रामाज्ञा शशिधर
*सभ्यता का हर दस्तावेज बर्बरता का भी दस्तावेज होता है। -वाल्टर बेंजामिन
*अचेतन ‘अन्य’ का विमर्श क्षेत्र है। – लाकां
यह मुक्तिबोध की अंतिम कविता अंधेरे में का पचासवां साल है। अंधेरे में कविता 1957 से 1962 के बीच रची गई, जिसका अंतिम संशोधन 1962 में हुआ तथा प्रकाशन ‘आशंका के द्वीप: अंधेरे में’ शीर्षक से कल्पना में नवंबर 1964 में हुआ। यह मुक्तिबोध की प्रतिबंधित किताब भारत: इतिहास और संस्कृति का भी पचासवां साल है। ग्वालियर से 1962 में प्रकाशित होने और मध्य प्रदेश की तत्कालीन सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने के बाद जबलपुर न्यायालय द्वारा 1963 में किताब के प्रतिबंधित अंश हटाकर अतिरिक्त छापने के फैसले का यह पचासवां साल आशंका के द्वीप भारत के अंधेरे को ज्यादा विचारणीय बना देता है। यह अनायास नहीं है कि अंधेरे में की जब पचासवीं सालगिरह मनायी जा रही है, तब मुक्तिबोध की प्रतिबंधित किताब पर कहीं कोई बहस नहीं है। शायद इसका जवाब भी अंधेरे में कविता में मौजूद है।
अंधेरे में फैंटेसी में निर्मित कविता है। स्वाधीनता के छियासठ और भूमंडलीकरण के बाईस वर्षों बाद भारतीय समय, समाज, सत्ता और राष्ट्र का अंधेरा फैंटेसीमय हो गया है। मध्यवर्ग का चरित्र ज्यादा पतित हो गया है। आम जनता से उसका लगभग संबंध विच्छेद हो गया है। सत्ता के साथ वह ज्यादा नाभिनालबद्ध है। बौद्धिक वर्ग पूर्णत: रक्तपाई वर्ग का क्रीतदास हो गया है। राष्ट्रवाद, वर्गचेतना, सर्वहारा, जनक्रांति आदि शब्द मध्यवर्ग के शब्दकोश से गायब हो गए हैं। पश्चिमी आधुनिकता और कॉरपोरेट पूंजी राष्ट्रराज्य से गठबंधन कर जनता के सामने तानाशाह की भूमिका में है। शीतयुद्ध समाप्ति के बाद रहा-सहा मार्क्सवादी संस्कृति चिंतन बासी कढ़ी में उबाल की तरह दिखता है। जनता का एक बड़ा हिस्सा सभ्यतागत विनाश के आखिरी कगार पर विस्थापन, आत्महत्या, दमन और संघर्ष में संलग्न है लेकिन मध्यवर्ग और क्रीतदास बौद्धिक वर्ग का उससे किसी तरह का सृजनशील जुड़ाव नहीं है। वैश्विक सत्ता प्राकृतिक संसाधन और गांव-खेत के साथ मानव अचेतन के तिलस्मी इलाके पर भी उच्च तकनीकी संस्कृति के माध्यम से कब्जा कर चुकी है। अस्तित्व और चेतना का पूरा इलाका राजनीति, बाजार और भाषा के पाखंड एवं झूठ से पटा हुआ है। ‘अंधेरे की’ फैंटेसी ने रहस्य और जादू के जटिल खेल में पूरी सभ्यता को उलझा दिया है।
सभ्यता संकट के इस सर्वग्रासी दौर में ‘अंधेरे में’ कविता पाठकों के लिए एक नई रोशनी का काम कर सकती है। लेकिन हिंदी आलोचना के मठवाद और गढ़वाद ने मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का अंधेरा और बढ़ा दिया है। दिलचस्प है कि हिंदी आलोचना के फैंटेसी जैसे कला रूप से भले संबंध नहीं हो, लेकिन ‘अंधेरे में’ जैसी कविता की आलोचना के क्रम में उसका फैंटेसीमय गड्डमड स्वप्नचित्र देखने लायक है। क्लासिक मार्क्सवादी और यथार्थवादी आलोचक रामविलास शर्मा के लिए इस कविता पर एक ओर विकृत मनोचेतना के रहस्यवाद का प्रभाव दिखाई पड़ता है, वहीं दूसरी ओर सात्र्र के खंडित व्यक्तित्व के अस्तित्ववाद का। आधुनिकताबोध और नई समीक्षा से प्रभावित नामवर सिंह