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31 अगस्त, 2010

विश्वग्राम में नंदीग्राम

रामाज्ञा शशिधर

नंदीग्राम डायरी कार्यकर्ता-पत्रकार पुष्पराज की प्रतिबद्ध पत्रकारिता की आंखिन देखी दैनंदिनी है। पचपन मर्मस्पर्शी शीर्षकों में बँटा 326 पृष्ठों का यह दस्तावेज 16 मार्च, 2007 से 10 मार्च, 2008 के बीच के समय खंड के मध्य पसरा हुआ है, जिस दौरान पत्रकार नंदीग्राम की तबाही, त्रासदी और प्रतिरोध की भीषण प्रक्रिया का गवाह रहा।
नंदीग्राम की संघर्षगाथा  









नंदीग्राम डायरी भारतीय पत्र्कारिता के सामने बाजार के दौर में सरोकार का, विज्ञापनी चलन के दौर में जन-आंदोलनी ल्ोखन का, पेज थ्री के समय में भूमिगत जोखिम का, सनसनाहट के समय खलबलाहट का, उत्त्ोजना की अवधि में आलोचना का, एनजीओ बाइट के समय में बिग फाइट का तथा सत्ताबद्धता के समय में प्रतिबद्धता का पुख्ता प्रमाण है। कई कारणों से यह किताब हिन्दी और भारतीय पत्र्ाकारिता का बदलाव बिन्दु है।
डायरी हमारे समय के अनेक अनसुलझे सवालों का हल ल्ोकर आती है। मसलन, नव साम्राज्य के दमन का सर्वाधिक प्रभाव किस वर्ग पर पड़ रहा है? नव साम्राज्य के पूंजीवादी जनतंत्र्ा में कम्युनिष्ट सत्ता का जनविरोधी और श्रमविरोधी चेहरा कैसा और क्यों है? क्यों वामपंथी सत्ता उतनी ही बर्बर, हिंसक और दमनकारी हो जाती है, जितनी पूंजीवादी-फासीवादी सत्ता होती है? किसान वर्ग का भविष्य क्या है? व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया के दौरान अस्मितावादी विमर्श और संघर्ष की सीमाएँ क्या हैं? भारतीय पूंजीवाद के भीतर कम्युनिष्ट सत्ता धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता का कैसा ख्ोल रचती है? जन प्रतिरोध में जनबुद्धिजीवियों की भूमिकाएँ कैसी होनी चाहिए? जन आंदोलन के तरीके और माध्यम कैसे निर्मित होते हैं? वर्ग विभाजित व्यवस्था में हिंसा, अहिंसा और प्रतिहिंसा को किस तरह परिभाषित करना चाहिए? पूंजीवाद के बागीचे में मीडिया झूठ का पेड़ कैसे है? वैकल्पिक बड़ी राजनीति और शक्तिशाली नेतृत्व के अभाव में राजसत्ता जनता की लोकतांत्र्ािक लड़ाई और आंदोलन को किस तरह बर्बरता और क्रूरता से कुचल देती है तथा भविष्य का जनांदोलन नंदीग्राम से क्या सीख सकता है?
sadhosarai.blogspot.com
पुष्पराज खोजी पत्र्ाकारिता से जुड़े रहे हैं तथा पत्र्ाकारिता के डेस्क की तकनीक, रणनीति, शक्ति और सीमा से मुक्त हैं। इसलिए यह किताब पत्र्ाकारिता के प्रचलित खांचों और सांचों से ऊपर उठकर एक ल्ोखक और कार्यकर्ता की रचनात्मकता से ज्यादा बावस्ता रखती है। हालांकि यह डायरी श्ौली में मुद्रित है ल्ोकिन इसकी संरचना में डायरी, रिपोर्ट, रिपोर्ताज और फीचर के घुलनशील रूप शामिल हैं। साथ ही कविता, गल्प और जनांदोलनी संवेदना का भी गहरा असर है। इसलिए यह किताब अपने अध्ययन और विश्ल्ोषण में पाठक से न केवल इन विधाओं की बारीक समझ की मांग करती है बल्कि कल्पनाशीलता, संवेदना और भाषाई रचनात्मकता से ल्ौस सहृदयता की अपेक्षा रखती है। यह संघर्षधर्मी यथार्थ की ऐसी नदी है जिसकी बाढ़ में धान, मिट्टी, पेड़, झोंपड़ियाँ, मानुष, जानवर, लाश्ों, कारतूस, पर्चे, बैनर, झंडे, गीत, अतीत, भविष्य, स्वप्न, भाषण, संवाद, चीख, खामोशी, मुखौटे और जूते सबकुछ बेतरतीब और धक्केकार ढंग से बह रहे हैं। यही कारण है कि भाषा कहीं चुस्त, कहीं ढीली, कहीं ठोस, कहीं गीली, कहीं क्रान्तिकारी, कहीं विभ्रमकारी, कहीं भावुक, कहीं कठोर, कहीं डूबती हुई, कहीं उतराती हुई दिखती है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि सारी क्रियाएँ और संज्ञाएँ त्र्ाासदी और संघर्ष के रंगों में पगी हैं।

डायरी बताती है कि नंदीग्राम क्या है? पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम प्रथम और द्वितीय तमलुक सब डिवीजन (जिला-पूर्वी मेदिनीपुर) के अंदर दो अलग-अलग ब्लॉक हैं। सेज परियोजना के तहत नंदीग्राम प्रथम की 19 हजार एकड़ भूमि पर बिना पुनर्वास व्यवस्था के, इंडोनेशिया की साल्ोम ग्रुप कंपनी द्वारा विशाल रासायननिक कारखाना के लिए, अधिग्रहण अभियान आरंभ हुआ। लगभग तीन लाख की आबादी वाल्ो नंदीग्राम क्ष्ोत्र्ा के किसान वर्ग के सीपीआईएम सांसद लक्ष्मण सेठ के नेतृत्व में अति उपजाऊ धरती के कब्जे की घोषणा के बाद सत्र्ाह पंचायतों की वाम जनता में खलबली मच गई। हजारों किसानों के जन प्रतिरोध का नतीजा यह हुआ कि 2007 की जनवरी, मार्च और नवंबर के तीन रक्तपातों में कुल 66 लोग मारे गए और 100 से ज्यादा स्त्र्ाियों के साथ बलात्कार ऑफ द रिकार्ड हुआ। सरकार ने किसानों को कभी साम्प्रदायिक तो कभी माओवादी बताया। महाश्वेता देवी ने 14 मार्च, 2007 की घटना की तुलना जालियांवाला बाग से की तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार ने नवंबर 2007 के इलाका दखल को गोधरा की उपमा दी। ल्ोकिन विश्वग्राम के दौर में नंदीग्राम की दास्तान इतनी इकहरी और सरल नहीं है। यह इक्कीसवीं सदी के पहल्ो दशक में नव साम्राज्य के नए विकास मॉडल के प्रयोजन और परिणाम का महाख्यान भी है। पेच बहुत गहरी और जटिल है।

डायरी बताती है कि नंदीग्राम के किसानों से उनकी मर्जी के खिलाफ सरकार ने भूमि उच्छेद (अधिग्रहण) की योजना बनाई। नंदीग्राम के किसान लघु एवं मझोल्ो काश्तकार हैं जिनकी जिंदगी और सांस इन्हीं बहुफसली व उर्वर ख्ोतों के सहारे चलती हैं। नव साम्राज्य की सेजनीति में केन्द्र सरकार से कहीं ज्यादा दिलचस्पी पश्चिम बंगाल की सीपीआईएम सरकार दिखा रही थी। ख्ोतों के कब्जियाने और नई जमींदारी व्यवस्था में किसानों को बेदखल करने की मुहिम के विश्वमुखिया अमरीका के साथ मार्क्सवाद में आस्था रखने वाली सत्ता बराबर की भूमिका अदा कर रही थी। सिंगूर और लालगढ़ से भी ज्यादा सत्ता का तीखा और दमनकारी रूप नंदीग्राम में उभरकर आया। नंदीग्राम के किसान मानते हैं कि जैसे तालाबों में पुनर्वास से मछली खत्म हो जाती है, वही हालत हमारी होगी। डायरी बताती है कि “2 से 4 बीघा औसत जमीन के जोतदार नंदीग्राम के इलाके में जितने खुशहाल हैं, यह खुशहाली एशिया का सबसे पहला किसान पैदा करने वाल्ो निमाड़ (नर्मदा घाटी क्ष्ोत्र्ा) या बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के गाँवों में कहाँ दिखती है।“

डायरी बोलती है कि नंदीग्राम में निर्मित भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति गैरराजनीतिक और व्यापक परिप्रेक्ष्य के साथ खड़ी हुई जिसमें अनेक राजनीतिक दलों के लोगों के अतिरिक्त आम किसान थ्ो। जब किसानों ने अहिंसा के रास्ते लोकतांत्र्ािक अधिकारों के लिए संगठित धरना, प्रदर्शन, मार्च शुरू किया तो सीपीआईएम को सत्ता के लिए यह अहं, अपमान और सत्ता को चुनौती दिया जाने वाला मुद्दा लगा। डायरी बताती है कि किसानों के संगठित अहिंसक संघर्ष को कुचलने के लिए सीपीआईएम ने अपनी हरमात वाहिनी (सशस्त्र्ा कैडर संगठन) और राज्य पुलिस का हिंसक आक्रमण आरंभ किया। हरमात वाहिनी ऐसी पार्टी सेना है जिसके पास एसएलआर, एके 47, 56, अत्याधुनिक बम और अन्य अस्त्र्ा-शस्त्र्ा के जखीरे बंगाल के गाँव-टोल्ो तक होते हैं। नंदीग्राम के किसानों ने बचाव एवं संघर्ष के लिए जन आन्दोलन के तरीके और माध्यम अपनाए। उन्होंने पेड़ काटकर सड़कें जाम कीं, पुलिया तोड़ डाली और राहों को काट दिया।

