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28 मई, 2021

मदन कश्यप पूरावक्ती प्रतिबद्ध कवि हैं।


[आज 29 मई को मदन कश्यप के 67वें जन्मदिन पर विशेष]
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"वे जब भी मिलते हैं,पूर्णचन्द्र की शीतल और विकसित
मुस्कान के साथ मिलते हैं।वे जब भी कहते हैं भादो की गहरी नदी के निचले तल से आती हुई आवाज़ से कहते हैं।वे जब भी सुनते हैं तो हिरन की तरह चौकन्ने होकर सत्ता से आती हुई खड़क को सुनते हैं।वे जब भी होते हैं तो हरेक के साथ पूरे होते हैं।हां, कई बार वे जैसा दिखते उससे  ज्यादा अदृश्य होते हैं।"
                 मदन कश्यप मेरे लिए इतने निजी हैं कि बहुत कुछ कहना सुनना लंबा चल सकता है।उन्हें सुनकर पढ़कर बड़ा हुआ हूँ।वे
जितने बिहारी हैं,उतने ही बनारसी और उतने ही डेहलाइट।वे जितने इंकलाबी हैं उतने ही पारिवारिक।अब तो उनका एक घर बनारस भी है।
              मदन जी इतने संवेदनशील इंसान हैं कि कोविड काल में अपने खोए हुए लेखक साथियों,बौद्धिकों,लोगों से हिल गए हैं।भीतर से टूट गए हैं।बाजार,व्यापार और सरकार को कामधेनु समझने वाली,दूहने वाली और गटकनेवाली बौद्धिकता से वे बहुत अलग हैं।लेकिन वे घिरे हुए भी हैं।यह एक प्रतिबद्ध कवि की मुश्किल है।
          मदन कश्यप जीवन भर लिखते रहे।उनसे ज्यादा उनकी बात बोलती रही।कभी कविता में,कभी पत्रकारिता में,कभी संगठनों में,कभी डैश पोडियम पर,कभी चौराहों पर।इंकलाब आए न आए मुट्ठी तनी रही।लेखक के लिए सरकारी नौकरी छोड़ना बिहारियों का साहस है।तीन नाम तुरत याद आ रहे हैं-ज्ञानेन्द्रपति,मदन कश्यप और अरुण प्रकाश।नख कटाकर शहीद होने वाले बड़बोले लेखकों के बीच यह सच्चे जोखिम की हिम्मत है।
      लगभग आधा दर्जन काव्य संकलन है।गद्य इतना लिखा है कि कई संग्रह हो।भाषणों,रपटों,साक्षत्कारों के अनेक संकलन हो सकते हैं।नामवर जी के साथ दूरदर्शन पर 
चलाए पुस्तक विवेचन अभियान की सामग्री भी काफी होगी।मदन कश्यप शर्मीले,धीमे और चूजी हैं।आमिर खान की तरह परफेक्टनिष्ट!
           मदन जी  साहित्य प्रकाशन जगत के ऐसे रणनीतिकार हैं जिनके कारण हिंदी में कई प्रकाशक लेखक जम गए।यह सच है कि मिशन और स्पर्धा की राह पर चलते हुए कई बार वे जेनुइन के साथ कूड़े कचरे के भी ब्रांड एंबेसडर बन जाते हैं।यह युगीन संकट है।
            मदन जी से बड़ा सहज और मिलनसार व्यक्ति हिंदी में कम ही दिखता है।बीएचयू परिसर में दिनकर लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर,वाराणसी का उद्घाटन उनके हाथों हुआ है।पेड़ के नीचे बैठकर वे समारोह में मुख्य वक्तव्य देने की
मार्क्सीय जनतांत्रिकता रखते हैं!
          हिंदी साहित्य के ऐसे पीढ़ी निर्माता योद्धा लेखक को जन्मदिन पर सौ साल बोधिवृक्ष बने रहने की शुभकामनाएं!
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मदन कश्यप की कविता:रीढ़ की हड्डियां

रीढ़ की हड्डियाँ
मानकों की तरह होती हैं
टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी फिर भी जुड़ी हुई
ताकि हम तन और झुक सकें

यह तो दिमाग को तय करना होता है
कि कहाँ तनना है कहाँ झुकना है

मैं एक बच्चे के सामने झुकना चाहता हूँ
कि प्यार की ऊँचाई नाप सकूँ
और तानाशाह के आगे तनना चाहता हूँ
ताकि ऊँचाई के बौनेपन को महसूस कर सकूँ !
 ©रामाज्ञा शशिधर,बनारस

