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27 फ़रवरी, 2019

नामवर तो नामवर थे:रामाज्ञा शशिधर

💐"मैंने उड़ाई हैं जीवन की  धज्जियां,सुखी मरूंगा मैं"💐
✒हमारे नामवरजी तो नहीं रहे!🎙
   रात भर नींद नहीं आई।सिर्फ बुरे सपने आते रहे।न जाने क्यों आदत के विरुद्ध 2 बजे फेसबुक खोला...कई पोस्ट...नामवरजी नहीं रहे।11.50 पर निधन हुआ।साढ़े बानवे की उम्र थी।जाने का बहाना कुछ ही दिन पहले मिला।
       नामवर जी को अज्ञेय की पंक्ति और मार्क्स की नास्तिकता इतनी पसंद थी कि वे अक्सर कहते-मैंने उड़ाई हैं
जीवन की धज्जियां /मैं मरूंगा सुखी।अच्छा हुआ कि शताब्दी छूने के करीब पहुंचकर वे किसी के सहारे के अहसान
से मुक्त रहे।जीवन भर शब्द दुनिया की तरह विचारों को धुनते
रहे और आखिरी सांस तक आलोचना की धुनकी का संगीत
उनके गिर्द फूटता बहता रहा।
            अब जब वे नहीं हैं हिंदी आलोचना को उनकी ताकत
और ग़ैरमजूदगी का पता ज्यादा रहेगा।हिंदी आलोचना के शिखर तो नामवरजी थे ही गहराई और विस्तार भी थे।बनारस के जीयनपुर जैसे गांव से चलकर किसान के एक बेटे ने अस्सी की गलियों को जीते हुए पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी
और त्रिलोचन जैसे दिग्गजों से साहित्य संस्कार लिया।तब भी
भी काशी में निठल्ले और शब्दहन्ता कम नहीं थे।आज भी केदार मंडल की अस्सीवाली चाय दूकान है जहां कामरेड
दोस्त केदार रोज एक सिक्का नामवर के जेबे में डाल देता था
और लंका पर त्रिलोकी जी का यूनिवर्सल बुक सेंटर जहां से
न जाने उधार की कितनी किताबें उन्होंने खरीदी थीं।नामवर जी जमीन से उठकर शिखर तक पहुंचने वाले विरल साहस के
विवादी आलोचक थे।
            नामवर जी के नहीं होने पर आज संस्मरण का झरना
खुल गया है।मेरे जैसा साहित्य का हलवाहा लगातार नामवरजी से डरता और सीखता रहा।जेएनयू जब मैं पहुंचा तब वे सेवानिवृत थे और बोर्ड पर अम्रेट्स प्रो की जगह उनका
नाम सफेद अक्षरों में उगा था।वे कक्षा तो नहीं लेते थे,शोध कराते थे और यदाकदा भाषण देने आते थे।लेकिन दिल्ली की
जिस गोष्ठी में नामवरजी न हो वह मरियल और ग़ैरउत्तेजक
सुनने में ही लगती थी।नामवरजी के डर से कई आलोचक आयोजक से समीकरण बैठाते थे और मैदान भी छोड़ देते थे।
तर्क और युक्ति से विचार के रेशे वे इतने सलीके से उतारते थे जैसे केले के पत्ते खुल रहे हों।और अंत में बनारसी दंगल की तरह चित्त कर पान का दोना खोलते और तिसपर 120 नम्बर
का जर्दा डालकर फीकी मुस्कान फेंकते।नामवरजी की वाचिक आलोचना का विरोध करनेवालों की कतार में मैं भी था लेकिन आज मेरा मानना है कि हिंदी आलोचना के वाचिक लोकवृत के वे सबसे बड़े निर्माता हुए।इस अर्थ में वे प्रिंट वाली
आधुनिकता को अपनी जातीय ज्ञान परंपरा से चुनौती देने वाले बौद्धिक हैं।जब 2005 में नामवरजी की पहली वाचिक
किताब आलोचक के मुख से आई तो हिंदी जगत में जबरदस्त
प्रतिक्रिया हुई।उसकी पहली कटु समीक्षा मैंने समयांतर में लिखी थी।मैनेजर पांडेय,विश्वनाथ त्रिपाठी,राजेन्द्र यादव सभी खुश हुए।साथ ही कहा कि नामवरजी के बोर्ड में मत जाना।धारणा साफ है कि बीएचयू में तीन महीने बाद ही उनकी कलम से मेरी नियुक्ति हुई।
