिम्मेदारी नहीं है कि बनारस और भारत की सेकुलर-लोकतांत्रिक रूह की हिफाजत करें.आपसे उम्मीद है. मोदी आंधी से पूर्व समयांतर मार्च में छपी यह रिपोर्ट हिटलर के समर्थक पुरोहित,बाद में फासिज्म के विरोधी,जेल बंदी मार्टिन नीमोलर की आत्मस्वीकृति के साथ पोस्ट कर रहा हूँ ताकि इतिहास हमारी भूमिका का हिसाब रख सके.-माडरेटर 


पहले वो आए
साम्यवादियों के लिए
और मैं चुप रहा 
क्योंकि
मैं साम्यवादी नहीं था 

फिर वो आए
मजदूर संघियों के लिए
और मैं चुप रहा 
क्योंकि
मैं मजदूर संघी नहीं था 

फिर वो
यहूदियों के लिए आए
और मैं चुप रहा 
क्योंकि
मैं यहूदी नहीं था 

फिर
वो आए मेरे लिए
और तब तक
बोलने के लिए
 कोई बचा ही नहीं था

‘काशी में उत्सव और श्मशान की कोई विचारधारा नहीं होती है’.काशी के वाम लेखक संगठनों को देखकर तो ऐसा लगता है कि साहित्य भी इन दिनों विचारधारा से मुक्त और अवसरधारा से युक्त खुला खेल फर्रुखाबादी हो गया है. यूपी में मुलायम और मोदी के दम दिखाने के पहले ही वाम लेखक संगठनों ने हिंदुत्व के गर्भगृह काशी में ‘नमो नमो’ की अपनी आहुति डालनी आरंभ कर दी है.
इसका एक शानदार उदाहरण पिछले दिनों विद्याश्री न्यास के मंच से धर्मसंघ शिक्षा मंडल, वाराणसी में घटित हुआ जहाँ धर्म संघ की लारी के नीचे वाम लेखक संघ की नैनो स्वेच्छया घुस गई.
जसम,जलेस और प्रलेस के अधिकारियों और सदस्यों ने हेडगेवार,गोविंदाचार्य,उमा भारती की कर्मभूमि,मुरली मनोहर जोशी की वोटभूमि,योगी आदित्यनाथ की दंगाभूमि और मोदी की भविष्यभूमि की एक मजबूत सांस्कृतिक कड़ी भाजपा सांसद स्व. विद्यानिवास मिश्र की स्मृति में उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक दशक से लगातार गतिशील वार्षिक आयोजन यात्रा के इस बार के तीन दिवसीय राष्ट्रीय लेखक शिविर(12-14 जनवरी) में इतना बढ़ चढकर प्रदर्शन किया कि साहित्यिक सामाजिक रंगरेजों को भी लाल और भगवा रंग में फर्क करना मुशिकल हो गया.इस आयोजन में प्रलेस के वरिष्ठ लेखक काशीनाथ सिंह,जलेस के स्थानीय अध्यक्ष प्रो.रामसुधार सिंह तथा घनघोर सरोकारी संगठन जसम के एकल संयोजक प्रो.बलराज पांडेय के साथ आधा दर्जन सदस्यों ने अध्यक्षता,संचालन,स्वागत,धन्यवाद और वक्तव्य की ऐतिहासिक भूमिका निभाई.