27 मई, 2021

नेहरू की भारत माता यहां कैद हैं

{निधन दिवस,27 मई}
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 ©रामाज्ञा शशिधर,बनारस
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     आज भारतीय गणतंत्र के सर्वश्रेष्ठ शिल्पकार जवाहरलाल नेहरू की निधन तिथि है।
     स्वाधीनता संग्राम के सच्चे लड़ाकों की 'विविधवर्णी कल्पनाशीलता' से भारतीय गणतंत्र और जनतंत्र की नींव रखनेवाले नेहरू ने 1947 से 1964 के बीच जिस 'आइडिया ऑफ इंडिया' की स्थापना की,आज उसके स्तम्भों को क्रोनी पूंजी के कट्टर दीमक या तो खोखला कर रहे हैं या बाजार में कौड़ी के मोल बेच रहे हैं।
       अंग्रेजी की सामग्री से अलग राष्ट्रकवि दिनकर की पुस्तक 'लोकदेव नेहरू' और आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल की संपादित पुस्तक 'भारत माता कौन हैं' हर युवा को पढ़नी चाहिए।
       दिनकर लाइब्रेरी रिसर्च सेंटर,वाराणसी से भी बनारस के युवा इन पुस्तकों को हासिल कर पढ़ सकते हैं।
       बात बात पर जेपी को 'लोकनायक' कहने वाले भूल जाते हैं कि विनोबा भावे ने जयप्रकाश नारायण को दिए संबोधन से पहले नेहरू को सोच समझकर 'लोकदेव' कहा था।
        आजकल कट्टर,क्रूर और पाखंडी शासक को 'परलोक देव' बनाने की संघी मुहिम के समांतर नेहरू के 'लोक देव' वाली छवि पर नई बहस की जरूरत है।
        कहना न होगा कि दिनकर ने सत्ता,समाज,इतिहास और राजनीति के कड़े आलोचक होते हुए नेहरू की निर्मम समीक्षा की है।उसके बावजूद वे उनकी नजर में  लोकतांत्रिक भारत के ठोस निर्माता थे।
        एक दशक से हवाट्सप यूनिवर्सिटी के माध्यम से 'गोबरग्रस्त सामूहिक दिमाग' निर्माण के लिए एकसूत्री कुतर्क व चरित्रहनन अभियान चल रहा है जिसमें नेहरू खानदान की जितनी खुदाई हुई है उतनी खुदाई अगर कट्टर व कुतर्क सेवक हिन्दू सभ्यता की कर लेते तो उसका सचमुच उद्धार हो गया होता।
      सबसे ज्यादा वैचारिक धुंध भारतीय गणतंत्र को मटियामेट करने के लिए फैलाया गया है।
      आज भारत माता कौन है -का उत्तर नई पीढ़ी के पास मुश्किल से मिल सकता है।
     झंडों,डंडों,नारों,गलियों,तालियों,हत्याओं,दंगों,चुनावों,
ट्रोलों,अम्बानियों,नादानियों,युद्धों,हथियारों में भारतीय राष्ट्र की खोज करने वाले दिमाग 'गोदी मीडिया' के दिग्भर्मित व स्मृतिविहीन क्राफ्ट हैं जिन्हें अपने निकट अतीत से काटकर सुदूर पुराण युग में फेंक दिया गया है।
      ऐसे समय में नेहरू और उनकी भारत माता की खोज से हम ज्ञान की उस दुनिया में प्रवेश कर सकते हैं जहां गणतंत्र के ढहते अवशेष को बचाया जा सके।इतना ही नहीं,अब तो नए सिरे से कोशिश करनी होगी कि बिखरते हुए जनतंत्र का ठोस नवनिर्माण कैसे हो।
         आधुनिक भारत के सच्चे निर्माता,भारतीय आत्मा के इतिहासकार,स्वाधीनता सेनानी और विख्यात स्कॉलर को 135 करोड़ जन की ओर से निधन तिथि पर राष्ट्रीय श्रद्धाजंलि!

21 मई, 2021

खजूर के पत्तों से ढंका मेरा बचपन

"◆रामाज्ञा शशिधर,सिमरिया

याद आ रहा है खजूर रस जैसा मेरा बचपन!गढ़हरा गांव का देहात।बागीचे और खेत से घिरा बुआ शकुन देवी का घर।सब लोग उसे सिमरिया में सकुनमा कहते थे।मेरे बाबू तीन भाई और दो बहने।मैं उन्हें दीदी कहता था।मेरा जन्म मरौछ होने के कारण वहीं हुआ।माय बताती है कि सांझ का वक्त!सूरज डूब रहा था।लगभग अंतिम किरण खत्म हो रही थी।पूस की हड्डी हिलाने लानेवाली ठंडक।पहला पख का दूसरा दिन यानी कृष्ण पक्ष द्वितीया।कुल मिलाकर यही मेरा पंचांग; यही मेरा बर्थ सर्टिफिकेट था।जुबानी जंग यानी स्मृति श्रुति का जीवित रूप।
           वही बुआ नहीं रही।मेरे बचपन के रूपाकार में सिमरिया गढ़हरा की पगडंडी यात्रा का बड़ा हाथ है।कितनी पगडंडियों पर कितनी बार। 
शकुन दीदी का श्राद्ध कर्म।माय भी,मैं भी।
लेकिन उसी बीच जो घट रहा वह इतिहास है।यहां बेटे ही घीसू माधव हैं और मैयो शकुन बुधिया। बड़ा बेटा कर्म थान वाले गांजा से काम चला सकता है लेकिन लघुराम को खजूर रस चाहिए ही चाहिए।रोज छककर। मैयो की याद भुलाई जा रही है।तेरहा को माँछ भात का भोज हुआ है।तो स्वाद दोगुना।
तो सुनिए घपोचन कपोचन उपकथा--
मेरा बचपन (7-12 साल तक)पढाई से नहीं आवारगी से शुरू किया गया था जिसमें
भीषण उथल पुथल थी;प्रकृति और अराजकता से ऐन्द्रिक,अनचाहा और परिस्थतिजन्य
रिश्ता था;वहां गरीबी थी;विस्थापन था;हिंसा
थी;चोरी और चरवाही थी; घर,दोआब 
और घाट के बीच भैंसों गायों से दोस्ती
थी;मेरी नासिका रंध्रों और त्वचा छेदों 
से फूटती बरहर कटहल आम और खजूर के रसों की सड़ांध थी;अनजानी
राहों पर पांव की ताकत और दिमागी
हालत से ज्यादा नपती दूरियां और मिलती
रिश्तेदारियां थीं।.....
इस स्मृति को 30 साल बाद फिर से 
उसी भूगोल पर जांचने गया तो जो दिखा
वह उसी दिशा का विकास था। 
      यह खजूर यह पियक्कड़ फुफेरा भाई और ये आम
सब मुझे मेरा बचपन लौटाकर बोले-अबे
घपोचन!सुना है तू काशी में किसी नामी
कालेज का प्रोफ़ेसर हो गया है। भूल गया अपने पैदाइश वाले कोनिया घर को। मैं वही खच्चर आदमी हूँ।अभी भी खजूर के कांटे
चुभा सकता हूँ। देख!एक दोना ले कर
वही हो जा। लादकर कोई ले जाता तब
तू क्या होता। ताल मेरे लिए गाय है और
खाजूर मुर्गी। बता किस किताब से समझाएगा
!
        और अपनी फुफेरे भाई ने माँ के तेरहा श्राद्ध के अंतिम पल कहा -आज मछली और तारी
नहीं लूँगा तो पूरा साल मरी माँ को कोसूंगा
!!!
आह! मेरा बचपन कहाँ और मैं कहाँ!

