रामाज्ञा शशिधर
बनारस आजकल दो हिस्सों में बंट गया है- काशी और क्योटो। काशी बनारस का नस्टेल्जिया है तथा क्योटो यूटोपिया। बनारस ’भोग मोक्ष समभाव’ का क्षेत्र भी माना जाता है। एक साथ भोग और मोक्ष का आनंद अपने उद्भवकाल से यहाँ मिलता रहा है। इस कसौटी पर वह आज भी खड़ा है। आप क्योटो में भोग का आनंद लीजिए, फिर काशी में मोक्ष की आकांक्षा की पूर्ति कीजिए। इस तरह पूरा बनारस पाया जा सकता है।
बनारस भारतीय संस्कृति और राजनीति का मनोवैज्ञानिक ’युद्ध क्षेत्र’ बन गया है। भारतीय राष्ट्र, भारतीय लोकतंत्र और भारतीय जनता की भावी किस्मत बनारस के ’रूपक’ और ’मिथक’ के सहारे लिखने की नई कोशिश मंडल, कमंडल और भूमंडल की राजनीति के साथ ही आरंभ हो गई थी। हालाँकि भूमंडल के एलपीजी सिलेंडरों की किल्लत यहाँ हमेशा बनी रहती है लेकिन एलपीजी माडल (लिब्रेलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन एवं
ग्लोबलाइजेशन) का प्रभाव 20वीं सदी के नब्बे के दशक से ही पड़ना शुरू हो गया।
उदारीकरण के साथ बनारस में एक नारा उछला- अयोध्या तो झांकी है/काशी मथुरा बाकी है। राम जन्मभूमि आंदालन से हर हर मोदी अभियान तक बनारस पर बासंती रंग गाढ़ा ही होता जा रहा है। यह सच है कि दक्षिणपंथ की राजनीति के लिए ’कसम राम की खाते हैं/हम मंदिर वहीं बनाएंगे’ नारे में एक नया वाक्य जनता ने जोड़ दिया है- ’पर तारीख नहीं बताएंगे’। लगभग तीन दशक से बनारस की गली, घाट, गंगा, नगर, गांव पर भाजपा की राजनीति और संघ की संस्कृति का कब्जा बढ़ता ही गया है। अब तक उसके पास केवल नस्टेल्जिक काशी थी, ’अच्छे दिन’ की राजनीति ने उसके साथ यूटोपियन क्योटो भी जोड़ दिया है। बनारस का पांच हजार साल पुराना ’गरूड़’ काशी और क्योटो के दोनों पंखों से भारतीय समाज और राजनीति में ’उग्र हिन्दुत्व’ एवं ’उग्र विकास’ की परेड धुन भर रहा है। मीडिया उसके लिए अंतरिक्ष है, संसद भवन मैदान है, संघ आशियाना है तथा पूरी भारतीय जनता इस परेड गान का खेत है। इस तरह अयोध्या की झांकी के बाद बाकी का युद्ध बनारस के सहारे लड़ा जा रहा है और भविष्य के लिए आख्यान सृजन जारी है।
मिथक का यथार्थ
बनारस इतिहास से ज्यादा मिथक है। बनारस के कई नाम हैं- काशी, आनंदकानन, वाराणसी आदि। इन नामों का मिथकीय अर्थ वैदिक काल से अब तक इसके यथार्थ पर हावी है। काशी नाम कास्य यानी सिक्के के कारण व्यापारिक है जो बाद में धर्म की पपड़ियों के नीचे दबता चला गया (मोतीचंद, काशी का इतिहास)। वाराणसी वरूणा और असि नदियों के मध्य का परिक्षेत्र था। आज असि सिर्फ नगर का कचरा ढोने वाला नाला है तथा वरूणा भी लगभग नाले जैसी ही है। बनारस के परिक्षेत्र में विशाल जंगल होने के कारण वह आनंद कानन था। आज शहर में खोजने से ही पेड़ मिले और ग्रामीण इलाकों से वे भूमि अधिग्रहण के कारण गायब हो रहे हैं। बनारस अपनी जीवंतता के अक्खड़पन, फक्कड़पन, खान पान, रईसी, ठंढ़ई, साहित्य-संस्कृति के कारण बनारस था। परिपाक रस। अब बनारस की अंतड़ियों में पेप्सी कोला की बोतल ही नहीं प्लांट तक घँस चुका है। एक नया नाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से उछला है- क्योटो। बनारस के अन्य नामों की तरह यह भी भविष्य का यथार्थ न होकर मिथक ही है।