कहने को तो इस बार का विषय ‘नारी चेतना और हिंदी साहित्य’ था पर चेतना और
रणनीति के स्तर पर हर वर्ष की भाँति इस वर्ष का उद्द्येश्य भी दक्षिणपंथी चुम्बक की ओर साहित्यिक अकादेमिक लौह अयस्क को आकर्षित करना और अपना पंथ मजबूत करना था.सबसे पहले विद्यानिवास मिश्र का स्थानीय दैनिक हिन्दुस्तान में छपा नारी संबंधी अभिलेख-कथन देखिये-“भारतीय नारी नरी नहीं,नारी है.भारतीय लोक विश्वास है कि जिसके कन्या नहीं होती है,वह दूसरे का कन्यादान करके तरता है.कन्या दो कुलों को तारती है और पुत्र केवल एक कुल को”.नरी,नारी,कुल और कन्यादान के पितृबोध के बाद आइए अब इस संगोष्ठी में शामिल होने से ज्यादा आगामी चुनाव प्रचार के लिए आई भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय प्रभारी
मृदुला सिन्हा का गुलाबबाग के काशीखंड भाजपा कार्यालय में भाजपाई महिलाओं और  प्रेस को संबोधित वक्तव्य पढ़िए-सिर्फ नमो नमो से काम नहीं चलेगा.सभी महिला कार्यकर्ताओं को व्यापक जन संपर्क के लिए घरों से निकलना होगा,लोगों को जोड़ना पड़ेगा ताकि नरेंद्र मोदी और भाजपा के पक्ष में चल रही हवा को वोटों में बदला जा सके.” इतना ही नहीं एनसीइआरटी के पाठ्यक्रम से बनारस के प्रेमचंद के उपन्यास निर्मला को एक दशक पूर्व हटवाकर अपना एक एनजीओ आधारित उपन्यास लगवा लेने में सक्षम मृदुला सिन्हा के नेतृत्व में भाजपा महिला मोर्चा का मोदी-जोशी जीत के लिए विशाल मशाल जुलूस भी निकला जिसने सभी अखबारों का पर्याप्त पन्ना घेरा.साहित्य अकेदमी के यात्रा व्यय से चालित आयोजन में फेसवेल्यू के लिए अकादेमी अध्यक्ष की ओर से उड़िया लेखिका प्रतिभा राय और कमल कुमार थीं. दो अन्य लेखिकाओं में एक दिल्ली विश्वविद्यालय की अध्यापक और विद्यानिवास मिश्र की साहित्य अमृत संपादन सहयोगी दक्षिणपंथी डा.कुमुद शर्मा थी, दूसरी पटना की उषा किरण खान. गौरतलब है कि उषा किरण खान जिन्हें इस बार एक सम्मान से नवाजा गया है, संगोष्ठी आयोजक एवं विद्यानिवास मिश्र के छोटे भाई पूर्व आईपीएस दयानिधि मिश्र के आइपीएस मित्र रामचन्द्र खान की बीवी हैं, जिन पूर्व लोकसेवी को बिहार सरकार के वर्दी घोटाले में सीबीआई द्वारा अभियुक्त बनाये जाने पर हाल ही में जेल जानी पड़ी थी.पूरा आयोजन इन चमकदार बाहरी चेहरों के अतिरिक्त स्थानीय दक्षिण-वाम विद्वानों का घोल था जिसके स्थाई उद्द्येश्य को जानने के लिए इस समारोह और काशी के साहित्य विद्यामंडल के ढांचे को जान लीजिए.
यह आयोजन एक दशक से चौदह जनवरी को स्व. मिश्र के जन्मदिन पर उनके भाई के नेतृत्व में विद्याश्री न्यास द्वारा होता है जिसके स्थानिक सहयोगियों में जसम शुरू से रहा है.
यह दुहराने की जरूरत नहीं कि विद्यानिवास मिश्र की हिंदी में छवि साहित्यकार-पत्रकार के आलावा भाजपा के सांसद व देवरिया के कठोर पंक्तिपावन ब्राहमण की रही है.वे आचरण में इतने कट्टर थे कि परिवार के अलावा किसी दूसरे के हाथ से अन्य बर्तन में बनाया भोजन नहीं करते थे,पानी,चाय का अलग गिलास लेकर चलते थे,चुटिया और जनेऊ पंथ के घनघोर समर्थक और उद्धारक थे.अंतिम दिनों में भाजपा सांसद रहते समय उन्होंने बनारस के काशी खंड भाजपा के गुलाबबाग कार्यालय से पूर्वांचल के भाजपाई चुनाव प्रचार का वैदिक रीति से आरंभ किया था. गौरतलब है कि पूर्वांचल के रोबदार-दबंग ब्राहमण नेता स्व. मिश्र पर इस बार का आयोजन जिस धर्म संघ के करपात्री सत्संग सभागार में हुआ और जहाँ की प्रमुख भूमिका में तीनों वाम लेखक संघ के सदस्य थे,की बिल्डिंग के निर्माण के लिए संसद निधि से ८० लाख की राशि उन्होंने अपने संसदीय काल में दी थी. जानना दिलचस्प होगा कि करपात्री जी कौन थे,क्यों स्व.मिश्र ने सत्संग हाल के लिए राशि दी थी तथा आजकल वहाँ क्या होता है?
