रामाज्ञा शशिधर
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आज अंतरराष्ट्रीय कॉफी दिवस है।
2014 से अंतर्राष्ट्रीय कॉफी संगठन ने अनेक देशों में अलग अलग तिथियों पर मनाए जाने वाले राष्ट्रीय कॉफी डे से अलग एक अंतरराष्ट्रीय कॉफी दिवस शुरू किया। इस दिन कॉफी कम्पनियां कॉफी किसानों,रोस्टरों, बरिस्ता और ग्राहकों में कॉफी कल्चर और एग्रीकल्चर के प्रति तरह तरह की जागरूकता के लिए आयोजन करती हैं। बीन किसानों की ज़िंदगी में सुधार करने के वायदे भी करती हैं।
चाय 19वीं सदी से ही अंग्रेजीराज द्वारा भारत और अमेरिका जैसे देशों में उपनिवेशन और शोषण का औजार थी। वह 2014 से गली गली,मीडिया,सभा,टपरी पर किसिम किसिम के विभाजन का हथियार हो गई।
दूसरी ओर कई सदियों से बकरी, चरवाहे, मोंक, यायावर, फ्रांसीसी क्रांति से होती हुई, दुनिया भर में बदलाव,विद्रोह और जोश की प्रतीक बनती हुई, कॉफी आजकल 'थर्ड प्लेस' की 'सरप्लस कोमोडिटी सेवा' में तेज गति से शामिल है।
' थर्ड स्पेस' तो चाय अड्डे भी रहे हैं और कॉफी हाउस भी लेकिन दोनों के मिजाज,चरित्र, बहस, दिशा और विचार उत्पादन में बहुत अंतर रहा है।यह अलग से अध्ययन का विषय है।
बहरहाल दुनिया की सबसे बड़ी कॉफी कंपनी स्टारबक्स बनारस जैसे देहाती नगर के दक्षिणी
कोने पर हाथ आजमा रही है वहीं कैफे कॉफी डे जैसी
भारतीय कंपनी भी बनारस में दो स्टोर के साथ पहले से जमी हुई है।
यह दुर्भाग्य है कि आईआईटी बीएचयू
के सीसीडी आउटलेट का क्रमिक विनाश यहां के प्रशासन और शिक्षा की अर्थी चलाने वालों ने कर दिया है। दुनिया भर के उच्च शिक्षण संस्थानों में कैफे ज्ञान शोध उत्पादन के विमर्श स्पेस रहे हैं जबकि हमारा हाल सामने है।भारत के विवि क्यों नवाचार और ज्ञान विमर्श में पिछड़ते गए इसका एक जरूरी कारण इनकी शिक्षा प्रणाली में 'रचनात्मक कैफे संस्कृति' के थर्ड स्पेस' निर्माण का महत्व नहीं देना है जहां से नई पीढ़ी भारत और दुनिया को अपनी ऊर्जा,सोच,विमर्श, नवाचारी ज्ञान उत्पादन से बड़ी ऊंचाई दे सकती थी।भारत चूक गया है।
और उधर हाय! विकट चाय चौपालों ने 'नया चीकट लम्पट हिंसक गिरोह' पैदा कर दिया है जो
लोकतंत्र विरोधी आंदोलन चला रहा है। बंगाल के चाय अड्डे और काशी की अड़ी अब इतिहास के फॉसिल हैं।
नेसकैफे जैसी कारपोरेट कम्पनी बीएचयू में कई आउटलेट्स से वर्षों से कॉफी का तमाशा कर रही है।अभी हेजलनेट जैसी नई कम्पनी लंका पर कूद आई है।
लंका से राजघाट तक सौ से अधिक देशी विदेशी कैफे हैं जो पारंपरिक चाय अड्डों को चुनौती दे रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य से कुछ ही जगहें थर्ड स्पेस के लायक हैं बाकी होर्डिंग, पोस्टर, मैगी बर्गर, स्मोकिंग गैस चैंबर और डोपामाइन फायर प्लेस ही दिखाई देते हैं।
