Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

07 अक्तूबर, 2014

Corporate Captalism and future of Indian Damocracy

सिद्धार्थ वरदराजन




मोदी के लगातार हो रहे उभार का उनकी हिंदुत्ववादी साख और अपील से कुछ खास लेना-देना नहीं है जैसा कि उनके धर्मनिरपेक्ष आलोचक बता रहे हैं। मोदी आज जहां हैं—सत्ता के शीर्ष पर, वह इसलिए नहीं कि आज देश और भी सांप्रदायिक हो गया है बल्कि इसलिए कि भारतीय कॉरपोरेट-जगत हर दिन अधीर होता जा रहा है। प्रत्येक चुनाव-सर्वेक्षण जो उन्हें सत्ता के और नजदीक पहुंचता दिखाता है, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज को नई ऊंचाई पर ले जाता है।



नरेंद्र मोदी किसका प्रतिनिधित्व करते हैं और भारतीय राजनीति में उनका उभार क्या बतलाता है? 2002 के मुस्लिम-विरोधी नरसंहार के बोझ में दबे गुजरात के मुख्यमंत्री के राष्ट्रीय मंच पर आगमन को सांप्रदायिक राजनीति के उभार के चरम के रूप में देखना काफी लुभावना है। निश्चित ही, संघ परिवार के वफादार और हिंदू मध्यवर्ग के एक व्यापक हिस्से में उनके प्रति अंधभक्ति एक ऐसे नेता की छवि के रूप में है जो जानता है कि ‘‘मुसलमानों को उनकी जगह’’ कैसे बतायी जा सकती है। इन समर्थकों के लिए, उनका उन हत्याओं के लिए जो उनके शासन काल में हुईं—प्रतीक रूप में भी माफी मांगने जैसा सामान्य से काम को भी मना करना, उनकी कमजोरी के रूप में नहीं बल्कि ताकत और मजबूती के एक और साक्ष्य के बतौर देखा जाता है।



इस पर भी, मोदी के लगातार हो रहे उभार का उनकी हिंदुत्ववादी साख और अपील से कुछ खास लेना-देना नहीं है जैसा कि उनके धर्मनिरपेक्ष आलोचक बता रहे हैं। मोदी आज जहां हैं—सत्ता के शीर्ष पर, वह इसलिए नहीं कि आज देश और भी सांप्रदायिक हो गया है बल्कि इसलिए कि भारतीय कॉरपोरेट-जगत हर दिन अधीर होता जा रहा है। प्रत्येक चुनाव-सर्वेक्षण जो उन्हें सत्ता के और नजदीक पहुंचता दिखाता है, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज को नई ऊंचाई पर ले जाता है। फाइनेंसियल टाइम्स के एक नए लेख में, जेम्स क्रैबट्री ने अडाणी इंटरप्राइजेज में अभूतपूर्व वृद्धि को चिन्हित किया है—पिछले महीने इस कंपनी के शेयर मूल्य में सेंसेक्स में सिर्फ 7 अंक की वृद्धि के मुकाबले 45 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। इसका एक कारण -एक इक्वीटी विश्लेषक ने एफ.टी. (फाइनेंसियल टाइम्स) को यह बताया कि निवेशक मोदी के नेतृत्व में एक ऐसी सरकार की आशा करते हैं जो अडाणी को पर्यावरणीय आपत्तियों के बावजूद मुंद्रा बंदगाह विस्तार की अनुमति देगा। विश्लेषक के शब्दों में—‘‘अत: बाजार कह रहा है कि मोदी और अडाणी की सामान्य नजदीकियों के परे, भाजपा शासन में इसकी मंजूरी मिलना कठिन नहीं होगा।’’



विस्तार के आयाम

‘मंजूरी’ शब्द सौम्य लगता है, पर वास्तव में यह मोदी द्वारा पूंजी के विस्तार की उस इच्छा को समायोजित करने की मंशा को दर्शाता है जो किसी भी रूप में चाहे (विस्तार करे)—जमीन में और खेतों में, ऊर्ध्वाेधर रूप में—जमीन के ऊपर और नीचे, और पार्श्वक रूप में—रिटेल और बीमा क्षेत्र को विदेशी निवेशकों की मांग के अनुरूप खोलने में। और यदि पर्यावरणीय नियम, आजीविका, क्षेत्र या सामुदायिक हित आड़े आते हैं तो सरकार को अपने समर्थन और सहायता से इनका रास्ता बलपूर्वक साफ करना होगा। यह वह ‘निर्णयात्मक’ वादा है जिसने मोदी को भारतीय- और वैश्विक—बड़े व्यवसाय में इतना पसंदीदा व्यक्ति बना दिया है।