डायरी बताती है कि नंदीग्राम वह इलाका है जहाँ 1942 के आंदोलन में साम्राज्यवादी सत्ता के समानांतर दो साल तक जनता की अपनी सत्ता रही थी। 1946-47 में जमींदारों के विरुद्ध बटाईदारों का महान तेभागा आंदोलन चला था जिसकी जीत बटाईदार किसानों के पक्ष में थी। दोनों घटनाओं से नंदीग्राम ने क्रांतिकारी सीख ल्ोते हुए अनेक संगठन बनाए, लड़ाई के तरीके अपनाए। 1942 के आंदोलन में शहीद मातंगिनी हाजरा के नाम पर महिलाओं ने मातंगिनी हाजरा समिति का गठन किया। जनतांत्र्ािक और अहिंसक स्थानीय जन आन्दोलन को पूरी बर्बरता के साथ कुचला गया। शारीरिक-मानसिक दमन, बलात्कार, हत्याएँ, सशस्त्र्ा आक्रमण, लूटपाट, आगजनी अपने ही वोटर-किसानों के साथ लगभग ग्यारह महीने तक जारी रही। सत्ता और पार्टी के दमनकारी रूपों को चुनौती स्थानीय किसानों ने महीनों तक अहिंसक ढंग से दी, फिर हिंसा के खिलाफ छिटपुट प्रतिहिंसा की भी मदद ली। इस तरह हिंसा, अहिंसा और प्रतिहिंसा की नई संस्कृति रची गई।

डायरी बताती है कि जैसे ब्रिटिश साम्राज्य के दौर में 1942 और तेभागा किसान आन्दोलन के किसानों को पुलिस डायरी में अपराधी, गुंडे, बलवाई बताए जाते थ्ो उसी तरह इस बार आंदोलनकारी किसानों के लिए माओवादी, आतंकवादी, सांप्रदायिक अपराधी आदि शब्द दर्ज किए गए। डायरी बताती है कि हरमात वाहिनी के अपराधियों को शहीद और भूमि-उच्छेद प्रतिरोध समिति के शहीदों को अपराधी की संज्ञा दी गई। डायरी एक भयानक तथ्य को खोलती है कि भारतीय सेना में सूबेदार मेजर आदित्य बेरा एक दशक से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ल्ोकर ग्राम-समाज के बदलाव अभियान में लगे थ्ो। 10 नवम्बर, 2007 को 20 हजार से ज्यादा किसान-मजदूरों के शांति मिशिल जत्थ्ो पर हरमात वाहिनी की अंधाधुंध फायरिंग हुई। देशभक्त आदित्य बेरा की टांग में गोली लगी थी। वह तब से लापता है। डायरी का कहना है कि एक जनश्रुति के अनुसार वह जिंदा होगा, दूसरी जनश्रुति के मुताबिक ‘‘उनकी खोपड़ी को पहल्ो ईंट-पत्थर से चूर-चूर कर दिया गया, फिर गर्दन काट दी गई। क्या सच है कि उनकी लाश को ख्ोजूरी के एक पोखर में पेट चीर कर डुबो दिया गया?“ नंदीग्राम डायरी के समानांतर पुलिस डायरी में यह घटना हाशिए पर फेंक दी गई तथा नोटिस ल्ोने के लायक नहीं रह गई है।

डायरी अनुसंधान करती है कि साम्राज्य और सत्ता विरोधी जन आंदोलन ने जाति, धर्म, लिंग और दूसरी अनेक संकीर्णताओं की दीवारें ढाह दीं। नंदीग्राम की आधी आबादी मुसलमान किसानों की है। हिन्दू-मुस्लिम दोनों पूरे दौर में हमसफर रहे। गोरांगो पूजा (कृष्णपूजा) में मुसलमानों ने समान रूप से हिस्सा लिया और अनुष्ठान के दौरान हरमात वाहिनी की बंदूकें गरजने लगीं और गोलियों की बौछार से धर्मस्थल रक्तरंजित हो उठा। अनेक बार राजसत्ता ने सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की पर नाकाम रही। डायरी अनुसंधान करती है कि तसलीमा नसरीन के बंगाल-बदर अभियान में सत्ता का नंदीग्राम से ध्यान अलग हटाने का एजेंडा था। सीबीआई के इशारे पर मुट्ठी भर कलकतिया मुसलमानों के राजनीतिक ख्ोल से नंदीग्राम और तसलीमा दोनों को निशाने पर लिया गया।

डायरी शोध करती है कि ममता बनर्जी और तृणमूल की नंदीग्राम जन-आंदोलन में कोई भूमिका नहीं है, उसके बड़बोल्ोपन का कोई वैकल्पिक वैचारिक आधार नहीं है। नंदीग्राम आन्दोलन का माओवाद से कोई संबंध नहीं। केन्द्र सरकार की भूमिका राज्य सरकार के साथ सहयात्र्ाी की रही है।

डायरी स्पष्ट करती है कि नंदीग्राम किसान आंदोलन के दौरान बांग्ला शिल्पकारों और बुद्धिजीवियों की क्रांतिकारी भूमिका रही है। बांग्ला बुद्धिजीवी इस महाभारत में धृतराष्ट्र, दुर्योधन, दुःशासन, भीष्म और शकुनी की भूमिका में नहीं थ्ो। डायरी बताती है कि नंदीग्राम में महाश्वेता देवी, वरवर राव, मेधा पाटेकर सहित सैकड़ों शिल्पकार अपनी रचनात्मक उपस्थिति के साथ सक्रिय रहे, वहीं कलकत्ता की सड़कों पर बाँग्ला बुद्धिजीवियों की कतार इतनी लंबी और प्रतिरोधी थी कि पश्चिम बंगाल की सत्ता सिहर उठी। नंदीग्राम प्रतिवाद के लिए “फोरम ऑफ आर्टिस्ट, कल्चरल एक्टीविस्ट एंड इंटेल्ोक्चुअल्स’’ का बैनर खड़ा हो गया था। इतना ही नहीं फारवर्ड ब्लाक, सीबीआई, रेवेलूशनरी समाजवादी पार्टी आदि राजनीतिक दल के नेता भी कोलकाता की सड़कों पर सत्ता विरोध में आने लगे।

डायरी के विश्ल्ोषण से पता चलता है कि सत्ता वर्चस्व की हिंसा, बर्बरता, क्रूरता और जनद्रोही कार्यक्रम के प्रतिरोध में खड़े अस्मितावादी आंदोलनों की सीमाएँ हैं। अस्मितावादी आंदोलनों की हस्ती इतनी कम है कि वह शोषण के विराट आख्यान के विरुद्ध मुक्ति का महाख्यान नहीं रच सकते हैं। दूसरी ओर वर्ग संघर्ष बिना व्यापक राजनीतिक नेतृत्व के सफल नहीं हो सकता है। मेधा पाटेकर और आदित्य बेरा की सीमाओं को नंदीग्राम ने चिह्नित किया है। डायरी दर्ज करती है कि “लाल झंडा, लाल झंडे से टकरा रहा है। सरकार के हाथ में लाल, जनता के हाथ में लाल, असली कौन है?“ भविष्य में असली और नकली का फर्क तेज होगा, नंदीग्राम से सबसे बड़ी सीख यही मिलती है। नंदीग्राम डायरी से और भी अनेक सीख्ों मिलती हैं जिनका बोध डायरी से गुजरते हुए ही हो सकता है। सत्ता और जनता के बीच ज्यों-ज्यों मनुष्यता विरोधी खाइयाँ बढ़ेंगी, वर्चस्व और जनवर्चस्व का अभियान तीखा होता जाएगा। काल प्रवाह में वही पत्थर तैरेगा जो जनसमुद्र का हिमायती होगा।

30 अगस्त, 2010

किसान-कसाइयों का घोषणा पत्र

किसान कवि घासीराम शर्मा

की प्रतिबंधित कविता

इन कागजी खिताबों से उड़ता हूं फलक पर
अधिकार कहीं मिल गया तो जारे रूस हूं.
भारत की गवर्नमेण्ट का मैं चापलूस हूं.
रिया.ए.गुलामी का जबरदस्त सूंस हूं.

लेखक संगठन: अंधेरे में प्रतिरोध

रामाज्ञा शशिधर

रस्मी आजादी की स्वर्णजयंती बीत जाने के बावजूद आजाद भारत में छपित मुक्तिबोध की किताब भारत: इतिहास और संस्कृति आज तक सत्ता द्वारा प्रतिबंधित है। दो साल बाद इस किताब के प्रतिबंधित होने की भी स्वर्णजयंती आएगी। आधी अधूरी छपित किताब की परिशिष्ट प्रश्नावली में मुक्तिबोध का नई पीढ़ी से एक प्रश्न है:“भविष्य के भारत का क्या कोई स्वप्न आपके पास है? यदि है तो क्या है? और यदि नहीं तो क्यों नहीं ? कारण सहित उत्तर दीजिए!” कवि तत्कालीन बौद्धिकता को स्वप्नहंता होने का गुनहगार मानता है-“ओ मेरे आदर्शवादी मन। ओ मेरे सिद्धांतवादी मन। अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया। उदरंभरि बन अनात्म बन गये। भूतों की शादी मंे कनात से तन गये। किसी व्यभिचार के बन गये बिस्तर। दुखों के दागों को तमगों सा पहना। अपने ही खयालांे मंे दिन रात रहना। असंग बुद्धि व अकेले मंे सहना। बहुत बहुत ज्यादा लिया। दिया बहुत बहुत कम। मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम।” असंग बुद्धि और एकांत खयाल को एकताबद्ध आंदोलन मंे बदलने वाले लेखकों-कलकारों के मातृसंगठन प्रगतिशील लेखक संघ ने स्वर्णजयंती मनाई। सच्ची आजादी को ज्यादा धारदार तरीके से खोजने का दावा करनेवाले जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के भी रजत जयंती साल बीत गए। पर, मुक्तिबोध की किताब प्रतिबंधित और प्रश्न उपेक्षित। हिन्दी बौद्धिकता में उदर बढ़ता जा रहा है, सिर और हृदय संक्षिप्त होते जा रहे हैं, भूतों की शादियां ज्यादा लकदका रही हैं, कनातों की व्यापकता और गहराई अछोर अनंत हो रही है। ऐसे समय में जनपक्षीय लेखक संगठनों की प्रतिरोधी भूमिका के इतिहास और वर्तमान पर विचार होना चाहिए। यदि 21 वीं सदी को या तो समाजवाद की सदी या बर्बरता की सदी-दो में से एक दिशा में पूर्णतः बदल जाना है-तो इसकी सांस्कृृतिक शिनाख्त और बहुआयामी प्रतिरोध की जिम्मेदारी इन्हीं लेखक संगठनों पर है।

