रामाज्ञा शशिधर
संस्मरण के सहारे मैनेजर पाण्डेय के विचारक ,आलोचक,शिक्षक और जन बुद्धिजीवी रूप को पकड़ने की हिंदी में संभवत: यह पहली कोशिश है.प्रस्थान के विशेषांक ने इसे अस्सी चौराहा स्तंभ में छापा है.
मैनेजर पांडेय मार्क्सवाद के प्रोफेसर हैं।
अकादमिक भारत में मार्क्सवाद का प्रोफेसर होना सबसे ज्यादा कठिन, कठोर और कंटकाकीर्ण मार्ग है। यहाँ आपको अवसरवाद का प्रोफेसर मिल जाएंगे। कलावाद, ब्राह्मणवाद, सामंतवाद, पूँजीवाद, क्षेत्रवाद , भाई-भतीजावाद, निठल्लावाद, मध्ययुगीनतावाद के प्रोफेसर मिल जाएंगे। मार्क्सवाद के नाम पर किसिम किसम के प्रोफेसर मिलेंगे , मसलन- अवसरवादी मार्क्सवाद के प्रोफेसर, ब्राह्मणवादी मार्क्सवाद के प्रोफेसर, कलावादी मार्क्सवाद के प्रोफेसर, सामंतवादी मार्क्सवाद के प्रोफेसर, नेहरू लोहियावादी मार्क्सवाद के प्रोफेसर, पूँजीवादी मार्क्सवाद के प्रोफेसर, उत्तर आधुनिकतावादी मार्क्सवाद के प्रोफेसर, वंशवादी मार्क्सवाद के प्रोफेसर ल्ोकिन मूलगामी मार्क्सवाद का प्रोफेसर ढूँढ़ना रेत से तेल निकालने जैसा प्रयत्न है।
अकादमिक अमरीका में जैसे एडवर्ड सईद ‘आतंकवाद का प्रोफेसर’ तथा नोम चाम्स्की ‘अराजकतावाद का प्रोफेसर’ के नाम से मशहूर हैं वैसे ही हिन्दी की अकादमिक दुनिया में मैनेजर पांडेय ‘मार्क्सवाद का प्रोफेसर’ के नाम से सुख्यात, कुख्यात और विख्यात हैं। इनमें असमानता के अनेक बिंदु हैं पर कुछ खास समानताएँ भी हैं। एडवर्ड सईद और नोम चाम्स्की की तरह मैनेजर पांडेय अपने ज्ञान-कांड से स्थापित सत्ताओं को चुनौती देते हैं, पश्चिमी पूँजीवाद की कड़ी आलोचना करते हैं, जनमुक्ति संघर्षों की पक्षधरता निभाते हैं, समझौतापरस्ती एवं सत्ता-प्रलोभनों से खास दूरी बनाए रखते हैं, पूरब की दुनिया और उसकी परंपराओं के बारे में नई मान्यताएँ रखते हैं और परंपरा-संस्कृति का पुनराख्यान पेश करते हैं।
मैनेजर पांडेय बेजोर विटी जनवक्ता हैं।
23 सितंबर 2007 की दोपहर। ‘बिहार का मास्को’ नाम से विख्यात बेगूसराय जनपद। जनपद के सुदूर देहात का एक गाँव सिमरिया। दिनकर की जन्मभूमि में दिनकर जन्मशती साल का उद्घाटन समारोह और स्वयं मैनेजर पांडेय का जन्मदिन। पुस्तकालय का मैदान। पूरे जनपद और दूसरे जनपदों से पहुँची लगभग दस हजार श्रोताओं की भीड़। किसान, मजदूर, बुद्धिजीवी, ल्ोखक, पत्र्ाकार, नेता, छात्र्ा, महिलाएँ, नौकरी पेशा, व्यवसायी और निठल्ल्ो बेरोजगार भी। पनियल बादलों की फटन से रोशनी, पानी और स्वागत शब्द तीनों की बारिश जारी है। तीखी हवा के झोंकों के बीच विशाल मंच पर एक क्षीण काया, छोटा कद, दुबला-पतला गोरा शरीर, अर्द्धचंद ललाट परतभेदी आँखों पर चश्मा और नन्हीं हथ्ोली में सिगार चांपे प्रवेश करता है। भादो की आँधी गा रही है- कलम आज उनकी जय बोल। हिलता हुआ पंडाल तालियां बजा रहा है, दरी और दरीचे स्वागत कर रहे हैं, मुंडेरों और चहारदीवारियों की ओर से सैकड़ों हाथ हिल रहे हैं, किशोर-बच्चों से लदे पेड़ इंकलाब जिंदाबाद बोल रहे हैं।