देश के शीर्ष व्यवसायियों की निर्णय लेने में ‘अनिर्णयात्मक’ कांग्रेस के प्रति निष्ठा बदल कर क्यों और कैसे नरेंद्र मोदी के पक्ष में हो गई यह ऐसी कहानी है जो भारतीय राजनीति के आंतरिक जीवन की गत्यात्मकता को प्रतिबिंबित करती है। लेकिन बिना कुछ करे लाभ कमाना (रेंट-सीकिंग) और क्रोनीइज्म ने भारतीय अर्थव्यवस्था में ऐसा गहरा संकट पैदा कर दिया है की उदारीकरण से होने वाले तत्काल लाभ अपनी स्वाभाविक सीमा पर पहुंच चुके हैं। नव उदारवादी नीतियों और ‘लाइसेंस परमिट राज’ के अंत की शुरुआत के साथ किए सभी परिवर्तनों का मतलब था कि सरकार के नजदीक रही कंपनियों द्वारा बिना कुछ करे लाभ अर्जित करने का स्तर आसमान छूने तक पहुंच गया है। मद्रास स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स के एन एस सिद्धार्थन के तर्क के अनुसार ‘‘मौजूदा कारोबारी माहौल के तहत, अकूत धन अर्जित करने का रास्ता उद्योग-निर्माण के माध्यम से नहीं बल्कि सरकार के स्वामित्व के तहत संसाधनों के दोहन के माध्यम से ही संभव है।’’ भले ही नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा अपनी रिपोर्ट में 2 जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाला के अनुमान कुछ ज्यादा हों , यह स्पष्ट है कि संसाधनों का तरजीही आवंटन कंपनियों के लिए लाभ का एक बहुत बड़ा स्रोत बन गया है अन्यथा उनका उत्पादन के माध्यम से लाभ ‘सामान्य’ से अधिक नहीं होता। इन संसाधनों में सिर्फ कोयला या स्पेक्ट्रम या लौह अयस्क ही नहीं, सबसे निर्णायक तौर पर —भूमि और पानी भी शामिल हैं। और यहां, मोदी की उस नई खुशनुमा दुनिया के प्रतिनिधि नायक गौतम अडाणी हैं, जिनका एक प्रमुख व्यापारी के रूप में उदय, खुद गुजरात के मुख्यमंत्री के उदय का दर्पण है।



कॉरपोरेट प्रशंसा की शुरुआत

जनवरी 2009 में ‘वाइब्रेंट गुजरात समिट’ में भारत के सबसे बड़े उद्योगपतियों में से दो- अनिल अंबानी, जो गैस मूल्य निर्धारण के मुद्दे पर मुकेश अंबानी के साथ लड़ रहे थे, और सुनील मित्तल ने प्रधानमंत्री के रूप में मोदी पर खुला दांव लगाया। अनिल अंबानी को यह कहते हुए उद्धरित किया गया कि ‘‘नरेंद्रभाई ने गुजरात के लिए अच्छा किया है और यदि वह देश को नेतृत्व दें तो [कल्पना करें ] क्या होगा।’’ ‘‘गुजरात ने उनके नेतृत्व में सभी क्षेत्रों में प्रगति की है। अब, कल्पना करें कि देश का क्या होगा अगर उन्हें यह नेतृत्व करने का मौका मिलता है, … उनके जैसा व्यक्ति ही देश का अगला नेता होना चाहिए।’’ भारती समूह के प्रमुख मित्तल, जिनकी दिलचस्पी टेलीकाम में थी, का कहना था : ‘‘मुख्यमंत्री मोदी को एक सीईओ के रूप में जाना जाता है, लेकिन वह एक सीईओ नहीं हैं, क्योंकि वह वास्तव में एक कंपनी या एक क्षेत्र नहीं चला रहे हैं बल्कि एक राज्य चला रहे हैं और देश भी चला सकते हैं। ‘‘उस आयोजन में मौजूद टाटा ने भी मोदी की प्रशंसा की ‘‘मुझे कहना है कि आज गुजरात जैसा कोई राज्य नहीं है। श्री मोदी के नेतृत्व में गुजरात किसी भी राज्य के ऊपर, सिर और कंधे की तरह है।’’ फिर, ‘मंजूरी’ का सवाल उभर कर सामने आया। इकानामिक टाइम्स ने रिपोर्ट किया : ‘‘श्री टाटा ने भावुक होकर कहा कोई राज्य सामान्य रूप से एक नए संयंत्र को मंजूरी देने में 90 से 180 दिन लेता है लेकिन ‘नैनो के मामले में, हमें सिर्फ दो दिनों में जमीन और मंजूरी मिल गई थी।’’