आजकल शोषण और दमन की ताकतों और रूपों का विस्तार हो रहा है, दूसरी ओर उनसे संघर्ष करने वाले प्रतिरोधों की ताकतों और रूपों की जरूरत बढ़ती जा रही है। नव साम्राज्य भूमंडलीकरण के जिस बुलडोजर पर आरूढ़ है उसका एक पहिया बाजार का तथा दूसरा हथियार का है। उस बुलडोजर में रास्ता दिखानेवाली हेडलाइट(फं्रटलाइट ट्रूप्स) संचार क्रांति है, मीडिया है, हवाई तरंग है। चकाचाैंधपूर्ण रोशनी और छवियों भरी हेडलाइट वस्तुतः सामा्रज्यवाद का अगुआ दस्ता है, सांस्कृतिक सेना है।

नव साम्राज्य के दमन अभियान और सांस्कृतिक सेना की संस्कृति से संघर्ष करने का दायित्व जनता की विचारधारा, राजनीति और संस्कृति से जुड़े संगठनों का है। जनता की राजनीति से जुड़े होने या जुड़ने का दावा करने वाले राजनीतिक दलों के आनुषंगिक सांस्कृतिक प्लेटफार्मों में प्रतिरोध की नई संस्कृति की जरूरत इसलिए भी बढ़ गई है क्यांेकि राजनीतिक दल विचारधारा, सिद्धांत, प्रतिबद्धता, जन सरोकार, भावी कार्यक्रम के मोर्चों पर लगभग चुक गए हैं। हिंदी क्षेत्र तो इसका ठोस प्रमाण है। 10 अप्रैल 1936 को लखनऊ में हुए प्रलेस के पहले अधिवेशन में दिया प्रेमचंद का अध्यक्षीय वक्तव्य नए सिरे से प्रासंगिक हो उठा है-“साहित्यकार का लक्ष्य केवल महाफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है। उसका दरजा इतना न गिराइए। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीें बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सचाई है।” जनता की हस्ती और पस्ती से ज्यादा पार्टी लाइन की अवसरपरस्ती पर भरोसा करने और पीछे चलने की कवायद का नतीजा है कि जनपक्षीय लेखक संगठन लगातार जनता और इतिहास की निगाहों मंे संदेहशील और अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। संस्कृति के विभिन्न मोर्चों पर उनके प्रतिरोधी रूपों की शानदार परंपरा रही है लेकिन चुकने का इतिहास भी क्या कम चिंतनीय है।

जनता, जमीन, जल, जंगल और जन संस्कृति की तबाही का कुचक्र जितना तेज होता जा रहा है उसी अनुपात में हमारे जनपक्षीय लेखक संगठन पेटी बुर्जुआ गतिविधियों के कछुआ धर्म का शिकार होते जा रहे हैं। हिन्दी लेखकों एवं लेखन के हाशिए पर बढ़ते जाने का एक कारण प्रेमचंद की उसी वक्तव्य में है-“हमें अक्सर यह शिकायत होती है कि साहित्यकारों के लिए समाज मे कोई स्थान नहीं। यदि साहित्यकार ने अमीरों का याचक बनने को जीवन का सहारा बना लिया हो, और उन आंदोलनों, हलचलों और क्रांतियों से बेखबर हो जो समाज में हो रही हैं-अपनी ही दुनिया बनाकर उसमें रोता और हंसता हो, इस दुनिया में उसके लिए जगह न होने में कोई अन्याय नहीं है।” दुर्भाग्य से पिछले तीन दशकों से हिन्दी बौद्धिकता आंदोलनों, हलचलों और क्रांतियों से बेखबर जैसी दुनिया बनाती रही वह प्रतिरोध की संगठित परंपरा के लिए घातक सिद्ध हुई है। यह समय प्रतिरोध के नए मोर्चांे, नए विचार और नए कार्यक्रम से लैस होने का है। इस पर बात करने से पहले लेखक संगठनों की ऐतिहासिक प्रतिरोधी भूमिकाओं पर एक नजर डाल लेनी चाहिए।

गुलाम हिंदुस्तान मे जनता, जनता की राजनीति और साहित्य कला के सामने सबसे बड़े प्रश्न थे- कैसी आजादी, किसकी आजादी? कैसा राष्ट्रराज्य, किसका राष्ट्रराज्य? 1930 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्यधारा की विफलता, क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के प्रभाव तथा किसान-मजदूर आंदोलनों के दबाव की कोख से प्रगतिशील लेखक संघ और इंडियन पिपुल्स थियेटर का जन्म हुआ। 1930 तथा 40 के दशक में राजनीति से ज्यादा मूलगामी कार्य सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चोंे पर हुए। विभाजित अधूरी आजादी को किसान नेता सहजानंद सरस्वती ने आजादी का फांसी दिवस कहा वहीं नागार्जुन जैसे क्रांतिकारी कवि की कविता बोल उठी- “कागज की आजादी मिलती ले लो दो दो आने में। लाल भवानी प्रगट हुई है सुना कि तेलंगाने में।” संस्कृति की प्रतिरोधी धारा जहां विचारधारात्मक संघर्ष के साथ जनता की सच्ची आजादी की पड़ताल कर रही थी वहीं तत्कालीन कांग्रेसी सत्ता मंें समाजवाद को आकार लेते देखकर वाम राजनीतिक शक्ति संसदीय रेल में बैठी तथा तेलंगाना जैसे जन आंदोलन के दमन अभियान के साथ हो गई। 1953 में प्रगतिशील लेखक संघ को भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी ने विघटित करवा दिया जब औपनिवेशिक सांस्कृतिक दासता से मुक्त होकर जनता के जनवादी राष्ट्र का निर्माण-अभियान चलना चाहिए था। यह सांस्कृतिक प्रतिरोध को जनता की राजनीति का पहला झटका था।

1960 के दशक तक अदीबों-कलाकारों के सामने यह साफ हो गया कि वैकल्पिक स्वप्न के सांस्कृतिक संघर्ष की जरूरत है। साठ के दशक में कृषि संकट, मिलों की तबाही और हड़तालें, अनगिनत अकाल, सूखा और भुखमरी, युवा पीढ़ी की रोजगारहीनता, सामंती और पंूंजीवादी संरचना का दमनचक्र इतना गहरा गया कि अनेक मोर्चों पर जन आंदोलन आरंभ हो गए। नक्सलबाड़ी सशस्त्र क्रंाति और युवा आंदोलन केंद्रीय भूमिका में आ गए। मुक्तिबोध 1950 से ही इस सवाल को उठा रहे थे कि साहित्य में नए जनवादी मोर्चे की जरूरत है। मुक्तिबोध साहित्य मे नये जनवादी मोर्चे की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते हैं कि “खेत मजदूर, गरीब किसान, प्राथमिक शिक्षक, जनपद द्वारा लिगाए गए करों के बोझ से चूर दरिद्र ग्रामवासी, पटवारी, रिक्शा मजदूर, गाड़ीवान, बिक्री करों से ग्रस्त गरीब दुकानदार- आज सभी शोषण के खिलाफ न सिर्फ आवाज लगा रहे हैं, वरन उससे मुक्ति पाने के कार्य में संलग्न दिखाई पड़ते हैं।” वे प्रतिरोध के संगठित मोर्चे का आहवान करते हैं कि “जनवादी धारा के विरोधी बहुत हैं। जब तक कि साहित्य सृजन, साहित्य सिद्धांत तथा उसका प्रचार- इन सब क्षेत्रों मंे प्रतिक्रियावादियों के खिलाफ संघर्ष और मोर्चेबंदी की जाएगी, तब तक नई धारा का विकास नहीं हो सकता। वह एक ऐतिहासिक अनिवार्यता है जो लाखों विरोधों के बावजूद होकर रहेगी। सवाल यह है कि हम उस अग्नि प्रक्रिया में अपना हाथ कहां तक और कितना बंटाते हैं।” सोवियत लाइन और चीनी लाइन पर वैचारिक असहमतियों के कारण 1964 और 1967 मे जन राजनीति के संगठन विभाजित हुए। अदीबों-कलाकारों के पुराने नए तबकों में प्रतिरोधी उबाल आया जो सत्तर के दशक की रचनाशीलता में दर्ज है।