मिथक क्या है? बनारस मिथक क्यों है? मिथक सामूहिक चेतना है जो कल्पना और लोक विश्वास पर आधारित होता है। प्रतीकों और छवियों का वह कल्पित आख्यान जो हमारे सामूहिक अचेतन का प्रतिनिधित्व करता है। बनारस की संस्कृतियां, परंपराएं, लोक विश्वास, धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीक, साहित्य, गंगा, नदियां, कुंड, तालाब, महल, मठ, धार्मिक संस्थाएं, व्यापार, शिक्षा, जीवन पद्धति- ये ऐसे जटिल और अन्योन्याश्रित क्षेत्र हैं जो खास तरह का तिलिस्म रचते हैं। वैदिक धर्म के विरूद्ध बुद्ध और पार्श्वनाथ, पुराणपंथ के खिलाफ कबीर, रैदास, कीनाराम, औपनिवेशिक चेतना के खिलाफ भारतेन्दु, सामंती-सनातनी चेतना के खिलाफ प्रेमचन्द, हिन्दू मुस्लिम कट्टरता के विरूद्ध बनारसी रेशम साड़ी और बिस्मिल्लाह खान की शहनाई समांतर परंपराएं बनाते हैं। ये परस्पर इतने गुंफित हैं कि कोई एक सिरा छूते ही दूसरा फिसल जाता है। एक प्रतीक की अनेक व्याख्याएं। हर व्याख्या जनता की किसी खास विचारधारा की प्रतिनिधि है। बनारस सŸााओं का प्राचीन संजाल है जहाँ मूल्यों की टक्कर होती रही है। बनारस भारत की सांस्कृतिक विरासत की वर्चस्वशीलता एवं प्रतिरोध का राजनीतिक अचेतन है। अपनी धार्मिक चेतना के कारण यह यथार्थ से ज्यादा मिथक है। छोटे-छोटे प्रतिरोधी मिथकों पर हिन्दू सनातन धर्म का सर्व शक्तिशाली मिथक शासन चलाता है। औपनिवेशिक और उŸार औपनिवेशिक सत्ताओं ने इसके वर्चस्वशाली रूप को और मजबूत किया। जनता के सामूहिक अचेतन के उन्मादीकरण का खेल भूमण्डल, मंडल और कमंडल के साथ बनारस में नए सिरे से आरंभ हुआ।
नस्टेल्जिया का सांस्कृतिक शोषण
बीबीसी हिन्दी रेडियो सेवा ने कुछ वर्ष पहले स्थानीय विद्यार्थियों के बीच एक बहस रखी थी ’भारत का भविष्य: बनारस या बंगलुरू’। बीबीसी की इस बहस में जहाँ बनारस को नस्टेल्जिया के तौर पर देखा गया वहीं बंगलुरू को भारत के यूटोपिया के तौर पर। स्मृतिमोह काशी की जान है और संघ की भी। काशी अपनी परंपरा, इतिहास, हिन्दू धर्म, वेद-वेदांत पर गौरव करती है और आरएसएस का भी दार्शनिक आधार इन्हीं मूल्यों का शुद्धतावादी रूप है। आरएसएस जिस हिन्दू राष्ट्रवाद का उत्खनन ’रामराज्य’ के रूप में करना चाहती है उसकी शानदार व्याख्या का स्थान काशी ही रही है। यही कारण है कि काशी को दक्षिणपंथी चिंतन का एक शानदार घराना बनाने की मुहिम बीसवीं सदी के दूसरे दशक में यहाँ आरंभ हुई। (द रोल ऑफ बनारस इन कंस्ट्रक्टिंग हिन्दू पालिटिकिल आइडेंटिटिज, ईपीडब्ल्यू, 2002)।
संघ की स्थापना 1925 में नागपुर में हुई जिसके पहले सरसंघचालक हेडगेवार का बनारस से लगाव था। दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जीव विज्ञान के छात्र और शिक्षक दोनों रहे। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में बीएचयू में संघ कार्यालय की स्थापना हुई जिस भवन को आपात्काल के दौरान तत्कालीन कुलपति के द्वारा खत्म किया गया।
गोलवलकर संघ के समर्पित चिंतक, आर्कटेक्ट और दूरदर्शी कार्यकर्ता थे। ’विचार नवनीत’ नामक उनकी पुस्तक में शुद्धतावादी हिन्दू रक्त परंपरा की खोज, आर्यावर्त की पहचान, परोपकारी अधिनायक की तलाश, रामराज्य की परिकल्पना, वेद-रामायण-महाभारत की व्याख्या, वर्णाश्रम व्यवस्था के महत्व का प्रतिपादन, अतीतोन्मुख उग्र राष्ट्रवाद की स्थापना का संकल्प, तर्क और जिरह पर श्रद्धा की विजय का विवेचन आया है। उसका एक मिथकीय सूत्र काशी की ’सनातन ब्राह्मण परंपरा’ में भी मौजूद है।
