परिकथा के युवा आलोचना विशेषांक के परिचर्चा स्तम्भ में छपित टिपण्णी यहाँ हाजिर है
29 अगस्त, 2011
यह हिन्दी आलोचना का हड़ताल युग है
साहित्य लेखन , अध्यापन, पत्रकारिता और एक्टिविज्म में सक्रिय. शिक्षा-एम्.फिल. जामिया मिल्लिया इस्लामिया तथा पी.एचडी.,जे.एन.यू.से.
समयांतर(मासिक दिल्ली) के प्रथम अंक से ७ साल तक संपादन सहयोग.इप्टा के लिए गीत लेखन.बिहार और दिल्ली जलेस में १५ साल सक्रिय .अभी किसी लेखक सगठन में नहीं.किसान आन्दोलन और हिंदी साहित्य पर विशेष अनुसन्धान.पुस्तकालय अभियान, साक्षरता अभियान और कापरेटिव किसान आन्दोलन के मंचों पर सक्रिय. . प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए कार्य. हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं हंस,कथादेश,नया ज्ञानोदय,वागर्थ,समयांतर,साक्षात्कार,आजकल,युद्धरत आम आदमी,हिंदुस्तान,राष्ट्रीय सहारा,हम दलित,प्रस्थान,पक्षधर,अभिनव कदम,बया आदि में रचनाएँ प्रकाशित.
किताबें प्रकाशित -1.बुरे समय में नींद 2.किसान आंदोलन की साहित्यिक ज़मीन 3.विशाल ब्लेड पर सोयी हुई लड़की 4.आंसू के अंगारे 5. संस्कृति का क्रन्तिकारी पहलू 6.बाढ़ और कविता 7.कबीर से उत्तर कबीर
फ़िलहाल बनारस के बुनकरों का अध्ययन.प्रतिबिम्ब और तानाबाना दो साहित्यिक मंचों का संचालन.
सम्प्रति: बीएचयू, हिंदी विभाग में वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर के पद पर अध्यापन.
साहित्य लेखन , अध्यापन, पत्रकारिता और एक्टिविज्म में सक्रिय. शिक्षा-एम्.फिल. जामिया मिल्लिया इस्लामिया तथा पी.एचडी.,जे.एन.यू.से.
समयांतर(मासिक दिल्ली) के प्रथम अंक से ७ साल तक संपादन सहयोग.इप्टा के लिए गीत लेखन.बिहार और दिल्ली जलेस में १५ साल सक्रिय .अभी किसी लेखक सगठन में नहीं.किसान आन्दोलन और हिंदी साहित्य पर विशेष अनुसन्धान.पुस्तकालय अभियान, साक्षरता अभियान और कापरेटिव किसान आन्दोलन के मंचों पर सक्रिय. . प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए कार्य. हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं हंस,कथादेश,नया ज्ञानोदय,वागर्थ,समयांतर,साक्षात्कार,आजकल,युद्धरत आम आदमी,हिंदुस्तान,राष्ट्रीय सहारा,हम दलित,प्रस्थान,पक्षधर,अभिनव कदम,बया आदि में रचनाएँ प्रकाशित.
किताबें प्रकाशित -1.बुरे समय में नींद 2.किसान आंदोलन की साहित्यिक ज़मीन 3.विशाल ब्लेड पर सोयी हुई लड़की 4.आंसू के अंगारे 5. संस्कृति का क्रन्तिकारी पहलू 6.बाढ़ और कविता 7.कबीर से उत्तर कबीर
फ़िलहाल बनारस के बुनकरों का अध्ययन.प्रतिबिम्ब और तानाबाना दो साहित्यिक मंचों का संचालन.
सम्प्रति: बीएचयू, हिंदी विभाग में वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर के पद पर अध्यापन.
