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10 नवंबर, 2019

उत्तर समय में साहित्य कैसे पढ़ें:मालवीय चबूतरा,बीएचयू

🌿'साहित्य कैसे पढ़ें' वाद संवाद सम्पन्न🌿
     📚आत्मक्षय का पुनर्निर्माण ही नया सौंदर्यशास्त्र है।📚            

     🎤चबूतरा उवाच:-
     *  साहित्य अध्ययन में हमें रूप से शुरू होकर अंतर्वस्तु, भाषिक संरचना और विचारधारा की यात्रा करनी चाहिए।
     * हिंदी का पाठ अध्ययन औपनिवेशिक ज्ञान रूप से इतना 
     बोधग्रस्त है कि ज्यादातर आलोचना पश्चिमी ज्ञान निर्मिति की पैरोडी है,स्थूल समाजशास्त्रीय है,संदर्भ केंद्रित है और पाठ के आत्म और मूल से भटकी हुई है।हिंदी के चंद आलोचक पाठ की आत्मा के सटीक  विश्लेषक हैं।
       *पाठ के दो तरह के पाठक होते हैं-सामान्य और विशेष।
 अकादेमिक दुनिया के पाठक(शिक्षक,छात्र,शोधार्थी) से विशिष्ट पाठालोचन की उम्मीद की जाती है।आजकल इस क्षेत्र का पाठ अध्ययन भी विश्वविद्यालयी शिक्षण पैटर्न की तरह सामान्य,सरलीकृत और उथला हो गया है।
     *पाठ में हमेशा दो स्तरों पर अर्थ विन्यस्त होते हैं-सतही अर्थबोध का स्तर,गहन अर्थबोध का स्तर।पाठ के विशेष अध्येता से गहन अर्थबोध की मांग होती है।
      *आनंद और ज्ञान साहित्य का मूल उद्देश्य है। इसलिए इनकी गहन प्यास की तृप्ति गहन अर्थबोध से सम्भव होती है।
आलोचना गहन अर्थबोध की गतिशील सौंदर्य प्रणाली है।
      * नया मानस आनंद और ज्ञान के पारंपरिक ढांचे से कट गया है।अब आत्म सजगता की जगह वस्तुग्रस्तता;जिज्ञासा,श्रद्धा और संशय की जगह स्वप्नहीनता;नास्टेल्जिया और यूटोपिया की जगह  अतिवर्तमानता; प्रक्रिया की जगह इवेंट, आस्था की जगह अनास्था, इतिहास की जगह मिथक,प्रतिरोध की जगह पेशेवराना प्रतिमत;सांस्कृतिक मिश्रण की जगह सांस्कृतिक
संकरता; अध्यात्म की जगह कर्मकांड;दर्शन की जगह प्रदर्शन 
का साम्राज्य है।
   *'नाना रूपात्मक जगत' पर चढ़े सभ्यता के नाना आवरण
से 'नाना भावात्मक जगत' क्षतिग्रस्त और धूमिल हो चुका है।
 इस सांस्कृतिक परिघटना को साहित्य के क्षेत्र में 'आत्मक्षय का युग' नाम से संबोधित किया जाना चाहिए।
