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12 फ़रवरी, 2012

काशी के एक नए कवि की कविता में जायफल की खुशबू

  
हिंदी कविता के प्राचीन गर्भगृह में एक संभावनाशील एवं बेहद अनूठे कवि के जन्म का स्वागत है! २०१२ के बसंत में प्रस्तुत अजय राय की पांच कविताएँ अँखुआ,जायफल,अडडकाशी, अखबारनवीस एवं रेत अपनी अंतर्वस्तु,संरचना और अंदाजेबयां में बिलकुल भिन्न और उम्मीद से भरी हैं.इन कविताओं में बनारस के अनुभव का विश्वसनीय भूगोल है,पत्रकारिता के रोजमर्रे की परतों के भीतर छोड़ दिए गए सच का पुनराख्यान है,मध्यवर्गीय ठहराव की आत्मालोचना है,सत्ता की हिंसा की शिनाख्त है,बौद्धिक वर्ग के बाँझ चरित का टकसाली चित्रण है तथा है समय और चीजों को बदल नहीं पाने की आत्मग्लानि. रोटी को दांव पर लगाकर प्रतिबद्ध पत्रकारिता को जीने वाले इस युवा कवि में रघुवीर सहाय की काव्य -परंपरा की असली और अगली यात्रा देखी जा सकती है.चुनौती और जोखिम से भरी हुई. यह इसलिए भी कि रघुवीरी काव्य परंपरा ने जहाँ एक ओर कविता कर्म को आसान बनाया वहीँ कविता की नागर धरती पर कूड़े का ऐसा  उत्तुंग ढेर लगाया कि पाठकों के लिए कविता सौ मन कूड़े में चावल के एक कण जैसी हो गई.कबीर की धरती के इस नए कवि को आपका प्यार मिलेगा,यह उम्मीद है-रामाज्ञा शशिधर 

                                                                      

अंखुआ

बुरा वक़्त है
सेहत पर भारी वक़्त

हवा ख़राब है
पानी भी है जानलेवा

सुबह की जिस ताजी हवा का
जिक्र सुनते हैं किस्सों में
गीतों,ग़ज़लों में
वो बयार अब कहाँ उतरती है
शाखों से,

रात भर ओस के दुलार में ठिठके
स्नेह में भीगे दरख्तों के
पंख झटकारने,  पत्ते हिलाने
अलसाई शाखों को
झटकारने, झुमाने से
 कहाँ पैदा होती है
बाद-ए-नौबहार ।

सच में बहुत बुरा वक़्त आ गया है
सेहत के लिए

पेड़ अब वनुकुलित संयंत्र की
हवाएं पीकर हैं जिन्दा
ओस में रहकर भी
भींग कहाँ पाते हैं उसके स्नेह में

इस कठिन वक़्त में
जीने के लिए
लक्जरी कार से जाना पड़ता है दफ्तर
जिम में जाकर गलानी पड़ती है चर्बी
लगनी पड़ती है सुबह मीलों दौड़
करना पड़ता है योग और आसन

गेहूं, अदरक, अलोवेरा, तुलसी
गिलोय, मकोय का
पीना पड़ता है जूस
तब जाकर दिन भर आती-जाती
साँस आराम से,

बहुत जतन करना पड़ता है
सेहत के लिए
संयम बरतना पड़ता है खानपान में
रोज सुबह चबाकर
खाना पड़ता है अंखुआ
मूंग का, चने का
वनस्पतियों के फल से

कहाँ चल पा रहा अब काम
निठारी की शव परीक्षा में
अंखुए ही मिले थे क्षतविक्षत
सुना है ऐसा ही मैंने
सुना है

सुना है अकसर लोगों को कहते
बहुत बुरा वक़्त आ गया है।
आपने भी जरूर सुनी होगी
यह बात ।


 जायफल

सर्द हो रहा सब कुछ
हवा, पानी, दरख्त और देह

सब कुछ बर्फ
में ढल जाने को बेकरार
पान लगाते समय
मेडिकल चौराहे के पानवाले की
उंगलियां ठिठुर जाती हैं
सारा शरीर ढंक लीजिए
कान कनटोप में बांध लीजिए
पर पानी पर किसी का क्या असर
दस्ताने कामकाजी उंगलियों की
हिफाजत के लिए नहीं बने

पान और पानी की रिश्तेदारी में
उसकी उंगलियां गल रही हैं
उंगलियों का गलना एहसास है
कि कैसी ठंडक लग रही होगी
दूसरों को