सुदूर श्रोताओं को काठ की गोलादार सिल्ली दिख रही है, मैनेजर पांडेय नहीं दिख रहे हैं। ...संबोधन......अभिवादन...। नारियल जैसी खोपड़ी दिख रही है, प्रचारित विज्ञापित वक्ता और पूर्व में दिनकर राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित जेएनयू के आलोचक मैनेजर पांडेय कहीं नहीं दिख रहे हैं। डैश के ऊपर दिखने के लिए पांडेय जी के पांव को गांव की ओर से टोकन चाहिए। संबोधन, अभिवादन, और फिर अभिव्यक्ति का लंबा, अटूट, अनवरत सिलसिला। आदमी नहीं मानो काठ का डैश बोल रहा हो। गूंज ऐसी कि हवा-पानी-रोशनी पर साउंडबाक्स और लाउडस्पीकर की आवाज भारी है। विचार-बादलों की गड़गड़ाहट और बीच बीच में विट-बिजली की चमक। कार्यकर्ता की श्ौली, बोलचाल की लय, लोक मुहावरों-सूक्तियों की व्यंजकता, राजनीतिक निहितार्थ से भरी समसामयिक तथ्यों की छौंक, गंवई टोन और गंभीर मूर्त शास्त्र्ाीय चिंतन। नब्बे मिनट के लिए पूरी फिजा गुरुत्वाकर्षण में बंध जाती है। शिवमंगल सिंह सुमन, पदमा सचदेव, नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी, पंकज बिष्ट, नंद किशोर नवल, विश्वनाथ त्र्ािपाठी से ल्ोकर चुटकुलानंद व डोमाजी उस्ताद तक सैकड़ों वक्ताओं को यह दुराग्रही मंच उत्सवी भाव से अपनी छाती पर चढ़ा चुका है ल्ोकिन मैनेजर पांडेय की भाषणकला और विचार-ताप जनपद के जनमानस में अद्वितीय और अतुलनीय है। भारत भर के अनगिनत मंच उनकी तकरीर-अदा के पसंदगीर हैं।
मैनेजर पांडेय ‘खोजी’ और ‘विनोदी’ शिक्षक हैं।
बात बनारस की है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के डीएवी काल्ोज की ओर से पुरातन छात्र्ा मैनेजर पांडेय का एकल सम्मान कार्यक्रम था। सम्मान गोष्ठी में दो सेवानिवृत्त शिक्षक मौजूद थ्ो। इतिहास शिक्षक का एक वाक्य दिलचस्प लगा- मैनेजर बीए की कक्षा में भी खोदी और विनोदी स्वभाव के थ्ो। मेरी समझ से ये दोनों पद उनके व्यक्तित्व के अहम पहलू हैं।
खोदी यानी खोजी स्वभाव मैनेजर पांडेय की आलोचना का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। खोदना क्रिया से हिन्दी में अनेक मुहावरे हैं- दांत खोदना, खादान खोदना, खोदा पहाड़ निकली चुहिया आदि। रागदरबारी का रंगनाथ तो शोध क्रिया को घास खोदने का पर्याय मानता है। इन मुहावरों से अलग मैनेजर पांडेय के लिए खोदना पद खोज, शोध, अनुसंधान के अर्थ में है। जेएनयू की लाइब्रेरी के तो वे गण्ोश रहे हैं।