        नामवर जी के पहले दर्शन अपनी जन्मभूमि में ही हुए।महाकवि दिनकर की प्रतिमा का लोकार्पण जीरोमाइल,बेगूसराय में होना था।राज्यपाल द्वारा लोकार्पण के बाद घोषणा हुई कि नामवर जी का संबोधन होगा-त्रिलोचनी सानेट की तरह एक विराट पुरुष!चौड़ी छाती,लंबी काया, सधे कदम,ऊंची नाक,तपते लोहे सा रंग।पहली ही आवाज़ ने बांध लिया-छह सौ साल तक विद्यापति की धरती एक महाकवि का इंतज़ार करती रही।वह हसरत तब पूरी हुई जब इस धरती को दिनकर जैसा महाकवि मिला।चारों ओर जन तालियों की गूंज।फिर तो दिनकर भवन में एक लंबा व्याख्यान हुआ।गर्जन
तर्जन वाले दिनकर और जनपद में उलझा मैंने जब दिनकर के विज्ञान दर्शन और कला पर सुना तो हैरान रह गया।नई लीक,नई भाषा,नई वाचिक भंगिमा।ये थे बेगूसराय में नामवर  सिंह।मैंने उस भाषण को हिंदुस्तान में छपवाया।बाद में नामवर जी के शिष्य और मेरे गुरु प्रो
चन्द्रभानु प्रसाद सिंह ने प्रलेस की स्मारिका में भी उस भाषण को छापा।दिनकर वाम खेमे में लंबे वक्त तक उपेक्षित थे।नामवर जी से सिलसिला शुरू हुआ सो आजतक जारी है।
               भारतीय भाषा केंद्र के आरम्भ और बौद्धिक यात्रा का श्रेय नामवरजी को जाता है।केदारनाथ सिंह,मैनेजर पांडेय,पुरुषोत्तम अग्रवाल और वीरभारत तलवार जैसे अकादेमिक आलोचकों के जुटान से हिंदी जगत के पठन पाठन को नई दिशा मिली है। हिंदी के साथ भारतीय भाषाओं के सम्मिलित केंद्र का निर्माण जेएनयू के लिए ही नहीं बल्कि अन्य विश्वविद्यालयों की कार्य व सोच पद्धति के लिए भी चुनौती है।बात शोध निर्देशक एवम गुरु मैनेजर पांडेय के विदाई समारोह की है।नामवर जी की अध्यक्षता थी।मंच संचालन के लिए मित्रों और शिक्षकों ने मुझे चुना था।मंच से वाचिक नामवर जी ने कहा कि पांडेय जी की जगह को दिगंत भी नहीं भर सकता है।बाद के फोटो सेशन में मैंने अपने अंदाजे बयां में कहा कि मुझे मत काटना।नामवरजी की हाजिरजवाबी थी-तुम्हें कौन काट सकता है।उनकी उदात्तता,दृढ़ता और कठोरता दोनों जगत्प्रसिद्ध है।
          बनारस में जब नामवर जी को अपूर्व जोशी द्वारा सम्मान मिला तब मैंने समयांतर में एक टिप्पणी लिखी-करेला ज्यादा मजेदार है या काशीफल।इसमें नामवर जी के भाषण को भी रेखांकित किया था जब वे बच्चन सिंह के सम्मान में ऐसा बोले कि बेचारे बच्चन जी
अस्पताल पहुंच गए।नामवर जी ने 2011 में मेरे कविता संकलन बुरे समय नींद पर दूरदर्शन पर टिप्पणी कर अंतिम तौर से मेरे भीतर की शंका को निर्मूल कर दिया कि वे मुझे अदृश्य केटेगरी में रखते हैं।मेरी कविताओं पर काफी कुछ कहा लिखा गया उनकी परख दिल तक उतर गई। रचना की मार्मिक पड़ताल के वे रामचन्द्र शुक्ल के बाद सबसे बड़े आलोचक थे।
          नामवर जी को क्षमता की अचूक पहचान थी और रिश्ते की भी।जिन लोगों ने उनका माल लूटकर अपना घर भर लिया है,नामवर जी उनकी भी सीमा ठीक से समझते थे लेकिन
संगठन के व्यक्ति होने के कारण अपनी ऊंचाई को खोना उन्हें गंवारा नहीं था।उन्होंने कितनी पीढ़ियों का निर्माण किया।विश्वविद्यालय के भीतर और बाहर।दुख है कि अकादेमिक वृक्ष और आलोचना की धरती दोनों बंजर समय के शिकार हैं।नामवर जी जीवन भर जीवन की धज्जियां उड़ाते रहे इसीलिए सुखी मरे।जो जीवन को पाखंड की तरह ओढ़कर जी रहे हैं उन्हें नामवर जी से इत्ती सी प्रेरणा तो लेनी चाहिए।वे कबीर की तरह काशी और मगहर की अलग अलग अहमियत मापने वाले अक्खड़ आदमी थे।