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31 दिसंबर, 2010

बनारस में बिनायक सेन


राष्ट्रपति से बुद्धिजीवियों की अपील

बनारस के शिक्षकों,लेखकों,पत्रकारों,छात्रों,सांस्कृतिक और मानवाधिकार
 संगठनों के प्रतिनिधियों के द्वारा डा.बिनायक सेन के पक्ष में
 तैयार मजमून और हस्ताक्षर अभियान जारी है.बनारस और देश
 के बुद्धिजीवियों से अपील है कि इस अभियान में शामिल हों.
आनलाइन हस्ताक्षर आमंत्रित है.
  
महामहिम राष्ट्रपति
राष्ट्रपति भवन
नई दिल्ली.
  
हम प्रसिद्ध चिकित्सक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता डा. बिनायक सेन को रायपुर सेशन कोर्ट द्वारा देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा से स्तब्ध हैं.      
हम भारतीय उच्चतम न्यायालय से अपील करते हैं कि वह भारतीय संविधान में उल्लेखित कानून
न्याय और अधिकारों की रक्षा करते हुए रायपुर कोर्ट के गलत निर्णय द्वारा न्यायपालिका की प्रतिष्ठा पर लगे धब्बे धोने का काम करेंगे.
डा. बिनायक सेन पर प्रतिबंधित माओवादियों को मदद पहुंचाने के कथित आरोपों की पुष्टि किसी भी गवाह द्वारा नहीं की गई और न ही उनके खिलाफ न्यायालय में पर्याप्त सबूत पेश किए गए. उलटे अभियोजन पक्ष द्वारा उनके खिलाफ प्रस्तुत किए गए फर्जी दस्तावेजों की लंबी फेहरिस्त है.


हम मानते हैं कि डा. बिनायक सेन के खिलाफ राष्ट्रद्रोह और काले आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत की गई कार्रवाई वास्तव में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आदिवासी जनता के मानवाधिकार हनन के विरुद्ध बोलने का दंड है.डा. सेन जो पहले ही ह्रदय रोग से ग्रस्त हैं, पहले भी मई २००७ से मई २००९ तक दो साल जेल में काट चुके हैं.


यदि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश आलोचना और अहिंसक मानवाधिकारों के लिए सक्रियता को बर्दाश्त नहीं कर पाता तो यह भारतीय नागरिकों के लिए शर्म की बात है और इस असंवेदनशील रवैए की भर्त्सना होनी चाहिए. हमारे न्यायालयो के फैसलों में सामान्य तौर पर जो निम्न स्तर का न्याय दिखाई देता है वह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक खतरा है.
हम मांग करते हैं कि न केवल डा. सेन को तत्काल रिहा किया जाना चाहिए बल्कि उन सभी लोगों की जाँच होनी चाहिए जिन्होंने घृणित तरीके से उन्हें फंसाया.


 हम डा. सेन के लिए समुचित मुआवजे की भी मांग करते हैं क्योंकि उनके बुनियादी अधिकारों को छीना गया और उनके परिवार के सदस्यों को अमानवीय यंत्रणा से गुजरना पड़ा.
निवेदक-                                   आनलाइन हस्ताक्षर 
प्रशांत शुक्ल, बीएचयू                       शेखर मल्लिक,घाटशिला,झारखण्ड  
रामाज्ञा शशिधर,बीएचयू                     अशोक कुमार पांडेय,ग्वालियर 
कृष्णमोहन,बीएचयू                         अजीत कुमार आजाद ,पटना 
हर्षवर्धन राय,वाराणसी
राजकुमार, बीएचयू
चितरंजन सिंह,पीयूसीएल  
सदानंद शाही, बीएचयू
दीपक मल्लिक, बीएचयू
संजय श्रीवास्तव,महासचिव,यूपी प्रलेस
श्रीप्रकाश शुक्ल, बीएचयू
जयनारायण मिश्र,पत्रकार
सुरेश प्रताप,पत्रकार
अवधेश प्रधान, बीएचयू
सुनील सहश्र्बुद्धे
बिंदा परांजपे, बीएचयू
ताबीर कलाम,बीएचयू
प्रमोद बागडे,बीएचयू
कुसुम वर्मा
कवि आत्मा
एन के मिश्र,बीएचयू
ध्रुव कुमार,बीएचयू
इन्दिरिश अंसारी
एन एम् सलीम अंसारी
निरंजन सहाय,म.गां.काशी विद्यापीठ
अनुराग कुमार, म.गां.काशी विद्यापीठ
राजमुनि
मनीष क यादव
अनूप कुमार मिश्र
सरोज कुमार
प्रकाश उदय
निलेश कुमार
रामाश्रय सिंह यादव
झब्लू राम
रवीश कुमार सिंह
रविशंकर उपाध्याय
बृजराज
अभिषेक कुमार राय
राकेश
रंजना पाण्डेय
अनुज लुगुन
मनीष शर्मा,आइसा
वशिष्ठ अनूप,बीएचयू
बलराज पाण्डेय,बीएचयू
राजेश श्रीवास्तव
आशीष त्रिपाठी,बीएचयू
प्रभाकर सिंह,बीएचयू