नीरा राडिया टेप, टाटा और बदलता यथार्थ

दो साल बाद, 2011 वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में लच्छेदार भाषण-बाजी का सेहरा मुकेश अंबानी के सर बंधा, ‘‘गुजरात स्वर्णिम चिराग की तरह चमक रहा है और इसका श्रेय नरेंद्र मोदी द्वारा दिए जा रहे प्रभावी, जोश से भरे और दूरदर्शी नेतृत्व को जाता है। इस दृष्टिकोण को हकीकत में बदलने के लिए संकल्प और दृष्टि के साथ एक नेता हमारे पास है।’’ 2013 में, उनके नाराज चल रहे भाई की बारी थी। इकनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘अनिल अंबानी ने राजाओं के राजा के रूप में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित किया–’’ उन्होंने दर्शकों से अनुरोध किया कि वे मुख्यमंत्री का खड़े होकर जयजयकार करें। ‘दर्शक तत्काल तैयार हो गए।’ अन्य वक्ता जो वहां बोले उनमें शीर्ष उद्योगपति का शायद ही कोई नाम बचा हो। इस बार ‘प्रधानमंत्री मोदी’ मंत्र इसलिए नहीं दोहराया गया क्योंकि तब तक भारतीय उद्योग जगत अपना मन बना चुका था।



मुड़कर देखें तो व्यापार और राजनीतिक हितों के इस उभरते ताने-बाने में 2010 का नीरा राडिया टेप ड्रामा निश्चित रूप से एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था। सीएजी द्वारा 2 जी घोटाले को नाटकीय रूप से बेनकाब किए जाने के ऐन पीछे राडिया टेप ने बड़े व्यापार, राजनेताओं, नीति निर्माताओं और यहां तक कि मीडिया के बीच के आंतरिक संबंधों को सार्वजनिक कर दिया। अब सार्वजनिक संसाधनों की लूट को रोकने में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीएजी के साथ आ जाने से यह स्पष्ट हो गया कि आसान ‘मंजूरी’ का युग अब समाप्त होने जा रहा था। यह लगभग वह समय था जब कॉरपोरेट इंडिया ने भारतीय कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार, जिसका उन्होंने दृढ़ता से समर्थन किया था और अब तक लाभान्वित हुए थे, पर ‘नीतिविहीनता’, ‘अनिर्णय’ और ‘अस्थिरता’ का आरोप लगाना शुरू कर दिया।



क्योंकि राडिया टेप में उनका नाम आ चुका था, इसलिए स्वाभाविक था कि रतन टाटा इस आक्रमण का नेतृत्व करते नजर आए। देश के सबसे बड़े समूहों में से एक के प्रमुख ने चेतावनी दी कि भारत पर एक बनाना रिपब्लिक (केला गणतंत्र यानी अस्थिर देश) बनने का खतरा है और सरकार पर प्रहार किया कि वह उद्योग के लिए अनुकूल वातावरण बनाए रखने में नाकाम रही है। शीघ्र ही प्रभावशाली दीपक पारेख, जो एचडीएफसी बैंक से जुड़े हुए हैं, ने भूमि अधिग्रहण और खनन पट्टों की मंजूरी अधिक मुश्किल होते जाने के कारण पूंजी के पलायन का हव्वा खड़ा किया। ‘‘एक के बाद एक व्यापारी आप जिससे बात करें’’, टाइम्स ऑफ इंडिया ने रिपोर्ट दी, ‘‘वह अनौपचारिक तौर पर बतलाता है कि पहली बात यह है कि ‘सरकार ठहर गई है।’ नौकरशाहों, बैंकरों और हर एक को फैसले लेने में डर लगता है।’ अगली बात वह यह बताता है कि : ‘अब हम भारत में नहीं बल्कि विदेशों में निवेश करने की सोच रहे हैं।’’ केंद्रीय कृषि मंत्री और व्यापार जगत के मित्र शरद पवार ने भी विरोध के इस हल्ले में अपना स्वर मिलाया।