05 अगस्त, 2011
अनुज लुगुन की कविता छद्म भाषिक अभिजात का सतही कौतुक नहीं रचती:उदय प्रकाश
निर्णायक सुविख्यात कवि एवं कथाकार उदय प्रकाश की अनुज लुगुन के कविता चयन पर वस्तुनिष्ठ टिप्पणी:
उलगुलान‘ किसी अन्य अस्मिता की किसी विजातीय भाषा के शब्दकोश से आयातित एक अटपटा-सा लगने वाला कोई शब्द भर नहीं है, जिसकी आनुप्रासिक ध्वन्यात्मकता किसी प्रगीत-काव्य के लिए उपयुक्त हो और यह हिंदी की सवर्ण-नागर कविता के छंद-प्रबंध और उसके ऐंद्रिक-मानसिक आस्वाद की किसी शातिर सांस्कृतिक परियोजना में खप कर निरर्थक हो जाए और अपना ऐतिहासिक-मानवीय संदर्भ खो डाले। ‘अघोषित उलगुलान’ में इतिहास और सामुदायिक स्मृति की गहरी, उद्वेलनकारी, बेचैन-खंडित स्वप्नों और अनिर्णीत आकांक्षाओं की उथल-पुथल से भरी एक ऐसी अनुगूंज है, जिसे आजादी के बाद की हिंदी कविता में पहली बार इतनी सघनता और तीव्रता के साथ युवा कवि अनुज लुगुन की कई कविताओं में लगातार सुना-पढ़ा जा रहा है।
अनुज लुगुन की कविता ‘अघोषित उलगुलान’ उन्नीसवीं सदी के ब्रिटिश राज के उत्पीड़न और गुलामी से अपनी मुक्ति और ‘अबुआ दिसूम’ (स्वाधीनता) के लिए संघर्ष करते और बलिदान देते आदिवासियों के ऐतिहासिक महावृत्तांत की आजादी के 64 साल बाद भी विडंबनापूर्ण समकालीन निरंतरता को बहुत गहरी मार्मिकता, आलोचनात्मक विवेक और अंतर्दृष्टि के साथ व्यक्त करती है। कॉर्पोरेट पूंजी और नयी तकनीकी के आक्रामक साम्राज्य द्वारा अपदस्थ की जा चुकी लोकतांत्रिक और विचारधारात्मक राजनीति के पतन और विघटन के बाद, अपनी धरती, घर, जंगल और अपनी पहचान तक के लिए जूझते और आत्मरक्षा या प्रतिरोध के न्यूनतम प्रयत्नों के लिए भी अभूतपूर्व दमन और संहार झेलते आदिवासियों के कठिन जीवन अनुभवों को व्यक्त करने वाली यह कविता समकालीन हिंदी कविता की अब तक परिपोषित, पुरस्कृत और परिपुष्ट परंपरा में एक विक्षेप या प्रस्थान की तरह है। उस ओर प्रस्थान, जहां इतिहास की मुख्यधारा से बाहर, हाशिये में फेंक दी गईं जातियां, वर्ग, समुदाय और दबी-कुचली निरस्त्र अस्मिताएं समूचे प्राणपन के साथ अपने अस्तित्व और अधिकार के लिए जूझ रही हैं। कविता में उस दिशा की ओर प्रस्थान जहां हिंदी की समकालीन युवा कविता तत्सम की चतुर वक्रोक्तियों और दयनीय श्लेष या फारसी के अधपके-अधकचरे छद्म भाषिक अभिजात का सतही कौतुक नहीं रचती, बल्कि जहां कविता अपने समय और सभ्यता के गहरे अंतर्विरोधों और संकटों में फंसे सबसे वंचित और सत्ताहीन मनुष्यता के मूल अनुभवों की ओर जाती है। यह कविता की एक बार फिर अपनी जड़ों की ओर वापसी है, जहां से वह अपनी संरचनाओं और अभिव्यक्तियों के लिए एक नयी, जीवित, व्यवहृत और प्रासंगिक काव्य-भाषा हासिल करेगी। गहरे अनुभवजन्य आलोचनात्मक विवेक के साथ अनुज लुगुन की कविता इस जीवन के विरोधाभासी और द्वंद्वात्मक प्रसंगों और बिंबों को विरल सहजता के साथ अपने पाठ में विन्यस्त करती है और अपने समय के सत्य के बारे में एक ऐसा ऐतिहासिक वक्तव्य देती है, जिसे छुपाने और ढांकने के लिए भाषा के अन्य उद्यम, संसाधन और उपकरण पूरी ताकत और तकनीक के साथ वर्षों से लगे हैं। वह सच यह है कि किसी भी अस्मिताबहुल राज्य और समाज में स्वतंत्रता, विकास, अधिकार, संस्कृति, भाषा और कविता का कोई एकल, इकहरा, एकात्मक और इकतरफा रूप नहीं होता। कुछ की स्वतंत्रता, विकास और संस्कृति बहुतेरी वंचित अस्मिताओं के औपनिवेशीकरण, विनाश और उनके सांस्कृतिक उन्मूलन का जरिया बनती है।
अनुज लुगुन की कविता ‘अघोषित उलगुलान’ को वर्ष 2010 का प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार देते हुए मुझे गर्व और सार्थकता, दोनों की अनुभूति हो रही है।
पुरस्कृत कविता
अघोषित उलगुलान
अलसुबह दांडू का काफिला
रुख करता है शहर की ओर
और सांझ ढले वापस आता है
परिंदों के झुण्ड-सा
अजनबीयत लिये शुरू होता है दिन
और कटती है रात
अधूरे सनसनीखेज किस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन!
वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
जहर बुझे तीर से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आंच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल
शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल
लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ
गुफाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ
इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गये
रेमंड का सूट पहनने के बाद।
कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लवारिस लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता
बोलते हैं बोलने वाले
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
बोलते हैं लोग केवल
उनके धर्मांतरण पर
चिंता है उन्हें
उनके ‘हिंदू’ या ‘इसाई’ हो जाने की
यह चिंता नहीं कि
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलबे
और लोहे की ढेंकी में
कूटती है उनकी आत्मा
बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।
लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल।
दांडू जाए तो कहां जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में।
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में।
साहित्य लेखन , अध्यापन, पत्रकारिता और एक्टिविज्म में सक्रिय. शिक्षा-एम्.फिल. जामिया मिल्लिया इस्लामिया तथा पी.एचडी.,जे.एन.यू.से.
समयांतर(मासिक दिल्ली) के प्रथम अंक से ७ साल तक संपादन सहयोग.इप्टा के लिए गीत लेखन.बिहार और दिल्ली जलेस में १५ साल सक्रिय .अभी किसी लेखक सगठन में नहीं.किसान आन्दोलन और हिंदी साहित्य पर विशेष अनुसन्धान.पुस्तकालय अभियान, साक्षरता अभियान और कापरेटिव किसान आन्दोलन के मंचों पर सक्रिय. . प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए कार्य. हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं हंस,कथादेश,नया ज्ञानोदय,वागर्थ,समयांतर,साक्षात्कार,आजकल,युद्धरत आम आदमी,हिंदुस्तान,राष्ट्रीय सहारा,हम दलित,प्रस्थान,पक्षधर,अभिनव कदम,बया आदि में रचनाएँ प्रकाशित.
किताबें प्रकाशित -1.बुरे समय में नींद 2.किसान आंदोलन की साहित्यिक ज़मीन 3.विशाल ब्लेड पर सोयी हुई लड़की 4.आंसू के अंगारे 5. संस्कृति का क्रन्तिकारी पहलू 6.बाढ़ और कविता 7.कबीर से उत्तर कबीर
फ़िलहाल बनारस के बुनकरों का अध्ययन.प्रतिबिम्ब और तानाबाना दो साहित्यिक मंचों का संचालन.
सम्प्रति: बीएचयू, हिंदी विभाग में वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर के पद पर अध्यापन.
04 अगस्त, 2011
साक्षात्कार:आदिवासी समाज को खत्म करने की गहरी साजिश चल रही है
गुरू चेले चार यार:नीलेश,अनुज लुगुन,रामाज्ञा शशिधर,रविशंकर उपाध्याय |
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार-२०११ दिए जाने की घोषणा के बाद आदिवासी हिंदी कवि अनुज लुगुन से उनके कवि साथी रविशंकर उपाध्याय और समीक्षक नीलेश कुमार की बातचीत =
** भारतभूषण अग्रवाल सम्मान मिलने पर आपको ढेर सारी बधाइयाँ!
लुगुन: धन्यवाद!
**आप अपने परिवेश के बारे में बताएँ।
अ.लुगुन: मैं झारखण्ड के सिमडेगा जिले के जलडेगा गाँव से आता हूँ। मेरा गाँव सारण्डा जंगल के बीच है जो कि मुण्डा बहुल आदिवासी क्षेत्र है। वैसे तो मेरा परिवेश वही है जो ‘अघोषित उलगुलान’ में ‘दाण्डू’ का परिवेश है।
**आप पिछले 5 वर्षों से बनारस में रह रहे हैं, यहाँ के बारे में आप क्या सोचते हैं?
अ.लुगुन : बनारस की जमीन साहित्य के लिए उर्वर जमीन है। मेरे भीतर के काव्य-बीज को अंकुरित और पल्लवित होने में इस जमीन की महत्वपूर्ण भूमिका है। मैं बीएचयू, हिन्दी विभाग के अध्यापक, छात्र और शहर के बुद्धिजीवियों, लेखकों का शुक्रगुजार हूँ जिन्होंने मुझे बार-बार प्रोत्साहित कर मेरा उत्साहवर्द्धन किया है। वर्तमान समय में जो साहित्यिक वातावरण निर्मित हुआ है वह किसी भी नये रचनाकार के निर्माण में बेहतर आधार भूमि देने में सक्षम है।
** आदिवासी समाज की कौन-सी चीज आपको सबसे ज्यादा परेशान करती है?
अ.लुगुन:आदिवासी सी समाज को खत्म करने की जो गहरी साजिश चल रही है, वह मुझे बहुत परेशान करती है। उन्हें अपनी सांस्कृतिक चेतना से काटने का उपक्रम किया जा रहा है। यह आदिवासियों के विकास के नाम पर छद्म रचने जैसा है।