बनारस में विश्व चाय दिवस








अब आप चाय लेंगे या कॉफी!
ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार में चाय की भूमिका असंदिग्ध है।भारतीयों को निक्कमा,निठल्ला,ठलुआ,बकलोल,उदररोगी और रूढ़िहल्ला बनाने में चाय की भूमिका महत्तम है।अंग्रेजीराज से लेकर आजतक चायबागान में मजूरों के लाल खून से ही चाय रंग पकड़ती है।
      1929 की मंदी के बाद भारत और बनारस में अंग्रेजों ने चाय की लत लगायी।शुरू में तो फ्री में बनारस की गलियों सड़कों पर गर्म गर्म चाय और पत्ती मिलती थी।दूध,दही,मिठाई,मलइयो की जुबान को कड़वी चाय थू थू जैसी लगती थी।1930 के बाद एक सेना रिटायर्ड बंगाली दादा ने नगर को चाय की आदत बांटी-द रेस्टोरेंट,गोदौलिया।
       आज़ादी के बाद 1952 के आसपास केदार मंडल और कुछ कामरेडों ने दूध,पानी और चीनी के घोल में चीकट मथना शुरू किया।वहां लेखक टाइप के जीव जुटने लगे।अब तो यह आम बीमारी है जिसका शिकार मैं भी हुआ हूँ।
    2014 से चाय के भांड नृत्य ने पूरे भारत को ऐसा नचाया कि 2021 तक देश सी ग्रेड पत्ती का सड़ा हुआ बाल्टा लग रहा है।
        चाय दिवस पर कुछ बात उसके विकल्प की।यानी बात कॉफी की।कहते हैं दुनिया के दो तिहाई थिंक टैंक यानीलेखक,पत्रकार,चिंतक,एक्टविस्ट,आवारा,दार्शनिक,
राजनीतिज्ञ और बैचेन आत्मा एक बार कॉफी हाउस जरूर जाते हैं।कहते हैं कि फ्रांसीसी क्रांति कहवा के गिलास से निकली थी।कहते हैं भारत की सम्पूर्ण क्रांति में कॉफी हाउसों की बड़ी भूमिका है।कहते हैं कि कॉपरेटिव कॉफी हाउस को सरकारों ने नीलाम कर दिया।
        कहते हैं कि काफी बाजार अब देश और दुनिया के सबसे फेवरेट पेय के बाजार के रूप में उभर रहा है।भारत और बनारस में कैफे वाले वे भी हैं जो कॉफी पिलाते हैं,वे भी जो मोमो बेचते हैं,वे भी जो इंटरनेट पर बेरोजगारों का आवेदन अप्लाई करवाते हैं।मैं कॉफी का भी लती हूँ।
       विश्व चाय दिवस आज है तो विश्व कॉफी दिवस भी होगा ही।
     आप बोर हो गए तो बताइए -चाय लेंगे या कॉफी!!
    ©रामाज्ञा शशिधर