के लिए वहां भाषिक एवं साहित्यवादी अस्मिता की खोज है, वहीं स्थूल मार्क्सवादी प्रभाकर माचवे के लिए वह ‘गुएरनिका इन वर्स’ है। शमशेर के लिए यह कविता देश के आधुनिक जन इतिहास का स्वतंत्रतापूर्व और पश्चात का एक दहकता इस्पाती दस्तावेज है तो कलावादी अशोक वाजपेयी के लिए ‘खंडित रामायण’। एक आलोचक को इसमें लंदन की रात दिखती है तो दूसरे कवि को जापानी फिल्म का जंगल। बात यहीं ठहर जाये तो गनीमत है। तिलस्मी खोह में कुहासा बढ़ाने के लिए हिंदी आलोचना की हांफती हुई युवा पीढ़ी मुक्तिबोध पर किताब लिखती है तथा मार्शल लॉ लगाने वाली शक्ति से पुरस्कृत होती है। यहां गाइड छाप पदोन्नतिमूलक समीक्षा की चर्चा करना व्यर्थ है जिसे हिंदी आलोचना में ‘कूड़ावाद’ के प्रर्वतन का श्रेय दिया जाना चाहिए। जितनी चेतना मध्यवर्ग की तथा फैंटेसी की टूटी बिखरी हुई नहीं होती है, उससे ज्यादा कविता की आलोचना की है। विचारणीय है कि व्यक्तिपूजा और कर्मकांड से ग्रस्त हिंदी मनीषा पिछले समय में नदी के द्वीप के अज्ञेय की जिस तल्लीनता से पूजा-पाठ कर थी, इस वर्ष से आशंका के द्वीप: अंधेरे में के कवि मुक्तिबोध का उसी सम पर भजन-कीर्तन शुरू कर चुकी है। ऐसी परिस्थिति में मुक्तिबोध की इस कविता की आलोचना आग में पूरी हथेली डालने जैसा काम है।
‘अंधेरे में’ कविता के विश्लेषण-मूल्यांकन का संकट वस्तुत: उसमें प्रयुक्त फैंटेसी कलारूप, अचेतन विश्लेषण एवं मनोभाषिकी के संबंधों को ठीक से नहीं साधने-समझने का संकट है। यह समस्या हिंदी में जितनी बड़ी कलावादियों के सामने रही है, उससे कम बड़ी क्लासिक/ मार्क्सवादियों के लिए नहीं। वस्तुत: उपनिवेशित आधुनिकता के प्रचंड प्रभाव से पीडि़त हिंदी का ज्ञानकांड चेतन-अचेतन में जरूरत से ज्यादा यथार्थवाहक और पश्चिमोन्मुख है। इसकी जड़ें पुराने औपनिवेशिक ज्ञानकांड से नव साम्राज्यी चेतना कांड तक महीन रूप से फैली हुई हैं। अंधेरे में आधुनिक हिंदी में अकेली कविता है जो चार सौ साल के औपनिवेशिक ज्ञानकांड और कला रूप को बहुआयामी चुनौती देती है।
मुक्तिबोध ने गहरी साधना से इस काव्यरूप को अपने लिए संभव किया था। वे एक साथ सत्ता, व्यवस्था और सभ्यता के सच्चे समीक्षक थे। इसके लिए उन्होंने पूरा जीवन दांव पर लगा दिया तथा इस कारण उनकी अकाल मौत हुई। फैंटेसी एक यातनाकारी काव्यरूप है जो कलाकार से पूरा जीवन मांगती है। फैंटेसी ऐसा कलारूप है, जो मानव मन के चेतन, अवचेतन और अचेतन में विशिष्ट ढंग से आवाजाही करते हुए स्वप्न बिंबों की शृंखला का भाषिक सृजन करती है। फैंटेसी जाग्रत स्वप्न चित्रावली है। परिवेश के दमन और दबाव से फैंटेसी की शक्ति बढ़ती है। प्रतिरोध का आधार अंतर्वस्तु के रूप में भी होता है। फैंटेसी एक भाववादी किंतु क्रांतिकारी शिल्प है जो आधुनिकता और यथार्थ के दमनकारी एवं गैरलोकतांत्रिक रूपों का संकेत अपनी उपस्थिति से ही नहीं करती है बल्कि रचना प्रक्रिया के दौरान अंतर्वस्तु चित्रण के माध्यम से दमन प्रक्रिया से भी साक्षात्कार कराती है।
मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ को चरित्र, आख्यान और विचार तीन बिंदुओं के माध्मय से समझने की कोशिश होनी चाहिए। ‘अंधेरे में’ के दो नायक हैं। एक काव्य नायक, दूसरा स्वप्न नायक। पहला ‘मैं’ है तथा दूसरा उसका ‘अन्य’। दोनों के घात-प्रतिघात से कविता के आख्यान का विकास होता है। आठ खंडों में विभाजित महाकाव्यात्मक उपाख्यान के लिए यह कविता काव्य नायक और और स्वप्ननायक की विभाजित चेतना को एक करने का प्रयास करती है तथा ‘अन्य’ में ‘मैं’ का व्यक्तित्वांतरण कर सत्ता, व्यवस्था और सभ्यता के मूलगामी प्रश्नों का हल खोजती है।
काव्य नायक का स्वप्न नायक में विलोप कैसे होता है? कविता में काव्य नायक कवि और मध्यवर्गीय बौद्धिक वर्ग है। वह आधुनिकताबोध से ग्रस्त मनुष्य है। स्वतंत्रता के बाद उसकी चेतना बहुविभाजित, बहुखंडित और जनविरोधी हो गई है। वह नदी का द्वीप है। यह औपनिवेशिक दृष्टि पश्चिमी ज्ञानवाद, तर्कप्रणाली, जीवनशैली और मशीनी सभ्यता के कारण हुई है। काव्य नायक का ‘अहं’ प्रचंड व्यक्तित्ववाद का शिकार है। काव्य नायक की छटपटाहट से कविता आरंभ होती है तथा वह स्वप्ननायक को मनु, श्वेत आकृति, रक्तालोक स्नात पुरुष, संभावित स्नेह सा प्रिय, आजानुभुज, रहस्यमय व्यक्ति, अब तक न पाई गई अभिव्यक्ति, आत्मा की प्रतिमा, हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव, निज संभावना और प्रतिभा आदि के रूप में बार-बार देखता है। आत्मालोचन और आत्मग्लानि के माध्यम से काव्य नायक धीरे-धीरे स्वप्न नायक के पास पहुंचता है, एकाकार होता है, दमन सहता है, संघर्ष करता है और अंतत: उसके अस्तित्व का विलय हो जाता है। फैंटेसी द्वारा विलोपीकरण की प्रक्रिया अचेतन मन के भीतर मुमकिन होती है।
मन की तीन अवस्थाएं होती हैं—चेतन, अवचेतन, अचेतन। जीवनानुभव का दो तिहाई हिस्से यथार्थ और भाषा दोनों अचेतन में रहते हैं। कला के दो क्षण यहीं घटित होते हैं। मन के तीन रूप होते हैं—बाह्य मन, प्रतीक मन और कल्पना मन। प्रतीक मन में भाषा-मिथक होते हैं जो सामूहिक अचेतन का प्रतिनिधित्व करते हैं। कल्पना मन तो अचेतन का वह इलाका है जहां फैंटेसी घटित होती है। जब काव्य नायक का ‘मैं’ और स्वप्न नायक का ‘अन्य’ कल्पना मन में पहुंचते हैं तथा कला के तीसरे क्षण में संवेदन उद्देश्य से प्रेरित होते हुए पिघल जाते हंै तब वहीं दोनों की एकता होती है। फिर स्वप्न चित्र प्रतीक मन में आकर भाषिक संरचना में ठोस रूप में तब्दील हो जाते हैं। इस तरह ‘मैं’ और ‘अन्य’ का अचेतन इलाके में विलोपीकरण होता है। इसे मुक्तिबोध कला के तीन क्षण और संवेदन उद्देश्य द्वारा अपनी तरह से आलोचना में व्याख्यायित करते हैं।
पूंजीवाद की बुनियादी विशेषता है कि वह संरचना, अवधारणा और अनुभव के क्षेत्र में दरार पैदा कर देता है—सार्वजनिक और निजी के बीच, सामाजिकता और मनोविज्ञान के बीच, राजनीति और काव्य के बीच, इतिहास, समाज और व्यक्ति के बीच। इस कारण वैयक्तिक विषय में हमारा चिंतन विकलांग हो जाता है। समय और बदलाव के बारे में हमारी सोच लकवाग्रस्त हो जाती है। इस तरह पूंजीवाद हमें हमारी वैयक्तिक अभिव्यक्ति से अलग-थलग कर देता है (फ्रेडरिक जेम्सन)। यह समस्या स्थूल समाजशास्त्रीय और मार्क्सवादी दोनों दृष्टियों पर समान रूप से लागू होती है। मुक्तिबोध के संदर्भ में इसके सबसे बड़े उदाहरण रामविलास शर्मा हैं। मुक्तिबोध की कविता इसी पूंजीवादी दृष्टि की शिकार हुई।
