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10 जून, 2021

सीमांत कवि 'शक्र' पर बहस क्यों जरूरी है

/रामाज्ञा शशिधर/
               ★★★
     [2 फरबरी 1911-10 जून 1988 ]
 शक्र दलित उपेक्षित के जरूरी किंतु लगभग लापता स्वर हैं।वे औपनिवेशिक ग्रामीण भारत की क्षतिग्रस्त संस्कृति और चेतना के भुक्तभोगी रचनाकार हैं।वे ब्रिटिश शासन के देसी और विदेशी दोनों आधारों को चुनौती देनेवाले सीमांत राग हैं।उनका मूल्यांकन होना अभी बाकी है।स्मृति नाश की राजनीति और संस्कृति के जख्मी माहौल में शक्र की कविता देहाती श्रमशील समाज के भिन्न भिन्न स्तरों का जायजा लेती हुई लम्बी यात्रा करती है।
      वे सिर्फ कवि नहीं बल्कि मजदूर, एक्टिविस्ट,सम्पादक,शिक्षक और सामंती-व्यापारिक दमन के भोक्ता-द्रष्टा शिल्पी भी हैं।
      गंगा में घास से लेकर लाश तक ढोता हुआ कितना पानी गुज़र गया लेकिन जनता के सच्चे कवि का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है।
      बिहार के सामाजिक न्याय के भोंपुओं और संस्कृति उत्सव के घन्टा घड़ियालों के समानांतर मृदंग की थाप से शक्र की कविता खुलेगी।मृदंगिया की खोज जारी है।
    लंबे प्रयास के बाद वे जन्मभूमि रूपनगर चौराहे पर मूर्तिमंत हो चुके हैं।फूल भी चढ़ रहे हैं और स्वर भी बन रहे हैं।दिनकर-शक्र का यह उर्वर क्षेत्र इलाके में नेता से ज्यादा कवि पैदा कर रहा है।कवियों का झुंड जब सिमरिया की धरती पर सप्तम स्वर उठाता है तब राजनीति हांफने लगती है।कविता के खेत में अगर कविता की फसलें उगती रहीं तो जरूर एक दिन शक्र पुरखे किसान की तरह नई पीढ़ी को राह दिखाएंगे।
      33वीं निधन तिथि पर मैं अपने ग्रामीण जनकवि को सेल्यूट करता हूँ।
         प्रस्तुत है रामावतार यादव शक्र की एक चर्चित कविता।
          {एक घूंट}
कहा किसी ने नहीं आज तक,
क्यों इतना निष्ठुर संसार।
बढ़ता हूँ ज्यों-ज्यों आगे,
पथ में मिलते हैं बटमार।
वर्तमान को छोड़ विकल मैं
जाता हूँ विस्मृति-जग में।
आह! विन्दु के ही वियोग में
सूख रहा सागर लाचार।

जीवन में अतृप्त तृष्णा ले
बना हुआ मैं दीवाना।
पढ़ पाया मैं नहीं आज तक
अपना अनमिल अफसाना।
एक घूँट के लिए तरसता,
शान्ति-सलिल का पता नहीं।
भटकेगा जग मुझे खोजने,
जब होगा मेरा जाना।
-1933 ई.

02 जून, 2021

काशी में मछली भोज

रामाज्ञा शशिधर :मेरी डायरी के पन्नो से पुरानी थाती
#काशी में माछ रोटी #
काशी के दशाश्वमेध घाट पर जब  परमहंस का प्रिय प्रसाद,
विवेकानन्द का परमप्रिय व्यंजन और
बाबा नागार्जुन की सुस्वादू तरकारी
से मुलाकात हुई तो मेरे लिए काशी
और हिन्दू तत्व का दूसरा द्वार खुला।
बड़े प्रेम से इचना उर्फ़ झींगा उर्फ़ प्रांस उर्फ़ चेम्मिन को बंगाली शैली
में बनाया। न्यौता तो कइयों को दिया
लेकिन पास सिर्फ चौबे महाराज हुए।
मक्के की रोटी के साथ नारियल पेस्ट
वाले माछ खाकर चौबे बाबा 24 घंटे
सोए रह गए। बोले ऐसा नशा तो कभी
आया ही नहीं। बेचारे तिवारी जी,
उपाध्याय जी,पांडे जी लोकलाज के
फेर में पानी फल से वंचित रह गए।
जब से उन्हें यह पता चला है कि विवेका
नन्द के अंतरराष्ट्रीय दिमाग में माछ
का बड़ा योगदान था वे अपनी खोपड़ी
से बेहद खफा हैं। अगली बार मैं 10
शैलियों में अपनी चिर परिचित दूसरी 
पाक शैली अर्थात मैथिल झोर शैली का प्रयोग
करूंगा। आप भी कंठी तोड़कर आ जाइए।

रामाज्ञा शशिधर की डायरी


{कोविड समय}
कठिन समय के दो साथी हैं:1.प्रकृति 2.किताबें
 ऑनलाइन कक्षाएं ब्लैक होल की तरह लगती हैं।जहां बातचीत का कोई सिरा ही नहीं मिलता।
आप पूछेंगे कि कॉफी-चाय रेस्तरां से दूर डायलॉग किस्से करता हूँ तो:
-दोस्त की तरह संवादी 1.गौरैया,बगेड़ी,मोर,कोयल,टिटहरी,काठखोदवा
2.छितवन,बादाम,गुलमोहर,बेल,जामुन,कटहल,आम,आंवला(ओह!पारिजात विपत्ति में सूख गया है!)
3.बुद्ध,कबीर,फ्रायड,मार्क्स,गांधी,नेहरू,दिनकर
4.व्हिटमैन,ब्रेख्त,मार्खेज, महमूद दरवेश
5.ग्रीन टी,वेनेगर,क्वाथ,गिलोय,सत्तू,सलाद और गरम पानी
6.मिट्टी,आकाश,सूर्य,चांद, सितारे और अंधकार
7.जो गुज़र गए या संघर्षरत
        इंतज़ार  फेसबुक पर नई अनहोनी का रहता है और जनता के इंकलाब का।
         फेसबुक खोलते ही लगता है कि श्रद्धांजलि ही सरोकार है।
       /ज़िंदगी इतनी सी है/
                                  ∆रामाज्ञा शशिधर
@दिनकर लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर,वाराणसी