29 दिसंबर, 2010

लोकतंत्र को उम्रकैद


 प्रणय कृष्ण





प्रणय कृष्ण जन बुद्धिजीवी ,लेखक और जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव हैं.हिंदी पट्टी की बौद्धिक जड़ता के खिलाफ संघर्षशील.राज्य की साजिश की पेंच को खोलने वाला  लेख  आपके लिए हाजिर है .-मोडरेटर  


ये मातम की भी घडी है और इंसाफ की एक बडी लडाई छेडने की भी. मातम इस देश में बचे-खुचे लोकतंत्र का गला घोंटने पर और लडाई- न पाए गए इंसाफ के लिए जो यहां के हर नागरिक का अधिकार है. छत्तीसगढ की निचली अदालत ने विख्यात मानवाधिकारवादी, जन-चिकित्सक और एक खूबसूरत इंसान डा. बिनायक सेन को भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी और धारा 124-ए, छत्तीसगढ विशेष जन सुरक्षा कानून की धारा 8(1),(2),(3) और (5) तथा गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 39(2) के तहत राजद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने की साज़िश करने के आरोप में 24 दिसम्बर के दिन उम्रकैद की सज़ा सुना दी.

यहां कहने का अवकाश नहीं कि कैसे ये सारे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं. डा. सेन को इन आरोपों में 24 मई, 2007 को गिरफ्तार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे दो साल साधारण कैदियों से भी कुछ मामलों में बदतर स्थितिओं में जेल में रहने के बाद, उन्हें ज़मानत दी गई. मुकादमा उनपर सितम्बर 2008 से चलना शुरु हुआ. सर्वोच्च न्यायालय ने यदि उन्हें ज़मानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए, तो छत्तीसगढ सरकार की योजना थी कि मुकदमा दसियों साल चलता रहे और जेल में ही बिनायक सेन बगैर किसी सज़ा के दसियों साल काट दें. बहरहाल जब यह सज़िश नाकाम हुई और मजबूरन मुकदमें की जल्दी-जल्दी सुनवाई में सरकार को पेश होना पडा, तो उसने पूरा दम लगाकर उनके खिलाफ फर्ज़ी साक्ष्य जुटाने शुरु किए.

डा. बिनायक पर आरोप था कि वे माओंवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में 33 बार 26 मई से 30 जून, 2007 के बीच मिले. सुनवाई के दौरान साफ हुआ कि नारायण सान्याल के इलाज के सिलसिले में ये मुलाकातें जेल अधिकारियों की अनुमति से, जेलर की उपस्थिति में हुईं. डा. सेन पर मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने नारायण सान्याल से चिट्ठियां लेकर उनके माओंवादी साथियों तक उन्हें पहुंचाने में मदद की. पुलिस ने कहा कि ये चिट्ठियां उसे पीयुष गुहा नामक एक कलकत्ता के व्यापारी से मिलीं जिसतक उसे डा. सेन ने पहुंचाया था. गुहा को पुलिस ने 6 मई,2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया. गुहा ने अदालत में बताया कि वह 1 मई को गिरफ्तार हुए. बहरहाल ये पत्र कथित रूप से गुहा से ही मिले, इसकी तस्दीक महज एक आदमी अ़निल सिंह ने की जो कि एक कपडा व्यापारी है और पुलिस के गवाह के बतौर उसने कहा कि गुहा की गिरफ्तरी के समय वह मौजूद था. इन चिट्ठियों पर न कोई नाम है, न तारीख, न हस्ताक्षर, न ही इनमें लिखी किसी बात से डा. सेन से इनके सम्बंधों पर कोई प्रकाश पडता है. पुलिस आजतक भी गुहा और डा़. सेन के बीच किसी पत्र-व्यवहार, किसी फ़ोन-काल,किसी मुलाकात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाई. एक के बाद एक पुलिस के गवाह जिरह के दौरान टूटते गए. 

पुलिस ने डा.सेन के घर से मार्क्सवादी साहित्य और तमाम कम्यूनिस्ट पार्टियों के दस्तावेज़, मानवाधिकार रिपोर्टें, सी.डी़ तथा उनके कम्प्यूटर से तमाम फाइलें बरामद कीं. इनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी जो किसी भी सामान्य पढे लिखे, जागरूक आदमी को प्राप्त नहीं हो सकतीं. घबराहट में पुलिस ने भाकपा (माओंवादी) की केंद्रीय कमेटी का एक पत्र पेश किया जो उसके अनुसार डा. सेन के घर से मिला था. मज़े की बात है कि इस पत्र पर भी भेजने वाले के दस्तखत नहीं हैं. दूसरे, पुलिस ने इस पत्र का ज़िक्र उनके घर से प्राप्त वस्तुओं की लिस्ट में न तो चार्जशीट में किया था, न ”सर्च मेमों” में. घर से प्राप्त हर चीज़ पर पुलिस द्वारा डा. बिनायक के हस्ताक्षर लिए गए थे. लेकिन इस पत्र पर उनके दस्तखत भी नहीं हैं. ज़ाहिर है कि यह पत्र फर्ज़ी है. साक्ष्य के अभाव में पुलिस की बौखलाहट तब और हास्यास्पद हो उठी जब उसने पिछली 19 तारीख को डा.सेन की पत्नी इलिना सेन द्वारा वाल्टर फर्नांडीज़, पूर्व निदेशक, इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट ( आई.एस. आई.),को लिखे एक ई-मेल को पकिस्तानी आई.एस. आई. से जोडकर खुद को हंसी का पात्र बनाया. मुनव्वर राना का शेर याद आता है-

