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29 जनवरी, 2014

क्या मार्क्स को नोमार्क्स दागमुक्त चेहरा दे सकता है

गांव में अब भी हवा मिठाई या रुइया मिठाई बेचनेवाला  आता है.  साइकिल के चौरे करियर,मजबूत टायर,झोलेनुमा तीन चार खाली लटकन बोरे,दायें बाएं कंधे पर कुछ छोटे छोटे झोले. एक ढक्कनदार टिनहा कनस्तर में आकार में भंडार और भार में सेर सवा सेर की बेकरार हवा मिठाई. उसके  एक हाथ में टुनटुनिया घंटी जिसके लगातार टन टन का लुभावन स्वादिष्ट स्वर बच्चों को घर,खेत,मैदान,सड़क,स्कूल से चुंबक की तरह खींच लेता है.
            वह कागज के टुकड़े पर चुटकी भर मिठाई देता और बदले में बच्चे घरों से मक्का,गेंहू,धान,आलू,धनिया,सरसों,चना,मटर,लोहा लक्कड,शीशी-बोतल,चप्पल-जूते लाकर उसके बोरे झोले भरते जाते. हवा मिठाई वाले की पूरी साइकिल लदकर चरमराने लगती,कंधे अकड़ने लगते लेकिन मिठाई आधी बची ही रहती.सारे मोहल्ले का घर खाली,पेट खाली लेकिन  जीभ संतुष्ट.
          स्वाद में  हवा,जुबान पर हवा, दौरी भर अनाज  हवा,पेट में हवा,स्वप्न में हवा.वाह रे हवा मिठाई,तेरा कोई जवाब नहीं.हवा मिठाई वाले की एक समझ होती है-पक्का बेचना है,कच्चा लेना है.मजाल क्या कि आप सिक्के या नोट से चुटकी भर  हवा मिठाई पा लें.
         कारपोरेट बहुराष्ट्रीय बाजार हवा मिठाईवाला है.वह कच्चा लेता है और बदले में पक्का देता है. भारी लेता है और हल्का देता है.पोस्को हो या वेदांता;मोंसेंतो हो या पेप्सी;उन्हें केवल कच्चा चाहिए और पक्का पाइए. इस देश के जंगल,खेत,खनिज,पानी,नदी,जड़ी बूटी,अंतरिक्ष सब देकर उनके बदले टेलीविजन,मोबाइल,स्मार्ट फोन, टेबलेट, सोडा,ड्रिंक,क्रीम,पाउडर लीजिए.
          हम ऐसी दुनिया के निवासी हैं जहाँ हमारे जीने के ठोस सामान प्रेम से,बन्दूक की नोंक से,मर्जी से,बेमर्जी से  दिनरात ढोए जा रहे हैं और हमें जो मिल रहा है वह हमारे लिए कूड़े की सभ्यता बना रहा है.
          दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर है और स्विट्जरलेंड सबसे तंदुरुस्त.
         इसका मतलब हुआ कि हमारे देश के फेफड़े में सबसे ज्यादा खराब हवा है,धमनी में सबसे गंदा रक्त है.
         इसका एक मतलब यह भी हुआ कि जो कच्चा लुटाता है वह बीमार होता जाता है और जहाँ कच्चे पक्के की  स्याह कमाई जमा होती वहाँ की हवा सफ़ेद संजीवनी से भरी रहती है.
         आखिर  हम  पक्का लेने और कच्चा देने की कीमत  कबतक चुकायेंगे?
          क्या पीलिया से शिकार बदन को विक्को टर्मरिक क्रीम स्वस्थ कर पायेगा?
         क्या मार्क्स को नोमार्क्स क्रीम दागमुक्त चेहरा दे सकता है?
     
            

22 जनवरी, 2014

'आप' के विरोध के असल कारण ढूंढिए



कितना सच?पहले लड़े थे गोरों से,अ़ब लड़ेंगे चोरों से 

अब तक पचास लाख सदस्यों और लोकसभाई छब्बीस सौ  उम्मीदवार आवेदकों वाली  'आप' को सोचना ही होगा कि एक साथ इतनी तरह की शक्तियां और विचारधाराएं  उस पर क्यों टूट पड़ी हैं?
       

21 जनवरी, 2014

नदी एक बारीक शिल्पकार होती है

        

नदी अब रेत का कच्छप अवतार है! 


हर साल जनवरी में १९ को रेत शिल्प में बदलती है. बनारस की दृश्यकला  के सैकड़ों छात्र इस शिल्प मेले के कूचीकार-करणीकार होते हैं.भूगोल होता है गंगा के बहरी अलंग का इलाका। कैनवास रेत का मैदान होता है.दूर तक फैला हुआ रेतीला पेपर,कार्डबोर्ड। 
         करणी,कुदाल,छलनी,चाकू,हाथ,पैर सब कूचीमय हो जाते हैं. एक दिन के लिए मीडिया की विराट भूख का यह मेला सुस्वादू आहार होता है.पहले विहार,फिर कैप्चर हुए दृश्यों का आहार।
       

16 जनवरी, 2014

कविता घाट:नया आपातकाल

(बनारसी पनेरी छन्नूलाल चौरसिया के लिए)
रामाज्ञा शशिधर

मगही पान पर कत्था चूना फेरते हुए
बात कतरता जमा देता है छन्नूलाल
कि डाक् साब अजब का था वह साल
जब दीवार लांघकर आया था आपके पास
जर्दा पान सुपारी के साथ
क्या गजब की लत थी जनाब

09 जनवरी, 2014

शुक्ल के घर में हिंदी के हुडुकलुलु

'इतिहास खुद को दोहराता चलता है' इस तथ्य की पुनरावृति इन दिनों कबीर,तुलसी,प्रेमचंद,प्रसाद,रामचंद्र शुक्ल,हज़ारी  प्रसाद द्विवेदी,नामवर सिंह आदि के नगर में विचित्र काकटेल कल्चर के नवोत्थान के साथ चल रही है. समकालीन हिंदी कविता के कुख्यात एंटी हीरो विष्णु खरे द्वारा अगस्त २०१० में लिखे गए एक विवादित लेख के कुछ टुकड़े मणिकर्णिका के अकालमृत मुर्दे की तरह प्रेत बनकर बनारस में मंडरा रहे हैं.

08 जनवरी, 2014

यह हिन्दी आलोचना का हड़ताल युग है


यह टिपण्णी परिकथा के युवा आलोचना विशेषांक के परिचर्चा  स्तम्भ में भी छपी है.रामाज्ञा शशिधर

1. मैं पिछल्ो दो दशक की युवा हिन्दी आलोचना को हिन्दी आलोचना का हड़ताल युग मानता हूँ। जहाँ रचना समय के गति और द्वन्द्व को पकड़ने की कोशिश करती हुई लगातार सक्रिय है, आलोचना समय और रचना से जरूरी मांगों के कारण नहीं अपनी ऐतिहासिक पस्ती और वैचारिक समझौतापरस्ती के कारण कर्म का मैदान छोड़कर हड़ताली मुद्रा में दिख रही है। मैं नब्बे के दशक से पूर्व की आलोचना को पड़ताली आलोचना मानता हूँ। इस मध्य आलोचना की एक नई प्रवृत्ति भी विकसित हुई है जिसे करताली आलोचना कहा जा सकता है।