जनता और राष्ट्र के गहरे दवाब में हुआ 1973 का ऐतिहासिक बांदा सम्मेलन लेखकों की प्रतिरोधी भूमिका की जरूरत बताता है। पहल के प्रयास से छपी चिट्ठियों और मसौदों से पता चलता है कि केदारनाथ अग्रवाल के प्रयास से आयोजित अखिल भारतीय प्रगतिशील हिन्दी साहित्यकार सम्मेलन अतीत के अनेक अनुत्तरित सांस्कृतिक प्रश्नों के प्रति चिंतित था। 22 से 25 फरवरी के बीच हुए अधिवेशन में मन्मथनाथ गुप्त, सज्जाद जहीर, नागार्जुन, त्रिलोचन, विश्वंभरनाथ उपाध्याय, अमरकांत, शिवदान सिंह चौहान, सव्यसाची, सुरेंद्र चौधरी, चन्द्रभूषण तिवारी, धूमिल, वेणु गोपाल, कर्ण सिंह चौहान, खगेन्द्र ठाकुर, आनंद प्रकाश, विजेन्द्र आदि बड़ी संख्या में कई पीढ़ियांे के रचनाकार शामिल हुए। तमाम कोशिशों के बावजूद रामविलास शर्मा नहीं पहुंचे। अधिवेशन में गैरमौजूद डा.नामवर सिंह के पत्र में आग्रह है कि “हम सब के नेता डा. रामविलास शर्मा का आना बहुत जरूरी है।” सम्मेलन ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया कि ”सप्तम दशक मंे देशी विदेशी जन विरोधी शक्तियों से आम आदमी के पक्षधर तत्वों ने लगातार टक्करें ली हैं। प्रगतिशील हिन्दी साहित्यकारों के इस सम्मेलन में यही नया जन उभार प्रतिबिंबित हुआ।”

नए जन उभार की प्रगतिशील बौद्धिकता के पांचसूत्री मसौदे में कई बातें उल्लेखनीय हैं। जैसे, राष्ट्र के जीवन मे साम्राज्यवादी सांस्कृतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित करने के प्रयासों का विरोध, सामंती व्यवस्था के अवशेषों-अंधविश्वासों, धार्मिक रूढ़ियों, सांप्रदायिक विचारों, पुनरोत्थानवादी मान्यताओं तथा विवेकहीन अवैज्ञानिक धारणाओं का विरोध, पिछले 25 वर्षों के दौरान समाजवादी घोषणाओं के बावजूद शासक वर्ग द्वारा हमारे देश में विकसित किये जा रहे पूंजीवाद का विरोध, सांस्कृतिक संस्थानों, अकादमियों, पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रेस और सूचना के अन्य माध्यमों पर इजारेदार घरानों के एकाधिपत्य का विरोध तथा शासक वर्ग द्वारा किये जा रहे लेखकीय स्वतंत्रता के प्रतिरोध और दमन का विरोध। विभिन्न राज्यांे में संगठन संचालन के लिए संपर्क समिति का निर्माण हुआ। अन्य प्रस्तावों मंे एक प्रस्ताव यह भी था कि प्रगतिशील हिन्दी साहित्यकारों का यह सम्मेलन दुख प्रकट करता है कि हथियारबंद कं्राति में विश्वास करने के आरोप में देश भर में तीस हजार से अधिक व्यक्ति, जिनमें कुछ लेखक भी हैं, लंबी नजरबंदियां भोग रहे हैं। सम्मेलन भारत सरकार तथा प्रांतीय सरकारों से मंाग करता है कि नजरबंदियों को रिहा करें तथा उन्हंे अपनी जनता के बीच कार्य करने का अवसर दें। यह सम्मेलन समस्त लेखकों का आहवान करता है कि वे उनकी रिहाई के आंदोलन में भाग लें और नागरिक अधिकारों की रक्षा करें। सम्मेलन ने वियतनाम की अपराजेय जनता का अभिनंदन किया तथा अमेरिका को विश्व का सबसे बड़ा साम्राज्यवादी देश बताया।

विचारणीय है कि प्रगतिशील लेखकों की कई पीढ़ियां, कई वैचारिक धाराओं के आपसी संघर्षो के बाद यह मसौदा आया था जिसमें शासक वर्ग को एक ओर समाजवादी समझने की राजनीतिक चूक है वहीं साम्राज्यवादी, सामंती और सांप्रदायिक-पुनरोत्थानवादी मूल्यों से वैचारिक संघर्ष करते हुए राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय कं्रातिकारी जन आंदोलनों का व्यापक समर्थन है। हमें याद रखना चाहिए कि स्वतंत्रता से पूर्व प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन आदि किसान आंदोलन के मोर्चे पर जेल मे नजरबंद थे।



आपातकाल हिन्दी लेखकोें के प्रतिरोध के इतिहास और भविष्य का संक्रांतिकाल साबित हुआ। सीपीआई के आपातकाल संमर्थन से प्रगतिशील साहित्यकारों का ढुलमुलकारी खोल उतर गया। राजनीति, विचारधारा और जन सरोकार में आस्था के हिसाब से प्रगतिशील बौद्धिकता विभाजित हो गई। दो साल पूर्व बांदा में शासक वर्ग द्वारा किए जा रहे लेखकीय स्वतंत्रता के प्रतिरोध और दमन का विरोध करनेवाले लेखकों का एक हिस्सा अपातकाल के समर्थन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरूद्ध था। आपातकाल की तानाशाही का विरोध करनेवाले लेखकों को जेल जानी पड़ी, पत्र-पत्रिकाओं का स्थगन हुआ। सत्ता संस्कृति का दमनचक्र जन संस्कृति के विरुद्ध क्रूरतम रूप में मौजूद हुआ। नागार्जुन जैसे क्रांतिकारी लेखकों ने राजनीति से आगे चलने वाली सचाई की मशाल बनने का कार्य किया। यह सच है कि भारतीय संसदीय राजनीति की सीमाओं ने नागनाथ और संापनाथ को एक जैसा बनाया लेकिन नागार्जुन की वैचारिक और रचनात्मक आस्था तेलंगाना से नक्सलबाड़ी तक सशस्त्र कं्राति में थी और संशोधनवाद हमेशा उनके निशाने पर रहा। गोरख पांडेय और आलोकधन्वा तीसरी धारा के संस्कृति मंच निर्माण से पूर्व सांस्कृतिक प्रतिरोध की व्यापक जमीन गढ़ रहे थे जिसका साकार रूप अस्सी के दशक मंे सामने आया।

बीसवीं सदी के अस्सी का दशक सांगठनिक प्रतिरोध का नए सिरे से प्रस्थान दशक है। 1953 में भंग स्वतंत्रता संग्राम कालीन प्रगतिशील लेखक संघ का पुनर्गठन 1980 में जबलपुर सम्मेलन में हुआ। 1982 में जनवादी लेखक संघ गठित हुआ। पटना मंे नव जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, दिल्ली में राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक संगठन और बनारस में राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा के नाम से संचालित तीसरी धारा के लेखकों-कलाकारों के सांस्कृतिक मंचों का जन संस्कृति मंच में एकीकरण 1984 में हुआ। उत्तर प्रदेश जन संस्कृति मंच इसके पहले 1981 में गठित हो चुका था। तीनों लेखक संगठनों की वैचारिक सांस्कृतिक शक्ति और सीमा को समझने के लिए इतिहास के दो नियमों को ध्यान में रखना चाहिए जो आपातकाल के बाद एक बार फिर सच साबित हुए।

इतिहास का पहला नियम यह कि सत्ता द्वारा जनता का प्रत्यक्ष आर्थिक दमन तो संभव है किंतु प्रत्यक्ष सांस्कृतिक दमन असंभव। जनता प्रत्यक्ष सांस्कृतिक दमन का प्रतिरोध अपने अस्तित्व को दांव पर लगाकर करती है। इसलिए सत्ता जनता में सांस्कृतिक वैधीकरण की जटिल प्रक्रिया चलाती है। सत्ता इस प्रक्रिया में पदों, पुरस्कारों, यात्राओं, सुविधाओं, संस्थानों अकादमियों के माध्यम से बुद्धिजीवियों की विचारधारा, रचनाशीलता और सांस्कृतिक स्वप्न को भ्रष्ट करती है तथा उन्हें सत्ता और जनता के बीच सांस्कृतिक वैधीकरण का सेतु बनाती है। आपातकाल के दमन अभियान के बाद चालाक सत्ता वर्ग ने संस्थानों, अकादमियों के माध्यम से सांस्कृतिक करतूत को अंजाम दिया।

इतिहास का एक अन्य बुनियादी नियम यह है कि कोई वस्तु, विचार, आंदोलन या संगठन अपने आंतरिक गुणों और शक्तियों से गठित, गतिशील और विकसित होता है। उसका संघटन और विनाश भी आंतरिक कारणों से होता है। बाहरी परिस्थितियां केवल प्रेरक की भूमिका निभाती हैं। भारतीय जनता की राजनीति करनेवाले दलों और जन संस्कृति की राजनीति करने वाले संगठनों पर भी यह नियम पूर्णतः लागू होता है। आपातकाल में कांग्रेसी सत्ता को साथ देनेवाली भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के आनुषंगिक सांस्कृतिक संगठन प्रगतिशील लेखक संघ का अस्सी के बाद सत्ता संस्कृति से बहुपक्षीय स्तरों पर जुड़ाव हुआ तथा विचारधारात्मक संघर्ष कम होता गया। प्रगतिशील लेखक संघ के सत्ताकरण की प्रक्रिया का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रमाण पटना प्रगतिशील लेखक संघ का बुलेटिन धारा है जिसके 1985 के पहले साल के चौथे अंक मंे ही बिहार प्रलेस ने नागार्जुन की राजनीति नामक लेख तैयार कर नागार्जुन की क्रंातिकारी राजनीति और संघर्ष प्रक्रियाओं के चित्रण को ढुलमुल और प्रतिक्रियावादी करार दिया। इसमें अपूर्वानंद का लेख था, नंदकिशोर नवल की भूमिका थी और खगेंद्र ठाकुर की बातचीत व साक्षात्कार का हिस्सा था। नागार्जुन का यह शताब्दी वर्ष है। कांग्रेसपरस्त बौद्धिकता की उपलब्धि, जन आंदोलन विरोधी विचारधारा और सांप्रदायिक शक्तियों से समझौतापरस्ती का प्रलेसी रूप हमारे सामने है। इस अंधेरे समय में प्रतिरोध की धाराओं पर फिर एकबार जन अदालत में बहस शुरू हानी चाहिए। दूसरी बात, अस्सी के दशक की हिन्दी रचनाशीलता चौथे दशक के प्रगतिवादी आंदोलन और सातवें-आठवें दशक के जनवादी आंदोलन के दौरान शुरू किए गए संघर्ष प्रक्रियाआंें के चित्रण का क्षेत्र छोड़कर व्यक्तिवादी अनुभवों और मध्यवर्गीय उत्सवधर्मी चिंताओं में धंस गई। जनवादी लेखक संघ की सीमा यह थी कि इसके लेखकों का मुख्य आधार क्षेत्र हिन्दी प्रदेश था जबकि विचारधारात्मक राजनीति के आधार क्षेत्र गैर हिन्दी प्रदेश। लेकिन केंद्रीय सत्ता से राजनीतिक संघर्ष के कारण इस संगठन की जनबद्धता कुछ ज्यादा धारदार थी।

