Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

11 मार्च, 2018

मुक्तिबोध अतिरिक्त फैंटेसी के कवि हैं :रामाज्ञा शशिधर

📚पुरानी किताब:नई बात संवाद श्रृंखला📚
::फैंटेसी विमर्श::
~~~~~~~~
सहमतिपूर्ण यथार्थ से मुक्ति की यात्रा ही फैंटेसी है-मालवीय चबूतरा
@रामाज्ञा शशिधर
📚पुरानी किताब:नई बात📚 संवाद श्रृंखला के अंतर्गत आज मुक्तिबोध के बहाने फैंटेसी विमर्श लगभग डेढ़ घन्टे चला।सवाल जवाब सत्र में विज्ञान के छात्र प्रणव का प्रश्न फैंटेसी और  सभ्यता की मुक्ति से जुड़ा था-विज्ञान  किस तरह फैंटेसी का हत्यारा है?मिथक के रूप में फैंटेसी किस तरह सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती है?
             इन प्रश्नों से पहले जानिए फैंटेसी क्या है?इसलिए भी कि पचीस से अधिक संख्या में आए ज्ञान पिपासुओं का कामन
सवाल था-फैंटेसी क्या है?क्या उसका उपयोग सिर्फ मुक्तिबोध के यहां मिलता है?क्या फैंटेसी हरेक चेतना की सामान्य विशेषता है या सिर्फ लेखक की पूँजी है?क्या फैंटेसी फॉर्म है या चेतना का सामान्य गुण?क्या और भी रचनाकारों की रचनाओं में भी फैंटेसी मिलती है?फैंटेसी का बोध एक पाठक या श्रोता दर्शक कैसे कर सकता है?आदि।
           बात परिचित कवि मुक्तिबोध के चित्र विधान से शुरू करता हूँ।गुफा में मशाल जलती है और उस रोशनी में दीवार की भीत से दूसरा चेहरा उभरता है।वह रक्तस्नात पुरुष कौन है?एक बच्चा फूल में बदल जाता है।फूल बन्दूक में भी बदल सकता है।मूर्ति के फ़टे सर से खून का फब्बारा गिरता है।कहीं टॉलस्टाय मिलते हैं तो कहीं मार्क्स।कहीं बुद्ध दिखते हैं तो कहीं गांधी।लकड़ी का रावण जीवित से अधिक घातक दीखता है।वह ब्राह्मण शिक्षक असमय मर गया था फिर कूप के अतल में उसकी रूह ब्रह्मराक्षस बनकर अट्टहास क्यों करती है!
            ये काव्य बिंब वस्तुतः फैंटेसी के प्रयोग से संभव काव्य रूप हैं।
        फैंटेसी प्रचलित और कंडीशंड यथार्थ से मुक्ति की मानसिक यात्रा है।फैंटेसी कल्पना प्रसूत स्वप्न चित्र की श्रृंखला है।फैंटेसी मानव चेतना की बुनियादी विशेषता है।यह मानव अचेतन की विशिष्ट क्षमता है।फैंटेसी सिर्फ किसी लेखक कलाकार की जागीर नहीं।फैंटेसी रचनकार के यहां आकर विशेष कला रूप की भूमिका अदा करती है लेकिन पाठक को भी लेखक के मानसिक धरातल पर गए बिना रचना का बोध असम्भव है।इसलिए फैंटेसी रूप की समझ और विकास पाठक की भी जरूरत है।हिंदी आलोचना और एकेडमिक बहस में मुक्तिबोध के अलावा सामान्य रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए जब फैंटेसी की चर्चा ही नहीं होती तो पाठक के अचेतन पर कौन सोचता है?यह हिंदी के सौंदर्य चिंतन की भयावह दरिद्रता है।दर्शन की कंगाली।