  * आज साहित्यिक पाठ में आत्मक्षय के रूपों का अध्ययन किया जाना चाहिए। पाठ में आज के  मनुष्य के बिखराव और
अलगाव के रूपों,कारणों की खोज की ही जरूरत नहीं है बल्कि उसके स्वप्न निर्माण की दिशा के संकेत की भी मांग है।
   *उत्तर समय के साहित्य और आलोचना में मौजूद नैरेटर,चरित्र,परिवेश,भाव,यथार्थ गहरे कम और क्षैतिज ज्यादा हैं।व्यापकता और गहराई के असंतुलन से उपजा मनुष्य एक
मूलहीन और मूल्यहीन मनुष्य सभ्यता की दिशा में है। यह भरम भी अब दरक गया है कि बाजार और वस्तुएं नए आज़ाद मानव की पार्श्व सामग्री हैं।साइबर सभ्यता स्वाधीनता के विरुद्ध नई किस्म की परतंत्रता पर आधारित वस्तुतः निगरानी
और खुफिया सभ्यता है।साइबर टेक्नोलॉजी सिर्फ माध्यम ही नहीं पूंजीवाद का एक नवीन स्वरूप है।इसलिए आज के पाठ पर इस विभाजित मनोदशा की गहरी छाप है।
     *साहित्य में असुरक्षा,अविश्वास और आत्म ध्वंस के अनेक रूप उत्तर समय की उत्तर औपनिवेशिक आक्रमण की देन हैं। विभाजित मनस्कता,सिजोफ्रेनिया, उन्माद,अवसाद,एकालाप,चुप्पी,हैरतअंगेज गतिविधि और क्रूरतापूर्ण खेल इस वक्त के साहित्य में जमा होने लगे हैं जो भविष्य में घनीभूत होते जाएंगे।
    *उत्तर समय का सौंदर्यशास्त्र राजनीतिक सतहीपन से गहरे प्रभावित है।अस्मितामूलक विमर्श,मिथकीय विमर्श,बाजार विमर्श और नस्लीय राष्ट्रवादी विमर्श इसके उदाहरण हैं।आजकल अस्मिता विमर्श की दो धाराएं स्पष्ट हैं-प्रतिरोधी और प्रतिगामी।
   *उत्तर समय में साहित्य अध्ययन के लिए 'क्षतिग्रस्त आत्म और प्रतिरोध' की गहन परख और पड़ताल होनी चाहिए;उन्हें
एकत्रित और संगठित किया जाना चाहिए और नए मनुष्य,स्वप्न और साहित्य के लिए नवीन 'संगठित आत्म और
प्रतिरोध' के निर्माण का  मानचित्र पेश करना चाहिए।
 * नए ' संगठित आत्म और प्रतिरोध' के निर्माण के लिए ग्लोबल चिंतन और ग्लोकल एक्शन न केवल आर्थिक सामाजिक दायरे की जरूरत है बल्कि सांस्कृतिक साहित्यिक
क्षेत्र में इसकी फौरी आवश्यकता है।
            @रामाज्ञा शशिधर,चबूतरा शिक्षक
       ...जारी