पिछला दो दशक विश्व राजनीति, भारतीय जनतंत्र और भारतीय जनता के इतिहास में सभ्यता का सर्वाधिक उथल पुथल भरा समय खंड है। उत्पादन प्रणाली, और उत्पादन संबंध के नए रूप ने न केवल राजनीतिक-सामाजिक संबंधों को नए सिरे से परिभाषित किया है बल्कि विचारधारा, संस्कृति और साहित्य के मसले पर भी मूलगामी ढंग से विचार करने का अवसर दिया हैं। पिछले समय में जनपक्षीय लेखक संगठनों के सांस्कृतिक-वैचारिक चिंतन मनन का कार्यभार बढ़ा वहीं विघटन और ध्वंस के दौर से गुजर रही समाज व्यवस्था के दुखों और मुक्ति संघर्षो में सहयात्री होने तथा प्रक्रियाओं को रचनाशीलता में बदलने की जिम्मेदारी भी गुरुतर हुई। इस नजरिए से तीनों लेखक संगठनों की प्रतिरोधी भूमिकाओं और सांस्कृतिक वैचारिक सीमाओं पर सैद्धांतिक-व्यावहारिक ढंग से थोड़ा विचार होना चाहिए।

सदी के अंतिम दशक के आरंभ में समाजवाद के पुराने मॉडल सोवियत संघ का बिखराव, चीनी मॉडल का पूंजीवाद के रास्ते पर तीव्र प्रस्थान, भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक फासीवाद का उभार, आरक्षण की राजनीति से क्षेत्रीय दलों का संसदीय वर्चस्व ऐसी घटनाएं हैं जिन्होंने जनपक्षीय लेखक संगठनों के वर्ग दृष्टिकोण और वर्ग संघर्ष के सांस्कृतिक रचनात्मक एजेंडे को हिलाकर रख दिया। विभ्रमकारी सामा्रज्यवाद विरोधी दृष्टिकोण, सांप्रदायिकता को लेकर संसदीय तुष्टीकरण का चिंतन तथा कांग्रेसी और क्षेत्रीय अस्मिताओं के बीच दो पाटन के बीच पीसते चले जाने की नियति के कारण जहां वाम राजनीति रसातल की ओर बढ़ती गई वहीं प्रलेस और जलेस जैसे लेखक संगठनों में आनुषंगिक मशाल के लिए जरूरी तेल, कपड़े और हाथ तीनों कम होते गए। दो दशकों के विचारधारात्मक हस्तक्षेप और विचलन देानों को लेखक संगठनों के रुख से समझा जा सकता है।

तीनों लेखक संगठनों के लखकों के सांगठनिक आधार क्षेत्र पर ध्यान दीजिए तो प्रलेस मध्य प्रदेश, बिहार ओर राजस्थान में ज्यादा सक्रिय है, जलेस दिल्ली विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में गतिशील है तथा जन संस्कृति मंच बिहार और उत्तर प्रदेश में संघर्षशील है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद तीनों संगठनों ने संस्कृति संगम नाम से अनेक साम्प्रदायिकता विरोधी सेमिनार किए। भाजपा के केंद्रीय शासन और गुजरात दंगांे के दौरान जलेस की सांप्रदायिकता विरोधी भूमिका प्रशंसनीय रही। 1857 को लेकर तीनों संगठनों ने न केवल अनेक आयोजन किए बल्कि लेखन-प्रकाशन अभियान भी शानदार ढं़ग से चलाया। जनसंस्कृति मंच का भगत सिंह शताब्दी वर्ष के बहाने अनेक जनपदों में विचार अभियान महत्वपूर्ण रहा। बनारस में वाटर फिल्म शूटिंग पर हमले के दौरान तीनों संगठनों का साझा प्रतिरोधी प्रयास, नंदीग्राम के विरूद्ध और तसलीमा नसरीन के समर्थन में जसम का कलकत्ता मार्च ऐतिहासिक महत्व रखता है।

साम्राज्यवाद विरोध, सांप्रदायिक फासीवाद विरोध तथा सामंती-ब्राहमणवादी विचारधारा से संघर्ष-तीनों मोर्चों पर हमारे लेखक संगठन पेटी बर्जुआ अवसरवाद, सुविधावाद और व्यवहारवाद के शिकार रहे हैं। आंतरिक जनतंत्र का अभाव, आलोचना और आत्म आलोचना के स्पेस को लगातार कम करने की प्रवृति और नेतृत्व की पूंजीवादी-सामंती मनोगत वृत्तियों के कारण लेखक संगठन लगातार अप्रासंगिक हुए हैं।संगठनों में जेनुइन लेखकों से ज्यादा संगठन के लेखक हावी होते रहे हैं। बिहार प्रलेस इसका अच्छा उदाहरण है। वहां के वर्तमान महासचिव सीपीआई के पूर्व विधायक हैं, मजदूरों और ठीकेदारों से धन उगाही के उस्ताद हैं, तथा जलसा भोज के कुशल प्रबंधक भी हैं। इस गुण की बदौलत वे विधान सभाई भाषणों की किताब छपाकर लेखक कहलाते हैं, देशभर के साहित्यकारों को अपने कस्बे में बुलाकर जबरदस्त जलसा कराते हैं, अपने ऊपर फिल्म बनाकर शो चलाते और बुद्धिजीवियों पर धाक जमाते हैं तथा पार्टी और प्रतिबद्ध लेखकों को हांकते चराते हैं। संगठन में आंतरिक जनतंत्र इतना कम है कि जिस उम्र में नेतृत्व को आदरणीय और फादरणीय मंडल में लौट जाना चाहिए, उस उम्र में नेतृत्व संगठन को पालकी और पालने की तरह इस्तेमाल करता है।

साम्राज्यवाद विरोध का एक रूप वामपंथियों के सहयोग से निर्मित कांग्रेसी सत्ता के दौरान हमारे सामने आया तो दूसरा रूप पश्चिम बंगाल मे नंदीग्राम, सिंगूर के साम्राज्य विरोधी जन आंदोलन के वक्त। जनवादी लेखक संघ की भूमिका कितनी कं्रातिकारी रही कि नंदीग्राम के किसानों के समर्थन मंे पश्चिम बंगाल के सैकड़ों कलाकार-लेखक सड़क पर उतरे लेकिन हिन्दी प्रदेश के जलेसी पार्टी लाइन पर बहस करते रहे। नंदीग्राम विरोधी भूमिका पर पश्चिम बंगाल सरकार की आलोचना के हस्ताक्षर पत्र पर जलेस के संस्थापक सदस्य एवं प्रथम महासचिव चंद्रबली सिंह ने हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। आदिवासी किसानों क जल, जंगल जमीन और खनिज को लूटनेवाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सरकार की दमनकारी हिंसा को सहयोग देने वाले और सलवा जुडुम के समर्थक लोगों के सांस्कृतिक अभियान में प्रलेस, जलेस और जसम की भूमिका जगजाहिर है।

जहां तक सांप्रदायिक फासीवाद के विरोध का प्रश्न है, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ प्रलेस की स्थानीय इकाइयों का सांप्रदायिक सत्ता के पदों, पुरस्कारों विज्ञापनों और सुविधाओं से कितना गहरा संबंध ह,ै हिंदी बुद्धिजीवियों को बताने की जरूरत नहीं। प्रलेस के मुखिया नामवर सिंह राजनाथ सिंह और जसवंत सिंह के मंच पर जाते है, भाजपाई सरकार के मुख्य अतिथि बनते है तथा भाजपाई मुख्यमंत्री को बुलाकर अपनी पूर्व पाठशाला में सम्मानित हाते हैं। पिछले दिनों यूपी प्रलेस राज्य सम्मेलन के मंच से नामवर सिंह का यह कहना कि सोवियत संघ के विघटन के बाद विचारधारा गैरप्रासंगिक चीज हो गई है, बताता है कि सांप्रदायिकता के एजेंडे पर बहस के लिए प्रलेस के पास कुछ नहीं है। तसलीमा नसरीन के बंगाल और देश निष्कासन पर निर्णयकारी आंदोलन का न करना तथा मकबूल फिदा हुसैन जैसे चित्रकार का विदेशी नागरिकता लेना ऐसे प्रश्न हैं जो लेखक संगठनों के धार्मिक और सांप्रदायिक रुख को स्पष्ट कर देते हैं। कलाकारों-लेखकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अस्तित्व की लड़ाई लेखक संगठन नहंी लडें़गे तो किससे उम्मीद की जा सकती है।