कॉफी संस्कृति का काशी जैसे स्थान पर इतना आतंक है कि मजबूरन पप्पू अड़ी नेस कॉफी, पोई अड़ी चाफी, बंगाली दादा अड़ी कुल्हड़ कॉफी बेच रही है। हालांकि चाय और कॉफी दोनों प्योर फॉर्म से अलग डेयरी कल्चर की एनिमल क्रूरता और सेहतविरोधी क्रीम पर टिकी हुई हैं।
बनारस में कॉफी वार साइलेंटली शुरू है। अभी थर्ड वेव, ब्लू टोकाय जैसी देशी कंपनियाँ उतरने
के मूड में हैं।
बनारस जैसे देहात का यह हाल है तब बंगलोर, मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई जैसे महानगरों की बात छोड़िए। वे बड़ी जगहें दुनिया और देश की छोटी बड़ी कॉफी कम्पनियों के युद्ध स्थल हैं।
हमारी कल्पना से परे कॉफी पेय में प्रयोग चल रहे हैं।
यह अतिरिक्त कैफ़ीन से अतिरिक्त आनंद द्वारा अतिरिक्त मुनाफा कमाने का ग्लोबल बाजार है। दूसरी ओर नई पीढ़ी में 'थर्ड प्लेस' खोज की बैचेनी का प्रॉफिट प्लेस है।
जैसे बनारसी हलवाई मिठाई में तरह तरह के प्रयोग करते रहते हैं, ठीक वैसे ही प्रशिक्षित बरिस्ता कॉफी में रोज रोज न्यू फ़्लेवर और टेक्सचर जोड़ रहे हैं।
चाय की तरह कॉफी भी एक विचारधारा है और विचार उत्पादन का अड्डा भी। कॉफी के विचार युग से अलग उपभोक्ता युग में कॉफी हाउस में 'थर्ड स्पेस' बहुत कम बन रहा है और अलगाव का तनाव बढ़ता जा रहा है।
कॉफी की खेती, किसान की हालत, बीन मार्केटिंग, रोस्टिंग, और उपभोग आउटलेट्स के बाजारशास्त्र में मेरी दिलचस्पी इसलिए बढ़ी है क्योंकि
किसान और खेत पर खतरे बढ़ते जा रहे हैं।
केंद्रीकृत टेक्नो पूंजी द्वारा शोषण बढ़ने वाला है।ऐसे में किसान बीन की तरह फ्रेंच प्रेस की तली में घुलकर खत्म होते जाएंगे और मुनाफा स्विस लॉकर से गतिविधि बढ़ाता जाएगा।
तब अंतरराष्ट्रीय कॉफी दिवस पर हमें कैफीन
की उत्तेजना और ताजगी के साथ बीन पैदा करने वाले लैटिन अमेरिका,अफ्रीका और एशिया के मेहनतकश किसानों की ज़िंदगी के जीवन में झांकना होगा, कि कहीं आग में उनका जीवन तो नहीं रोस्ट हो रहा, कहीं मशीन में लमहा तो नहीं पिस और घुल रहा है!
ब्लैक कॉफी तन के लिए फायदेमंद है लेकिन
मन के लिए उससे ज्यादा असरदार हो सकता है। मन के खेत में कॉफी बीन से वास्तविक खेत में ठोस कॉफी बीन की तरह नए नए उत्तेजक विचार पैदा किया जाना चाहिए।
वाल्टर बेंजामिन की एक स्थापना है कि लेखक भी उत्पादक होता है। बात सही है, किसान की तरह बौद्धिक भी उत्पादक होता है।एक अन्न उपजाता है,दूसरा शब्द। दोनों को गहरे जुड़ना चाहिए।इसलिए कि तमाम रिपोर्टें बताती हैं कि कॉफी किसानों का जीवन कॉफी की तरह सेहतमंद और स्वादिष्ट नहीं है।
समझ के लिए वाद विवाद संवाद जारी रखना है।
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