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08 मार्च, 2020

बनारस में बसंत की खोज

🌻जेम्स प्रिंसेप के नक्शे में बचा है बनारस का बसंत🌻      📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚
@रामाज्ञा शशिधर,चबूतरा शिक्षक
मित्रो!
        -पतझर और बसंत पेड़ पौधों के जीवन और विराग-राग की अभिव्यक्तियाँ हैं।इसलिए वे मानव जीवन में भी  खेत,पेड़,बाग,जंगल से ही आते हैं।
        -मालवीय चबूतरा पर बासी हवा वाली कक्षा से पहले पतझर भी आता है और बसंत भी।
         -आज दोनों से मुलाकात हुई।दोनों के रूप और आत्म तक पहुंचने के लिए लगभग दस कविताओं का सस्वर वाचन भी हुआ और वाद विवाद संवाद भी।
          -पतझर की विदाई और बसंत की अगवानी में छात्र भी आए और शिक्षक भी।लेकिन वे शामिल थे जो स्वयं शब्द शिल्पी हैं।
          -जो जेआरएफ नेट के प्रेत को ही बसंत मान बैठे हैं,और साहित्य को सिर्फ करियर की बुलेट ट्रेन समझते हैं,वे शायद मोबोमेनिया की मार और झनकार में बेहोश होंगे और बाद में जागेंगे।
        -मौसम मानव जीवन में संवेदना के स्रोत,उत्थान पतन की लय,भाव अभाव के राग और स्मृति के हस्ताक्षर हैं।
       -पहले पतझर और बसंत कागजी हुए,अब मोबो वर्चुअल। कागज पर सच्चे और कृत्रिम रंग थे,स्पर्श था लेकिन गंध नहीं थी। मोबो इमेज तो पूर्ण आभासी है।न कोई ठोस रंग,न स्पर्श,न गंध।स्वाद और श्रव्य की तो बात ही दूर।
      -साहित्य सृजन और ग्रहण गहन ऐन्द्रिक आचरण है।लेकिन साइबर सभ्यता ने साहित्य को ऐन्द्रिकबोध से काफी
 दूर कर दिया है।इसलिए जीवन का बसंत भी बिना फूल उगाए,बिना रस,रंग,कूक,स्वाद और गंध के आता और चला जाता है।पता ही नहीं चलता कि आया भी कि नहीं।
       -बनारस का ही हाल देखिए।आनंद कानन और मृगदाव के नाम से चिरख्यात नगर में कहीं पेड़ पौधे दिख जाएं तो चमत्कार ही मानिए।कंक्रीट के कथित स्मार्ट जंगल की किसी किसी छत पर मरियल बोनसाई और पिंजरे में कैद गुलाम चिड़ियां आनंद कानन के तर्पण भाव की तरह कभी कभी दिख जाते हैं। मुट्ठी भर कटते हुए पेड़ और चीखते हुए पंछी महामना की बगिया और रेल बाग के मिटते हुए निशान हैं।
      -एक प्रकृति विहीन नगर में पतझर की आहट और बसंत की सुगबुगाहट सिर्फ बुलडोजरों की धूल और हूटरों के शोर में कोई स्मार्टजीवी हो ढूंढ सकता है।
      -हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'अशोक के फूल' प्रचंड धूर्तता और मूढ़ता की भेंट चढ़ गए,केदारनाथ सिंह का बसंत खाली कटोरों से ही चुंगी उसूल रहा है,सर्वेश्वर का बसंत तो नगर में गुंडे और महंत की नई दबंगई से लैस है,राम दरश मिश्र की बसंती हवा इन दिनों जीवन भर के रस को बन्दबोतल में भर भरकर कुट्टनी बुढ़िया की तरह होलसेल सप्लाय स्टोर चला रही है।
       - बच गया शमशेर का एक पीला पत्ता जो पतझर की पीली शाम के गम को गाढ़ा कर दे रहा है।
       -क्या पता जब काशीनाथ अस्पताल में हैं तब ज्ञानेन्द्रपति प्लास्टिक के सुग्गे के पंख नोचकर बसंत की स्मृति का लेबोरेटरी टेस्ट कर रहे हों,श्रीप्रकाश नगर महंत की नाव में रेतीली हवा भरकर उसे बसंत बैलून बनाने में व्यस्त हों और सेवानिवृत प्रो बलिराज उर्फ बसंत पांडेय सिंगापुर की रोबोट सोफिया को भारतीय नागरिकता दिलाने के लिए बसंती गद्य रच रहे हों।
      -जो भी हो भारत कला भवन में अंग्रेज डिजाइनर जेम्स प्रिंसेप का बनारस नगर वाला एक विशाल नक्शा है जिसमें पेड़,बाग,जंगल,नदी,बावड़ी,कूप सब अपनी जगह पर मुस्तैद हैं।शायद पतझर और बसंत भी उसी नक्शे में बचा होगा।
     -चबूतरा तो मिटते बनते इतिहास के पैरों के निशान सँजोता है।कल यह भी नक्शा होगा।आज का।