संघ की ’भगवा-विचारधारा’ की अमूर्तता और गैरशास्त्रीयता को चुनौती देता हुआ स्वाधीनता के बाद 1948 में स्वामी करपात्री के नेतृत्व में एक राजनीतिक संगठन खड़ा हुआ-अखिल भारतीय रामराज्य परिषद्। रामराज्य परिषद् और संघ ने गोहत्या विरोधी कानून के लिए बड़ा आंदोलन चलाया। स्वाधीनता के दूसरे दशक में इस हिन्दुत्व आन्दोलन ने संसद भवन का घेराव किया और सŸाा के साथ हिंसक युद्ध हुआ। आजादी के ठीक बाद रामराज्य परिषद् से दो बार लोकसभा में कई सांसद आए तथा राजस्थान में छप्पन एमएलए ने विजय हासिल की। करपात्री का आन्दोलन के दौरान संघ पर विश्वासघात का आरोप लगा तथा 1970 में गोलवलकर की पुस्तक ’विचार नवनीत’ के विरूद्ध उनकी किताब आई- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू धर्म। किताब तुलसी मंदिर प्रकाशन, भदैनी से छपी जिसके प्रकाशक तुलसीदास ट्रस्ट और संकटमोचन मंदिर के महंथ पं. वीरभद्र मिश्र थे।
रामराज्य परिषद्् के संस्थापक करपात्री का आरोप है कि आरएसएस का हिन्दुत्ववादी दर्शन हिन्दू सनातन धर्म के विरोध में है। आरएसएस का हिन्दू धर्म के शास्त्रों में विश्वास नहीं है; वह हिन्दू पंथ की शास्त्रीय पूजा पद्धतियों का उपयोग नहीं करता है; ध्वज पताकाओं में भगवा रंग चुनना शास्त्र विरोधी है; आरएसएस हिन्दू देवी देवताओं की पूजा नहीं करता बल्कि भूमि एवं झंडा पूजन करता है। आरएसएस शास्त्र एवं वेद के मंत्रों का विधिवत् प्रयोग नहीं करता है तथा हिन्दू सनातन शास्त्र की तरह उसका कोई पूजा घर नहीं है। आरएसएस गुरू दक्षिणा के नाम पर चंदा वसूली करता है तथा स्वयं को भिक्षा चंदा से दूर बताता है। करपात्री का आरोप था कि आरएसएस सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था और जाति संरचना का सम्यक पालन नहीं करता है। आरएसएस ने गोहत्या विरोधी कानून के लिए चल रहे आंदोलन में पैर पीछे खींचकर धोखा दिया है। इसलिए यह हिन्दू समाज को धोखा देने वाला और विदेशी विचारों पर चलने वाला संगठन है। करपात्री काशी की धर्म संसद के नेता थे तथा वर्ण व्यवस्था के घोर समर्थक भीे। विश्वनाथ मंदिर में राजनारायण के नेतृत्व में हो रहे दलित प्रवेश आंदोलन से उनका विरोध जगजाहिर है। सनातनी करपात्री ने दलित प्रवेश के बाद पुराने शिव को निष्प्राण घोषित किया और नया विश्वनाथ मंदिर खड़ा कर दिया।
गोलवलकर और करपात्री की किताबों से काशी और दक्षिणपंथ के स्मृति मोह का टेक्सचर स्पष्ट हो जाता है। स्मृतिमोह का दार्शनिक और मिथकीय आधार तथा उसकी मनमाफिक व्याख्याएं दक्षिणपंथ के लिए यहाँ उपजाऊ जमीन तैयार करती हैं। यहाँ स्मृतिमोह और अनादि अतीत से जनता का गहरा आध्यात्मिक लगाव ही वह प्लेटफार्म है जिसका दोहन करने वाला कोई पुजारी महंथ, कोई रटमार पंडित, कोई लठमार दबंग और कोई भाषणवीर नेता हो जाता है। बनारस में काशी का यही महत्व है। दशाश्वमेध का महत्व भारतीय लोकतंत्र के लिए कितना है कि भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष और देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने यहाँ आकर सैकड़ों ब्राह्मणों का चरणामृत पान किया था।
काशी में अयोध्याएं और पाकिस्तान?