27 फ़रवरी, 2019

नामवर तो नामवर थे:रामाज्ञा शशिधर

💐"मैंने उड़ाई हैं जीवन की  धज्जियां,सुखी मरूंगा मैं"💐
✒हमारे नामवरजी तो नहीं रहे!🎙
   रात भर नींद नहीं आई।सिर्फ बुरे सपने आते रहे।न जाने क्यों आदत के विरुद्ध 2 बजे फेसबुक खोला...कई पोस्ट...नामवरजी नहीं रहे।11.50 पर निधन हुआ।साढ़े बानवे की उम्र थी।जाने का बहाना कुछ ही दिन पहले मिला।
       नामवर जी को अज्ञेय की पंक्ति और मार्क्स की नास्तिकता इतनी पसंद थी कि वे अक्सर कहते-मैंने उड़ाई हैं
जीवन की धज्जियां /मैं मरूंगा सुखी।अच्छा हुआ कि शताब्दी छूने के करीब पहुंचकर वे किसी के सहारे के अहसान
से मुक्त रहे।जीवन भर शब्द दुनिया की तरह विचारों को धुनते
रहे और आखिरी सांस तक आलोचना की धुनकी का संगीत
उनके गिर्द फूटता बहता रहा।
            अब जब वे नहीं हैं हिंदी आलोचना को उनकी ताकत
और ग़ैरमजूदगी का पता ज्यादा रहेगा।हिंदी आलोचना के शिखर तो नामवरजी थे ही गहराई और विस्तार भी थे।बनारस के जीयनपुर जैसे गांव से चलकर किसान के एक बेटे ने अस्सी की गलियों को जीते हुए पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी
और त्रिलोचन जैसे दिग्गजों से साहित्य संस्कार लिया।तब भी
भी काशी में निठल्ले और शब्दहन्ता कम नहीं थे।आज भी केदार मंडल की अस्सीवाली चाय दूकान है जहां कामरेड
दोस्त केदार रोज एक सिक्का नामवर के जेबे में डाल देता था
और लंका पर त्रिलोकी जी का यूनिवर्सल बुक सेंटर जहां से
न जाने उधार की कितनी किताबें उन्होंने खरीदी थीं।नामवर जी जमीन से उठकर शिखर तक पहुंचने वाले विरल साहस के
विवादी आलोचक थे।
            नामवर जी के नहीं होने पर आज संस्मरण का झरना
खुल गया है।मेरे जैसा साहित्य का हलवाहा लगातार नामवरजी से डरता और सीखता रहा।जेएनयू जब मैं पहुंचा तब वे सेवानिवृत थे और बोर्ड पर अम्रेट्स प्रो की जगह उनका
नाम सफेद अक्षरों में उगा था।वे कक्षा तो नहीं लेते थे,शोध कराते थे और यदाकदा भाषण देने आते थे।लेकिन दिल्ली की
जिस गोष्ठी में नामवरजी न हो वह मरियल और ग़ैरउत्तेजक
सुनने में ही लगती थी।नामवरजी के डर से कई आलोचक आयोजक से समीकरण बैठाते थे और मैदान भी छोड़ देते थे।
तर्क और युक्ति से विचार के रेशे वे इतने सलीके से उतारते थे जैसे केले के पत्ते खुल रहे हों।और अंत में बनारसी दंगल की तरह चित्त कर पान का दोना खोलते और तिसपर 120 नम्बर
का जर्दा डालकर फीकी मुस्कान फेंकते।नामवरजी की वाचिक आलोचना का विरोध करनेवालों की कतार में मैं भी था लेकिन आज मेरा मानना है कि हिंदी आलोचना के वाचिक लोकवृत के वे सबसे बड़े निर्माता हुए।इस अर्थ में वे प्रिंट वाली
आधुनिकता को अपनी जातीय ज्ञान परंपरा से चुनौती देने वाले बौद्धिक हैं।जब 2005 में नामवरजी की पहली वाचिक
किताब आलोचक के मुख से आई तो हिंदी जगत में जबरदस्त
प्रतिक्रिया हुई।उसकी पहली कटु समीक्षा मैंने समयांतर में लिखी थी।मैनेजर पांडेय,विश्वनाथ त्रिपाठी,राजेन्द्र यादव सभी खुश हुए।साथ ही कहा कि नामवरजी के बोर्ड में मत जाना।धारणा साफ है कि बीएचयू में तीन महीने बाद ही उनकी कलम से मेरी नियुक्ति हुई।