आजकल अच्छी और बुरी सांप्रदायिकता की बहस बुद्धिजीवियों का अवसरवादी शगल है। जनवरी 1934 की प्रेमचंद की टिप्पणी नए सिरे से बहस के केन्द्र में आनी चाहिए कि “अगर सांप्रदायिकता अच्छी हो सकती है तो पराधीनता भी अच्छी हो सकती है, मक्कारी भी अच्छी हो सकती है, झूठ भी अच्छा हो सकता है-क्योंकि पराधीनता मंे जिम्मेदारी की बचत होती है, मक्कारी से अपना उल्लू सीधा किया जाता है और झूठ से दुनिया को ठगा जाता है।“ बनारस में अच्छी और बुरी सांप्रदायिकता के दो उदाहरण लेखक संगठनों से जुड़े हैं। कुछ वर्ष पूर्व बेनियाबाग पुस्तक मेले में उग्र हिन्दुत्व संगठन शिवसेना ने हिन्दू धर्म की आलोचना करने वाली एक पुस्तक के प्रकाशन का स्टाल उजाड़ दिया और किताब की प्रतियां जलाई। दूसरे दिन जलेस के तत्कालीन जिला अध्यक्ष ने उस कृत्य का समर्थन किया। दूसरी घटना जसम की है।बनारस जैसी जगह जहां सत्तर और अस्सी के दशक में गोरख पांडेय, माहेश्वर और अवधेश प्रधान जैसे तीसरी धारा के बुद्धिजीवी रात दिन सांस्कृतिक क्रांति का सपना बुनते थे, इन दिनों जन संस्कृति लेखकविहीन निर्जन संस्कृति बनी हुई है। एक दशक से जिला सम्मेलन तक नहीं हुआ है। विनोद मिश्र जैसे क्रांतिकारी विचारक के विचार का संवहन करनेवाली जन संस्कृति बनारस मंे सांप्रदायिक एवं पुनरोत्थानवादी सत्ता व रचनाशीलता से संबद्ध विद्यानिवास मिश्र की बासमती गंधी श्राद्धोत्सव संस्कृति में सक्रिय भूमिका निभाती हो तथा बुद्धि दर्शन से ज्यादा बल प्रदर्शन में भरोसा करती हो वहां प्रेमचंद के सांप्रदायिकता संबंधी चिंतन के लिए कोई जगह नहीं बचती है।

लेखक संगठनों में सामंती-ब्राहमणवादी मनोवृत्तियांें के हावी होने के कारण वर्ग और वर्ण की संश्रयकारी बहसों को निर्णायक रास्ता नहीं मिला। दलित और स्त्री अस्मिताओं की वर्गीय मुक्ति का प्रश्न वामपंथी लेखक संगठनों का कभी केंद्रीय प्रश्न नहंीं बन पाया। नतीजा सामने है कि वर्ग संघर्ष और वर्ग दृष्टिकोण से दूर जाते हुए ये सांस्कृतिक विमर्श साम्राज्यवादी ताकतों के इस्तेमाल की संस्कृति बन रहे हैं।

जनचेतना निर्माण के मोर्चों पर जनपक्षीय सांस्कृतिक संगठन दक्षिणपंथी सांस्कृतिक संगठनों से बहुत पीछे छूट गए हैं। तैंतीस हजार स्कूलों, दर्जनों प्रेस, सैकड़ों पुस्तिकाओं और स्थानिक संगठन निर्माण के माध्यम से सांप्रदायिक पनरुत्थानवादी विचारधारा ने जनता के दिमागों में जहर घोलने का अभूतपूर्व कार्य किया है। गोलवलकर से लेकर सुदर्शन तक के विचारों के जनोन्मुख शैली में पुस्तिका निर्माण और वितरण ने सांप्रदायिक संस्कृति के विस्तार मंे अहम भूमिका निभाई है। दूसरी ओर राहुल सांस्कृत्यायन, नागार्जुन और सव्यसाची जैसे लेखकों की पुस्तिका निर्माण परंपरा को आगे बढ़ाने में लेखक संगठन असफल रहे। पिपुल्स पब्लिसिंग हाउस बेच दिया गया। इन दिनों पीपीएच पाठय पुस्तकों की महंगी किताबें छापता है। लेखक संगठनों के मुख पत्र वसुधा, नया पथ, समकालीन जनमत के अंकों का कार्य साहित्य और विचारधारा की नई संस्कृति या प्रस्थानक संस्कृति का निर्माण जनोन्मुख भाषा और शैली में करना था लेकिन लंबे समय से वे विश्वविद्यालीय गरिष्ठ व कट एंड पेस्ट चिंतन प्रणाली से ग्रस्त रही हैैैं। तीनों पत्रिकाओं की जरूरत अग्रगामी विचार और साहित्य के दिशा निर्देशन की रहीे है, वर्चस्व और प्रतिरोध की संस्कृति को तीव्रतर करने की रही है तथा जन संघर्षो के अनुभवों को लेखकों-पाठकों तक पहुंचाने की रहीं है। इस कार्य मंे वे पूर्णतः असफल हैं। इप्टा की इकाइयां निष्क्रिय हैैं तथा जन नाटय मंच शहरों में नाटय प्रदर्शन करता है। क्रंातिकारी कवि महेश्वर द्वारा 1981 में स्थापित हिरावल की पटना इकाई और बनारस के कला कम्यून के सहारे जन संस्कृतिमंच का श्रव्य-दृश्य अभियान चलता है।

निःसंदेह लेखक संगठनों की इतिहास में प्रतिरोध की क्रांतिकारी भूमिका रही है लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उन्हें वैचारिक और रचनाकार स्तर पर नए सिरे से संगठित, क्रियाशील और प्रतिबद्ध हाने की जरूरत है। नंदीग्राम सिंगूर और सलवा जुडुम जैसी सांस्कृतिक घटनाएं ऐसे प्रस्थान बिंदु हैं जहां से वे भरतीय समाज में परिव्याप्त मुख्य अंतर्विरोध तथा अंतर्विरोध के मुख्य और गौण पहलुओं की पहचान करते हुए सांस्कृतिक संघर्ष तेज कर सकते हैं। सोवियत संघ के ढह जाने के बाद जार्ज आरवेल के अन्यास एनिमल फार्म को फिर से पढ़ने की जरूरत है। नव साम्राज्य जिस बर्बर दुनिया का निर्माण कर रहा है वहां जनपक्षीय राजनीति और संस्कृति से जुड़े संगठनों के लिए एनिमल फार्म का यह गीत वास्तविक और छदम चेतना की पहचान में मदद करेगा-

चार पैर अच्छा

दो पैर ज्यादा अच्छा

अथवा

सारे जानवर बराबर हैं

पर कुछ जानवर औरों से ज्यादा बराबर हैं



इन गीत पंक्तियों मंे चार पैर समाजवादी संस्कृति के प्रतीक हैं तथा दो पैर पंूजीवादी संस्कृति केे। हमारे जनपद मंे एक किस्सा मशहूर है कि सोवियत के जमाने मंे एक कामरेड लेखक थे। उनके पुत्र अभियंता बनने रूस भेजे गए, पांच साल के बाद वे अखरोट व्यापारी बनकर भारत लौटे। कहते हैं, 1992 के बाद हिन्दी के अनेक कामरेड लेखकों बुद्धिजीवियों का यही धंधा अमेरिका के साथ आरंभ हुआ है। अंततः यह बाजार का युग है जिसे लेखक-कलाकार सुविधा के लिए डंडीमार विचार का युग कहते हैं। जनता के सरोकार से कटकर कोई संस्कृति आमूल रूपांतर की दिशा में नहीं जाएगी।

अकादमिक संसार में सरोकार

रामाज्ञा शशिधर

  •  तीसरी दुनिया का अकादमिक संसार पक्के तौर पर राजनीतिकतंत्र का हिस्सा है और प्रायः सभी मामलों मे अकादमिक नियुक्तियां पूरी तौर पर राजनीतिक नियुक्तियां होती हैं।
                                                                                                                                           - एडवर्ड सईद
  •  भारतीय विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग सबसे ज्यादा दकियानूस और प्रतिक्रियावादी विचारों के गढ़ हैं।                                                                                                                         - नामवर सिंह
हिंदी भवन,बी.एच.यू. में कोशी बाढ़ -२००८ की त्रासदी पर बहस 

प्रतिबद्धता का मतलब खास तरह के मूल्य, कार्य, और वस्तु से ईमानदारीपूर्वक बंधना है। प्रतिबद्धता वस्तुआंें से इस तरह बंधना है कि उसके भीतरी और बाहरी बदलाव में अपनी भीतरी और बाहरी क्रियाशीलता का दखल हो सके। प्रतिबद्धता मनुष्य का निजी वैयक्त्तिक मूल्य है जो नैतिकता, वफादारी, सरोकार और लगाव के मिले जुले रसायन से निर्मित होता है। प्रतिबद्धता व्यक्ति के ल़क्ष्य, उद्देश्य या साध्य की साधना के लिए निर्मित तार्किक अस्था है। प्रतिबद्धता हरेक से ऐसी बद्धता है जिससे दोनांे की मुक्ति, स्वतंत्रता, निर्माण और विकास की क्रांतिकारी दिशा और दूरी तय हो सके। बाबा नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता मैं प्रतिबद्ध हूं की पंक्त्तियों से जन बुद्धिजीवी, जन संगठन और जन संस्थान की प्रतिबद्धता के दायरे को आसानी से परखा जा सकता हैः