           फैंटेसी का सम्बन्ध मानव के अस्तित्व विकास से जुड़ा है।मानव मन अधूरी इच्छाओं की खोज है,पूर्ति की कोशिश है।आकांक्षा की यात्रा में अनेक बाधाएं हैं।मानव का चेतन उसके ही भीतर के संसार का दमन करता है।वह समाज और बाह्य जगत के शासन बन्धन से जकड़ा है।लेकिन एक और मन है जो भीतर भीतर यात्रा करता रहता है।फ्रायड उसे अनकंसस कहते हैं।लकां उसे इमेजनरी और सिम्बलिक में बांटते हैं।युंग के लिए वह मिथक और सिम्बल का स्टोर है।मानस के अचेतन क्षेत्र से व्यक्तित्व संचालित होता है।अचेतन इलाके में ही स्मृति कल्पना भाषा चित्र और स्वप्न की गतिविधि होती है। अधूरी इच्छाओं की पूर्ति की यात्रा स्वप्न है और उसकी चित्रावली फैंटेसी है।
               फैंटेसी चित्र श्रृंखला है और तरल यात्रा है।उसके भाषिक चिह्न में ढलने का द्वंद्वात्मक नियम है।इस सामग्री की खोज में मनोभाषा विज्ञान ऊंचाई छू चूका है।लेकिन हमारी ट्रेन मुक्तिबोध नामक प्लेटफार्म पर ही अटकी हुई है।मुक्तिबोध मनोविज्ञान के गहरे अध्येता थे।
एक साहित्यिक की डायरी और उनकी पूरी आलोचना में मनोचिन्तन बिखरा पड़ा है। हिंदी की स्थूल कथित प्रगतिशील आलोचना को जो बात समझ में न आए वह जनविरोधी स्टाइल है।आजकल इसीलिए वह खुद जन से दूर शूर गान करती दिखती है।
            फैंटेसी वस्तुतः केवल कला शिल्प ही नहीं मोड भी है।पारम्परिक,यथार्थवादी और आधुनिकतावादी साहित्य में फैंटेसी की उपस्थिति अनुपस्थिति से मानव सभ्यता के उठान ढलान को परखा जा सकता है।
        होमर,कालिदास,व्यास,बाल्मीकि से लेकर जातक,पंचतंत्र,पुराण,संत साहित्य तक फैंटेसी का साम्राज्य है।पराशक्ति,जादू,प्रकृति और मिथक फैंटेसी निर्माण की आधारभूमि है।इसलिए सामंती दौर की रचनाशीलता में यह कला रूप भरपूर है।आधुनिक विज्ञानवादी चेतना ने मानव नियति को ही नहीं उसके अचेतन को क्षतिग्रस्त कर दिया।बुद्धि और तर्क की प्रयोगशाला में आत्मा का पोस्टमार्टम शुरू हुआ।परिणाम सामने है।बाल्ज़ाक के किसान से प्रेमचंद के गोदान तक प्रत्यक्ष यथार्थ की ऐसी आंधी चली कि मानव मन का कोई सुधिवेत्ता नहीं रहा।संवेदना और चेतना को पुरातत्व का म्यूजियम बना दिया गया।मरी हुई मूर्तियां मुद्रा अपना सकतीं लेकिन नृत्य नहीं कर सकती।यथार्थवादी साहित्य में फैंटेसी न्यूनतम है।आधुनिकतावादी मनुष्य का संकट उसके मानस के अलगाव और विघटन का संकट है।अलगाव ही वह क्षेत्र है जो उसके मानस को एकालाप की फुर्सत देता है।दुर्भाग्य से आधुनिकताबोध अलगाव को काफ्का के मेटामोर्फोसिस के कीड़े में बदलने के बदले शेखर का ईगो खोजता रह गया।फलतः कला वीणा असाध्य हो गई।काफ्का अलगाव से फैंटेसी रचते हैं और मुक्तिबोध भी।मुक्तिबोध की फैंटेसी एक आधुनिक ट्रेजिक
मनुष्य के एकालाप और आत्म हाहाकार से उपजी हुई फैंटेसी है।वह तब कविता को ढाल रही है जब आधुनिक मन बहुत कुछ रियाज और मिजाज खो चूका है।इसलिए
सरल कवि मुक्तिबोध जटिल लगते हैं।मूढ़,पेशेवर और धंधेबाज विश्लेषक उस हथियार से पुरस्कार का शिकार और वेतन का रोजगार चलाते हैं।