15 मई, 2021

दिनकर ग्राम सिमरिया के रंगकर्मी की गुमनाम मौत

     ©रामाज्ञा शशिधर  
 दिनकर लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर,वाराणसी
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अमर होने के लिए मरना पड़ता है लेकिन जरूरी नहीं कि हर मौत अमरता की गारंटी है।गुमनाम ग्रामीण रंगकर्मी की 54 साल में हुई मौत ऐसी ही परिघटना है।
         यह याद आँखन देखी हमसफ़र की दास्तां से जुड़ी है।वे उन लाखों ग्रामीण कलाकारों में एक थे जो बिहार के (वि)ख्यात ग्राम सिमरिया में पैदा हुए,वहीं पले, बढ़े,किसानी की,किताबी कीड़े बने,पारसी मंच के दिग्गज रंगकर्मी हुए,गुमनाम हुए,बीमार हुए,इलाज से महरूम रहे,मर गए और अमरता की सीढ़ी से बाहर रह गए।
      वे दिनकर की कविता के सारांश रहे-जो अगनित लघु दीप हमारे/तूफानों में एक सहारे/जल जलकर बुझ गए किसी दिन/मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल।समाज की आत्मा जिस धरातल पर है वहाँ कोई आगे बढ़कर कहने वाला नहीं कि कलम आज उनकी जय बोल।
       उनका नाम अर्जुन था।कला और किसानी में सव्यसाची थे।वे बचपन से ही मृदुभाषी,मिलनसार और एकांतप्रिय थे।मध्य विद्यालय और दिनकर उच्च विद्यालय, सिमरिया से पढ़ाई हुई।वहां तब दिनकर जयंती का बीज पड़ गया था।अर्जुन सिंह का परिवार किसानी का था।इसलिए बचपन से ही पढ़ाई और
खेती-पशुपालन की ज़िम्मेदारी कंधे पर रही।
       वे दिनकर की विरासत से जुड़े हुए थे।उनके बड़े भाई महेंद्र सिंह इतने त्यागी थे कि पूरा जीवन ग्रामीण दिनकर पुस्तकालय को लाइब्रेरियन के रूप में दान कर दिया।जबतक जिंदा रहे,वे किताब और अस्थमा को सीने से लगाए रहे।माहो दा की मौत भी लाइब्रेरी की हजारों किताबों के बीच हुई।बड़े भाई ने छोटे में लोकप्रिय उपन्यास पढ़ने की आदत डाली।
        जिसे हम फुटपाथी उपन्यास कहते हैं,उसने समाज में करोड़ों वास्तविक पाठक पैदा किए हैं।मुझे याद है कि बाद में हमलोगों के पुस्तकालय प्रचार अभियान के समय अर्जुन दा देवकीनन्दन खत्री और प्रेमचंद की किताबें बड़े चाव से पढ़ते थे।कल्पना कीजिए जब चारों ओर गैंगवार हो रहा हो तब ठेठ गांव का कोई नौजवान खेत के मेड़ पर एक हाथ में खुरपी और दूसरे हाथ में किताब रखे मिले तब जो छाप एक किशोर मन पड़ पड़ती है,आज भी मेरे चित्तपट्ट पर चिपकी हुई है।
            पारसी रंगमंच का चलन तो सिमरिया के आसपास के गांवों में ब्रिटिश समय से रहा है।लेकिन सिमरिया गांव में 1975 के बाद आकार ले पाया।लगभग 1980से 1995 के बीच सिमरिया और उसके आसपास के गांवों में एक चलन तेज़ हुआ।वह था ग्रामीण रंगमंच और पारसी रंगमंच के मेल से त्योहारी थियेटर को सक्रिय करना।
        सिमरिया के साथ एक विशेष चीज जुड़ी।दिनकर जयंती की शुरुआत और प्रचार प्रसार से प्रेरणा लेकर विभिन्न टोलों में  दिनकर स्मृति नाटक ग्रुप का निर्माण।उन्हीं में एक टोले का मंच था दिनकर अभिनय कला केंद्र।किशोर अर्जुन सिंह जल्द ही अभिनय क्षमता से कला के केंद्र में आ गए।स्त्री पुरुष,पढ़े लिखे बेरोजगार और डाकू की भूमिका में बहुत फबते थे।याद होगा कि तब गांव में लड़की या स्त्री का पार्ट पुरुष को ही अदा करना होता था।माहौल बहुत नहीं बदला है।
             तब दिनकर ग्राम और जयंती के विकास के लिए चार पांच लोगों की एक समिति बनी-दिनकर स्मृति विकास समिति।देखा देखी हर टोले में नाटक की टीम और बैनर खड़े होने लगे।टोले के हिसाब से कलाकार और दर्शक कई ग्रुप में बंट गए।
           इन मंचों की खास विशेषता थी कि दर्शक,कलाकार और निर्देशक लगभग आदान प्रदान होते थे लेकिन बैनर अलग होता था।भागलपुर और मेरठ की पारसी नाट्य पुस्तकों से लेकर पारसी नाटक लिखने वाले तक दिनकर ग्राम में तैयार हो चुके थे।कलाकारों की फेहरिस्त तीन पीढ़ियों तक फैल गई।
          अर्जुन सिंह इस व्यापक पारसी रंगमंच अभियान के स्टार कलाकार की तरह उभरे और आस पास के गांवों तक उनकी पहचान बन गई।मैं खुद ग्रामीण रंग मंच से 1989 से सक्रिय रूप से 2001 से जुड़ा रहा।
         अर्जुन दा की आवाज़ में एक खास तरह की नफासत,शुद्धता,गूंज और सुरलहर थी।उनकी ट्रेनिंग रंगमंच से होने के कारण आम लोगों की ढेलेदार आवाज़ से उनकी बोलचाल आजीवन विशिष्ट और लोकप्रिय रही।
         अगर उनकी पढ़ाई बाहर होती,रंगमंच से प्रोत्साहन मिलता और थियेटर-सिनेमा की दुनिया तक पहुंच पाते तो एक ग्रामीण कलाकार आज गुमनाम नहीं होता।
       बाद में  वे जनपद में नुक्कड़ नाटक टीम में सक्रिय हुए।लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारी के कारण गाड़ी सिग्नल पर ही अटक गई।अर्जुन जी आजीवन गांव में ही रहे।वे रहमदिल और सहयोगी प्रवृति के बने रहे।एक किसान की दया और करुणा से आत्मा बनी थी।प्रतिभा का प्रोत्साहन उनका नैसर्गिक गुण था।
           डॉक्टर ने एक सप्ताह पहले हृदय सम्बन्धी समस्या बतायी थी।कुछ दवा दी और कहा कि आराम कीजिए ठीक हो जाएंगे।सुबह घूमकर आए और अचानक गिर पड़े।अर्जुन दा की मौत इलाज की सुविधा के अभाव में हुई।एक गुमनाम मरीज की तरह।उनका असमय निधन सिमरिया की सांस्कृतिक क्षति  है।मैं व्यक्तिगत रूप से मर्माहत हूँ।श्रद्धांजलि में बस दिनकर के दो बोल हैं-कलम आज उनकी जय बोल।