वर्ना रातभर सड़क पर
अलाव के किनारे
काटने वाले कितनी मन्नत से
बुलाते हैं सुबह सूरज को
इसकी खबर लिहाफ में दुबके लोगों को
कहां हो पाती है

कहां पता चलता है कि
हर रात की सुबह
कितनी मन्नतों और
सांसतों के बाद आती है
बहरहाल,

पान वाले की उंगलियों में
सर्दी का थर्मामीटर है
जिसमें चढ़ता-उतरता
रहता है एहसास का पारा
उसने आज सर्दी महसूस की है
ग्राहकों में गर्मी का एहसास
बनाए रखने की उसकी
तरकीब का नाम है जायफल

वह थोड़ा सा जायफल
कसैली के साथ कुतरकर देता है
रत्ती भर जायफल
दिला देता है गर्मी का एहसास

जायफल
जिसने सिसायत की गरमाहट देखी

जायफल जिसके माथे पर हजारों
के कत्ल का कलंक है
जिसके ऊपर जावित्री की
मुलायम पर्त होती है
उसके भीतर गुठली बन
छुपा रहता है जायफल

जिसके फेर में अंग्रेजों ने
वर्षों रखा द्वीप  को गुलाम
धरती कहीं की बांझ नहीं थी
उस दिन भी और न है आज
पर जो जायफल का बीज ले जाए
उसका मरना तय था

व्यापार के इस एकाधिकार
में कई साल तक तपने के बाद
जायफल ने सीखा जेहन में गर्मी लाना

जायफल तुममें इतनी ताब थी तो
‌फिर क्यों रहे वर्षों गुलाम
बोलो जायफल, बोलो जायफल।

अड्डकाशी

बुद्ध की मौत हुई
शव अड्डकाशी में लपेटा गया
महीन सूती कपड़ा अड्डकाशी
धूप ताप सीलन से
बचाने वाला महीन कपड़ा
जिसे बुनते थे बुनकर काशी के

बापू ने वस्त्र चुना
तो चुना कपास का बुना
रेशम तो नहीं चुना
जिसे बुनती थी गुलाम
भारत की जनता

स्वामी जी रेशमी वस्त्र पहन
दे रहे हैं अहिंसा पर भाषण‌
उनको सुन हंस रहा है रेशम
सिल्क का कीट दूर
किसी शहतूत के पेड़ पर
किसी अर्जुन की पत्तियां कुरते हुए

रेशम का कीड़ा
पत्तियां खाकर बना
रहा है चमकीला धागा
जिससे  झांकता है ऐश्वर्य
अमीरी और औकात

अपने ही धागे से बनी खोल में
फंसता जाता है रेशम का कीट
एक दिन गिरफ्तार हो जाता है
इससे पहले के वह काकून काटे
उसे उबलना पड़ता है कड़ाह में
खौलते जल के कड़ाह में

ठीक उस कैलेंडर के दृश्य की मानिंद
जिसमें विभिन्न पापों की
यातना का सचित्र वर्णन होता है
जिसमें कम तौलने सजा को
देखते हुए दुकानदार केड़ी मारता है

वह रेशम की चमक ही है
जिसने कीड़े को मारा
वह रेशम की चमक ही है
जिससे चौंधियाकर
काशी के बुनकरों ने
छोड़ दिया कपास को

उस कपास को
जिसके बिना नहीं बता पाते
अस्सी के गोस्वामी तुलसीदास
संत के स्वभाव को

अड्डकाशी, मलमल बुनना
करघे पर कपास कसना छोड़ा
अपनाया रेशम के धागे को
उलझते गए अपने तनाबाना में
यमराज की यातना का वही दृश्य
उपस्थित हो गया

दंडपाणि की काशी में
जिसमें हर मरने वाले को
मिलती है सहज मुक्ति
और जिंदा रहने वालों को...
काशी क्या तुम्हारे पास

उनके लिए कुछ है तुम्हारे पास
पंचक्रोशी, अंतरगृही यात्राओं के सिवाय


अखबारनवीस 


सोलह पेज का अखबार
जिसकी आवाज पर खुलती है नींद
जिसका गहरा नाता है दैनिक क्रिया से

सोलह पेज का अखबार
जिसमें जैविक आनंद समाया है
चपोतने पर जो लगता है चौंसठ पेज का

सोलह पेज अखबार जो
दुनिया भर की खबर सुनाता है सुबह
चाय की चुस्की के साथ।
जिसकी पंक्तियों में तमाम
आशाएं, उम्मीदें दफ्न हैं।