मैनेजर पांडेय जिस शहर में जाएंगे वहाँ की पुरानी लाइब्रेरियों का हालचाल ल्ोंगे। उन्हें कहीं से राहुल के भोजपुरी नाटक चाहिए, कहीं से 1857 के जनगीत चाहिए, कहीं से वज्रसूची चाहिए, कहीं से सखाराम गण्ोश देउस्कर की देश की बात चाहिए, कहीं से मीरा और कबीर के अनछुए पद चाहिए, दाराशिकोह की जीवनी चाहिए, कहीं से ब्राह्मण, प्रदीप चांद, रूपाभ, जनता, हिन्दू की पुरानी फाइल्ों चाहिए, कहीं से हिन्दी खड़ी बोली की पहली कविता चाहिए।
इस खोज अभियान में उनके छात्र्ा अश्व की तरह इस्तेमाल होते हैं। कई बार कविता की एक टुकड़ी के लिए उनका सहज दूरभाष आ धमकता है। देशज ज्ञान की तरह पश्चिमी ज्ञान मीमांसा के स्रोतों पर उनकी खोजपूर्ण दृष्टि छात्र्ाजीवन से ही ‘वकोध्यानम’ की रही है। मैनेजर पांडेय के छात्र्ा मित्र्ा अखिलेश त्र्ािपाठी (बीएचयू, अंग्रेजी विभाग) के संस्मरणों से आपको पता चल्ोगा कि उनका मार्क्सवादी और आधुनिकतावादी आलोचना और विचार के अनेक रूपों के प्रति आकर्षण अंग्रेजी पत्र्ा-पत्र्ािकाओं के माध्यम से आरंभ से ही हो गया था।
हिन्दी में किसान जीवन से सूर की कविता का संबंध, स्त्र्ाी मुक्ति और शृंखला की कड़ियां के रिश्ते, दलित मुक्ति और वज्रसूची की प्रासंगिकता जैसे अनेक मुद्दों पर मैनेजर पांडेय की पहली खोजी दृष्टि इस बात का प्रमाण है कि मैनेजर पांडेय का बुनियादी स्वभाव अकादमिक शोधार्थी का रहा है।
भाषा और ज्ञान पदानक्रम के हिसाब से बड़े हिन्दी विभागों में चार किस्म के शिक्षक पाए जाते हैं- साक्षरता शिक्षक, प्रयोजनमूलक शिक्षक, साहित्य शिक्षक और शोध शिक्षक। साक्षरता शिक्षक वे होते हैं जिनका कार्य गैर हिन्दी भारतीय व विदेशी गुणग्राहकों में सर्टिफिकेट, डिप्लोमा पाठ्यक्रमों के माध्यम से अक्षर ज्ञान व प्राथमिक आस्वादबोध कराना होता है। प्रयोजनमूलक शिक्षक अनुवाद, पत्र्ाकारिता के माध्यम से सरकारी कामकाज की पुरानी रघुवीरी हिन्दी की ज्ञानमणि लुटाते हैं तथा नया कुछ नकारते हुए पुराने से कामकाज चलाते हैं। साहित्य शिक्षकों में ललित, फलित और गणित तीन कोटियाँ होती हैं। ललित शिक्षक रचना का देशकाल निरपेक्ष ललितत्व बोध कराते हैं, फलित शिक्षक देश काल में ललित ज्ञान से मिलने वाल्ो फल की चर्चा करते हैं वहीं गणित शिक्षक साहित्य के भीतर जोड़, घटाव, गुणा, भाग का सूत्र्ा निर्माण करते हैं। इनसे अलग शोध शिक्षक होते हैं जिनकी कम से कम दो कोटियाँ होती हैं- कट एंड पेस्ट शिक्षक और शोधक शिक्षक। कट एंड पेस्ट शिक्षक शोधकार्य के लिए कटिंग-पेस्टिंग का दिव्यज्ञान देकर सानंदसुखी रहते हैं वहीं शोधक का कार्य बहुत दुष्कर और दुस्साध्य होता है। जेएनयू की पूरी संरचना ही शोध ज्ञान केन्द्रित है, इसलिए वहाँ शोधक शिक्षकों की संख्या बड़ी और गुणवत्ता ऊँची है। मैनेजर पांडेय एक कुशल, श्रमशील, दृष्टिसंपन्न शोधक और शोध शिक्षक रहे हैं जिसका गहरा संबंध उनकी खोज दृष्टि से है।