03 मई, 2021

संस्मरण:सिमरिया के दिनकर रत्न मुचकुंद की मृत्यु असंभव है

★रामाज्ञा शशिधर
【संस्मरण】


पूर्वज दिनकर की पुस्तक 'संस्मरण और श्रद्धांजलियां' की पहली पंक्ति है कि अपने समकालीनों की चर्चा करना बहुत ही नाजुक काम है।मेरे लिए मुझसे तेरह साल छोटे सिमरिया की दोमट माटी पर उगे और असमय मुरझाए मुचकुंद पर चर्चा करना असंभव काम है।लेकिन काल के आदेश को
कैसे ठुकरा सकता हूँ।उसकी जैसी मर्जी!
     मुचकुंद की बात कहां से शुरू करूँ!आरम्भ और अंत दोनों मातम से भरा है।इसलिए बीच से करता हूँ।वहां आग भी है और जनराग भी ।
        बात 2003 की है।मैं जेएनयू से किसान आंदोलन और हिंदी कविता के रिश्तों पर रिसर्च के दौरान जनपद जनपद भटक रहा था।उनदिनों क्षय रोग से उबरकर गांव आया था।
      जून का महीना।तपती दोपहरी।दालान के आगे पिताजी द्वारा पोसे गए जामुन के पेड़ के नीचे मेरी खाट।देखता हूँ- सांवली त्वचा और कमजोर काया का एक किशोर।उम्र लगभग 20 साल।धूप में तमतमाया तांबे सा चेहरा।खुली मुस्कान।हाथ में समयांतर।उसकी तह के नीचे इतिहास
का नोट्स।नमस्कार करते हुए खड़ा हुआ।पहचानने की कोशिश की।पहचान नहीं पाया।
     संजीव फिरोज़ ने अपनी धीमी गति का समाचार शुरू किया -यह मोनू हैं।मेरे भाई लगेंगे।ननिहाल में रहते थे।अब गांव में रह रहे हैं।इनके घर मे चार मर्डर हुआ था।आपको याद होगा।प्रतिबिंब की चर्चा सुनी है।आप से मिलना और बात करना चाहते थे।
        मोनू विचार की तरह शुरू हो गए-समाज इतिहास से सीख लेकर बदलता है।सिमरिया ने दिनकर से कितना सीखा है।जब दिनकर और उनकी किताबें गॉंव को नहीं बदल
पा रही तब आपलोग नाटक,गीत,झाल,ढोल से समाज कैसे
बदल देंगे।समाज को बदलने के लिए नया विचार और उस विचार का प्लेटफॉर्म चाहिए....इसलिए प्रतिबिंब में विचारबिंब होना चाहिए।
     मैं चुपचाप अपनी आदत के विरुद्ध पहली बार सुन रहा था-चीख से भरा स्वर।थूक के छींटों में लिपटी ध्वनियां।लहराते हुए हाथ।नाचती हुई लाल आंखें।फड़कती हुई भौंह।जैसे आग का पिघलता हुआ गोला हो!जैसे दिनकर का रश्मिरथी।जैसे सिमरिया घाट का प्रफुल्ल चाकी।जैसे जनकवि शक्र की इंकलाबी छापे की मशीन।जैसे घड़ियालों,मगरमच्छों की गंगा के ताल जल में नन्हीं मछरी।जैसे सिमरिया के फैले हुए उद्यानों बागीचों के बीच गूंजती हुई
कोई  दमदार चिड़िया।
       तब से जीवनपर्यंत मुचकुंद विचार की अलख जगाते रहे;बदलाव के नारे दोहराते रहे;डफली की धुन पर गीत गुनगुनाते रहे।और एक दिन कबीर की कविता हो गए-हंसा जाई अकेला/जग दर्शन का मेला।

        ◆
        टर्नर,जिम और दिनकर तीनों सही थे।टर्नर ने कहा कि 1918 की महमारी  युद्ध के जहाज पर चढ़कर यूरोप से भारत आयी और लगभग 2 करोड़ मनुष्यों को लील गई।जिम ने कहा कि सिमरिया- मोकामा घाट के अनेक श्रमिक
महामारी के गाल में समा गए।दिनकर ने देखा कि सिमरिया के दो सौ से अधिक परिजन पुरजन महामारी से खत्म हो गए।दिनकर ने यह भी देखा कि बचपन की पाठशाला के गुरुजी भूख के कारण महुआ चुनकर खा रहे हैं।ब्रिटिश दस्तावेज,औपनिवेशिक साहित्य से लेकर दिनकर-शक्र के लेखन में अकाल महामारी के दबे निशान को खोजने वाला
प्रतिभा सिमरिया में एक ही थी,मुचकुंद।मैंने साहित्य की यात्रा में ये चिह्न देखे और इतिहास प्रेमी मुचकुंद को उत्साहित किया।उसने वादा किया था कि बेगूसराय में घर बनाने के बाद आपके बताए तरीके और लिखे गए संक्षिप्त विवरण से सहयोग लेकर सिमरिया का विस्तृत इतिहास लिखूंगा।यह कार्य सिमरिया का कौन सपूत करेगा,अभी कोई
प्रकाश नहीं।