बीसवीं सदी के अंतिम दशक देश से ज्यादा काशी के लिए कड़े इम्तिहान के दशक रहे। संघ के छत्तीस हाथों में सबसे उग्र हाथ विश्व हिन्दू परिषद्् पूरे उŸार भारत में सक्रिय थी। अस्सी के मध्य में अयोध्या से रामलला निकलकर संघ के कंधे पर बैठ गए थे। बीएचपी और बीजेपी उŸार प्रदेश और काशी की हर खोपड़ी में रामलला का मंदिर बनाना शुरू किया और काशी उसकी ड्राफ्टिंग भूमि बनाई गई। बीएचयू के पूर्व छात्र रहे अशोक सिंहल एवं गोविंदाचार्य ने बीजेपी के लालकृष्ण आडवाणी को संघ की ओर से राम जन्मभूमि आंदोलन और विजय रथयात्रा के सूत्र दिए। गोविंदाचार्य ने काशी निवास के दौरान लगातार वैचारिक-संगठनात्मक कार्य से राम जन्मभूमि आंदोलन की जमीन तैयार की।
बनारस के आठ लाख जुलाहे बुनकरों का बनारसी साड़ी उद्योग संसार में बनारस की ब्रांडिंग करता है। बनारसी साड़ी हिन्दू मुस्लिम एकता का आधार तो है ही, बनारस का सबसे बड़ा रोजगार भी है। बनारसी बुनकरों एवं सवर्ण हिन्दुओं के बीच तनाव रचा गया। 1989 से 1992 के दौरान सात बार दंगे और सात बार कर्फ्यू लगे। (दैनिक आज, वाराणी, 17 नवंबर 1989, 16 नवंबर 1991)
बाबरी मस्जिद ध्वंस से पहले पूरा बनारस मिथकीय, प्रतीकात्मक और मनोवैज्ञानिक गतिविधियों का ’थियेटर’ बन गया। गोलवलकर ने ’विचार नवनीत’ में आंतरिक संकट नामक अध्याय के तहत मुसलमान के मुहल्लों को छोटे-छोटे पाकिस्तान कहा है तथा मूर्ति विसर्जन व संगीत से उनकी एलर्जी का उल्लेख किया है। दुर्गा पूजा और मोहर्रम ने काशी में दंगों का दंगल इस कदर शुरू किया कि शांति, साधना, शास्त्रार्थ, करघेे और शहनाई के मुहल्ले छोटी-छोटी अयोध्याएं और छोटे-छोटे पाकिस्तान में तब्दील किए जाने लगे।
हिन्दुओं के अचेतन का राजनीतीकरण एवं उन्मादीकरण करने के लिए प्रतीकों, मिथकों और छवियों को पूरे नगर में इस्तेमाल हुआ। वह इस्तेमाल बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद तक चलता रहा।
सनातनी चेतना में उग्र हिन्दुत्व एवं मिलिटेंट ताकत भरने के लिए शिलापूजन यात्रा निकलती थी। गली-मुहल्ले में राम मंदिर के लिए ईंट के नाम पर बड़े पैमाने पर जुलूस, नारे, भगवा ध्वजारोेहण, गायों -बैलों की यात्रा होती थी। इस दौरान चंदा उगाही अनेक स्तरों पर होती थी।
शाम होते ही सघन घरों से निर्मित बनारस की छतों पर घंटा घड़ियाल चीखने लगते थे, दीयों से दीवार-छतें सज जाती थीं तथा शंख खौफ और यद्ध का जयघोष करते थे। बनारस के हिन्दू-मुस्लिम मुहल्ले आपस में चिपके हुए हैं। बुनकर जुलाहों में डर और आतंक का गहरा अंधेरा छाने लगता था। इस दौरान लोहता और मदनपुरा क्षेत्र में दंगों के दौरान कई जानें गईं। जुलाहे बुनकर और हिन्दू साड़ी गद्दीदार के बीच तनाव बढ़ा दिया गया। बनारसी साड़ी उद्योग बर्बाद होने लगा जो आज तक अपनी मंदी और तंगहाली का शिकार है। उन्मादी हिन्दू बिजली का खंभा और थाली पीटकर राम जन्मभूमि आंदोलन में उन्माद भरते थे। एक आंकड़े के अनुसार उस दौर में कुछ अखबारों की बिक्री कई गुनी ज्यादा हो गई थी। बनारसी पर्यटन उद्योग पर बहुत धक्का लगा जो धीरे-धीरे उबर पाया। इसका परिणाम हुआ कि बनारस के नगर निगम, विधानसभा क्षेत्रों और लोकसभा पर बीजेपी का कब्जा हो गया जो आज तक एकछत्र शासनारूढ़ है।
कला साहित्य के दमन का दौर
