[आज 29 मई को मदन कश्यप के 67वें जन्मदिन पर विशेष]
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"वे जब भी मिलते हैं,पूर्णचन्द्र की शीतल और विकसित
मुस्कान के साथ मिलते हैं।वे जब भी कहते हैं भादो की गहरी नदी के निचले तल से आती हुई आवाज़ से कहते हैं।वे जब भी सुनते हैं तो हिरन की तरह चौकन्ने होकर सत्ता से आती हुई खड़क को सुनते हैं।वे जब भी होते हैं तो हरेक के साथ पूरे होते हैं।हां, कई बार वे जैसा दिखते उससे ज्यादा अदृश्य होते हैं।"
मदन कश्यप मेरे लिए इतने निजी हैं कि बहुत कुछ कहना सुनना लंबा चल सकता है।उन्हें सुनकर पढ़कर बड़ा हुआ हूँ।वे
जितने बिहारी हैं,उतने ही बनारसी और उतने ही डेहलाइट।वे जितने इंकलाबी हैं उतने ही पारिवारिक।अब तो उनका एक घर बनारस भी है।
मदन जी इतने संवेदनशील इंसान हैं कि कोविड काल में अपने खोए हुए लेखक साथियों,बौद्धिकों,लोगों से हिल गए हैं।भीतर से टूट गए हैं।बाजार,व्यापार और सरकार को कामधेनु समझने वाली,दूहने वाली और गटकनेवाली बौद्धिकता से वे बहुत अलग हैं।लेकिन वे घिरे हुए भी हैं।यह एक प्रतिबद्ध कवि की मुश्किल है।
मदन कश्यप जीवन भर लिखते रहे।उनसे ज्यादा उनकी बात बोलती रही।कभी कविता में,कभी पत्रकारिता में,कभी संगठनों में,कभी डैश पोडियम पर,कभी चौराहों पर।इंकलाब आए न आए मुट्ठी तनी रही।लेखक के लिए सरकारी नौकरी छोड़ना बिहारियों का साहस है।तीन नाम तुरत याद आ रहे हैं-ज्ञानेन्द्रपति,मदन कश्यप और अरुण प्रकाश।नख कटाकर शहीद होने वाले बड़बोले लेखकों के बीच यह सच्चे जोखिम की हिम्मत है।
लगभग आधा दर्जन काव्य संकलन है।गद्य इतना लिखा है कि कई संग्रह हो।भाषणों,रपटों,साक्षत्कारों के अनेक संकलन हो सकते हैं।नामवर जी के साथ दूरदर्शन पर
चलाए पुस्तक विवेचन अभियान की सामग्री भी काफी होगी।मदन कश्यप शर्मीले,धीमे और चूजी हैं।आमिर खान की तरह परफेक्टनिष्ट!
मदन जी साहित्य प्रकाशन जगत के ऐसे रणनीतिकार हैं जिनके कारण हिंदी में कई प्रकाशक लेखक जम गए।यह सच है कि मिशन और स्पर्धा की राह पर चलते हुए कई बार वे जेनुइन के साथ कूड़े कचरे के भी ब्रांड एंबेसडर बन जाते हैं।यह युगीन संकट है।
मदन जी से बड़ा सहज और मिलनसार व्यक्ति हिंदी में कम ही दिखता है।बीएचयू परिसर में दिनकर लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर,वाराणसी का उद्घाटन उनके हाथों हुआ है।पेड़ के नीचे बैठकर वे समारोह में मुख्य वक्तव्य देने की
मार्क्सीय जनतांत्रिकता रखते हैं!
हिंदी साहित्य के ऐसे पीढ़ी निर्माता योद्धा लेखक को जन्मदिन पर सौ साल बोधिवृक्ष बने रहने की शुभकामनाएं!
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मदन कश्यप की कविता:रीढ़ की हड्डियां
रीढ़ की हड्डियाँ
मानकों की तरह होती हैं
टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी फिर भी जुड़ी हुई
ताकि हम तन और झुक सकें
यह तो दिमाग को तय करना होता है
कि कहाँ तनना है कहाँ झुकना है
मैं एक बच्चे के सामने झुकना चाहता हूँ
कि प्यार की ऊँचाई नाप सकूँ
और तानाशाह के आगे तनना चाहता हूँ
ताकि ऊँचाई के बौनेपन को महसूस कर सकूँ !
©रामाज्ञा शशिधर,बनारस