औपनिवेशिक आधुनिकता के दमनकारी, तानाशाह, एकांगी, यथार्थवादी, तर्कप्रधान, मशीनी एवं तकनीकी सत्य को चुनौती देने के लिए मुक्तिबोध ने फैंटेसी प्रविधि का प्रयोग किया। लेकिन उत्तर आधुनिकता से उपजी समस्या के दौर में फैंटेसी का महत्त्व और बढ़ गया है। उत्तर आधुनिकता ने यथार्थ को छवियों में बदल दिया है तथा समय को वर्तमान क्षणों में खंडित कर दिया है। मुक्तिबोध द्वारा अर्जित फैंटेसी प्रविधि आज उत्तर आधुनिक वायवीय एवं भ्रममूलक स्वप्न छवियों तथा समय के खंडित क्षणों को साहित्य की दुनिया में चुनौती देने में सर्वाधिक सक्षम कलारूप है। अंधेेरे में कविता की समकालीनता इस कसौटी पर और बढ़ गई है। फैंटेसी साहित्य रचना के क्रम में एक ओर भाषा के खोए हुए जीवनमूल्य और अर्थमूल्य को पुनर्सृजन द्वारा लाती है तथा दूसरी ओर यथार्थ की बाह्य मन में मौजूद वस्तु संरचना तथा कल्पना मन में प्रवाहित स्वप्न संरचना के विभ्रममूलक एवं आडंबरीकृत परत को हटा देती है। संभवत: फैंटेसी शिल्प के कारण ‘अंधेरे में’ का काव्य नायक मध्यवर्गीय मिथ्या चेतना से मुक्त होकर रेडिकल वर्ग चेतना से संपन्न होता है। इस कविता के काव्य नायक की सर्वहारा के स्वप्न नायक से एकता का प्रश्न कविता में चेतना और अस्तित्व दोनों स्तरों पर है। इस तरह एक मरते हुए मूल्य का अग्रगामी मूल्य में गुणात्मक रूपांतरण होता है।
इसके व्यक्तित्वांतरण की चुनौती दरअसल मध्यवर्ग के अविभाजित नायक को जनयूथ और जनक्रांति में शामिल करने की चुनौती है जहां उसे जनांदोलन का नेतृत्व सौंपा जाए—मेरे युवकों में व्यक्तित्वांतर/विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर/मानो कि ज्वाला-पुंखरी-दल में घिरे हुए सब/अग्नि कमल के केंद्र में बैठे/द्रुत वेग बहती हैं शक्तियां संचयी/कहीं आग लग गई/कहीं गोली चल गई। कलावादी आरोप लगा सकते हैं कि क्या कविता क्रांति कर सकती है। जवाब होगा कि कविता क्रांति नहीं कर सकती है, किंतु एक ओर क्रांति प्रक्रियाओं का चित्रण करती है तथा दूसरी ओर क्रांति प्रक्रिया में रचनात्मक योगदान देती है। दुनिया भर की कविता और हमारा स्वतंत्र साहित्य इसका जीवित प्रमाण है।
शमशेर की टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है कि यह कविता स्वतंत्रतापूर्व और स्वतंत्रता पश्चात का दहकता इस्पाती दस्तावेज है। मुक्तिबोध ने अपनी बीमारी की अवस्था में मित्र श्रीकांत वर्मा से आग्रह किया था कि चांद का मुंह टेढ़ा है में उनकी दो कविताएं एक साथ चंबल की घाटियां और आशंका के द्वीप: अंधेरे में को जरूर शामिल किया जाए। उन्होंने कहा था कि आशंका के द्वीप: अंधेरे में शीर्षक एक विशेष मन:स्थिति के प्रवाह में दिया गया था। श्रीकांत वर्मा का भी मानना है कि यह शीर्षक इस कविता के अर्थ को अच्छी तरह व्यंजित करता है। गौरतलब है कि कविता को अंतिम रूप देने के दौरान मुक्तिबोध गंभीर तनाव से गुजर रहे थे। उनके अस्तित्व को बचाने वाली स्कूली पाठ्यक्रम की किताब भारत: इतिहास और संस्कृति तत्कालीन सत्ता द्वारा प्रतिबंधित हो गई थी। इस प्रतिबंध मांग अभियान में मध्य प्रदेश की कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। यह नहीं भूलना चाहिए कि तत्कालीन कम्युनिस्ट आंदोलन पर नेहरू युग का नशा इतना था कि इसका तेलंगाना किसान आंदोलन के दमन और प्रगतिवादी आंदोलन की समाप्ति से बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है। उस दौर में मुक्तिबोध के लिए भारतीय उपमहाद्वीप का प्रश्न, अधूरी आजादी का प्रश्न, औपनिवेशिक आधुनिकता का प्रश्न सबसे बड़ा प्रश्न था। यूं ही मध्यवर्गीय काव्य नायक के सम्मुख छंद लय से युक्त गीत एक पागल नहीं गाता है—अब तक क्या किया/जीवन क्या जिया/ज्यादा लिया और दिया बहुत बहुत कम/मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम। तब मार्क्सवादी आलोचना अंतरराष्ट्रीयता बोध से इतनी मोहग्रस्त थी कि राष्ट्र, राष्ट्रीयता और संघर्ष का प्रश्न गौण लगता था। मुक्तिबोध के सम्मुख अधूरी आजादी के स्थान पर मुकम्मल आजादी का संभावित नक्शा पेश करने का प्रश्न था—इस तम शून्य में तैरती है जगत् समीक्षा/की हुई इस उसकी/विवेक विक्षोभ महान उसका/तम अंतराल में/अंधियारे मुझमें द्युति आकृति सा/भविष्य का नक्शा दिया हुआ उसका। काव्य नायक को बोध है—लोकहित पिता को घर से निकाल दिया/जन मन करुणा सी मां को हकाल दिया/स्वार्थों के टेरियर कुत्तों को पाल लिया/जमे जाम हुए फंस गए/अपने ही कीचड़ में धंस गए।
राष्ट्रवाद का प्रश्न मार्क्सवादी विचारधारा के लिए भी अब अर्थव्यवस्था की मुक्ति का उपप्रश्न नहीं है। यह मानवता के संपूर्ण अस्तित्व के लिए ऊर्जा पाने का प्राथमिक प्रश्न है। मार्क्स ने कभी कहा था कि क्रांति राष्ट्र करता है पार्टी नहीं। यह तथ्य आज ज्यादा सच है। आज भारत जैसा देश बाहरी औपनिवेशिक विकसित राष्ट्रों के बाजारवादी और हथियारवादी राष्ट्रवाद तथा आंतरिक उन्मादी सांप्रदायिक राष्ट्रवाद दोनों के दमन, शोषण का शिकार है। ‘अंधेरे में’ कविता इन दोनों कट्टर राहों से अलग जनता के जनराष्ट्रवाद का नक्शा देती है। इसे कविता में तिलक और गांधी के रूपकों से समझना चाहिए। तिलक की प्रतिमा का हिलना, चिंता से मस्तिष्क का फटना तथा खून की धार का बहना राष्ट्रीय मुक्ति के क्रांतिकारी मसौदे का अगला संकेत है। कविता में गांधी के कंधों पर सवार शिशु वह स्वातंत्र्य शिशु स्वप्न है जो पहले तो सूरजमुखी के प्रकाश कण से भरे पुष्प गुच्छ में बदलता है तथा अंतत: काव्य नायक के कंधे पर भारी रायफल में तब्दील हो जाता है। आजादी के बाद राष्ट्र के सामने प्रश्न शेष थे—किसकी आजादी? कैसी आजादी? किसका राष्ट्र? कैसा राष्ट्र? तेलंगाना किसान आंदोलन से नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन के बीच बीस सालों का अंतराल आम जनता और मध्यवर्ग के असंतोष, आक्रोश और बेचैनी का दौर था जिसे अनगिनत राष्ट्रीय, अंतराष्ट्रीय घटनाएं प्रेरित एवं प्रभावित कर रही थीं। वस्तुत: तिलक और गांधी के स्मृति निर्माण की काव्य राजनीति नेहरू युगीन स्मृति लोप की राजनीति का सृजनात्मक जवाब है। इस कविता से यह प्रेरणा मिलती है कि पुराने दौर की तरह आज भी राष्ट्रीय मुक्ति और वर्ग मुक्ति का सवाल एक दूसरे से अलग नहीं है, बल्कि नवउपनिवेश ने राष्ट्रमुक्ति के प्रश्न को जीवनमरण का प्रश्न बना दिया है। कहना न होगा आधुनिक सभ्यता की भूलने की राजनीति का विश्लेषण और याद करने की राजनीति का मार्ग अन्वेषण फैंटेसी कला रूप के द्वारा ही संभव है।