        नामवर जी के पहले दर्शन अपनी जन्मभूमि में ही हुए।महाकवि दिनकर की प्रतिमा का लोकार्पण जीरोमाइल,बेगूसराय में होना था।राज्यपाल द्वारा लोकार्पण के बाद घोषणा हुई कि नामवर जी का संबोधन होगा-त्रिलोचनी सानेट की तरह एक विराट पुरुष!चौड़ी छाती,लंबी काया, सधे कदम,ऊंची नाक,तपते लोहे सा रंग।पहली ही आवाज़ ने बांध लिया-छह सौ साल तक विद्यापति की धरती एक महाकवि का इंतज़ार करती रही।वह हसरत तब पूरी हुई जब इस धरती को दिनकर जैसा महाकवि मिला।चारों ओर जन तालियों की गूंज।फिर तो दिनकर भवन में एक लंबा व्याख्यान हुआ।गर्जन
तर्जन वाले दिनकर और जनपद में उलझा मैंने जब दिनकर के विज्ञान दर्शन और कला पर सुना तो हैरान रह गया।नई लीक,नई भाषा,नई वाचिक भंगिमा।ये थे बेगूसराय में नामवर  सिंह।मैंने उस भाषण को हिंदुस्तान में छपवाया।बाद में नामवर जी के शिष्य और मेरे गुरु प्रो
चन्द्रभानु प्रसाद सिंह ने प्रलेस की स्मारिका में भी उस भाषण को छापा।दिनकर वाम खेमे में लंबे वक्त तक उपेक्षित थे।नामवर जी से सिलसिला शुरू हुआ सो आजतक जारी है।
               भारतीय भाषा केंद्र के आरम्भ और बौद्धिक यात्रा का श्रेय नामवरजी को जाता है।केदारनाथ सिंह,मैनेजर पांडेय,पुरुषोत्तम अग्रवाल और वीरभारत तलवार जैसे अकादेमिक आलोचकों के जुटान से हिंदी जगत के पठन पाठन को नई दिशा मिली है। हिंदी के साथ भारतीय भाषाओं के सम्मिलित केंद्र का निर्माण जेएनयू के लिए ही नहीं बल्कि अन्य विश्वविद्यालयों की कार्य व सोच पद्धति के लिए भी चुनौती है।बात शोध निर्देशक एवम गुरु मैनेजर पांडेय के विदाई समारोह की है।नामवर जी की अध्यक्षता थी।मंच संचालन के लिए मित्रों और शिक्षकों ने मुझे चुना था।मंच से वाचिक नामवर जी ने कहा कि पांडेय जी की जगह को दिगंत भी नहीं भर सकता है।बाद के फोटो सेशन में मैंने अपने अंदाजे बयां में कहा कि मुझे मत काटना।नामवरजी की हाजिरजवाबी थी-तुम्हें कौन काट सकता है।उनकी उदात्तता,दृढ़ता और कठोरता दोनों जगत्प्रसिद्ध है।
          बनारस में जब नामवर जी को अपूर्व जोशी द्वारा सम्मान मिला तब मैंने समयांतर में एक टिप्पणी लिखी-करेला ज्यादा मजेदार है या काशीफल।इसमें नामवर जी के भाषण को भी रेखांकित किया था जब वे बच्चन सिंह के सम्मान में ऐसा बोले कि बेचारे बच्चन जी
अस्पताल पहुंच गए।नामवर जी ने 2011 में मेरे कविता संकलन बुरे समय नींद पर दूरदर्शन पर टिप्पणी कर अंतिम तौर से मेरे भीतर की शंका को निर्मूल कर दिया कि वे मुझे अदृश्य केटेगरी में रखते हैं।मेरी कविताओं पर काफी कुछ कहा लिखा गया उनकी परख दिल तक उतर गई। रचना की मार्मिक पड़ताल के वे रामचन्द्र शुक्ल के बाद सबसे बड़े आलोचक थे।
          नामवर जी को क्षमता की अचूक पहचान थी और रिश्ते की भी।जिन लोगों ने उनका माल लूटकर अपना घर भर लिया है,नामवर जी उनकी भी सीमा ठीक से समझते थे लेकिन
संगठन के व्यक्ति होने के कारण अपनी ऊंचाई को खोना उन्हें गंवारा नहीं था।उन्होंने कितनी पीढ़ियों का निर्माण किया।विश्वविद्यालय के भीतर और बाहर।दुख है कि अकादेमिक वृक्ष और आलोचना की धरती दोनों बंजर समय के शिकार हैं।नामवर जी जीवन भर जीवन की धज्जियां उड़ाते रहे इसीलिए सुखी मरे।जो जीवन को पाखंड की तरह ओढ़कर जी रहे हैं उन्हें नामवर जी से इत्ती सी प्रेरणा तो लेनी चाहिए।वे कबीर की तरह काशी और मगहर की अलग अलग अहमियत मापने वाले अक्खड़ आदमी थे।