यह एक तथ्य है कि वर्ष 2009-10 की मंदी के अपवाद वर्ष को छोड़कर, भारत से बाहर की ओर निवेश बढ़ रहा है। कंपनियां विभिन्न कारणों से विदेश में निवेश करती हैं। कुछ संसाधनों जैसे कोयला या तेल के लिए ताकि वे यहां अपने उद्योगों को चला सकें, कुछ प्रौद्योगिकी के लिए या कुछ अधिक आसानी से संरक्षित बाजार तक पहुंचने के एक साधन के लिए ऐसा करती हैं। घरेलू बाजार में मुनाफे पर पाबंदियां भी एक कारण हो सकता है। हारून आर खान, भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर, ने चिन्हित किया है कि ‘‘कुछ विचारकों का मत है कि भारतीय कंपनियों द्वारा किया जा रहा विदेशी निवेश स्थानीय निवेश की कीमत पर है। पर कंपनियों के घरेलू निवेश शुरू करने में आ रही रुकावटों के प्रत्यक्ष कारणों में से एक नीति और प्रक्रियात्मक बाधाओं का हो सकता है।’’ लेकिन घरेलू निवेश में, विशेषकर घरेलू मांग और बुनियादी ढांचे में अल्प आपूर्ति से रुकावट आती है, विशेषकर इंफ्रास्ट्रकचर और घरेलू मांग में जो मूलत: सार्वजनिक निवेश और खर्च, निवेशक के विश्वास और आय के असमान वितरण पर निर्भर करते हैं जो कि जनता की खर्च करने की शक्ति को प्रभावित करता है।



कांग्रेस से मोहभंग की शुरुआत

मनमोहन सिंह सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान जब तक भारतीय अर्थव्यवस्था विकास की उच्च दर बनाए हुए थी, सबसे बड़ी भारतीय कंपनियां ‘सामान्य’ लाभप्रदता और ‘क्रोनी प्रीमियम’ दोनों का आनंद ले रही थीं। लेकिन 2008 में दोहरे असर एक ओर वैश्विक मुद्रास्फीति पर मंदी और ब्याज दरों के प्रभाव तथा राडिया घोटाला, सीएजी, जनमत, और 2009 के बाद एक अधिक सतर्क न्यायपालिका के संयुक्त प्रभाव ने इस आरामदायक आय के मॉडल को घातक झटका दिया। भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) द्वारा सहारा समूह पर लगाए आरोप और सुप्रीम कोर्ट द्वारा अवमानना के आरोप में इसके मालिक सुब्रत रॉय को जेल भेजना शायद इसका सबसे नाटकीय उदाहरण है कि किस तरह बड़े व्यापार के लिए मैदान बदल रहा है। यह निश्चित है कि मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम कॉरपोरेट सेक्टर में फैली इस बेचैनी के बारे में जानते थे और उन्होंने इस समस्या से आसान तरीके से निपटने के लिए निवेश पर कैबिनेट समिति बनाने और प्रमुख मंत्रालयों में जैसे पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस और पर्यावरण एवं वन में अनुकूल लाभ (रेंट फ्रेंडली) परिवर्तन करने की कोशिश की। लेकिन यह भारतीय उद्योग जगत का कांग्रेस पार्टी पर पूर्व की तरह यथास्थिति बहाल करने की क्षमता का यकीन दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं था।