बीसवीं सदी के अंतिम दशक से अबतक बनारस में लगातार प्रतिरोधी साहित्य-कलाएं दमन का शिकार रही हैं तथा कला सृजन का प्रतिरोधी स्पेस घटता जा रहा है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में ’काशी का अस्सी’ जैसा रिपोर्ताज संकलन देने वाले काशीनाथ सिंह पर दक्षिणपंथी लूंपेन ताकतों ने हमला किया। कहना न होगा कि ’काशी का अस्सी’ पुस्तक में रामराज्य परिषद् के करपात्री के लिए काशीनाथ सिंह ने व्यंग्य किया था- अयं करपात्री स्वामी दंडी/यदा कदा गच्छति दालमंडी। यह अनायास नहीं है कि दक्षिणपंथी मूल्यों पर प्रहार करने वाले काशीनाथ सिंह ने बनारस में घटते सांस्कृतिक स्पेस के कारण बाद के दिनों में कृष्णकथा के मिथक पर उपन्यास लिखा, साहित्य के दक्षिणपंथी घरानों में हाजिरी लगानी शुरू की, चुनाव के पहले बीबीसी से साक्षात्कार में मोदी को समर्थन दिया तथा प्रधानमंत्री की दिसंबर काशी यात्रा के अवसर पर (अ)स्वायत्त साहित्य अकादमी के द्वारा निर्मित साहित्य मंच पर कथा पाठकर लिफाफा ग्रहण किया।
जेलर की नौकरी से इस्तीफा देकर बनारस को काव्यक्षेत्र चुनने वाले उच्चबोधी कविता के प्रखर कवि ज्ञानेन्द्रपति सदी के अंतिम दो दशकों में लगातार सांप्रदायिकता विरोधी कविता लिखते रहे। काशी की पौराणिक, सनातनी एवं पाखंडी परंपरा से टकराते हुए उन्होंने ’व्यक्तित्व का एकांत’ क्षेत्र वरण किया लेकिन कभी झुके नहीं। साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्तकर्ता कवि ज्ञानेन्द्रपति पर दक्षिणपंथ का इतना दबाव बढ़ता गया कि 2014 में प्रलेस, जलेस एवं जसम के ’सांप्रदायिक फासीवाद विरोधी सम्मेलन’ तथा तानाबाना मंच के ’कारपोरेट फासीवाद विरोधी सम्मेलन’ में आने से उन्होंने इनकार कर दिया। पिछले दिनों अनेक सरकारी आयोजनों एवं दक्षिणपंथी साहित्यिक घरानों के कार्यक्रमों में उनकी लगातार उपस्थिति बढ़ती गई जिसका अल्पविराम दिसंबर की प्रधानमंत्री मोदी की काशीयात्रा में तब दिखा जब साहित्य अकादमी की ओर से उनकी लिफाफेदार काव्यपाठीय अध्यक्षता हुई।
हालाँकि 2014 के लोकसभा चुनाव के पूर्व प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जनसंस्कृति मंच के देश भर के लेखकों तथा बिहार इप्टा के कलाकारों की बनारस में वैचारिक-सांस्कृतिक भूमिका रेखांकित करने योग्य है। इसके अतिरिक्त अनेक स्थानिक जनपक्षीय संस्थाओं का प्रगतिशील योगदान रहा।
यह विचारणीय प्रश्न है कि बनारस में ’विद्याश्री न्यास’ जैसे साहित्यिक संस्थान की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का विस्तार बड़ी तेजी से हो रहा है वहीं प्रलेस जलेस एवं जसम जैसी संस्थाएं पहले की अपेक्षा कम सक्रिय हैं। लेखक एवं भाजपाई सांसद विद्यानिवास मिश्र की स्मृति में आयोजित लेखक शिविर पिछले साल और इस साल स्वामी करपात्री के धर्मशिक्षा मंडल में हुआ जहाँ प्रलेस जलेस एवं जसम के अनेक सदस्य सक्रिय भूमिका में थे। जबकि लमही में होने वाले प्रेमचंद के आयोजन में उनकी भूमिका लगभग शून्य है। प्रेमचंद जयंती का धीरे-धीरे सरकारीकरण हो गया जहाँ प्रगतिशील लेखक संघ की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। पिछले साल विद्याश्री न्यास के लेखक शिविर में मौजूद भाजपा नेत्री मृदुला सिन्हा ने खुलेआम मोदी का चुनाव प्रचार किया था और आजकल वे गोआ की राज्यपाल हैं।
पिछले दिनों सांस्कृतिक स्पेस को प्रतिरोध, सृजन एवं कार्यक्रम की जगह स्वाभाविक स्तर के उत्सवों, जन्म-मृत्यु तिथियों, लोकल पुरस्कार आयोजनों, साहित्यिक कर्मकांडों एवं वैचारिक भटकावों से जिस तरह भरा गया है वह कबीर, रैदास, तुलसीदास, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, त्रिलोचन, नजीर, नामवर सिंह, राजशेखर, धूमिल, बिस्मिल्लाह खान, रविशंकर आदि की विशाल सांस्कृतिक विरासत वाले नगर के लिए बेहद चिंतनीय संकेत है।