13 जनवरी, 2019

मालवीय चबूतरा रिसर्च और नॉलेज की सेल्फी: रामाज्ञा शशिधर

//मालवीय चबूतरा:रिसर्च और नॉलेज की सेल्फी://
        ^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
@रामाज्ञा शशिधर,संस्थापक,चबूतरा शिक्षक
😊
बहस जारी है...मेला गतिशील है...चिड़ियाँ परवाज पर हैं...पेड़ अपनी जगह तना है।बहस जारी है...
     अगर ज्ञान उधार का सुधार नहीं है;नकद की नीमकौड़ी है तो यह शोध पर भी लागू होगा।
     यूजीसी का नया नोटिफिकेशन ऑनलाइन कहता है...अच्छे शिक्षक और छात्र की कसौटी अच्छा शोधार्थी होना है।मौलिक और गुणवत्त्तापूर्ण शोध ही शिक्षक और छात्र का ज्ञान धर्म है। शोध की साहित्यिक चोरी बंद होनी चाहिए।
    शोध का अर्थ रेयर और अनछुआ विषय हो,नए नए और जरूरी सवाल हों,मूलगामी विचार(कॉग्निटिव आइडिया)हो,ताज़गी से भरे तथ्य स्रोत हों,वैचारिक यात्रा की सुलझी और भविष्यमुखी दिशा हो।
         यूजीसी की और शिक्षा संस्थानों की सेहत इन दिनों ज्यादा गड़बड़ है।शोध को हतोत्साहित करने वाले कारकों की
संख्या बढ़ती जा रही है।कट एन्ड पेस्ट की आंधी है।
     13 सालों के अध्यापन में 13 ऐसे शोधार्थी मेरे पास नहीं आए होंगे जिन्होंने रेयर शोध प्रारूप पर छह माह श्रम कर शोधार्थी होने और पंजीयन की इच्छा रखी हो।
      पांव लागी, आशीर्वाद चाहिए,जेआरएफ
खत्म हो रहा है,मैं  जेआरएफ हूँ इसलिए मेरा तो नामांकन पहले होना चाहिए,कृपा दृष्टि बनी रहे ये पॉपुलर शोध मुहावरे मिलते हैं।
     नौकरी दिलाने देने में कौन गुरु तेज है इसपर गहन शोध चलता रहता है।
        संकीर्ण सोच ने भारतीय शिक्षा संस्थानों में छात्रों का बड़ा नुकसान किया है।इस कारण अक्सर क्षमतावान शोधार्थी भी शोध की पटरी त्याग अर्थी
की पटरी पर चलने लगते हैं।
      आजकल दो तरह के शोधर्थियों की चर्चा चलती है-रेगुलरिया शोधकर्मी और पेंशनियाँ शोधकर्मी।जो  गाइड सेरेगुलर  जुड़े रहे वे रेगुलरिया और जो महीने में एक दिन फेलोशिप रजिस्टर पर कलम घुमाने का
कष्ट करें वे पेंशनियाँ।
       बातें और समस्याएं कई हैं जिनका समाधान बड़े अकेडमिक संवाद और श्रम के मुमकिन नहीं हैं।लेकिन यदि भारत को दुनिया के शिखर 200 विश्वविद्यालयों में शामिल
होना है तो केवल 'नेट/जेआरएफ फॉर असिस्टेंट प्रोफेसर'
जैसे दस्तावेजों से काम नहीं चलेगा।
      अंत मे!
...वे परेशान हैं...मनमाफिक सब कुछ नहीं हो पा रहा है...सिस्टम ढिलाई को कसना चाहता है...योग्य अध्यापक कड़ाई
से नीरक्षीर विवेक कर रहे हैं...
     वक्त आ गया है ज्ञान को मिशन और प्रोफेशन से जोड़ा जाए...क्लर्क और अकडेमिशियन, कटपेस्ट और गुणवत्तायुक्त,नकली और असली,साधो और साधक,साहित्य चोर और नीतिज्ञ के बीच लकीर खींची जाए।ज्ञान और शोध को समाज के लिए उपयोगी बनाया जाए।
       दीपक की लौ से सिर्फ रोशनी ही नहीं मिलती, सीलन भी सूखती है,कोने अतरे के अदृश्य सामान भी दिखते हैं,
और फतिंगे के पंख झड़ते हैं।