     ◆
            आह!मोनू हम सबको छोड़कर वेबक्त चले गए।अभी उनके जाने की उम्र नहीं थी।उनके जाने से सिमरिया और जनपद दोनों जगहों में रिक्ति बन गई है। उससे भी ज्यादा मेरे भीतर रेत की आंधी उड़ रही है।उनकी उपस्थिति का अभाव हम सबको लंबे समय तक परेशान और दुःखी करेगा।
     मोनू का मूल नाम तो मुचकुंद था।मुचकुंद यानी खुशबूदार सफेद फूलों का वृक्ष।लंबा, मजबूत और अल्हड़।
यह नाम तो ननिहाल से मिला होगा।सिमरिया तो तब ही छूट गया जब वे गर्भ में थे।दिनकर के यहां कुछ ही फूल हैं,वेणुवन है,दूब है,कास है।मुचकुंद सफेद,पीले सुगंधित फूलों का बौर। मुचकुंद के वृक्ष की उम्र लंबी होती है ।यह क्षणभंगुरता अनहोनी ही है।
    2019-21 इस पृथ्वी और भारत के लिए वैसे ही विनाशकारी है जैसे 1918-22 के महामारी वर्ष थे।1918-19 में महामारी से सिमरिया में लगभग दो सौ किसानों की मौत हुई थी।जनपद में शवों की संख्या बड़ी थी। तत्कालीन सिमरिया घाट शवों से पट गया था।इसका उल्लेख दिनकर से जुड़े साहित्य में भी मिलता है।दिनकर ने बाद की महामारी पर कविता भी लिखी है।
     मुचकुंद का जन्म और मरण दोनों दुखांत है।अक्सर जन्म खुशी का द्योतक होता है और मृत्यु मातम का।मुचकुंद का जन्म 27 जुलाई 1983 को हुआ।जब वे पैदा नहीं हुए थे ,उनके घर में चार हत्याएं हुईं।लगभग पूरा घर खत्म हो गया।दो चाचा भागवत सिंह और सिंकदर सिंह मारे गए,पिता रज्जन सिंह(राजेन्द्र प्रसाद सिंह)मारे गए,बुआ राजवती देवी मारी गई।गोली खाकर भी मां छुप गई और गर्भ रत्न को बचा लिया।आज पत्नी एकता ,ढाई वर्ष का नन्हा बेटा नयन प्रकाश के साथ बूढ़ी मां की मजबूत लाठी खो गई।
        वह दौर ऐसा ही था। तब सिमरिया में कविता की नहीं,बंदूक की खेती होती थी। इतिहास से बेखबर गांव को आजतक इहलाम नहीं है कि उसका बड़ा दुश्मन सात समुद्र पार है।ब्रिटिश रेलवे द्वारा डाले गए 100 वर्ष पुराने विष बीज अब विष वृक्ष बन रहे थे।कई दर्जन लाशें गिरी होंगी।मेरा बचपन भी उस माहौल से लगभग तबाह हो गया।वह कहानी और कभी।


      मुचकुंद 19 अप्रैल,दिन सोमवार 2021 की सुबह हम सबको अलविदा कह गए।तब वे पीएमसीएच पटना में थे।उनकी मौत भी कोरोना वायरस की तरह काल के आघात से,अस्तव्यस्त,रहस्यमय और हृदयविदारक हुई।
      15 अप्रैल की शाम कलाकार साथी सीताराम जी ने पहली सूचना दी कि मोनू कोविडग्रस्त हैं।बेगूसराय के सृष्टि जीवन अस्पताल में ऑक्सीजन पर हैं।डॉक्टर का कहना है कि रेमडेसिविर दवा से ही जान बच सकती है।बेगूसराय में दवा की किल्लत है।