साहित्य एक प्रतीकात्मक एवं विचारधारात्मक गतिविधि है जिसका समाज और जनता के जीवन से गहरा रिश्ता होता है। जिस तरह बनारस के गाँव-नगर उजड़-बिखर रहे हैं, लेखक एवं कलाकार का काम संघर्षरत जनता को रचनात्मक एवं व्यक्तिगत स्तर पर दिशा देना है। यह कला संस्कृति पर हमले, उसके विचलन, खरीद फरोख्त और दमन का तीखा समय है। ऐसे समय में लेखकों-बुद्धिजीवियों की भूमिका ज्यादा बढ़ जाती है।
लेखकों-कलाकारों एवं लेखक संगठनों की कमजोर होती स्थानीय भूमिका के उन कारणों की पड़ताल भी जरूरी है जो दक्षिणपंथ के द्वारा 21वीं सदी में ज्यादा तीखी हुई है।
बनारस में कला के दमन के लिए वर्ष 2000 विशेष रूप से याद किया जाता है। ऐसे तो आस्था, उप्स, फायर, मुबब्बतें जैसी फिल्मों पर अक्सर दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा हमले हुए हैं लेकिन केन्द्र और राज्य में बीजेपी की सरकार के समय सन् 2000 की जनवरी-फरवरी में जिस तरह ’वाटर’ फिल्म निर्माण को रोका गया उससे काशी की ’उग्र हिन्दुत्व’ वाली छवि पूरे देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैली। दीपा मेहता की फिल्म ’वाटर’ की शूटिंग अस्सी-भदैनी स्थिति तुलसीघाट पर शुरू हुई। फिल्म की शूटिंग के लिए केन्द्र सरकार से अनुमति थी। आरंभ में महंथ वीरभद्र मिश्र ने भी अनुमति दे दी। लेकिन काशी संस्कृति रक्षा संघर्ष समिति के बैनर तले महंथ के रिश्तेदार एवं दक्षिणपंथी संगठन से जुड़े एक प्रोफेसर के नेतृत्व में पांच सौ लोगों ने फिल्म का सेट तोड़ दिया तथा सेट की सामग्री जला दी। फिल्म 1930 की काशी की विधवाओं की जीवनी पर आधारित थी। संगठन का आरोप था कि यह काशी की संस्कृति और गौरव पर आक्रमण है। विधवा बहनों पर ब्लू फिल्म बनाई जा रही है। प्रत्यक्षतः आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद् ने विरोध अभियान से स्वयं को अलग कर लिया लेकिन पीछे से वे खड़े रहे। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और सूचना एवं संचार मंत्री अरूण जेटली की आपत्ति के बावजूद महीने भर अस्सी पर यह नारा लगता रहा- तीर्थस्थान का अपमान/नहीं सहेगा हिन्दुस्तान।
’वाटर’ फिल्म निर्माण के समर्थन में बनारस के प्रगतिशील लेखकों कलाकारों का एक बैनर ’साझा सांस्कृतिक मंच’ तैयार हुआ जिसने पुरजोर कोशिश की लेकिन हार गया। वाटर फिल्म में दक्षिणपंथ की जीत का परिणाम बनारस से जुड़े कला साहित्य पर बहुत गहरा पड़ा। सत्ता के सामने कभी नहीं झुकने वाले लेखकों का शहर मनोवैज्ञानिक स्तर पर कमजोर महसूस करने लगा। धीरे-धीरे लेखकों-कलाकारों की चेतना पर ’अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खतरे’ का प्रभाव पड़ने लगा। बाद के दिनों में बेनियाबाग पुस्तक मेले में दक्षिणपंथी संगठनों ने दिल्ली प्रेस की किताबें जला दीं तथा महादेवी शताब्दी संगोष्ठी में नामवर सिंह के द्वारा दिये गये वक्तव्य पर मुकदमा दायर कया गया। इस तरह कबीर और प्रेमचंद जैसे विद्रोही साहित्यकारों का शहर ’कछुआ संस्कृति’ का शिकार होता जा रहा है। जितनी जल्दी कछुआ धर्म से साहित्यकला मुक्त होगी, मनुष्यता की भलाई होगी।
’हर हर मोदी’ का भविष्य
बनारस नारे क्राफ्ट करने में इसलिए बेमिसाल है क्योंकि यहाँ शब्दों की फसल अच्छी और उन्नत होती है। 2014 के चुनाव में इसने ’हर हर मोदी/घर घर मोदी’ का ऐसा नारा रचा कि मोदी काशी के घर घर में पहुँच गए तथा काशी के पंख पर बैठकर मोदी का कारवाँ पूरी दुनिया में सैर कर आया। काशी के आध्यात्मिक मन में यह जादू भर दिया गया कि जो सोमनाथ की धरती को हिन्दू रीति से हाइटेक स्वर्ग बना सकता है वह बाबा विश्वानाथ की नगरी के बजबजाते नालों, बदबू छोड़ते कूड़ाघरों, मैली और मरियल गंगा, गड्ढ़ा और कीचड़ वाली संकरी सड़कों, जीर्ण शीर्ण मंदिरों, पर्यटकविहीन होटलों-रेस्तराओं, बेरोजगारों, पंडितों, बनियों, किसानों, मल्लाहों, गाइडों, बिजलीविहीन गलियों, कारखानेदारों, ठगों, पंडों, दंबंगों सबकी नैया पार लगा सकता है और वह इतना ताकतवर शख्स है कि देश के मुसलमान समुदाय को ’गुजराती मुसलमान’ बनाने की ताकत रखता है।