मैनेजर पांडेय व्यंग्य सूक्तियों के बादशाह हैं। आलोचना के लिखित और वाचिक दोनों रूपों में उनकी सधी हुई व्यंग्य सूक्तियाँ इतनी मारक होती हैं कि साहित्य के अखाड़े के बड़े-बड़े पहलवान पानी तक नहीं मांगते। इतिहास शिक्षक का यह कथन कि मैनेजर आरंभ से ही विनोदी स्वभाव के रहे हैं यह बताता है कि उनकी विनोदी वृत्ति इनके ज्ञान-चिंतन के संपर्क में आकर सूक्तिकथन को संभव कर पाई है। यह विकास और विस्तार उनकी दिनचर्या, भाषण और ल्ोखन तक में दिखाई पड़ता है।
सहयात्र्ाी और निकटस्थ लोग जानते हैं कि मैनेजर पांडेय की बातचीत की श्ौली से लगातार व्यंग्य और व्यंजकता के तीर छूटते रहते हैं। मैनेजर पांडेय की महफिली बैठक को यह प्रवृत्ति जीवंत और जायकेदार बना देती है। पसंदगी और नापसंदगी की तीखी समझ और तल्ख टिप्पणी उनके समर्थकों से ज्यादा विरोधियों की कतार बनाती चलती है जिसके खामियाजे से वे परिचित रहते हैं। मैनेजर पांडेय की व्यंग्यवृत्ति से जहाँ एक ओर माहौल सरस होता है वहीं उनका दुरूपयोग या स्वार्थपरक उपयोग करने वाल्ो लोग तिलमिलाहट से भड़ककर परोक्ष हमल्ो शुरू कर देते हैं। साखी में उनके खिलाफ छपी चिट्ठी का एक कारण यह भी है।
व्यंग्य-विदग्धता का सिर्फ एक उदाहरण देखिए। बनारस अतिथि सत्कार में अनूठा शहर है। यहाँ से सांस्कृतिक राजधानी का तामझाम विस्थापित हो जाने के बाद बौद्धिकों का घर ‘बुद्धिजीवी गेस्ट हाउस’ में बदल गया है तथा झोला बौद्धिक जायके का सचल चुरमा-स्टोर। दिल्ली वाल्ो इसका सर्वाधिक स्वाद ग्रहण करते हैं या करने में सक्षम हैं।
मैनेजर पांडेय की एक विश्ोषता है कि वे शिकार होने से अक्सर सावधान रहते हैं। एक प्रोफेसर के अतिशय सत्कार से वे इतना घबड़ाते हैं कि अक्सर उस सज्जन पर टिप्पणी कर ‘अड़ी’ को कहकहे में बदल देंगे- कुछ लोग गल्ो मिलते हैं, कुछ लोग गल्ो पड़ जाते हैं। मैनेजर पांडेय उन ल्ोखकों में नहीं हैं जो उंगली पकड़कर बांह पकड़ने की छूट देते हों। स्वागत रथ चाहे वामपंथी का हो, मध्यमार्गी का या दक्षिणपंथी का, उन्हें सवार होने में छुआछूत की परेशानी नहीं होती ल्ोकिन मंच की संरचना, रूप और अंतर्वस्तु का उन्हें हमेशा ध्यान रहता है। मैनेजर पांडेय की व्यंग्य-सूक्ति कई बार आयोजक के पाखंड और कर्मकांड की कलई खोल देती है और मंच पर होते हुए भी मूलतः वे मंच से बाहर श्रोताओं के साथ होते हैं। गहरे अर्थों में जन बौद्धिकता का ईमानदार, साहसी और दुनियादारी से मुक्त विचार उन्हें मुक्तिकामी चिंतक बनाता है।
जेएनयू के तीन दशकों के अध्यापन इतिहास में मैनेजर पांडेय की छवि एक पारदर्शी, ईमानदार, छात्र्ा-समर्पित, दुनियादारी से मुक्त शिक्षक की रही है। मैं तो उनका लोकशिष्य ही हूँ ल्ोकिन पीढ़ा-पानी से जुड़े चतुर सयान शिष्यों की भी स्पष्ट मान्यता रही है- ‘पांडेय जी दुनियादारी के राग-द्वेष से युक्त शिक्षक हैं। उन्हें यह भी पता नहीं रहता कि ‘इन दिनों बाजार में सब्जियों का क्या रेट है। उन्हें ठेलावाल्ो भी ठग ल्ोते हैं।’ कल्पना कीजिए, जिस व्यक्ति को ठेलावाला ठग ल्ो और चतुर समान शिष्यों के लिए यह गुदगुदाहट का विषय हो, उनके शिष्य उनका क्या करते होंगे, यह शिष्य ही जाने।