       मैंने डीएम,सीएमओ,सांसद से फेसबुक अपील की कि तुरत रेमडेसिविर की व्यवस्था हो।कल होकर दवा दिल्ली से आ गई।दवा दी गई लेकिन सीटी स्कैन में फेफड़े का अधिकांश हिस्सा घिर चुका था।डॉक्टर ने हाथ उठा दिया।रामनाथ सिंह ने पटना ले जाने का सुझाव दिया।
       मैंने सीएम और स्वाथ्यमंत्री को ट्वीटर टैग करते हुए निवेदन किया कि दिनकर की धरती के लाल को एम्स,पटना में एक बेड चाहिए।वह अंधड़ में बगुले की खबर थी।तभी स्वास्थ्यमंत्री ट्वीटर पर टैग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक बुजुर्ग कार्यकर्ता की बेड बिना मौत की खबर पढ़ी।बेटे का दर्द मंत्री पर गुस्से में फूट पड़ा था।मैं निराश हो गया।
        जिस दिनकर मंच पर नेता,मंत्री आकर माला से लद जाते,वैधता पाते और सुर्खी बटोरते,उस मंच के सबसे सुगंधित फूल के लिए कोई राहत और चाहत नहीं।हे दिनकर!ग्रामीण मित्र अवधेश कुमार से आग्रह किया कि जनपद के सांसद या  सत्ताधारी दल के किसी नेता से निवेदन कीजिए।
उन्होंने बताया कि बीजेपी जिलाध्यक्ष श्री राजकिशोर सिंह ने
स्वास्थ्य मंत्री से आग्रह किया है।कल होकर पता चला कि उनकी बात और फोन को मंत्री अनसुनी कर गए।
      यह भाग्य कहिए कि मुचकुंद की साली पीएमसीएच में नर्स हैं और सिर्फ उनकी कोशिश से भर्ती हुई।सीटी स्कैन की हालत से साफ था कि परिणाम कुछ भी हो सकता है।परिणाम सामने आया।
       बाद में रामप्रवेश सिंह,प्रवीण प्रियदर्शी,बब्लू दिव्यांशु,विनोद बिहारी और मेरे विद्यार्थी पंकज कुमार व रूपम से जो जानकारी मिली उससे समझ में आया कि नानी के शव संस्कार से लौटने के बाद मोनू बेगूसराय-बरौनी लगातार भागते हुए डॉक्टरों के निर्देशानुसार कोविड टेस्ट,अन्य टेस्ट एवं दवा से सम्बद्ध थे।
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         मेरा मानना है कि अगर समय पर उचित स्वास्थ्य व्यवस्था व सलाह मिलती तो मुचकुंद की जान बच सकती थी।यह हैरानी होगी कि एंटीजन और आरटी-पीसीआर दोनों टेस्ट निगेटिव आए और एंटीजन ने भरम पैदा किया।सिस्टम की बलिहारी कहिए कि दूसरा टेस्ट मौत के बाद मिला और सरकार के खाते में मुचकुंद नॉन कोविड मरीज हैं।
         दुनिया भर के डॉक्टर और वैज्ञानिक कह रहे हैं कि
तीस फीसदी टेस्ट रिपोर्ट गलत है,रेमडेसिविर सिर्फ पहले सप्ताह में मोडरेट मरीज पर सिर्फ ऑक्सीजन लेवल बनाए रखने के लिए सफल है, आवश्यक दवा और परहेज पहले दिन से जरूरी है।उसके बावजूद मुचकुंद का
इलाज उचित दिशा में शायद नहीं रह पाया।सिमरिया के साथी रामप्रवेश जी से मुचकुंद लगातार संपर्क में थे।उनका भी यही मानना था।खैर!पब्लिक स्वस्थ्य सिस्टम के लिए
मोनू भविष्य के आंदोलन के प्रतीक बन सकते हैं ताकि भविष्य में लाखों मोनू को बचाया जा सके।
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         मुचकुंद की मृत्यु विचार की मृत्यु है।वे सिमरिया की दोमट मिट्टी पर विचार के पेड़ थे।उनके साथ बिताए संस्मरण व कार्यों का वर्णन करूँ तो एक किताब बन सकती है।
        कुछ यादें यहां जरूरी हैं।वे 2003 में प्रतिबिंब से जुड़े। उनके कारण 1998 से सक्रिय प्रतिबिंब गीत,नुक्कड़ नाटक,कविता पाठ से  ग्रामीण क्षेत्र में विचार निर्माण की ओर मुड़ गई।संस्कृति का क्रांतिकारी पहलू पुस्तिका इस बात का प्रमाण है कि दर्जनों गोष्ठियां गांव गांव हुईं।हमलोगों ने जनेऊ और कोका-पेप्सी दोनों से सामूहिक मुक्ति ली।मनुवाद और साम्राज्यवाद दोनों पर प्रहार।प्रेमचंद की किताब सरकार द्वारा पाठ्यक्रम से हटाने पर मुचकुंद के नेतृत्व में प्रेमचंद कथा अभियान चला।मुचकुंद एक्टिविस्ट बने,संगठन कर्ता हुए,इतिहास के विद्यार्थी हुए। समयांतर पत्रिका अपने ग्रामीण पते पर मंगाकर जनपद को बांटने लगे।इसतरह जनपद के बौद्धिकों लेखकों से संपर्क संवाद घना होता गया।
     प्रतिबिम्ब के कारवां में शामिल प्रवीण प्रियदर्शी,केदारनाथ भास्कर, तरुण,पंकज,चेतन,शिवदास,मुकेश दास,अविनाश अशेष,
संजीव फ़िरोज,राधे,श्यामनंदन निशाकर,बबलू दिव्यांशु,अशोक झा,विनोद बिहारी झा आदि नामों का एक
कारवां है जिन्होंने कला,साहित्य,संस्कृति और विमर्श के माध्यम से सिमरिया और आस पास के गांवों में जन जागरण
का  अभियान चलाया।मेरे द्वारा लिखे दो नुक्कड़ नाटक 'जात पांत पूछे सब कोई' और 'मैं हूँ भ्रष्टाचार' को लेकर प्रतिबिंब गांव गांव तक पहुंचा।मोनू इसी टीम के सक्रिय साथी थे।
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बीएचयू में बीएड के दौरान एडमिशन से लेकर अंतिम सत्र तक उनके निर्माण में मैं जो कुछ सहयोग कर सकता था,करता रहा।काशी अस्सी क्षेत्र मेरे लिए साधना और मुक्ति का क्षेत्र है।चाय,काफी,पान के दर्जनों अड्डे और सैकड़ों बुद्धिजीवी,कवि,लेखक,पत्रकार,नेता,शिक्षक,गुंडे,पर्यटक,एक्टिविस्ट,पागल,साधु,गाउल सब मेरी जान हैं।तुलसीदास,धूमिल,नामवर सिंह,काशीनाथ सिंह और मेरी उसी अस्सी की
की अंतरराष्ट्रीय चाय अड़ी के वे स्पीकर भी हुए।
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         बीएचयू से बीएड करने के बाद मुचकुंद डीएवी में शिक्षक भी हुए।शिक्षा दान के साथ दिनकर मिशन के लिए उनका बाद का जीवन पूर्णतः समर्पित हो गया।दिनकर पुस्तकालय और दिनकर मंच से साहित्य की गंगा बहाकर उन्होंने दिनकर पुस्तकालय के साहित्यिक स्वरूप को जनपद,राज्य और राष्ट्र की हलचल से नए सिरे जोड़ दिया।
    मुचकुंद का एक गुण नई पीढ़ी के लिए ज्यादा प्रेरणादायक है।वह गुण है उनका पढाकूपन।वे जब दिनकर पुस्तकालय से जुड़े,तब जनपद से लेकर जनपद से बाहर तक दिनकर पुस्तकालय के पाठक फैल गए।वे जिस तरह
जनपद भर में समयांतर पत्रिका घूमघूमकर बांटते थे,वैसे ही
दिनकर पुस्तकालय की किताब झोले में लेकर लोगों को पढ़ाने लगे।वे चलता फिरता पुस्तकालय हो गए जिनके झोले
में किसिम किसिम की पुस्तकें रहती थीं।शिक्षक,लेखक,पत्रकार,नाट्यकर्मी,नेता,अफसर सभी को उन्होंने पुस्तक संस्कृति और अध्ययन स्वभाव से जोड़ा।यह अक्षर विरोधी दौर में उनका बड़ा योगदान था।पाठक संस्कृति को बनाकर ही पुस्कालय जीवित रह सकता है।
      मुझे याद है।जब वे बीएड करने बीएचयू आए तो अपनी
अदा के अनुसार झगड़ा कर मेरी मेंबरशिप रिनुअल की और
एक मुश्त वर्षों का सदस्यता शुल्क लिया।उनका तर्क अकाट्य था कि आप दिनकर पुस्तकालय के भीम राव आंबेडकर हैं।आपके हाथों लिखे संविधान के नियमानुसार हमलोग चुनाव समिति का करते और नेता बनते हैं।आपने पुस्तकालय दीवार निर्माण में ईंट, सीमेंट,बालू  व्यव्यस्था लेकर पुस्तक की खरीद,ढुलाई, जिल्दसाजी तक की है तब उससे दूर कैसे हो सकते हैं।इतना ही नहीं वे
मेरे लिए पुस्तकालय से पुस्तक निर्गत कराकर बनारस में लाते और पढ़ाते थे।मोनू को नई किताबें और नए विचार किसी भी चीज़ से ज्यादा पसंद थे।इस आदत के कारण
मैं उन्हें ज्यादा चाहने लगा था।जब भी कोई नई किताब
चर्चित होती,मैं उन्हें तुरत सूचित करता।कुछ किताबें उपलब्ध
भी कराता।वे कोशिश करते कि पहले उसे पढ़ें और जरूरी
हो तो दिनकर पुस्तकालय के लिए खरीद करवाएं।गुरुवर
प्रो मैनेजर पांडेय द्वारा संपादित गुलाम भारत के आर्थिक शोषण पर आधारित सखाराम देउस्कर की दुर्लभ पुस्तक 'देश की बात' जब मैंने उन्हें सिमरिया में भेंट की,वे उछल पड़े।बोले-इसे पुस्तकालय में हरहाल में होना चाहिए।इसे
हर नौजवान को पढ़ना चाहिए ताकि पता चले कि हमारा शोषण किस तरह हुआ था।