प्रतिबद्ध हूं, जी हां प्रतिबद्ध हूं
बहुजन समाज की
अनुपल प्रगति के निमित्त
संकुचित स्व की आपाधापी
के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की
भेड़िया-धसान के खिलाफ
अंध बधिर व्यक्तियांे को
सही राह बतलाने के लिए
अपने आप को भी व्यामोह,
से बारंबार उबारने के लिए
प्रतिबद्ध हूं
जी हां शतधा प्रतिबद्ध हूं
प्रतिबद्धता का एक रूप शासक संरचना से आबद्ध और संबद्ध हो सकता है तो दूसरा रूप जनपक्षधरता से। अकादमिक संसार से जुड़े बुद्धिजीवियों की प्रतिबद्धता के भी दो रूप होते हैं। अकादमिक संसार की प्रतिबद्धता का कार्य पुराने ज्ञान का नए समय संदर्भ मंे विश्लेषण करना, नए ज्ञान की खोज करना और इन दोनों से व्यापक समाज में स्वतंत्रता, जनतांंित्रकता तथा नई मनुष्यता तैयार करना होना चाहिए। अकादमिक बुद्धिजीवियों की प्रतिबद्धता समाज में पीछे हो गए मनुष्यांें की अनुपल प्रगति से जुड़ी होनी चाहिए, संकुचित स्व और अविवेकी भीड़ की भेड़िया धसान की चेतना के विरूद्ध होनी चाहिए, जाति, वर्ग, समाज, लिंग, धर्म, सम्प्रदाय जैसी विभाजनकारी चेतना से मुक्ति से लैस होनी चाहिए। दुर्भाग्य से अकादमिक संसार भारतीय समाज में अपनी यह महान भूमिका निभाने में अनेक मोर्चों पर विफल रहा है। स्वतंत्रता के बाद और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के साथ अकादमिक संसार की प्रतिबद्धता जनता की अदालत में संदेहशील, दकियानूस, समस्याविमुख और शासनवर्ग की सेवकाई करने वाली रही है। गहरे अर्थो में स्वतंत्रता के बाद अकादमिक बुद्धिजीवियों के लिए जहां सरकार ही सरोकार थी वहां भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के साथ उनके लिए बाजार ही सरोकार है। अप्रतिबद्धता ही प्रतिबद्धता है।
            आजादी के बाद भारतीय विश्वविद्यालयों के नए और पुराने दोनों ढांचों का इस्तेमाल शासक वर्ग ने अपनी विचारधारा और सत्ता वर्चस्व को बनाए रखने के लिए किया। शिक्षकों की एक ऐसी जमात तैयार की गई जो शासक वर्ग की यथास्थितिवादी विचारधारा को लागू करने के लिए जी जान से लग गई। फिलहाल विज्ञान-प्रौद्योगिकी के प्रति प्रतिबद्धता को इसलिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि नौकरशाही की गिरफ्त मंें इस क्षेत्र का चक्का ऐसा धंसा कि कालांतर में सूई से लेकर जहाज तक की खोज का सा्रेत हिन्दू-पुराणों में ढूंढ़ा जाने लगा। अर्थशास्त्र मिश्रित अर्थव्यवस्था की सेविकाई करता रहा और प्रबंधशास्त्र बाजार की। ऐसी स्थिति में मानविकी और समाज विज्ञान जैसे अनुशासनों से प्रतिबद्धता की मांग की जानी चाहिए जिनका सीधा और मूलगामी संबंध जनपक्षधरता, स्वतंत्रता और मानवीय सरोकार से रहा है। आजादी के ठीक बाद देश के एक पुरातन केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में नियुक्ति संबंधी प्रतिबद्धता की लोकचर्चा सुनिए।
            विदेशी छात्रों को हिंदी पढ़ाने के लिए शि़क्षक नियुक्ति होनी थी। चयन बोर्ड में दिल्ली विश्वविद्यालय के रीतिकालीन महान आाचार्य विशेषज्ञ आए हुए थे। तत्कालीन विभागाध्यक्ष को अपने प्रिय शिष्य की नियुक्ति करवानी थी। रीतिकालीन आचार्य ने आवेदक से प्रश्न किया कि यदि विदेशी छात्रांे को प्रेमचंद की कहानी ठाकुर का कुआं समझाना हो तो आप इस भाव का अनुवाद कैसे करेंगे कि ठाकुर साहब अपनी मूंछ पर ऊंगलियां फेरते हुए गंगी के सामने ताव दिखाते हैं। बेचारा आवेदक जो पहले कपड़े की दुकान में सेल्समेन था और अब गुरु की कृपा से विदेशियों को हिंदी सिखाने का सपना देख रहा था, साक्षात्कार के चक्रव्यूह में बुरी तरह फंस गया। गुरु को लगा कि चेला अब गया। गुरु विभागाध्यक्ष ने मोर्चे को थामते हुए कहा कि यह मंूछ बीच में कैसे आ गई। मूंछ तो इस बालक की अभी ठीक से निकली भी नहीं है। देख भई प्रोफेसर रीतिकाल, यहां न तेरी मंूछ न मेरी मूंछ। बात विदेशियों को हिंदी सिखाने की है और मुुझे विश्वास है कि ये संभाल लेगा। आवेदक को दंडवत प्रणाम का आदेश देकर साक्षात्कार कक्ष से तुरंत बाहर भेज दिया गया और नियुक्ति हो गई। दिलचस्प बात तो यह है कि ठाकुर का कुआं कहानी में ठाकुर साहब कहीं भी मूंछ फेरते हुए दिखते ही नहीं हैं। यह सच है कि अकादमिक खेत मे मूंछ की नई फसल रोपने के लिए दो पुरानी मूंछंे अंातरिक संगति और सहमति बैठा रही थीं। इस लोकचर्चा के बाद ठाकुर का कुआं कहानी की इन पंक्तियों को देखिएः
                           बा्रह्मन देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहूजी एक के पांच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है। हम तो मर भी जाते हैं, तो कोई दुआर पर झांकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएं से पानी भरने देंगे?
                 अकादमिक बौद्धिकता के कुएं पर सार्वजनिक कब्जे की बात तो दूर उसमें से पानी पीने की व्यावहारिक इजाजत लम्बे समय तक जोखुओं और गंगियों कों नहीं मिलना अकादमिक संसार के शासकवर्गीय दकियानूस चरित्र का पर्दाफाश करता है। नियुक्ति की इस लोकचर्चा से कोई बातें स्पष्ट होती हैं। पहला तो यह कि शिक्षकों के लिए ज्ञान-विज्ञान की प्रतिबद्धता दोयम दर्जे की चीज है और सेवकवाद प्रथम दर्जे की। दूसरी बात कि अकादमिक संसार की तथाकथित स्वायत्तता प्रशासनिक मनमानेपन और भ्रष्टाचार का रूप आजादी के बाद से ही लेती रही। तीसरी बात यह कि ज्ञान की सामाजिक सत्ता से विश्वविद्यालयी सत्ता का कोई खास संबंध नहीं रहा। आजादी के बाद से लेकर भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के पहले तक भारतीय विश्वविद्यालयों मंे मौजूद अकादमिक तंत्र सामंती और पूंजीवादी संरचना के मेल से निर्मित अमौलिक, गैरसामाजिक, दकियानूस और शासकपोषित ज्ञान एवं चेतना के कारोबार में लगा रहा। यह हालत अकादमिक, प्रशासनिक और शिक्षक छात्र संबंध तीनों क्षेत्रों में दिखाई पड़ती है।
           एक अकादमिक बुद्धिजीवी से जिन प्रमुख क्षेत्रों में प्रतिबद्धता की मांग की जाती है, वे हैं अकादमिक क्षेत्र, शिक्षक छात्र संबंध का क्षेत्र तथा प्रशासनिक क्षेत्र। इन क्षेत्रों में प्रतिबद्ध भूमिका के लिए अकादमिक संस्थाओं की स्वायत्तता और बुद्धिजीवियों की स्वतंत्र बौद्धिक चेतना का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अकादमिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता के लिए शासक वर्गीय राजनीतिक, आर्थिक और विचारधारात्मक स्वायत्तता और स्वतंत्रता की जरूरत होती है। शासक वर्ग ने आजादी के बाद कुलपतियों, कुलाधिपतियों और कार्यकारिणी परिषद की नियुक्तयों का अधिकार क्षेत्र खुद के पास रख लिया, अर्थतंत्र के संचालन के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसी संस्था का गठन किया तथा विचारधारात्मक यथास्थितिवाद के लिए विश्वविद्यालयों की आंतरिक संरचना मंे अनेक छेद कर दिए। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के बाद तो इस क्षेत्र को पूर्णतः बाजार के लिए खोल दिया गया। परिणामतः ईमानदार बौद्धिकों की छोटी सी जमात लगातार हाशिए पर बनी रही और मुख्यधारा में सामंती पूंजीवादी मूल्यों की सेवकाई करनेवाली शक्तियां ऐसी फसल का निर्माण करती रही जहां से बड़ी संख्या में भ्रष्ट नौकरशाह और राजनीतिक कार्यकर्ता हासिल हुए।

           अकादमिक क्षेत्र में शिक्षकों के लिए पाठयक्रम निर्माण, पाठयक्रम का सार्थकतापूर्वक अध्यापन, गंभीर और मौलिक शोध तथा रचनात्मक सक्रियता मूल कार्य हैं। यहां प्रतिबद्धता की बड़ी और कड़ी जरूरत पड़ती है। मानविकी और समाज-विज्ञान जैसे अनुशासनों की ओर ध्यान देने पर ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता जिसे आजादी के बाद के अकादमिक क्षेत्रों की महान सांस्थानिक उपलब्धि कहा जा सके। हिंदी विभागों में जहां थोड़ी बहुत शोध आलोचना की उपलब्धि दिखाई पड़ती है वह निजी प्रयासों की देन है न कि सांस्थानिक अर्जन। यदि आलोचना के नाम पर केवल पदोन्नतिमूलक समीक्षा बने, शोधालेखों में कट एण्ड पेस्ट प्रणाली चले, पाठयक्रम भानुमती के पिटारे की तरह संबंधवाद के दायरे में फैलता जाए तथा ऐसे शिक्षकों का रूतबा और कैरियर ज्वार की तरह बढता़ रहे जो कक्षाओं से खाली और साधो संस्कृति के खिलाड़ी हों तो यह अकादमिक संसार के भविष्य के लिए आत्मघाती कदम है। आप इस वैचारिक बौद्धिक गतिविधि को क्या नाम देंगे जब प्रगतिशील साहित्यिक संगठनों से जुड़े पाठयक्रम संयोजक शिक्षक छह महीने की मेहनत के बावजूद एमए हिंदी के पाठयक्रम के विशेष पत्र में स्त्री अध्ययन और दलित अध्ययन को शामिल करना मुनासिब नहीं समझे। एक पाठयक्रम निर्माण समिति में मुझे संघर्ष कर इन पत्रों को शामिल करवाना पड़ा। यूजीसी की नई अकादमिक रूपरेखा के बाद विश्वविद्यालयों के भीतर और आसपास कुकुरमुत्ते की तरह शोधपत्रिकाएं उग आई हैं जिनके चेहरे पर कट एण्ड पेस्ट प्रणाली के शोधाक्षर तभी उगते हैं जब पेट में शोधार्थियों और शिक्षकों द्वारा गांधी छाप नोट का दाना डाला जाता है। समाज-विज्ञान की सारी महत्वपूर्ण पुस्तकें विश्वविद्यालय के बाहर के बौद्धिक संस्थानों से उत्पादित हो रही हैं।