“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”

इस ई-मेल में लिखे एक जुमले ”चिम्पांज़ी इन द व्हाइट हाउस” की पुलिसिया व्याख्या में उसे कोडवर्ड बताया गया.(आखिर मेरे सहित तमाम लोग इतने दिनॉं से मानते ही रहे हैं कि ओंबामा से पहले वाइट हाउस में एक बडा चिंम्पांज़ी ही रहा करता था.) पुलिस की दयनीयता इस बात से भी ज़ाहिर है कि डा.सेन के घर से मिले एक दस्तावेज़ के आधार पर उन्हें शहरों में माओंवादी नेटवर्क फैलाने वाला बताया गया. यह दस्तावेज़ सर्वसुलभ है. यह दस्तावेज़ सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक, ”रेड सन- ट्रैवेल्स इन नक्सलाइट कंट्री” में परिशिष्ट के रूप में मौजूद है. कोई भी चाहे इसे देख सकता है. कुल मिलाकर अदालत में और बाहर भी पुलिस के एक एक झूठ का पर्दाफाश होता गया. लेकिन नतीजा क्या हुआ? अदालत में नतीजा वही हुआ जो आजकल आम बात है. भोपाल गैस कांड् पर अदालती फैसले को याद कीजिए. याद कीजिए अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को. क्या कारण हे कि बहुतेरे लोगों को तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब इस देश के सारे भ्रश्टाचारी, गुंडे, बदमाश और बलात्कारी टी.वी. पर यह कहते पाए जाते हैं कि वे न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं?

याद ये भी करना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह की धाराएं कब की हैं. राजद्रोह की धारा 124 -ए जिसमें डा. सेन को दोषी करार दिया गया है, 1870 में लाई गई. जिसके तहत सरकार के खिलाफ "घृणा फैलाना", "अवमानना करना" और "असंतोष पैदा" करना राजद्रोह है. क्या ऐसी सरकारें घृणित नहीं है जिनके अधीन 80 फीसदी हिंदुस्तानी 20 रुपए रोज़ पर गुज़ारा करते हैं? क्या ऐसी सरकारें अवमानना के काबिल नहीं जिनके मंत्रिमंडल राडिया, टाटा, अम्बानी, वीर संघवी, बरखा दत्त और प्रभु चावला की बातचीत से निर्धारित होते हैं? क्या ऐसी सरकारों के प्रति हम और आप असंतोष नहीं रखते जो आदिवसियों के खिलाफ "सलवा जुडूम" चलाती हैं, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और अमरीका के हाथ इस देश की सम्पदा को दुहे जाने का रास्ता प्रशस्त करती हैं. अगर यही राजद्रोह की परिभाषा है जिसे गोरे अंग्रेजों ने बनाया था और काले अंग्रेजों ने कायम रखा, तो हममे से कम ही ऐसे बचेंगे जो राजद्रोही न हों. याद रहे कि इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लम्बे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा.

डा. बिनायक और उनकी शरीके-हयात इलीना सेन देश के उच्चतम शिक्षा संस्थानॉं से पढकर आज के छत्तीसगढ में आदिवसियों के जीवन में रच बस गए. बिनायक ने पी.यू.सी.एल के सचिव के बतौर छत्तीसगढ सरकार को फर्ज़ी मुठभेड़ों पर बेनकाब किया, सलवा-जुडूम की ज़्यादतियों पर घेरा, उन्होंने सवाल उठाया कि जो इलाके नक्सल प्रभावित नहीं हैं, वहां क्यों इतनी गरीबी,बेकारी, कुपोषण और भुखमरी है? एक बच्चों के डाक्टर को इससे बडी तक्लीफ क्या हो सकती है कि वह अपने सामने नौनिहालों को तडपकर मरते देखे?

इस तक्लीफकुन बात के बीच एक रोचक बात यह है कि साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा. सेन के घर से कथित रूप से बरामद माओंवादियों की चिट्ठी में उन्हें ”कामरेड” संबोधित किए जाने पर कहा कि "कामरेड उसी को कहा जाता है, जो माओंवादी होता है". तो आप में से जो भी कामरेड संबोधित किए जाते हों (हों भले ही न), सावधान रहिए. कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया था. कबीर की पंक्ति थी, ”निसि दिन खेलत रही सखियन संग”. गुरुदेव ने अनुवाद किया, ”Day and night, I played with my comrades' मुझे इंतज़ार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल के लिए गुरुदेव या कबीर पर कब मुकदमा चलाया जाएगा?

अकारण नहीं है कि जिस छत्तीसगढ में कामरेड शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे कानून के दायरे से महफूज़ रहे, उसी छत्तीसगढ में नियोगी के ही एक देशभक्त, मानवतावादी, प्यारे और निर्दोष चिकित्सक शिष्य को उम्र कैद दी गई है. 1948 में शंकर शैलेंद्र ने लिखा था-

“भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की !

यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--
बंब संब की छोड़ो, भाषण दिया कि पकड़े जाओगे !
निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,
कांग्रेस का हुक्म; जरूरत क्या वारंट तलाशी की ! “

ऊपर की पंक्तियों में ब़स कांग्रेस के साथ भाजपा और जोड़ लीजिए.

आश्चर्य है कि साक्ष्य होने पर भी कश्मीर में शोंपिया बलात्कार और हत्याकांड के दोषी, निर्दोष नौजवानॉं को आतंकवादी बताकर मार देने के दोषी सैनिक अधिकारी खुले घूम रहे हैं और अदालत उनका कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वे ए.एफ.एस. पी.ए. नामक कानून से संरक्षित हैं, जबकि साक्ष्य न होने पर भी डा. बिनायक को उम्र कैद मिलती है.

मित्रों मैं यही चाहता हूं कि जहां जिस किस्म से हो, जितनी दूर तक हो, हम डा. बिनायक सेन जैसे मानवरत्न के लिए आवाज़ उठाएं ताकि इस देश में लोग उस दूसरी गुलामी से सचेत हों जिसके खिलाफ नई आज़ादी के एक योद्धा हैं डा. बिनायक सेन. 
                                                            mirtyubodh.blogspot.com से साभार 

07 दिसंबर, 2010

करघे,शहनाई और धमाके

रामाज्ञा शशिधर 


काशी सिर्फ घंटों-घडियालों और मंदिरों का शहर नहीं है.यह करघों की खटर-पटर और शहनाई की राग-रागिनियों का भी शहर है.आधे चाँद,बल खाती कमर,फसल काटते हासिए की शक्ल वाली सांवली गंगा इसकी दिनचर्या,संवेदना,औघरपन और मस्ती को करीने से रचती है.यहाँ के घाट घातक और मोहक कविता हैं.घाट के पत्थर-पटिया,उससे लगायत असूर्यंपश्या गलियाँ संसार की सारी जगहों से अलग एक ऐसा सम्मोहन-लोक रचते हैं जिसकी तुलना में संसार का  कोई शहर नहीं ठहरता.इस शहर की गतिकी और जीवन को केवल महसूसकर समझा जा सकता है. और स्रोतों से नहीं.मेरी बदनसीबी है कि मैं इस महान शहर को दो धमाकों के बीच की यादों के सहारे महसूस करता हूँ.


बुद्ध,गुलमोहर और बारूद
   
पहला धमाका मेरे आने के तुरत बाद मार्च २००६ के बसंत में तब हुआ था जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के परिसर में गुलमोहर लाली से लबरेज हो चुके थे,आम पर बौर चढ चुका था,टेसू लहकने वाले थे और घाटों के पुरसुकून पत्थरों को नए भौरे और तितलियाँ प्यारगाह में बदल चुके थे.तभी शहर के शहनाई,ठुमरी,कजरी,मल्हार,भैरवी,निर्गुण सुनाने वाले कानों में परतों को फार देनेवाले कई धमाके सुनाई पड़े और कबीर की सफ़ेद चादर खून से भींग गई.दूसरी बार धमाका तब हुआ जब इस शहर में मेरे जन्म की चौथी सालगिरह तबाह बुनकरों के असफल मुर्री बंदी आंदोलन के साथ बीत चुकी थी और मल्लाहों ने अपनी बरसाती गंगा की क्रूरता के ठीक बाद सदियों पुरानी नाव से गुजारिश की थी कि हे तरनी,तू मुझे स्वर्ग नहीं रोटी का पता बता दे. हिंदुत्व की खोपड़ियों व दूसरे के घर में रामलला के जन्म के साठ साल के होने,दूसरे के घर को ध्वस्त करने व जबर्दस्ती कब्जा करने के मताधिकार की उम्र पाने और चेतना को शौर्य दिवस बनाम काला दिवस की छवियों में तब्दील करने के दूसरे दिन की पीली रोशनीवाली शाम खूनी शाम में बदल गई.धमाके की ताकत से मेरी चाय के पुरबे में ठंढक के कारण चिपकी उंगलियां थरथरा उठी.
  पुरबे को कसकर थामे मेरी निगाह मीर घाट से दशाश्वमेध घाट की ओर जाती है.रविदास घाट से राज घाट के बीच के चौरासी घाटों को अपनी आवाज से हिला देनेवाले धमाके में कई आवाजें और चुप्पियाँ  शामिल हैं-मठों,मंदिरों,किलों के परकोटे से आराम फरमा रहे कबूतरों के अचानक भागने से निकले उनके परों और कंठों की आवाजें;गंगा की गोद में अपने सर रख कर संध्या आरती में डूबे परदेशी और भारतीय मेहमानों की भाषा से परे आर्त चीख पुकार;गेंदे के मासूम फूल,मिट्टी के कच्चे दीये,कपास की बाती और तेल को सूखे पत्तल के दोनों में सजाकर रोटी के लिए बाजार का हिस्सा बने बचपन की घायल पुकारें;  मनुष्यता से लबालब मल्लाहों, जिनकी सरफ़रोश आशिकी और मस्तमौला जीवन लय पर फ़िदा यूरोपीय बालाएं भी होती हैं, के जान पर खेलकर जान बचाने की गूंजें;यात्रियों को लेकर भागती हुई नावों के चप्पुओं की पानी से टकराने की छपछ्पाहट.शांति और कोहरे की चादर में लिपटी नदी का पानी लहरों से भर गया.मछलियों,कछुओं और जलचिड़ियों के आशियाने में भूचाल आ गया.गंगापूजक का दीपदान चूर हो गया.तबले का चाम दरक गया.घड़ियाल मूक हो गया.चना,दाना,बादाम,गोलगप्पे,चाट,इडली ,दोसे,बड़े,सेवपूरी,पान,चाय,फूल की कंधों और बाँहों में टंगी सचल नन्हीं दुकानें बिखर गईं. किसी की हथेली जख्मी,किसी का चेहरा,किसी की टांग,किसी की छाती,किसी का माथा.कोहरे से लिपटी पीली रोशनी के खम्भे के नीचे एक विदेशी घायल जोड़े गले से लिपट कर विलखते हुए एक दूसरे को ऐसे चूम रहे थे मानो उन्हें दूसरा जन्म मिला हो. इस तरह शांति का यह बुद्ध क्षेत्र बारूद के गोदाम में बदलता हुआ दिखा.
    शहर के अस्पतालों में आपातकालीन बिस्तरों पर तमिलनाडु,आँध्रप्रदेश,बिहार,उत्तर प्रदेश,कोरिया,जापान,इटली,फ़्रांस,अमेरिका के जख्मी मेहमानों की पहली खेप प्रशासन की शुरूआती कोशिश से पहले ही अमनपसंद और समाजजीवी बनारसियों द्वारा पहुंचा दी गई. रक्तदान के लिए लंबी कतार लग गई.फिर शुरू हुआ प्रशासन,राजनीति और मीडिया का त्रिकोणीय संघर्ष.वह वैसा ही घिसा-पिटा था जैसा संसदीय इंतज़ार के बाद होता है.