            एक संस्मरण और।2007 में जब दिनकर शताब्दी वर्ष आने वाला था।गर्मी छुट्टी में मैं बीएचयू की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर एक महीने ग्राम सुख लेने सिमरिया पहुंचा।मोनू आ धमके।बोले-दिनकर जी हमलोगों को माफ नहीं करेंगे।मैंने कहा-ऐसा क्यों बोल रहे हो?वे शुरू हो गए-सरजी,गांव का माहौल ठीक नहीं है।समिति भी बिखर गई है।दिलीप भारद्वाज,सेठ जी,परमानंद जी और राजेश जी-सब पिछले साल से ही मुंह फुलाकर अपने अपने घर बैठे हैं।दिनकर शताब्दी सर पर है।लोग क्या कहेंगे!फिर मुचकुंद जी ने अपनी अदा से मुझपर महाजाल फेंक दिया-सर जी!अगर आप हरेक के दरबाजे पर चलकर कहिए तो एका हो सकता है।हुआ भी वही।मैं महीनों लगा रहा। दिनकर शताब्दी वर्ष कैसे मने और सिमरिया भूमि को साहित्यिक तीर्थ कैसे बनाया जाए,यह योजना शुरू में मुचकुंद, प्रवीण,सजीव फिरोज़ और मैंने मौखिक रूप से तैयार की।दिनकर पुस्तकालय पर बैठक करवायी।फिर क्या था!भूली हुई शक्ति
दिनकर पंथियों को याद आ गई।वे चल पड़े।कारवां बन
गया।2007 में जेएनयू से बड़े आलोचक और मेरे शोधगुरु मैनेजर पांडेय,पटना से अग्रज कवि अरुण कमल और मेरे विभाग से प्रखर दिनकर अध्येता प्रो अवधेश प्रधान साहित्य
मंच पर आए।सचाई तो यह है कि दिनकर  सदी वर्ष के लिए  मैंने जिस तरह ग्रामीण दिनकरपंथियों को जोड़ा तथा सालभर की पूरी रूपरेखा प्रकाशित कर दी;इसका मूल कारण तो मोनू की प्रतिबद्धता ही है।
         जबतक सिमरिया और दिनकर के अक्षर रहेंगे मुचकुंद उस साहित्यिक प्रांगण में रश्मिरथी की तरह चमकते रहेंगे।सिमरिया को मुचकुंद की यादों के लिए बहुत कुछ दिल खोलकर करना चाहिए।जब भी मैं गांव आऊंगा और सिमरिया की दीवारों पर दिनकर की उगी हुई काव्य पंक्तियां देखूंगा तब मेरी आँखें भर उठेंगी।
         मुचकुंद!तुम विज्ञापन-प्रचार के दौर में सुलगते हुए विचार थे।तुम दुनिया बदलने आए थे,खुद ही बदल गए।मैं स्वीकार करता हूँ कि तुम मेरे गुरू थे,मैं तुम्हारा शिष्य।तुम्हारी हर फटकार से प्यार का अमृत झरता था।तुम सिमरिया के आकाश का ध्रुवतारा हो।अटल और अमर!सेल्फी युग में लाइट ऑफ सेल्फ!युवा बुद्ध!
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दिनकर मुचकुंद के लिए गाते रहेंगे-
  
      आवरण गिरा,जगती की सीमा शेष हुई
      अब पहुंच नहीं तुमतक इन हाहाकारों की
       नीचे की महफ़िल उजड़ गयी, ऊपर कल से
       कुछ और चमक उट्ठेगी सभा सितारों की