पांडेय जी विचार की दुनिया में चाहे जितने वस्तुवादी और वैज्ञानिक रहे हों, व्यक्तिगत जीवन में भावुक, समर्पित, आत्मीय, दिलदार और कर्ण-मृदु रहे हैं। कबीर का पद- ‘हमन हैं इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या’ को जीने वाला उदात्त व्यक्तित्व ही इस संसार और व्यक्तिगत जीवन में इतनी विशालता और उदात्तता का परिचय दे सकता है।
मैनेजर पांडेय की उदात्तता का एक प्रमाण यह है कि वे आम बौद्धिक अकादमिसियन की तरह बदल्ो की आग में हृदय और मस्तिष्क को समिधा नहीं बनने देते और भोली-भावुकता का प्रमाण है कि वे लगभग बच्चे एवं प्रेमी की तरह किसी से क्षणिक नाराज हो उठते। चेहरे र्के इाने में यह इबारत कोई भी पढ़ सकता है। मैनेजर पांडेय का विचार जहाँ ‘खोज’ से निर्धारित होता है वहीं आचार ‘विनोद’ से। ‘खोज’ और ‘विनोद’ का यांत्र्ािक मिश्रण नहीं, अनूठा प्राकृतिक रसायन उनके विचार और आचार शब्द और कर्म को मौलिक ऊँचाई देता है जिससे जलने भुनने वाली हिन्दी की जलनशील दुनिया हमेशा उनके प्रति ज्वलनशील बनी रहती है।
भारतीय भाषा केन्द्र के छात्र्ाों की एक अधूरी इच्छा रही है कि कैंपस में गंूजनेवाल्ो, कैंपस को रसवंत और ऊर्जावान बनाने वाल्ो मैनेजर पांडेय के हास्य-व्यंग्य कथनों का एक कोश तैयार किया जाए। नामवर सिंह पर पिछल्ो दिन एक किताब संपादित हुई है- जेएनयू में नामवर सिंह। मेरा खयाल है कि जेएनयू में मैनेजर पांडेय पर न्यूनतम दो किताबें बनानी होगीं। एक किताब उनके अकादमिक योगदान पर सायास लिखवानी पड़ेगी किंतु दूसरी भारतीय भाषा केन्द्र और उससे अलग दूसरे केन्द्रों के उन सैकड़ों छात्र्ाों-शोधार्थियों, शिक्षकों, कर्मचारियों के वाचिक वाक्यों से सहज निर्मित हो जाएगी जिसके भीतर से शिक्षक छात्र्ा के पब्लिक स्फेयर यानी लोकवृत्त यानी लोकतंत्र्ा का शानदार समय सामने आएगा।
उस लोकवृत्त के स्वस्थ जनतंत्र्ा में छात्र्ा- लुभाऊ संस्कृति, छात्र्ा पटाऊ संस्कृति, छात्र्ा हड़काऊ संस्कृति, अंक-लुटाऊ संस्कृति, कैंटिन कथा, चाय-समोसा कथा, चाउमीन-डोसा कथा, गीत गवनई कथा आदि के लिए कोई जगह नहीं होगी बल्कि शोध, खोज और विनोद का प्राणवंत रसायन होगा।
मैनेजर पांडेय के सेवानिवृत्ति सम्मान समारोह के वक्तव्य में नामवर सिंह ने पंत की एक पंक्ति के हवाल्ो से कहा था- ‘कुछ व्यक्ति होते हैं जिनकी जगह दिगंत भी नहीं भर सकता है। भारतीय भाषा केन्द्र के लिए पांडेय जी के बारे में मैं यही कह सकता हूँ।’ मैं उस कार्यक्रम का संचालन कर रहा था। कैंपस में मैनेजर पांडेय की लोकप्रियता का वह सबूत-मंच था।