उलझि पुलझ मरि जाना है      


संसार की सबसे पुरानी जीवित सभ्यता वाले इस 'महान' शहर के नीचे एक कब्र रहती है. उस कब्र का नाम खड्डी है.उसमें पांच लाख जीवित कलाकार अपने दोनों पांवों को डाले अहर्निश कबीर का  एक मुखडा जीते हैं-झीनी झीनी बीनी चदरिया.ताना उनका गम है,बाना उनका संघर्ष है,करघा ताबूत है,कतान रस्सी है,बुना गया कपड़ा उनके लिए कफ़न है. दुनिया कबीर के इन वारिसों के कपडे को बनारसी साडी के नाम से जानती और सेलिब्रेट करती है. तड़पकर भूख से मरते, खून बेचते और बच्चों सहित खुद की आत्महत्या करते बुनकरों के पिछले दिनों करघे तब ठहर गए जब भूमंडलीकरण की आंधी चलाती सत्ता ने चीनी रेशम पर ३० फीसदी आयात कर और बने कपड़ों पर केवल १० फीसदी कर लगाकर देश के लाखों शिल्पकारों को तबाही के जबड़े में डाल दिया. दिया नहीं,लिया.मनमोहनी अर्थ-चक्र के आरम्भ के साथ ही विनाश की राह पर चल पड़े बुनकर-शिल्पकारों ने पिछले दिनों बनारस और आसपास के इलाके के लाखों करघों को बंद करते हुए एक भारी आंदोलन किया जिसमे शहर  के हिन्दू मुस्लिम दोनों वस्त्र-व्यापारियों,गददीदारों और सूत दलालों को जनसभा के मंच पर ही कब्जे में ले लिया.मजदूरी बढाने की अधूरी घोषणा के बाद ही कार्यवाही आगे बढ़ी. बारूद के इस धमाके से सबसे ज्यादा और दर्दनाक असर कब्र और उसकी लड़ाई पर पड़ा है.और कबीर का सवाल हरा हो गया-काहे का ताना काहे की भरनी कौन तार से बीनी चदरिया.
   दूसरा धागा शहर की गरीब गर्दनों के लिए फांसी का फंदा बन गया है.हजारों मल्लाह परिवारों के चूल्हे जिस पानी की लय और जीवन के साथ बंधे हैं उनके चूल्हों का धुंआ लंबे समय के लिए खामोश हो गया.अब उनके बच्चों के हाथों के फूल-दिए गंगा के पानी की प्रार्थना में शामिल नहीं होंगे,उनकी रंगों से पोती हुई जर्जर-नवेली नाव प्रेम-पंछियों को लहरों का सफर नहीं करा पाएगी,उनके बच्चे चुम्बक की बंसी से मुद्रा-मछली नहीं टीप पाएँगे.सिर्फ रात भर के इंतज़ार के बाद कुछ मछलियां जाल में आएंगी जो हरिश्चंद और मणिकर्णिका के चिता-कोयलों के सहारे कंकाल को जीवित रखेगी. कछुए जंजीर पहना सकते हैं और जलपुलिस जेल-जाल में डाल सकती है.
  तीसरा धागा उन मजलूमों की फांस है जो रिक्शा,ठेला, तांगा,ऑटो से रोटी पैदा करते हैं,बनारसी पान से हवा में खुशबू भरते रहते हैं,कचौरी-जलेबी के वास और चाट पापरियों के खटास से माहौल जी जबान तार रखते हैं,ठंढई और मलैये से मिठास भरते हैं और जलते हुए भूरे नमक में बारह तरह के अनाजों को भूनकर ‘जिसकी चटनी उसका स्वाद’ के साथ जीभ को जलाने की कूबत रखते हैं. उन अड़ीबाजों की बकैती और चाय की मात्रा पर भी असर पडना लाजिमी है जिनके निठल्लेपन की बुनियाद मेहमानों के किराये की ईंट पर रहती है.असर तो लूटेरों के धागों पर भी पडना है जो रोज अपनी चादर गन्दी करते हैं और साफ़ बताने के लिए उसे रंगीन बनाये रखते हैं.कबीर की उदासी जिनको फटकारती रहती है-मन न रंगायो,रंगायो जोगी कपड़ा,दाढ़िया बढ़ाए जोगी होई गयो बकरा.
                                                       जारी ........................