याचकता, भिक्षा, पंडिताई और जजमानी की चेतना वाले नगर को देश का हाइटेक जजमान मिल गया। नारा गूँज उठा-सोमनाथ से विश्वनाथ तक-हर घर मोदी/घर घर मोदी। हर यानी शिव। मोदी के लिए बने मंच पर बाबा विश्वनाथ का चित्र, बीएचयू का गेट, गंगा आदि सारे प्रतीक थे। नरेन्द्र मोदी ने कहा कि मैं आया नहीं, मुझे माँ गंगा ने बुलाया है। मोदी के चुनाव क्षेत्र में घोषणा से पूर्व महीनों से भाजपा और संघ के कार्यकर्ता गुजराती लौह पुरूष सरदार बल्लभ भाई पटेल के लिए गांव-गांव की यात्रा कर रहे थे। नगर अपने कब्जे में पहले से था लेकिन गाँव के किसान मजूरों में देश भक्ति का जज्बा भरना था।
हर गाँव के सबसे बुजुर्ग के पास संगठन के कार्यकर्ता एक अटैची में गंगा जल एवं पटेल की मूर्ति लेकर पहुँचते थे तथा किसानों से हँसिया, मजूरों से हथौड़ा, गृहणियों से रसोईघर का चाकू आदि मांगकर अटैची भर लेते थे। गाँव के सबसे बड़े बुजुर्ग परंपरा के प्रतीक के तौर पर गाँव के मुहाने तक कार्यकर्ता को छोड़ने जाते। इस तरह देशभक्ति और अध्यात्म का मनोविज्ञान लगातार बनता रहा जो चुनाव के समय खूब काम आया।
बनारस जैसे हिन्दू आस्था वाले शहर में मोदी का हिन्दू मिलिटेंट रूप तथा पिछड़ेपन से मार खाए परिक्षेत्र में विकास पुरूष की छवि ने रामबाण का काम किया।
नगर के पोस्टरों में मोदी की छवि महाराणा प्रताप और शिवाजी से जोड़ी जाने लगी तथा मुसलमानों को औरंगजेब का वारिस बताया जाने लगा। नगर भूल गया कि यहाँ एक ’भारत कला भवन’ है जिसमें मुगल सम्राट अकबर द्वारा चला गया गया ’सीता राम’ का रजत सिक्का भी है। नगर भूल गया कि पक्का महाल के विद्वान पंडित जगन्नाथ ने औरंगजेब के भाई दाराशिकोह को संस्कृत पढ़ाई थी। नगर भूल गया कि यदि दाराशिकोह ने 1657 में ’सीर-ए-अकबर’ नाम से फाारसी में उपनिषदों का अनुवाद नहीं किया होता तो मध्य एशिया के रास्ते हमारी उपनिषदें यूरोप कैसे जातीं। शापनहावर और मैक्समूलर के माध्यम से पूरी दूनिया सनातन एवं प्राचीन साहित्य का साक्षात्कार कैसे करती।
बनारस को गर्व है कि उसने भारत को एक ऐसा प्रधानमंत्री दिया है जो बनारस के काशी और क्योटो दोनों का एक साथ विकास करेगा। प्रधानमंत्री का लोकल कार्यालय एक दूकान को किराऐ पर लेकर खोल दिया गया। उससे होड़ लेते हुए उŸार प्रदेश के मुख्यमंत्री ने ललिता टाकीज (सिनेमा हॉल) में अपना लोकल कार्यालय खोला है। दोनों जगहों पर समस्याओं की भरमार है और समाधान की दरकार है।
संघ की मान्यता है कि यह संघ की सरकार है तथा कारपोरेट का कहना है कि यह उसकी सरकार है। प्रधानमंत्री मोदी ने दोनों संस्थाओं को ध्यान रखते हुए काशी और क्योटो की हिस्सेदारी लगा दी है। बनारस के 72 गाँव नगर निगम में शामिल होंगे। जमीन, खेत और गांव बिल्डरों और भूदलालों के हवाले करने का नक्शा बन रहा है। क्योटो का क्षेत्र नया बनारस होगा।
दो हजार मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों, मजारों, घाटों, गलियों और गंगा की पुरानी काशी संघ के जिम्मे है। जब दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत के प्रधानमंत्री को दिल्ली में उपदेश दे रहे थे कि बिना धार्मिक भाईचारे के भारत का विकास नहीं होगा, ठीक उसके कुछ दिन पहले बनारस में संस्कृति और शिक्षा के भविष्य को लेकर संघ परिवार की दो परिघटनाएं घटीं।