मैनेजर पांडेय बहादुर, शास्त्र्ाी और लाल हैं।
लंका के बीचोबीच एक किताब की एक पुरानी दुकान है- यूनिवर्सल। दुकान मालिक के पास एक खूबसूरत संस्मरण है। सुविधा के लिए उसका शीर्षक आप रख सकते हैं- लाल बहादुर शास्त्र्ाी और मैनेजर पांडेय। कहना है दुकान मालिक का कि मैनेजर पांडेय जब हिन्दी विभाग, बीएचयू के छात्र्ा थ्ो तब अकसर दुकान पर आते थ्ो और दुकान के पिछल्ो हिस्से में सहपाठियों के साथ रहते, रूकते, पकाते, खाते थ्ो।
तब रामनगर के लालबहादुर शास्त्र्ाी नेहरू के बाद देश के दूसरे प्रधानमंत्र्ाी हो चुके थ्ो। देश बाहरी और भीतरी संकटों से इतना ग्रस्त था कि उन्हें ‘जय-जवान जय किसान’ का संयुक्त नारा देना पड़ा था। लंका पर भी बेरोजगारों की फौज उतनी ही बड़ी थी जितनी भारत में। एक निरक्षर बेरोजगार ने ‘यूनिवर्सल बौद्धिकों’ से नौकरी का निवेदन किया। मैनेजर पांडेय के एक सहपाठी को शरारत सूझी। बेरोजगार को सुझाव दिया कि यहाँ शाम को प्रधानमंत्र्ाी लालबहादुर शास्त्र्ाी के अनुज रोज पधारते हैं। आगमन पर उनके पाँव छुओ और नौकरी की फरियाद करो। तुम्हारा काम बन जाएगा।
लाल बहादुर शास्त्र्ाी की तरह ही छोटा कद, दुबली काया, गोलमटोल चेहरा, सौम्य सहज व्यक्तित्व, खादी पोशाक; कोई क्यों न मान बैठे कि मैनेजर पांडेय शास्त्र्ाी जी के लघु भ्राता ही होंगे। शाम को बनारसी गुरु की मुलाकात जब ‘लघु शास्त्र्ाी’ से हुई तो वह सहज मान बैठा कि उनका मुक्तिद्वार मिल गया। बनारसी गुरु को क्या पता कि ‘लघु शास्त्र्ाी’ अभी स्वयं बेरोजगार पीढ़ी का नेतृत्व कर रहे हैं। झुकने, पांव छूने, घिघियाने और फरियाद सुनाने का जो नतीजा हो सकता था, वही हुआ ल्ोकिन सहपाठी-शरारतियों को चाय सुरकने, पान घुलाने और बकैती करने का स्वादिष्ट मसाला मिल गया जो महीनों चलता रहा।
इस संस्मरण का दूसरा पहलू भी बहुत मर्मस्पर्शी और संघर्षशील है। वह पहलू मैनेजर पांडेय की निर्मिति की शुरूआती यातना, संघर्ष और बहादुरी की कथा कहता है। संयोग कहिए कि मैनेजर पांडेय के बचपन और लाल बहादुर शास्त्र्ाी के बचपन की नियति में कई समानताएँ हैं।
लाल बहादुर शास्त्र्ाी के परिवार की तरह मैनेजर पांडेय का परिवार साधारण गृहस्थी का था। लाल बहादुर शास्त्र्ाी के पिता डेढ़ साल की अवस्था में संसार छोड़ चुके और मैनेजर पांडेय की मां तब गुजर गई जब वे पांचवीं में थ्ो। दोनों की प्राथमिक पाठशाला आसपास हुई ल्ोकिन उच्च शिक्षा के लिए बनारस जाना पड़ा। शास्त्र्ाी जी और पांडेय जी दोनों ने छात्र्ा-राजनीति से जुड़ाव रखा ल्ोकिन एक विषय में दर्शनशास्त्र्ा लिया।