 
  
  


29 नवंबर, 2010

१२ लाख बुनकर मौत के मुहाने पर:जब करघे हुए खामोश

२००५ में बनारस पहुँचते ही मैं कबीर के बुनकर वारिसों की तबाही,भूख और मौत का मंजर देखकर कारणों की खोज में लग गया.तब से ताने बाने में बिखराव बढता ही जा रहा है.मैंने २००६ में समयांतर में ‘होरी का भविष्य’ रिपोर्ताज में जिस तबाही और पस्तहाली का चित्रण किया है वह भी बुनकर वर्ग से ही जुड़ा था. दस्ताबेज से पहले जल्दी ही एक रिपोर्ताज दूंगा जो इस कलाकार समाज का भीतरी यथार्थ होगा. कस्बे की इस लड़ाई को वैश्विक बनाने में
आपकी भूमिका अहम है.--माडरेटर

साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई जरी है 



एक समाज बनारस के जुलाहों का है. यह समाज कई अर्थों में दुनिया के समाज से अलग है.कुछ लोग बनार्सिया हैं,कुछ लोग मऊवाले.फिर अलईपुरिया अलग हैं और मदनपुरिया अलग. खंड में से खंड अलग. जैसे रेशम की अधरंगी  पिंडी में से कई कई धागे निकले आ रहे हों.हर धागा दूसरे धागे से थोडा अलग दिखताहै,पर ऐसा है नहीं.चाहे बनरसिया हों या मऊवाले,अलईपुरिया हों या मदनपुरिया,हैं सब एक.
                                                          अब्दुल बिस्मिल्लाह, जाने माने हिंदी कथाकार
                                                         झीनी झीनी बीनी चदरिया  उपन्यास से


भूख,तंगहाली और पस्ती के खिलाफ बनारस के ५ लाख बुनकर फनकारों ने एक दिन के लिए अपने करघे खामोश रखे.एक आंकड़े के मुताबिक
५० हजार हैंडलूम और डेढ़ लाख पावरलूम की चुप्पी से करीब एक करोड का कारोबार बर्बाद हुआ.यह आंदोलन रेशम के धागों में चीन, भारत सरकार और स्थानीय कालेबाजारियों और साजिशन ८० फीसदी बढ़ोतरी के खिलाफ गददीदारों,व्यापारियों,सरदारों,महतों ,गिरस्तों और बुनकर फनकारों की ओर से था जो पीली कोठी के मैदान में साम्राज्यवाद-सरकार बनाम बुनकर के साथ व्यापारी बनाम बुनकर में भी बदल गया .बनारस के बुनकरों का मानना है कि उनके शोषण के कई  रूप बेइंतहा हैं. शोषण के स्थानीय और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दोनों ढांचों से एक साथ लड़ना होगा.
५ लाख बुनकरों का आंदोलन जिले में कई भागों में बंटकर लड़ाई लड़ता  रहा. जनसभा स्थल पर सभा के भीतर मजदूरी बढ़ाने के लिए बुनकर वर्ग का धरना होता रहा जिसने बाद में मंच पर ढाबा बोलते हुए हजारों बुनकरों से भरे मैदान को जन संघर्ष में बदल दिया.व्यापारियों के आश्वासन के बाद रेशम के मुद्दे पर बहस जारी रह सकी.
गौरतलब है कि भूमंडलीकरण की मार से देश में किसानो के साथ शिल्पकारों की भी हत्या आत्महत्या हो रही है.बनारस में सैकड़ों बुनकरों
की मौत,खून और बच्चे बेचना इसके प्रमाण हैं.तबाही अपने चरम दौर में है..यह उस सच का बहुत छोटा हिस्सा है.पिछले ६ महीने में रेशम के दाम में ४० से ८० फीसदी की बढोतरी हुई है जिसका एक बड़ा कारण सरकार द्वारा रेशम पर ३० फीसदी ड्यूटी कर लगना है.चीनी रेशम का भाव २२०० रू प्रति किलो से बढ़कर ३२०० रू प्रति किलो हो गया है. दूसरा कारण कालाबाजारियों की मनमानी है. तीसरा कारण बुनकरों को काम के साथ उचित मजदूरी नहीं मिलना है.इस कारण लगातार करघे खामोश होते जा रहे हैं और बुनकर तबाही के कगार पर हैं.यह हालात पूरे पूर्वांचल के लगभग १२ लाख बुनकरों के हैं.यह तबाही और संघर्ष तेज होने के आसार हैं.