सांप्रदायिक से विकास पुरुष बनने की कहानी

यह आश्चर्य की बात है कि यही समय है जब भारत के संभावित प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का नाम एक सुनियोजित तरीके से सार्वजनिक बहस में प्रवेश करता है। कॉरपोरेट प्रायोजकों और साथ ही अपने मालिकों की व्यक्तिगत वरीयताओं द्वारा उकसाया बड़ा मीडिया मोदी के ‘स्वीकार्य बनाने’ की प्रक्रिया और उसके तार्किक निष्कर्ष तक के लिए हरकत में आ गए। बमुश्किल नौ साल पहले 2004 में केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की हार में अहम भूमिका निभाने के लिए मीडिया द्वारा सार्वभौमिक रूप से गुजरात के मुख्यमंत्री और उसके नरसंहार रोकने में विफल रहने को स्वीकार किया गया था। अब समस्या यह थी कि भारत के उसी शहरी मध्य वर्ग को जो सांप्रदायिकता हिंसा से विचलत था कैसे समझाएं कि भारत की समस्याओं का हल मोदी के नेतृत्व में निहित है। यही वह प्रक्रिया है जिसमें ‘विकास के गुजरात मॉडल’ का मिथक सामने आया है। ‘‘आज लोग गुजरात में विकास के चीन मॉडल के बारे में बात कर रहे हैं, ‘‘ महिंद्रा एंड महिंद्रा के आनंद महिंद्रा ने 2013 के वाइब्रेंट गुजरात शिखर सम्मेलन को बताया। ‘‘लेकिन वह दिन दूर नहीं है जब लोग चीन में विकास के गुजरात मॉडल के बारे में बात करेंगे।’’



गुजरात में आंकड़ों की चालबाजी के बारे में बहुत कहा और लिखा गया है जो एक प्रशासक के रूप में मोदी के लंबे-चौड़े दावों का आधार है कि जिसने गुजरात को बदल दिया है। लेकिन इस प्रकार से अपने नेता की तारीफ में, कॉरपोरेट भारत अनजाने एक स्वीकारोक्ति कर रहा है : कि वे मोदी के सबसे ज्यादा भक्त उनके ‘चीनी मॉडल’ के लिए हैं। आखिर यह मॉडल क्या है? यह वह मॉडल है जिसमें भूमि, खानों और पर्यावरण के लिए ‘मंजूरी’ का कोई अर्थ नहीं है। जिसमें गैस के मूल्य निर्धारण के बारे में असहज सवाल नहीं पूछे जाते। भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत संस्थागत कार्रवाई के लिए बढ़ता जन समर्थन, जो कि कांग्रेस के प्रति जनता के मोहभंग की जड़ में है, उसके विपरीत कॉरपोरेट भारत की ‘भ्रष्टाचार’ के अंत में कोई दिलचस्पी नहीं है। हमारी सबसे बड़ी कंपनियों के व्यापार का क्रोनीज्म और किराए की तलाश अभिन्न हिस्सा बन गए हैं—यह एक तरह का ‘भारतीय विशेषताओं वाला पूंजीवाद है’—और वे इस व्यवस्था को एक निर्णायक, स्थिर और उम्मीद के मुताबिक तरीके से चलाने के लिए मोदी की ओर देख रहे हैं। वे एक ऐसा नेतृत्व चाहते हैं जो जब भी विरोधाभास और संस्थागत बाधाएं आएं उनका समुचित प्रबंधन करे। सांप्रदायिक भीड़ जो मोदी की भक्त है, उनके कॉरपोरेट समर्थकों के लिए एक अतिरिक्त आकर्षण है, बशर्ते नेता अपने साथियों को नियंत्रित रखने में सक्षम हो। यह कुछ ऐसा है जो अटल बिहारी वाजपेयी और यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी भी हमेशा कर पाने में सक्षम नहीं थे। नरेंद्र मोदी और अधिक निर्णायक व मजबूत इरादों वाले आदमी हैं। उन पर विश्वास किया जा सकता है कि जब कभी भी किसी संकट को दूर करना होगा तो वह यह कर सकेंगे।



पुनश्च : इस बीच समाचार आया कि एन.के. सिंह, जो नौकरशाह से राजनेता बने, जिनको रिलायंस के विषय में संसदीय बहस के क्रम को प्रभावित करने की कोशिश करते हुए राडिया टेपों पर सुना गया है, वह भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए हैं।



अनु.: प्रकाश चौधरी