10 जनवरी, 2019

चबूतरे पर गिलहरी,शिशु और विमर्श का स्वागत है।

/मालवीय चबूतरा सत्रारंभ संवाद/
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☺️चबूतरे पर गिलहरी और शिशु का स्वागत है!😊
                        👍👍👍👍
धूप की तरह किलकते एक नन्हें शिशु ने साहस के साथ कहा-यहां क्या हो रहा है?
मैंने कहा-पढाई।
सवाल-पेड़ के नीचे पढाई?
जवाब-यहां धूप,ऑक्सीजन,आज़ादी और छाया सबकुछ मिलता है इसीलिए।
सवाल-सनडे को भी पढाई?
जवाब-बड़े बच्चे को सनडे को भी पढ़ना चाहिए।
सवाल-क्या फीस भी लगती है?
जवाब-बिल्कुल नहीं।हर रोज पैसे लेकर क्लास में पढ़ाता हूँ।यहां फ्री क्लास होती है।
जवाब-मैं तो खेलने आया हूँ।ग्राउंड खोज रहा हूँ।
सवाल-क्या आप भी पढ़ने आओगे?
जवाब-कभी कभी।
--और मैंने देखा,एक गिलहरी सुबह की खिली धूप में दोनों हाथों से कुछ कुतर रही थी।अचानक सरसराती हुई पेड़ में खो गई।
#########
अब शुरू होगी कक्षा!!!
#शोध का सबसे बड़ा वैरी कटपेस्ट धंधा है।#
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
"-शोध तथ्य की पुनर्खोज और आइडिया का आविष्कार होने के कारण एक गम्भीर मौलिक कार्य है।
-चेतना और अस्तित्व के सरोकारी द्वंद्व के बिना ,सेल्फ और अन्य के द्वंद्व के बिना कोई बड़ा और महान शोध असंभव है।
-शोध को ग़ैरमौलिक और रद्दी प्रचार करने वाली चेतना वस्तुतः ज्ञानकाण्ड में खोखली और लूट झूठकांड में फरहर होती है।
-शोध की मौलिकता के अभाव का बड़ा कारण हमारे शिक्षक छात्र और विश्वविद्यालय की गैरजिम्मेदार भूमिका है वहीं शिक्षा का अनावश्यक राजनीतीकरण भी है।

-शोध की मौलिकता सतत आइडिया ऑब्जेक्ट सम्बन्ध और उसपर चिंतन है।
-आजकल पिछली खिड़की की छलांग से शोधकर्मी होने की कर्महीन उथल पुथल है जिसका परिणाम है कि चेतना विकसित होने के बदले कटपेस्ट मास्टर हो जाती है।
-आलोचना के ह्रास का एक बड़ा कारण शोध में घटती रुचि भी है।
- ज्ञान मंच के किसी स्तर पर मौलिकता और गुणवत्ता को उत्साह और मदद नहीं मिलने से जनता के टैक्स की बड़ी राशि रोजगार पेंशन भत्ता की शक्ल में बदल रही है।
-ज्ञान की बुनियादी निर्मिति मौलिक विचार से जुड़ी होने के कारण शोध एक मौलिक उद्यम है।
-जो शिक्षक छात्र शिक्षक मानवता  सेवा के इस जरूरी कर्म को ग़ैरमौलिक और गैरजरूरी बनाने की कोशिश करते हैं वे गर्दभ की तरह हैं जो पीठ पर लदी चन्दन की लकड़ी का केवल भार ढोते हैं लेकिन उसके गुण से महरूम रह जाते हैं।"
@वक्तव्य:रामाज्ञा शशिधर

02 जनवरी, 2019

मेरे बर्थडे में कन्फ्यूजन क्यों है:रामाज्ञा शशिधर,बनारस

🎂
दोस्तो!
चप्पू बंद हैं,डोंगी खामोश हैं,पतवार बीमार हैं,मांझी भूख की लकड़ी की आग हो बैठे हैं।31 और 1 को उछाली गई बोतलें सड़कों को गुलज़ार कर रही हैं,मशरूमियां रेस्टुरेंटों  से फेंके गए फूड्स अपनी बासी बू से शहर को तर किए हुए है।बीएचयू ब्वाय जोमैटो ब्वाय में बदल गया है और हर जगह स्विगी स्पाइस सांग हैंग स्लिप मोड में थिर है।
           ज़माना मेमोरी लॉस का ऐसा शिकार है और सोशल मीडिया इतना बड़ा आभासी परिवार है कि आदमी  फेसबुक को अपनी सौ ज़िम्मेदारियाँ सौंप अपना बर्थडेट तक भूला रहता है।
      तब अच्छा हुआ कि मेरा बर्थ डेट कंफ्यूजनग्रस्त हो गया।आंग्ल और संस्कृत,मुद्रित और मौखिक,पोथी और अच्छरहीनता के पाटन के बीच फंसकर मुझे
बर्थडे नाटक से राहत मिल गई है।या यूं कहिए कि बर्थडे
कन्फ्यूजन की भेंट चढ़ गया है।इसलिए 2019 मेरे जन्मदिन का लिप ईयर रहेगा।
      बाऊ रहे नहीं।रहते भी तो कोदो खर्च किया नहीं था पाठशाला में।पंडित को खदेड़ते थे और कुदाल को गंगा जल चढ़ाते थे।
     माई मौत के मुंह से लौटने के बाद बमबम है और उसकी स्मृति भरोसे की कहानी है।माई बताती रही है-तू
सबसे बड़ी गंगा बाढ़ के डेढ़ साल पहले पूस में पैदा हुआ।कृष्ण पच्छ की दुतिया थी।सांझ का वक्त था। तेरा बड़ा भाई मर गया था इसलिए तू बुआ के घर गढ़हरा में पैदा हुआ।सांझ का गोधूलि वेला था।सूरज ढल रहा था।
कड़ाके की ठंड थी।पता नहीं खड़मास का है कि नहीं।