शास्त्र्ाी जी को जहाँ तैरकर गंगा पार करना पड़ा वहाँ पांडेय जी को हाईस्कूल पढ़ाई के दौरान ‘बरसात के दिनों में बीच के रास्ते में काफी दूर तक पानी भरा रहता था। बहुत मुश्किल से मैं उसे पार करके जाता था। मेरी कद काठी के हिसाब से दूसरों के लिए कमर भर पानी मेरे लिए गर्दन भर हो जाता था।’ जैसी स्थिति झेलनी होती थी। शास्त्र्ाी जी के पिता पढ़े लिख्ो क्लर्क थ्ो ल्ोकिन मैनेजर पांडेय परिवार का पहला साक्षर और गांव का पहला बीए हुए। युग का अंतर होते हुए भी दोनों को पारिवारिक झंझावात झेलने पड़े। वयस्क अवस्था में शादी होने से शास्त्र्ाी जी को भल्ो दहेज के तौर पर एक चरखा और धागा मांगने का शऊर था ल्ोकिन मैनेजर पांडेय का बाल विवाह तब हो गया जब तेरह साल की उम्र में उन्हें रूक्मिणी और राधा का सामान्य अर्थबोध भी नहीं हुआ था। यह अनहोनी जैसा है कि गोपालगंज के लोहटी जैसे पारंपरिक गांव से चलकर कोई किशोर बनारस में ज्ञानकांड में नया अध्याय जोड़ रहा था। शास्त्री जी गांधीवादी थे लेकिन मार्क्सवादी मैनेजर पांडेय के बारे में कम लोग जानते होंगे कि बीए के दौरान वार्डन शिक्षक बाबू विश्वनाथ राय के संसर्ग में वे चार साल सर्वोदय की गतिविधियों में संलग्न रहे, तीन दिन भूदानी विनोबा के साथ बिताया और छात्र राजनीति के कारण पीड़ित-प्रताड़ित होते रहे। मैनेजर पांडेय की शुरूआती बहादुरी, इच्छाशक्ति और साहस का परिणाम हुआ कि वे हिन्दी विभाग में शोधपथ पर आगे बढ़े।
बहादुरी के साथ शास्त्र्ाीयता और लालरंग का परवान भी उनमें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वातावरण में चढ़ा। कृष्णकथा की परंपरा और सूरदास का काव्य ‘मैकमिलन से 1982 में छपी जो पं0 जगन्नाथ शर्मा ‘गुंडेश’ के शोध निर्देशन में किया गया गंभीर शोध कार्य है। इस शोधकार्य में मैनेजर पांडेय के देशी-विदेशी ज्ञान की शास्त्र्ाीयता की गंभीर उपस्थिति मिलती है।
1967 और 1975 के राजनीतिक संक्रमण, संघर्ष और रूपांतरण से पूर्व छात्र राजनीति के साथ ही साथ शहर में कम्युनिस्ट पार्टी की जो गतिविधियाँ थीं उनमें रूस्तम सैटिन, गिरिजेश राय आदि के संपर्क में आना, साहित्यकारों में धूमिल, विष्णुचंद्र शर्मा आदि से जुड़ाव होना तथा दुनियाभर के जनआंदोलन पर गहरी नजर रखना उनके लाल रंग को गाढ़ा करता रहा।
मैनेजर पांडेय हिन्दी साहित्य के लालबहादुर शास्त्र्ाी नहीं हैं ल्ोकिन बहादुर, शास्त्र्ाी और लाल जरूर हैं। नेहरू और नेहरूवादी मूल्यचेतना को चुनौती देने वाली विचारधारा का लाल बहादुर शास्त्र्ाी की मूल्यदृष्टि से कोई साझा रिश्ता कभी हो भी नहीं सकता। हाँ, यह सच है कि गोरख पांडेय और वरवरराव की कविताओं की परख और पड़ताल का साहस नैतिकता और प्रतिबद्धता पड़ताली पीढ़ी के आलोचनाकर्म में अकेल्ो उनके पास दिखाई पड़ती है।
मैनेजर पांडेय के साथ मेरी अंतरंगता के अनुभवों के अन्य रंग अन्यत्र कभी।