दस्तकारी उद्योग की तबाही सरकार और साम्राज्यवाद का पहला एजेंडा है.

पोस्टर को ठीक से पढ़िए.
 व्यापारियों के खिलाफ बुनकर मजदूरों का एलान.

गद्दीदारों की सरकार विरोधी लडाई के साथ भी,
गद्दीदार की लूट के खिलाफ भी

यह बुनकर कबीर का वारिस कबीरुद्दीन है.
सैकड़ों मौतों के बाद गायब इस बुनकर का
कोई इस राष्ट्र-राज्य में पता बताए
.

अँधेरी तंग कोठरी में ताने बाने को सुलझाने वाले
 सूरज की तीखी रोशनी में बदलते हुए
.

               भूख से मरते कारीगर बुनकरों ने गद्दीदारों और साड़ी
व्यापारियों के खिलाफ मंच  कब्ज़ा करते
हुए मजदूरी में तुरंत इजाफे की मांग की
.

20 नवंबर, 2010

कविता घाट : सौ साल बाद छः काव्य-फूल

नागार्जुन,अज्ञेय,केदारनाथ अग्रवाल,शमशेर,फैज़ और गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी-उर्दू कविता के छः  ऐसे सितारे हैं  जिनकी रोशनी में  लगातार हम चीजों को ढूँढने की,सवालों को सुलझाने की, लोकपरिया पर चलने की कोशिश करते रहे हैं.सौवें साल में  भारतीय जनता का दुःख और अँधेरा और तीखा हुआ है,साथ ही इन सितारों की जरूरत और बढ़ गई है.संवेदना और सरोकार के  पांच फूल पेश हैं जिनकी खुशबू  और ताज़गी और स्पर्शी हो गई है.-माडरेटर 
 उनको  प्रणाम
          नागार्जुन


जो नहीं हो सके पूर्ण–काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम ।  

कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए
उनको प्रणाम !

जो छोटी–सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि–पार;
मन की मन में ही रही¸ स्वयं
हो गए उसी में निराकार
उनको प्रणाम !

जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह–रह नव–नव उत्साह भरे;
पर कुछ ने ले ली हिम–समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे
उनको प्रणाम !

एकाकी और अकिंचन हो
जो भू–परिक्रमा को निकले;
हो गए पंगु, प्रति–पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाव चले
उनको प्रणाम !

कृत–कृत नहीं जो हो पाए;
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं¸ फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल
उनको प्रणाम !

थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ;
या जन्म–काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहांत हुआ
उनको प्रणाम !

दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति–मंत ?
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत
उनको प्रणाम !

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर–चूर
उनको प्रणाम !
साँप !
अज्ञेय 


साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना--
विष कहाँ पाया?
मजदूर का जन्म 
केदारनाथ अग्रवाल 










एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
हाथी सा बलवान,
जहाजी हाथों वाला और हुआ !
सूरज-सा इंसान,
तरेरी आँखोंवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ!

माता रही विचार
अँधेरा हरनेवाला और हुआ !
दादा रहे निहार
सबेरा करनेवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
जनता रही पुकार
सलामत लानेवाला और हुआ !

सुन ले री सरकार!
कयामत ढानेवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !

काल तुझसे होड़ है मेरी
शमशेर बहादुर सिंह 










काल,
तुझसे होड़ है मेरी : अपराजित तू-
तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूं
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो-
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं- तेरे भी, ओ' 'काल' ऊपर!
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !

जो मैं हूं-
मैं कि जिसमें सब कुछ है...

क्रांतियां, कम्यून,
कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं ।

मैं, जो वह हरेक हूं
जो, तुझसे, ओ काल, परे है
इंतेसाब
फैज़  अहमद  फैज़   







आज के नाम
और
आज के ग़म के नाम
आज का ग़म कि है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा
ज़र्द पत्तों का बन
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द का अंजुमन जो मेरा देस है
किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम
किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
पोस्ट-मैंनों के नाम
टांगेवालों के नाम
रेलबानों के नाम
कारख़ानों के भोले जियालों के नाम
बादशाह्-ए-जहाँ, वालि-ए-मासिवा, नएबुल्लाह-ए-फ़िल-अर्ज़, दहकाँ के नाम

जिस के ढोरों को ज़ालिम हँका ले गए
जिस की बेटी को डाकू उठा ले गए
हाथ भर ख़ेत से एक अंगुश्त पटवार ने काट ली है
दूसरी मालिये के बहाने से सरकार ने काट ली है
जिस के पग ज़ोर वालों के पाँवों तले
धज्जियाँ हो गई हैं

उन दुख़ी माँओं के नाम
रात में जिन के बच्चे बिलख़ते हैं और
नींद की मार खाए हुए बाज़ूओं से सँभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं

उन हसीनाओं के नाम
जिनकी आँखों के गुल
चिलमनों और दरिचों की बेलों पे बेकार खिल-खिल के
मुर्झा गये हैं
उन ब्याहताओं के नाम
जिनके बदन
बेमोहब्बत रियाकार सेजों पे सज-सज के उकता गए हैं
बेवाओं के नाम
कतड़ियों और गलियों, मुहल्लों के नाम
जिनकी नापाक ख़ाशाक से चाँद रातों
को आ-आ के करता है अक्सर वज़ू
जिनकी सायों में करती है आहो-बुका
आँचलों की हिना
चूड़ियों की खनक
काकुलों की महक
आरज़ूमंद सीनों की अपने पसीने में जलने की बू