               एक अध्यापक का सबसे बड़ा सरोकार अध्यापन है। अध्यापन और विषय से संबंधित ज्ञान की खोज के अतिरिक्त दूसरे सारे कार्य उसके लिए अकादमिक गतिविधि का विकल्प नहीं हो सकते। मानविकी और समाजविज्ञान जैसे विषयों को अकादमिक बुद्धिजीवियों ने न तो व्यापक जनपक्षधर बनाकर जनभाषा में अध्यापन का स्वरूप दिया और न ही चहारदीवारी की बाहरी दुनिया से जोड़ने का बहुआयामी प्रयास किया। न केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र बल्कि समाजविज्ञान और मानविकी के क्षेत्र भी औपनिवेशिक दासता की विचारधारा का शिकार रहे। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि ज्ञान विज्ञान के किसी क्षेत्र में भारतीय विश्वविद्यालय आज विश्व का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं।

              अकादमिक प्रतिबद्धता का क्षरण करने में न केवल सामंती मूल्यों की बड़ी भूमिका रही है बल्कि सांप्रदायिकता जैसी विभाजनकारी विचारधारा ने इस तंत्र को अपना नाभिक स्थल बना लिया है। पठन-पाठन और तमाम अकादमिक गतिविधियों के केन्द्र में जब धर्मनिरपेक्षता विरोधी, जातिवादी और पितृसत्तात्मक विचार काम करने लगे तब जनतांत्रिक बौद्धिक चिंतन और ज्ञान का संकट में होना लाजिमी है। बीएचयू जैसी महान संस्थाओं में जहां विष्णु नार्लिकर जैसे गणितज्ञ, डीडी कौसंबी जैसे गणितज्ञ चिंतक, शांति स्वरूप भटनागर जैसे वैज्ञानिक, वासुदेव शरण अग्रवाल जैसे इतिहासकार और रामचंद्र शुक्ल एवं हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्यकार ज्ञान निर्माण की आधारशिला बने तथा जहां के साहित्यिक उत्पाद शिवमंगल सिंह सुमन, जानकी वल्लभ शास्त्री, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पाण्डेय आदि रहे वहां भगवा संगठनों की शाखा का दिन रात पैरेड होते रहना इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि हमारा अकादमिक सरोकार किस तरह की चेतना निर्माण में संलग्न है।

                      प्रतिबद्धता का दूसरा रूप शिक्षक छात्र संबंधों में खोजा जाना चाहिए। शिक्षक छात्र के बीच अब ज्ञान दूसरी सीढ़ी पर है और अवसरवादिता पहली सीढ़ी पर। शिक्षक की प्रतिबद्धता ज्ञान के मूलगामी विस्तार से ज्यादा अपना प्रचार-प्रसार, निजी करोबार, और राजनीतिक व्यापार में सक्रिय है जहां छात्रों का उपयोग कच्चे ईंधन की तरह होता है। बेरोजगारी की मार से त्रस्त छात्र वर्ग की रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है तथा उसे गुरुभक्ति में ही ज्ञान क्रांति दिखाई पड़ने लगती है। अनेक विश्वविद्यालयों में चरणछुओ अभियान से ही विद्यार्थियों को ज्ञान वरदान मिल पाता। उत्तर आधुनिकता और मध्यकालीनता की घुलनशील छवि तब दिखाई पड़ती जब जिंस और मोबाइल से लैस छात्र गुरुजी का चरणस्पर्श करने के बदले उनके घुटने के हिस्से को छूते है और गुरूजी इसे भारतीय संस्कृति का विकास मानते हैं। विश्वविद्यालयों में पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं, प्रेक्षागृहों, संग्रहालयों के बदले मंदिरों मस्जिदों और गुरुद्वारों की सजावट पर ज्यादा ध्यान दिया जाए वहां जो बौद्धिक चिंतन होगा वह अनिवार्यतः समता स्वतंत्रता और जनतंत्रविरोधी होगा।

                  भूमंडलीकरण अभियान के बाद शासक वर्ग ने एक ओर अकादमिक तंत्र को बाजार के हवाले करना आरंभ किया, दूसरी ओर विश्वविद्यालय के भीतर छात्रों और शिक्षकों के संगठनों पर प्रत्यक्ष परोक्ष अनेकानेक शिकंजे कसे। परिणामतः पूरा विश्वविद्यालय तंत्र सचिवालय की तरह काम करने लगा है। एक ओर शिक्षकों और छात्रों की स्वाधीनता लगभग छिन गयी है, दूसरी ओर कुलपतियों की नियुक्ति तक में जाति, संबंध, पार्टी, अर्थ और गैरअकादमिक तत्व काम करने लगे हैं। विश्वविद्यालयों में लालफीताशाही और लाठीशाही का इतना बड़ा आतंक बढ़ता जा रहा है कि शिक्षकों-छात्रों के लिए भयहीन माहौल में अकादमिक गतिविधियां चलाना कठिन हो गया है। शिक्षकों के एक बड़े तबके की चिंता में पदोन्नति और समितियों की कुर्सियों पर पहुंचने की लालसा ने उसके सरोकार और संघर्ष को नूनी और दीमक मंे बदल दिया है। कार्यस्थलों में अकेला विश्वविद्यालय तंत्र है जहां कुंठा, द्वेष और घृणा के खौलते हुए सरसो तेल में सहकर्मी एक दूसरे को छानने तलने का सर्वाधिक उपक्रम करते रहते हैं। कुर्सियों पर बैठते ही कुंठा कुदाल में बदल जाती है, नकली सौहार्द्र्र गरदन मेें। तर्क और विवेक की खूबसरत दुनिया में जब बुद्धिजीवियों के बीच मनभेद, संबंधभेद, अवसरवादिताभेद और विचारभेद में कोई फर्क नहीं दिखे वहां ज्ञान की ऊष्मा भरी आमद की गुंजाइश कैसे हो सकती। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षक नियुक्ति का हाल यह है कि हिंदी साहित्य में पहले जहां भारतेन्दु युग, प्रेमचंद युग, चलते थे वहीं हिंदी विभागों को अब दामाद युग, पुत्र युग के नाम से पुकारा जाने लगा है। नियुक्तियों में अकादमिक गुणवत्ता की जगह जाति, अर्थ और संबंध को जब आधार बनाया जाए तब अकादमिक संसार से प्रतिबद्धता की उम्मीद कैसे की जा सकती है।

                  पश्चिमी दुनिया के विश्वविद्यालयों में क्लासिकल पूंजीवाद के चलते अकादमिक गुणवत्ता और प्रतिबद्धता बरकार है वहीं भारत जैसे देश मंे सामंती और सामा्रजी पूंजीवाद के घालमेल के कारण हमारा पूरा अकादमिक तंत्र गुणवत्ता विहीन ज्ञानक्षेत्र बन गया है। अकादमिक संसार में नए बौद्धिक सरोकार और मूलगामी ज्ञानात्मक उपलब्धियों के लिए हमें सबसे पहले भारतीय विश्वविद्यालयों में सामंतवाद के अवशेषों और औपनिवेशिक पूंजीवाद की दासता मूलक चेतना से आरपार की लड़ाई लड़नी होगी। निर्णायक सांस्कृतिक वैचारिक संघर्ष के बिना इस नैया का कोई दूसरा किनारा नहीं है।

17 अगस्त, 2010

गौसपुर में साम्राज्यवाद की कब्र है

एक गांव जो भावी क्रांति का थियेटर है
१६ अगस्त २०१०। गाजीपुर से लौटकर
यह है गौसपुर । गंगा और बेसो के दोआब पर पांव जमाये ।सिर्फ गंगा जमुनी संस्कृति का मेल नहीं । गंगा जमुना का एकाकार विलय । अंतर्वस्तु और रूप दोनों जल एवं लहर की   तरह । आप इसे घोषपुर कहें या गौतमपुर कह लें । अब यह गौस मियां का पुरबा ही कहलायेगा । अरबी का गौस और संस्कृत का पुर । भोजपुरिया हिंदी में आकर ठेठ गौसपुर हो गया। गौस  यानी फरमान ,नालिश । किस पर?हिंदुस्तान की सत्ता पर । किसकी ओर से ? हिन्दुस्तानी जनता की ओर से । कब ,क्यों और कैसे? तब जब वैदिकों की हिंसा और कर्मकांड से गौसपुर की जनता त्राहिमाम कर रही थी , तब जब फिरंगिया साम्राज्यवाद के शुरूआती नायक लार्ड कार्नवालिस ने यहाँ डेरा डाला था ,तब जब नील ,अफीम की उत्पादन चक्की में पिसकर आबादी पस्तहाल थी और अब जब नव साम्राज्य का पागल हाथी गौसपुरिया खेतों की मरियल फसलों को एक साथ चर-रौंद रहा है ।
बिहार और उत्तर प्रदेश के मुहाने पर गाजी मियाँ के गाजीपुर में औपनिवेशिक हिंदुस्तान के क्रूर कमांडर-इन -चीफ ,वफादार गवर्नर जनरल और स्थायी जमींदारी प्रथा के जन्मदाता लार्ड कार्नवालिस की कब्रगाह है.यानी पुराने साम्राज्यवाद की कब्र है।