भारतीय लेखक शिविर का मंचस्थल धर्मसंघ शिक्षा मंडल था जहाँ के आदि महंथ स्व. करपात्री जी वर्ण व्यवस्था के प्रचारक,दलित और स्त्री के वेद अध्ययन के विरोधी,विश्वहिंदू परिषद के अधिकारी,रामराज्य परिषद के संस्थापक,काशी में आजादी के बाद राजनारायण द्वारा पुराने विश्वनाथ मंदिर में दलित भक्त प्रवेश के कारण  नए विश्वनाथ मंदिर के निर्माता थे.कहते हैं विद्यानिवास मिश्र के लिए वे एक आदर्श माडल थे.इस आयोजन के श्रोता इसी धर्म संघ के संस्कृत वेद वेदांग विद्यालय के एक सौ नन्हें ब्राहमण बटुक थे जहाँ अन्य जाति तो छोड़िये श्राद्ध कराने वाले  ब्राहमण बटुक तक का वेद अध्ययन निषेध है.वे बेचारे स्त्री विमर्श क्या समझते, हाँ तीन दिनों तक व्यंजनों का स्वाद समझ कर प्रसन्न रहे.श्रोताओं में इसके आलावा बड़ा गाँव कालेज की कुछ छात्राएं लाई गई थीं तथा कुछ सर्टिफिकेट क्रेता शोध छात्र थे.


 आखिर संसदीय पार्टियों की तरह काशी में विद्याश्री न्यास के साथ जसम,जलेस और प्रलेस का इन्द्रधनुषी गठबंधन या सैंडविच गठबंधन क्यों है?इसके ठोस कारण हैं.सबसे सर्वाधिक रेडिकल लेखक संघ जसम का हाल जानिये जिसके सदस्य इस मंच की लाइफलाइन की तरह हैं.यह ऐसा लेखक संघ है जो बनारस में एक दशक से तीन सदस्यों वाला रहा है तथा इसका कभी चुनाव नहीं हुआ.इसके स्थाई संयोजक प्रो बलराज पांडेय हैं. जब गुरू से झंझट हुआ तो जसम में आ गए.प्रो साहब की विचारधारात्मक  नींद ऐसी गहरी रही कि वाममार्गी मित्र प्रो.अवधेश प्रधान ने धर्म के आध्यामिक आवरण ग्रहण कर लिया. कहते हैं कि एक दशक से वार्षिक व्यक्तिगत चंदे के बल पर प्रो.बलराज पांडेय जसम के प्रभारी हैं तथा अपनी प्रतिभा के बल पर जन संस्कृति मंच को बनारस में निर्जन संस्कृति मंच बनाये रखा है.विद्या न्यास मंच के वे प्लानर से लेकर आमंत्रण वितरक तक रहे हैं. ये और बात है कि दो साल से जसम का एक भी कार्यक्रम नहीं हुआ है.विद्या न्यास के जातिवादी और दक्षिणपंथी रुख से जुड़ने का एक आयाम उनके रोजमर्रे में आप देख सकते हैं.
प्रो बलराज पांडेय ने हिंदी विभाग,बीएचयू अध्यक्ष रहते हुए शोध नामांकन में पिछले साल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण ही नहीं दिया. बड़ा छात्र आंदोलन होने पर उन्हें कोटा देना पड़ा.प्रो बलराज पांडेय का एक रिकार्ड है कि आजतक उन्होंने एक भी शोध अनुसूचित या अनुसूचित जनजाति कोटे से नहीं करवाया है. वे काशीनाथ सिंह के शोध छात्र और प्रलेस के पूर्व सदस्य रहे हैं तथा इनदिनों विद्याश्री न्यास के हिमायती हैं.