      मेरी कोई वास्तविक जन्मतिथि अंग्रेजी और कुंडली फुंडली में नहीं है।
       बनारस आने से पहले ज्योतिषी मुझे देखकर भागते थे और बनारस आकर ज्योतिषियों से मैं भागता रहा हूँ।एक कारण तो मेरा नाशपंथी और विज्ञानपंथी होना है।दूसरे,नगर में मैं एक दर्जन नजूमियों को जानता हूँ जो पहले हलवाईगिरी करते थे या कट्टा चलाते थे या रगुल थे या गाउल थे या खोटर थे या भड्डर थे।जिनके जीवन मे खुद प्रेम नहीं वे दूसरे को लव मैरिज का ग्रह रत्न बांटते हैं।डेढ़ ज्योतिषी ऐसे हैं जो मुर्दे की भाग्य रेखा पढ़कर उन्हें ज़िंदा होने का उपाय बताते हैं।कुछ किताबी हिसाबी हैं लेकिन मुझे फलित में विश्वास नहीं।
     मेरा मसला गणित का है।सो खोज जारी है।
       मैं मौज मस्ती ज्ञान विज्ञान में सांस लुटा दूं लेकिन सौ
बार ठगों से ठगाकर भी न ठग हो पाया न ठगों को लाइक
करता हूँ।ज़माना तो वही है।गंगा में जल भले न हो काशी में आजकल ठगों और महाठगों की बाढ़ है।
       अब अड़ी के अडीबाजों ने मेरा बर्थ डेट ढूंढने के ठेका लिया है।
     मुझे भी सुअवसर मिल गया है कि नावबंदी की तरह
बर्थडेबन्दी कर दूं।अपनी चम्मचगिरी और नकली प्रशंसा से दूर होकर यह देखूँ कि कुछ याद के लायक हूँ भी या धरती का बोझ ही हूँ।विषधर ओझा देश का बोझा।
      सोचा था सेल्फी सेलिब्रशन करूं। दिल्ली से अस्सी कैम्पस तक ठेके प्रलोभन पर गतिशील सेल्फ़ी ईम्प्लॉयर्स और सेल्फ़ीमैनों की रौनक देखकर एक बार मन हुआ कि मैदान में उतर ही जाऊं लेकिन ऑक्सफ़ोर्ड के मनोवैज्ञानिक  प्रोफेसरों के साइको सर्वेक्षण की खबर ने हिला दिया-एक दिन में 6 और उससे ज्यादा सेल्फी लगाने वाला उच्च स्तरीय मनोविक्षिप्त रोगी होता है।
             सचाई तो यही है कि तरंग मीडिया की वर्चुअल
सोसाइटी में में रियल सोसाइटी सिकुड़ रही है।बधाईवालों को मिठाई नहीं मिलती और मिठाईवालों से बधाई नहीं मिलती।
    # 2019 में मेरे पास जन्म लेने के कई चांस हैं।
   # यह पोस्ट मॉडर्न कन्फ्यूजन ही मेरे जन्म लेने का सॉल्यूशन है।
  #  चाहे दुआ दें या बद्दुआ जवानी बनी रहेगी और मेरा X फैक्टर ज़माने पर बना रहेगा।आमीन💐