मुक्तिबोध के लिए जनमुक्ति का प्रश्न राष्ट्रमुक्ति से जुड़ा हुआ है तथा राष्ट्रमुक्ति और जनमुक्ति का संयुक्त प्रश्न मध्यवर्गीय चेतना की मुक्ति से है। मुक्तिबोध को इन प्रश्नों का हल सभ्यता मुक्ति में दिखता है। उन्हें मालूम है कि पूंजीवादी राष्ट्रराज्य दमनकारी है। वह पश्चिमी आधुनिकता के विजय रथ पर आरूढ़ है। कविता में मौजूद ‘पागल’ का रूप आधुनिकता पर प्रश्न चिह्न लगाता है। आधुनिकता के उजाले में जिसे पागल साबित किया गया है अंधेरे में वह जागरित बुद्धि और आत्मोद्बोधमय है। वस्तुत: आधुनिकता के भीतर विद्रोही, विसंगत, स्वप्नमय मनुष्य के लिए कोई जगह नहीं है। उस कथित पागल विद्रोही को पता है कि पूरा मध्यवर्ग इतना मूल्यहीन है कि वह उदर भरने के लिए आत्मा बेचता है, भूतों की शादी में कनात सा तनता है, व्यभिचार का विस्तर बनता है, दुखों के दागों को तमगों सा पहनता है, असंग बुद्धि और निष्क्रिय जीवन शैली के साथ दिन-रात अपने ही खयालों में मग्न रहता है। इसलिए आधुनिकता के उजाले ने उसे खारिज कर दिया है। बिना सभ्यता मुक्ति के मनुष्य को कथित पागलपन और विखंडित व्यक्तित्व से मुक्त नहीं किया जा सकता है।
मुक्तिबोध के मध्यवर्गीय काव्य नायक की समस्या केवल बाह्य औपनिवेशिक आधुनिकता नहीं है बल्कि आंतरिक गढ़वाद और मठवाद भी है। सच्ची जनमुक्ति और जनक्रांति के लिए—अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे/तोडऩे होंगे ही मठ और गढ़ सब/पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार/तब कहीं मिलेगी हमको/नीली झील की लहरीली थाहें/ जिसमें कि प्रतिपल कांपता रहता/अरुण कमल एक। ‘अंधेरे में’ कविता में मौजूद प्रकृति की संवेदन सघनता तथा पुरानी इमारतों, मठों, गढ़ों की जर्जरता हमारे सामने एक वैकल्पिक सभ्यता निर्माण का मानचित्र उपस्थित करती है।
मुक्तिबोध ऐेसे दौर के कवि हैं जिनके सामने रूप, भाषा और काव्यजीवन से जुड़ी दोहरी चुनौतियां थीं। एक तरफ प्रगतिवादी साहित्य का एकांगी यथार्थ बोध तथा दूसरी तरफ नई कविता का संत्रासमूलक व्यक्तिवाद। मुक्तिबोध ने इन दोनों चुनौतियों का हल अपनी कविता में प्रस्तुत किया। इसके लिए उन्हें कला संघर्ष, आत्म संघर्ष और युग संघर्ष तीनों करने पड़े। मुक्तिबोध कला में जिस सौंदर्य अनुभव और जीवनबोध को लाना चाहते थे, इसके लिए आधुनिकता और उसका यथार्थवाद दोनों दमनकारी और अपर्याप्त थे। वस्तुत: यह कला नियम की अपर्याप्तता पश्चिम के ज्ञानोदय, नवजागरण, विज्ञानवाद और आधुनिकता संबंधी धारणा सेे पैदा हुई थी जो पुरानी औपनिवेशिक सत्ता के दौरान भारतीय समाज का पूर्ण यथार्थ बन चुकी थी।