दूसरा थोड़ा कम क्रांतिकारी मंच जलेस का है.यह दुर्भाग्य ही है कि जिस जनवादी लेखक संघ के प्रतिबद्ध संस्थापक बनारस के प्रो.चंद्रबली सिंह रहे हैं उनके निधन के पूर्व से ही इस मंच पर दक्षिणपंथ का प्रभाव पड़ने लगा था. आजकल इसके करताधर्ता यूपी कालेज के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो रामसुधार सिंह है.राममंदिर आंदोलन के बाद से वे अक्सर काशी के दक्षिणपंथी साहित्यिक और राजनीतिक मंचों से दहाडते रहे हैं.बनारस में जलेस का भी नई पीढ़ी में कोई विकास विस्तार नहीं होने का कारण विद्यान्यास जैसे मंचों पर जलेस अध्यक्ष की आवाजाही और विचारधारा से गुरेज है.एक ताज़ा प्रमाण दैनिक हिंदुस्तान में लिखी प्रो. रामसुधार सिंह की हालिया टिपण्णी है जिसमें उन्होंने पूरे बनारस के अध्यपकों-लेखकों को विद्याश्री न्यास जैसे मंच और आयोजन की नसीहत दे डाली.
रही बात सबसे पुराने मंच प्रलेस और उसके काशी संरक्षक काशीनाथ सिंह की. काशीनाथ सिंह की मंचीय विचारधारा के विकास का संबंध अपने बड़े भाई नामवर सिंह की विचारधारा से जुड़ा रहा है.जब से नामवर सिंह ने जसवंत सिंह,राजनाथ सिंह,मुरारी बापू,रामदेव,पप्पू यादव आदि के मंचों पर जाना शुरू किया है,काशीनाथ सिंह के लिए चुनौती की तरह हो गया है कि लोकल ही सही कितने दक्षिणपंथी मंचों का उद्धार किया जाए.इसका एक उदाहरण तो विद्यानिवास मंच ही है.काशीनाथ सिंह को याद ही होगा कि भाजपा सांसद रहते हुए विद्यानिवास मिश्र के घर पर एक बार जब अजय मिश्र के उपन्यास पक्का महाल का विमोचन समारोह था तो उन्होंने यह कहकर जाने से इनकार कर दिया कि विद्यानिवास जी भाजपा के सांसद हैं.आज वे वहाँ लोकल हीरो हैं.यह हैरानी और आश्वस्ति है कि काशीनाथ सिंह जैसे प्रभावकारी लेखक के विचलन के बावजूद बनारस में अन्य लेखक संगठनों से कई गुना ज्यादा सदस्यतावाले प्रलेस की लेखक पीढ़ी विद्याश्री न्यास से इतनी दूरी बनाये कैसे रख पाती है.
वाम लेखक संगठनों के बनारसी प्रदर्शन से कुछ सवाल उठते हैं.क्या अब स्थानीय वाम लेखक संगठनों पर राष्ट्रीय संगठनों की कोई पहुँच और पकड़ नहीं है? क्या लेखक मंचों से विचारधारा का सचमुच अंत हो गया है?क्या लेखक संघ के भीतर आंतरिक बहस और लोकतंत्र पूर्णतः खत्म हो गया है? क्या रसूख और चंदे के बल पर कोई भी व्यक्ति लेखक संगठन की फ्रेंचाइजी ले सकता है और उसका दुरूपयोग कर सकता है?क्या लेखक संघों पर पार्टियों के भटकाव का प्रभाव अपने अंतिम दौर में है?क्या केन्द्रीय नेतृत्व की देखादेखी के कारण स्थानिक नेतृत्व में भटकाव है?क्या लिखने पढ़ने वाली नई पीढ़ी में पुरानी पीढ़ी के भटकाव के कारण मंच को लेकर उदासी है?क्या दक्षिणपंथी सत्ता और शक्तियाँ लगातार लेखक संघों को भीतर से खोखला कर रही हैं?
और अंतिम बात. क्या जसम,जलेस,प्रलेस जैसे वाम लेखक संगठन केंद्र में भाजपा और मोदी को सत्ता सौंपने में स्थानिक सहयोगी हैं? भीतर के बरक्स बाहर जवाब ढूँढना मार्क्सवादी विचार नियम का निषेध है और विद्याश्री जैसे मंच का निर्वाह.