पहली, विश्व हिन्दू परिषद् ने अखबारों में एलान किया कि 8 फरवरी 2015 को भारत माता मंदिर के प्रांगण में दस हजार भारतीयों की ’घर वापसी’ होगी। इस आयोजन का नेतृत्व विश्व हिन्दू परिषद् के नेता अशोक सिंहल और युवा हिन्दू वाहिनी के संस्थापक योगी आदित्यनाथ करेंगे।
सरस्वती पूजनोत्सव एवं बीएचयू के स्थापना दिवस के दिन बीएचयू परिसर में आरएसएस का पंथ संचलन हुआ। पंथ संचलन में नगर एवं परिसर के सैकड़ों स्वयं सेवकों ने ’राष्ट्रभक्ति’ का अभ्यास किया। सभा में काशी नगर के संघ प्रचारक ने वक्तव्य दिया कि संघ संस्थापक हेडगेवार और बीएचयू की स्थापना का एक ही उद्देश्य था।
दोनों घटनाओं से भारत के नव निर्माण की दिशा और भविष्य का संकेत मिलता है। बनारस में गाजी मियां की मजार पर हिन्दू-मुस्लिम दोनों चादर चढ़ाते हैं, बुनकर साड़ी बुनते हैं और हिन्दू की बेटियां शादी में उसे पहनती हैं; बिस्मिल्लाह खान की शहनाई के बिना कोई आयोजन पूरा नहीं माना जाता है। बनारस के शायर नजीर गंगा से इतनी मुहब्बत करते हैं-
नजीर आए थे पीने आबे जमजम
लिए थे हाथ में गंगा जली भी
बनारस का कबीर परेशान है कि हिन्दू और मुसलमां की आंधी में असल इंसां खो गया है-
हिंदू कहो तो मैं नहीं, मुसलमान भी नाहीं
पांच तत्व का पूतला, गैबी खेले माही।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के महान् ’भारत कला भवन’ में एक खत है। यह खत ’कथित कट्टर शासक’ औरंगजेब ने स्थानीय सिपहसलारों की संकीर्णता और बदमाशी के खिलाफ लिखी है। आप भी पढ़िए- अबुल हसन को यह जानकारी हो कि हमारे धार्मिक कानून द्वारा यह निर्णय लिया गया है कि पुराने मंदिर न तोड़े जाएं एवं नए मंदिर भी न बने। इन दिनों हमारे अत्यंत आदर्श एवं पवित्र दरबार में यह खबर पहुँची है कि कुछ लोग द्वेष एवं वैमनस्य के कारण बनारस और उसके आसपास के क्षेत्रों में कुछ ब्राह्मणों को परेशान कर रहे हैं। साथ ही मंदिरों की देखरेख करने वाले ब्राह्मणों को उनके पदों से हटाना चाहते हैं जिससे उस संप्रदाय में असंतोष पैदा हो सकता है। इस पर शीघ्रातीशीघ्र विचार होना चाहिए। (औरंगजेब का फरमान, 1658, भारत कला भवन, बीएचयू)
चचा गालिब बनारस में कुछ दिन ठहरे थे। क्यों न बुद्ध, कबीर, दाराशिकोह, नजीर की काशी को दिल्ली की आँखों से देख लिया जाए। गालिब अपनी कविता में कहते हैं- शायद दिल्ली ने बनारस को स्वप्न में देख लिया है। इसलिए दिल्ली के मुँह में पानी भर आया है। यह पानी नहर के रूप में बह रहा है। बनारस एक हरी भरी जन्नत है। अल्लाह इसे बुरी नजरों से बचाएं।
आइए, हम सब दुआ करें कि भगवान बनारस को बुरी नजरों से बचाए रखें।
नोट- लेखक नेे 2014 में ’कबीर से उत्तर कबीर’ नामक काव्य पुस्तक संपादित की है। यह पुस्तक बनारस के छः सौ साल के 41 कवियों की साम्प्रदायिकता विरोधी कविताओं का प्रतिनिधि संकलन है।
साभार :समयांतर ,फरवरी,२०१५
1 टिप्पणी:
aapaka vishleshan bahut gahan aur chintaniya hai. bahut prabhavit hua aapake shod kaarya se. Isme kya sandeh ki satya bahu aayami hai. "neti neti" ki tarah, benaras me bhi samay samay par kai vichardharayen aati haain aur itihaas ya samakaalin samaj apanin saamuhik anubhuti ke aadhar par use sansodhit bhi karata hai. samay samay par aaye hua avanchhaniya vichardhara bhi us samay ke saamuhik saamajik charitra ko darshata hai na ki anytha. bahut saari vichardharayen bina anukul paristhiti ke safal nahi ho paati jab tak ki aam saamajik parivesh use hava na de.
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