आधुनिकता की कुछ बुनियादी समस्याएं हैं—संपूर्णता, पश्चिमी वैश्विक मूल्य, पूंजीवादी महाआख्यान, वस्तुनिष्ठ विज्ञानवादी ज्ञान, सांस्कृतिक अभिजातवाद, राष्ट्रराज्य, उपभोक्तामूलक जीवन शैली, व्यक्तिवाद आदि। मुक्तिबोध अपने कला रूप फैंटेसी, काव्यभाषा, जीवनबोध और विचारधारा के माध्यम से इस कविता में इन समस्याओं का हल ढूंढ़ते हैं। अचेतन मन के इलाके में कवि का संवेदन उद्देश्य यही है। सभ्यता संकट इतना गहरा है कि विचार और सौंदर्य अनुभव की जमीन पर समाज लगभग अघाया हुआ दिख रहा है। कविता संतृप्त समाज के सामने पूंजीवाद द्वारा चलाए जा रहे सांस्कृतिक-आर्थिक अभियान के अचेतन की राजनीति का तिलस्मी द्वार खोलती है। दुर्भाग्य से मार्क्सवादी चिंतन इस पक्ष की सर्वाधिक उपेक्षा करता है जिसका शिकार हिंदी आलोचना है। आज कला और संस्कृति की राजनीति वस्तुत: अचेतन की राजनीति है।
आधुनिकता उपनिवेशित मध्यवर्गीय अचेतन के काव्य नायक के स्वप्न नायक में व्यक्तित्वांतरित होने तथा जनक्रांति का नायकत्व प्रदान करने की समस्या बहुत गहरी है। इसके दो बड़े कारण हैं—एक तो सत्ता द्वारा दमन अभियान, दूसरी मध्यवर्ग की भूमिका। मध्यवर्ग जनक्रांति के समय कविता में दो रूपों में मौजूद है।
जनमुक्ति की सबसे बड़ी समस्या राष्ट्रराज्य का दमन अभियान है। सत्ता के दो रूप हैं। वह अंधेरे में दमन करती है तथा उजाले में लोकतंत्र का कारोबार। जनक्रांति के दमन निमित्त मार्शल लॉ की यात्रा दिल दहला देने वाली है। निस्तब्ध नगर की मध्य रात्रि में बैंड बाजे के साथ जुलूस चल रहा है। आधुनिक सभ्यता के अंधेरे में काव्य नायक को कोलतार की सड़क ‘मरी हुई खिंची हुई काली जिह्वा’ तथा खंभे पर टंगे बिजली के बल्ब ‘मरे हुए दांतों का चमकदार नमूना’ लगते हैं। चमकदार बैंडदल अस्थि रूप, यकृत स्वरूप, उदर आकृति और उलझी हुई आंतों के जालों जैसा विरूपित है। इस शोभायात्रा में—संगीन नोकों का चमकता जंगल/चल रही पदचाप/तालबद्ध दीर्घ पात/टैंक दल, मोर्टार, आर्टिलरी/सन्नद्ध/धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना—जैसा दृश्य है। इस जुलूस में कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल, सेनापति, अध्यक्ष, मंत्री, उद्योगपति सभी शामिल हंै। इससे ज्यादा डरावनी बात काव्य नायक के लिए यह है कि जुलूस में पत्रकार, प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण भी शामिल हैं। विडंबना तब चरम पर पहुंच जाती है जब उनके साथ शहर के हत्यारे कुख्यात डोमाजी उस्ताद की सक्रिय सहभागिता जगमगाती हुई दिखाई पड़ती है। सत्ता के साथ मध्यवर्गीय बौद्धिक का यह अनैतिक, मूल्यहीन गठबंधन ही जनक्रांति में बाधक है। काव्य नायक की त्रासदी है कि दिन के दफ्तरों में नग्न हो जाने के डर से यह बौद्धिक वर्ग उसे अंधेरे में खत्म कर देना चाहता है। काव्य नायक को संकट की गहरी पहचान है—गहन मृतात्माएं इसी नगर की/हर रात जुलूस में चलतीं/परंतु दिन में/बैठकर हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र विभिन्न दफ्तरों, कार्यालयों, केंद्रों में, घरों में।
काव्य नायक के स्वप्न नायक में एकाकार होकर शुरू की गई जनक्रांति प्रक्रिया की दूसरी बाधा मध्यवर्ग की तमाशबीन भूमिका है। उसकी तटस्थता और उदासीनता के ठोस कारण हैं। मुक्तिबोध को इस संकट की भी प्रामाणिक पहचान है। बौद्धिक वर्ग का जब श्रमजीवी वर्ग से रिश्ता कट जाता है तब वह ‘जन मन उद्देश्य’ से भटक जाता है। आजकल मध्य वर्ग कलम और कुदाल, शब्द और श्रम, ज्ञान और कर्म की फांक से गुजर रहा है। हिंदी जनता गन प्वाइंट पर है और हिंदी साहित्य पावर