         फैंटेसी केवल कविता की पूँजी नहीं बल्कि फिक्शन की भी सम्पदा है।जिसे जादुई यथार्थवाद कहते हैं उसने उपन्यास की रचनात्मक सम्भावना को वैश्विक ऊंचाई दी है।उपन्यास सृजन में भी  नए सिरे से महाकाव्य के दौर को दुहराया जा रहा है।दुर्भाग्य है कि हिंदी में देवकीनंदन खत्री की परंपरा का विकास नहीं हुआ।आज जब साइंस फिक्शन से हॉलीवुड फ़िल्म तक में फैंटेसी केंद्रीय कला फॉर्म है तब हिंदी सूखे तथ्य की लाठी से रचना की भैंस हांककर इतराती रहती है।यह सृजन मुक्ति
के पुनर्मूल्यांकन का दौर है।
          फैंटेसी दरअसल वह साहित्यिक डिवाइस है जो हमारे समय की विस्मृति की रिकवरी कर सकती है और खोई हुई सम्वेदना को रिस्टोर करने में अहम भूमिका निभा सकती है।मुक्तिबोध फैंटेसी के दम पर सभ्यता समीक्षा की बात करते हैं।मुक्तिबोध फैंटेसी के कवि नहीं बल्कि अतिरिक्त फैंटेसी के बड़े कवि हैं।
      यह सांस्कृतिक सिजोफ्रेनिया और मेनिया का दौर है।सत्ता मिथक का दुरूपयोग फैंटेसी के माध्यम से कर रही है।दरअसल फैंटेसी ऐसा मानस शिल्प है जो मिथक को पिघलाकर नया मूल्य गढ़ सकता है।आजकल फैंटेसी के माध्यम से पुराने मिथकों को सत्ता अपने शासन और दमन का औजार बना रही है।ऐसे वक्त में लेखकों कलाकारों को वैकल्पिक प्रतिरोध रचने में फैंटेसी मदद कर सकती है।मुक्तिबोध की इतिहास पर किताब आजाद में जब्त ही नहीं हुई थी बल्कि उनकी अँधेरे में कविता का पूर्व नाम आशंका के द्वीप अँधेरे में है।इस कविता के 50 साल होने पर हमने एक दिवसीय आयोजन किया था।संयोग से तब वह तल नहीं खुल पाया था जो अब खुलता जा रहा है।
       पाठक के नजरिए से हिंदी में कभी फैंटेसी पर बात नहीं होती है।पाठक गहरे अर्थों में आलोचक और रचनाकार दोनों होता है।उसके अचेतन धरातल को बिना फैंटेसाइज किए कोई रचना उसे आनंद और अस्वादबोध से नहीं भर सकती है।यह पाठकोन्मुख समय है।पाठकीय लोकतंत्र के उत्तर समय में पुराने ढंग की लेखकीय,आलोचकीय और गुरुडम वाली जमींदारी नहीं चल सकती है।कारपोरेट धमकी का भी यहां असर उतना नहीं हो पाएगा।इसलिए पाठक के नए लोकतंत्र के पुनर्जन्म की दिशा में हम सबको मिलकर प्रयास करना होगा।
       मुझे लगता है प्रणव के दोनों सवालों का जवाब ऊपर फैला हुआ है। कला के तीन क्षणों की समझ के लिए फैंटेसी की समझ प्राथमिक शर्त है।
~~~~~

...जारी...

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

My name is Dr. Ashutosh Chauhan A Phrenologist in Kokilaben Hospital,We are urgently in need of kidney donors in Kokilaben Hospital India for the sum of $450,000,00,All donors are to reply via Email only: hospitalcarecenter@gmail.com or Email: kokilabendhirubhaihospital@gmail.com
WhatsApp +91 7795833215