पड़नेवालों के नाम
वो जो असहाब-ए-तब्लो-अलम
के दरों पर किताब और क़लम
का तकाज़ा लिये, हाथ फैलाये
पहुँचे, मगर लौट कर घर न आये
वो मासूम जो भोलेपन में
वहाँ अपने नंहे चिराग़ों में लौ की लगन
ले के पहुँचे जहाँ
बँट रहे थे घटाटोप, बे-अंत रातों के साये
उन असीरों के नाम
जिन के सीनों में फ़र्दा के शबताब गौहर
जेलख़ानों की शोरीदा रातों की सर-सर में
जल-जल के अंजुम-नुमाँ हो गये हैं

आनेवाले दिनों के सफ़ीरों के नाम
वो जो ख़ुश्बू-ए-गुल की तरह
अपने पैग़ाम पर ख़ुद फ़िदा हो गये हैं

मेरा धन है स्वाधीन क़लम
गोपाल सिंह नेपाली 









राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्‍नहार, लाती चोरों से छीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम





12 नवंबर, 2010

कविता की नई भूमिका

        कविता की नई भूमिका


बनारस में आयोजित युवा कवि संगम कई सवाल छोड गया है.

क्या हिंदी कविता पुरानी लीक पर ही चल रही है? कविता में

पुरानी लीक के अवशेष-चिह्न हैं या वह अपनी काया और माया

को पूरे तौर पर बदल रही है? क्या बाजार से बाहर मौजूद कही

जानेवाली हिंदी कविता सचमुच ’ग्लोबल’ की ताकत संरचना से

मुक्त है या उसका नवोन्मेषी हिस्सा ’वर्चुअल ज्ञान क्रांति’ के पैटर्न

का अनुसरण कर रही है? हिंदी कविता के एक नए हिस्से में कविता होने के

अलावा ऐसा क्या है जिसे हिंदी समाज और संस्कृति से अभिन्न माना जाए?

क्या अब कविता देश से परे केवल अधूरे काल की अवधारणा पर

अपना विकास करेगी? क्या कविता भूगोल से बाहर अपना अस्तित्व

बनाएगी और अतीत से सर्वथा मुक्त होकर केवल भविष्य में दोनों

पांव रखेगी? क्या कविता केवल ’स्व’ या स्वविहीन सूचनास्थूलता की क्राफ़्ट

भर बनेगी ? क्या कलात्मकता और लोकप्रियता के सह-अस्तित्व का संघर्ष और

सरोकार अब गैरजरूरी है? क्या कविता में कैसे कहा जा रहा है,केवल वही अहम

होगा या कैसे क्या कहा जा रहा है इसका विकास होगा? क्या कविता प्रौद्योगिकी

से पूर्णत संरचित स्वरूप लेगी या दोनों के द्वंद्व से कुछ नया बनेगा? अंतत कविता

कहां से आएगी,किस रूप में यथार्थ भार क वहन करेगी और किसके लिए होगी?

ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो आज की पीढी की कविता से पूछने की जिज्ञासा है.

07 नवंबर, 2010

कविता घाट : ओबामा! ओ वाम!

ओबामा ओबामा
वाम लो वाम लो
तेरे विरोधी जो
सारे हैं वाम
रूस गया,इराक गया
गया अफ़गानिस्तान
धड्धड धराम


ओबामा ओबामा
बाम दो बाम लो
दोनों को दर्द बहुत
झंडू-शंकर ब्रांड हो


कटोरा-छाप बाम लो
डालर छाप बाम दो
पेट्रोलियम बाम लो
न्यूक्लियर बाम दो
जंगल-बूटी बाम लो
ग्रीन हंट बाम दो
नदिया नीलाम लो
पेप्सी कोला बाम दो
संसद गुलाम लो
व्हाइट हाउस बाम दो
स्टेच्यू लिबर्टी बाम दो


ओबामा ओबामा
हम तेरे पचपौनिया
हम तेरे खानसामा
नई जमींदारी की रैयत हैं हम
वारह्वीं सदी की पटरानी
अठारहवीं सदी की सती वामा
घर बाहर दोनों का हमसे ही काम लो


ओबामा ओबामा
दाम लो दाम लो
आलू का दाम लो
टमाटर का दाम लो 
लाख बीटी बीज दो
दो लाख किसान लो
ग्राम,सेवाग्राम लो
नया विश्वग्राम दो
तू ही मुखिया,तू ही सर्पंच
शेष सारा गांव है असभ्य चरमपंथ
खाज-खुजली,गुप्त रोगी
साबुन हमाम दो


ओबामा,ओबामा
बम दो बम दो
मंदी का मौसम है
वाशिंगटन बेदम है
रोजगार कम है
चारा नरम है
बारूद गरम है


बम दो बम दो
बम बम बराम
नागासाकी वियतनाम
काम तमाम
सभ्यता की नई शाम
ओबामा! ओ वाम!