जिसके हर्फों में हाजमें की गोली है
जिसकी सुर्खियों से सत्ता
का शेयर उठता गिरता है
जिसमें छपी आपकी तस्वीर

पूरे दिन वजूद का एहसास कर देती है
और गहरा, और गाढ़ा
और गर्वान्वित, और ताकतवर

सोलह पेज का वही अखबार
मेरी उनंदी आंखों में चुभता है
सुबह उसकी खड़ की आवाज
मुझे भर देती है एक भाव से

जिसमें असुरक्षा है, गर्व है,
स्पर्धा है, तर्क है
और भी जाने क्या-क्या है

वही सोलह पन्ने का अखबार
जिसमें खोजता हूं मैं अपना सोलहवा सांल
पचास पार की उम्र में भी

मगर
वही सोलह पन्ने का अखबार
बत्तीस, चौसठ, अस्सी
की गिनतियां पार करते समय
रक्तचाप, मधुमेह बनता है
दिल, गुर्दा, जिगर चाटता चलता है

सोलह पन्ने का अखबार
सब कुछ कहता है
बहुत कुछ बताता है
फिर भी चुप रहता है

उस दरख्त के हाल पर
जिसके लुगदी बनने पर
कागज बना
जिसके जलने से स्याही बनी
और जिसके खप जाने से

वह हर्फ बना जो
तय करता है सच का दायरा
झूठ की पर्देदारी।

रेत

रेत रीतती है तो
कराती है
समय की पहचान

मुट्ठी से रेत के
रीतने पर कभी सोचा अपने
क़ि कितना वक़्त फिसल गया
यूँही मुट्ठी में रेत, मिटटी
सहेजने में।

उँगलियों के पोरों के फासले से
कितनी रेत फिसल गई
घंटा, मिनट, सेकेण्ड बन।

काश क़ि
सहेजना छोड़
तानना सीख़ जाते इसे
सीख जाते हवा में लहराना

टूटते तब भी
पर एह्स्सास नहीं होता

क़ि रीत गयी उम्र रेत की मानिंद
रेतघड़ी बन

6 टिप्‍पणियां:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

रेत अच्छी लगी। जायफल में टंकण त्रुटी है सुधार लें।

RAJAN ने कहा…

बहुत ही जीवंत रचनाय्रे है...पूरे जीवन की सच्चाई ...आज की सच्चाई ...परोस दी है...

RAJAN ने कहा…

बहुत ही जीवंत रचनाय्रे है...पूरे जीवन की सच्चाई ...आज की सच्चाई ...परोस दी है...

Chaaryaar ने कहा…

दृष्टिकोण
कभी नाक की सीध में
एक उंगली खड़ी कर
आंखे मार-मार देखिए
नजर आएगी
उसकी बदलती स्थिति

आगे बढ़ती है रेलगाड़ी
पेड़ दिखते हैं पीछे भागते हुए

उमस के इंतजार में पड़े
अंखुआ बनने को बेताब बीजों को
कोसते मत रहिए

उनको आत्मसात कीजिए
गलिए, पचिए खाद बनिए
थोड़ा जलिए धूप बनिए
भाफ बनिए और बरसिए
सहिए थोड़ी तपिश, उमस

अचानक एक दिन
भीतर ही भीतर आपके
प्रेम के बीज कल्ले फेंकने लगेंगे।

थोेड़ा नजरिया भर बदलिए
प्यार में क्या नहीं हो सकता।

Chaaryaar ने कहा…

दृष्टिकोण
कभी नाक की सीध में
एक उंगली खड़ी कर
आंखे मार-मार देखिए
नजर आएगी
उसकी बदलती स्थिति

आगे बढ़ती है रेलगाड़ी
पेड़ दिखते हैं पीछे भागते हुए

उमस के इंतजार में पड़े
अंखुआ बनने को बेताब बीजों को
कोसते मत रहिए

उनको आत्मसात कीजिए
गलिए, पचिए खाद बनिए
थोड़ा जलिए धूप बनिए
भाफ बनिए और बरसिए
सहिए थोड़ी तपिश, उमस

अचानक एक दिन
भीतर ही भीतर आपके
प्रेम के बीज कल्ले फेंकने लगेंगे।

थोेड़ा नजरिया भर बदलिए
प्यार में क्या नहीं हो सकता।

Sonroopa Vishal ने कहा…

ज्वलंत भी ...शीतल भी ......लाजवाब कवितायेँ !आपकी परख भी उम्दा !