प्वाइंट पर है। काव्य नायक की मान्यता है कि बौद्धिक वर्ग क्रीतदास है, उसके विचार किराए के हैं तथा अपनी काली करतूतों में इतना डूब गया है कि चेहरे पर स्याही पुत गई है। जब बौद्धिक वर्ग रक्तचूसक सत्ता से नाभिनाल बंध जाता है तब जनक्रांति पर संकट अवश्यंभावी है। काव्य नायक हैरान है कि ऐसे कठिन वक्त में साहित्यकार चुप हैं और कविजन निर्वाक। चिंतक, शिल्पकार, नर्तक सबके लिए बदलाव एक ख्याली गप है, कोरी किंवदंती है। ऐसा इसलिए है—रक्तपाई वर्ग से नाभिनाल बद्ध ये सब लोग/नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे/प्रश्न की उथली सी पहचान/राह से अनजान।
‘अंधेरे में’ की महत्त्वपूर्ण चिंता मिथ्या चेतना से लैस काव्य नायक को वर्ग चेतना से युक्त करना है। कविता में एक मध्यवर्गीय कलाकार की असंग मृत्यु का क्या अर्थ संकेत है? जब शिशु फूल के गुच्छ से रायफल में बदलता है, ठीक उसी वक्त एक एकांतप्रिय कलाकार की हत्या हो जाती है। काव्य नायक अंधेरे में टार्च फैलाकर देखता है, तो उसे खून भरे बाल में उलझा माथा, भौंहों के बीच में गोली की सुराख, होठों पर कत्थई धारा, फूटा चश्मा दिखाई पड़ता है—सचाई थी सिर्फ एक अहसास/वह कलाकार था/गलियों में अंधेरे का हृदय में भार था। /पर कार्य क्षमता से वंचित व्यक्तित्व/चलाता था अपना असंग अस्तित्व/किंतु न जाने किस झोंक में क्या कर गुजरा कि/संदेहास्पद समझा गया और/मारा गया वह बधिकों के हाथों। वस्तुत: असंग अस्तित्व की खोज में जनविमुख कलाकार और कोई नहीं काव्य नायक का मध्यवर्गीय बौद्धिक अचेतन है। आज का मध्यवर्गीय बौद्धिक बाजार संस्कृति और बजरंग संस्कृति, सत्ता संस्कृति और जन संस्कृति, मार्शल लॉ और जनसंघर्ष, क्रांति और भ्रांति, आधुनिकता और बर्बरता, मध्यकालीनता और उत्तरआधुनिकता के विभ्रमकारी भंवर में इस कदर फंस गया है कि उसका असंग व्यक्तित्व आसन्न विध्वंस की ओर मुखातिब है। यह पुराना प्रश्न है कि कला कला के लिए होनी चाहिए या कला जीवन के लिए। नया जवाब है कि अब कला जीवन के लिए नहीं, जीवन-यापन, आत्म विज्ञापन और ब्रांड सत्यापन का अंग बन गई है। तब मुक्तिबोध और ‘अंधेरे में’ की सार्थकता और बढ़ गई है।
‘अंधेरे में’ कविता फैंटेसी रूपक द्वारा संस्कृति के अचेतन के राजनीतिक प्रतिमानों का निर्माण करती है, मानव अचेतन पर हो रहे दमन, अधिग्रहण और अतिक्रमण का विरोध करती है, काल्पनिक अचेतन में भाषा के नए सृजनशील संसार का आह्वान करती है तथा अधूरे यूटोपिया को पूर्ण स्वप्न में बदल देने का मानचित्र बनाती है। मुक्तिबोध ने लिखा है कि आलोचक साहित्य का दारोगा होता है। ‘अंधेरे में’ कविता आधुनिक सत्ता, व्यवस्था और सभ्यता से नाभिनाल बद्ध आलोचक की दारोगाई चेतना को अपने काव्य रूप, काव्य वस्तु और विचार धारा से कटघरे में खड़ा कर देती है—दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर/दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट/कोई मुर्गा/यदि बांग दे उठे जोरदार/बन जाए मसीहा।
क्या वर्तमान दुनिया कचरे के ढेर में नहीं बदल गई है! तब क्या मुमकिन नहीं कि कोई मुर्गा जब चाहे ढेर पर दाना चुगने चढ़े और जोरदार बांग देकर मसीहा बन जाये! आजकल तो ऐसा है।