** आदिवासी आँख से आप राष्ट्र राज्य, आधुनिकता और विकास को किस रूप में देखते हैं?
अ.लुगुन: अभी तक राज्य द्वारा भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में इस समाज को उपेक्षा के नजरिए से देखा गया है। यह समाज हमेशा हाशिए पर रहा है और यह प्रक्रिया लगातार जारी है।
** सलवा जुडूम को आप किस रूप में देखते हैं?
लुगुन:यह जनविरोधी कार्य है। यह फासीवादी शक्तियों के द्वारा आदिवासी समाज को आपस में बाँटने और उनके संघर्षों की धार को कुंद करने की एक साजिश है।
**हिन्दी लेखकों, बुद्धिजीवियों का आदिवासी समाज के प्रति जो रवैया रहा है, उसके बारे में आपकी क्या राय है?
अ.लुगुन: हिन्दी के लेखकों, बुद्धिजीवियों ने कभी भी इस समाज को गौर से नहीं देखा है। हाशिए के समाज को हाशिए के रूप में देखे जाने का प्रचलन है। लेकिन मुझे लग रहा है कि इस और अब लोगों का ध्यान आकृष्ट होना प्रारम्भ हो गया है।
**आज की हिन्दी कविता में कितनी धाराएं दिखाई पड़ रही है?
अ.लुगुन: मुझे लगता है कि आज की कविता दो धाराएँ है। एक सत्ता विमर्श की और दूसरी व्यवस्था परिवर्तन की। पहली धारा में भाषाई कौशल और मध्यवर्गीय जीवन की कुण्ठा है तो दूसरी धारा वृहत्तर जन समुदाय के दुःखों और संघर्षों को अभिव्यक्ति दे रही है। हमें इसे दूसरी धारा को और सशक्त करने की जरूरत है।
**क्या हिन्दी कविता और समाज में शब्द और कर्म का फाँक है?
अ.लुगुन: हाँ! शब्द और कर्म में फाँक है। यदि ये नहीं होता तो, पूरे भारत में किसानों, मजदूरों, दलितों, स्त्रियों और आदिवासियों के द्वारा जो संघर्ष चलाए जा रहे हैं, उस संघर्ष की सार्थक परिणति हमें देखने को जरूर मिलती।
**आपकी नजर में हिन्दी कविता का भविष्य क्या है?
अ.लुगुन:हिन्दी कविता का भविष्य अच्छा है। गहरी वैचारिकी और जनपक्षधरता हिन्दी कविता के केन्द्र में सदा से रहा है। पूँजीवाद के गहरे दबाव के कारण थोड़े-बहुत परिवर्तन देखने को आ रहे हैं लेकिन मुझे लगता है कि हिन्दी कविता की मुख्यधारा अपनी मूल भावना के अनुरूप प्रतिरोध की चेतना को बनाये रखेगी।
साहित्य लेखन , अध्यापन, पत्रकारिता और एक्टिविज्म में सक्रिय. शिक्षा-एम्.फिल. जामिया मिल्लिया इस्लामिया तथा पी.एचडी.,जे.एन.यू.से.
समयांतर(मासिक दिल्ली) के प्रथम अंक से ७ साल तक संपादन सहयोग.इप्टा के लिए गीत लेखन.बिहार और दिल्ली जलेस में १५ साल सक्रिय .अभी किसी लेखक सगठन में नहीं.किसान आन्दोलन और हिंदी साहित्य पर विशेष अनुसन्धान.पुस्तकालय अभियान, साक्षरता अभियान और कापरेटिव किसान आन्दोलन के मंचों पर सक्रिय. . प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए कार्य. हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं हंस,कथादेश,नया ज्ञानोदय,वागर्थ,समयांतर,साक्षात्कार,आजकल,युद्धरत आम आदमी,हिंदुस्तान,राष्ट्रीय सहारा,हम दलित,प्रस्थान,पक्षधर,अभिनव कदम,बया आदि में रचनाएँ प्रकाशित.
किताबें प्रकाशित -1.बुरे समय में नींद 2.किसान आंदोलन की साहित्यिक ज़मीन 3.विशाल ब्लेड पर सोयी हुई लड़की 4.आंसू के अंगारे 5. संस्कृति का क्रन्तिकारी पहलू 6.बाढ़ और कविता 7.कबीर से उत्तर कबीर
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सम्प्रति: बीएचयू, हिंदी विभाग में वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर के पद पर अध्यापन.
03 अगस्त, 2011
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार का अनछुआ सच
३५ साल तक की आयु के लिए हिंदी कविता का महत्वपूर्ण सम्मान 'भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार-२०११ ' आदिवासी समाज के युवतर कवि अनुज लुगुन को उनकी कविता ‘अघोषित उलगुलान’ के लिए दिया जाएगा. कवि -कथाकार उदय प्रकाश ने इसका चयन किया है। यह कविता ‘प्रगतिशील वसुधा’ के अप्रैल-जून 2010 के अंक में प्रकाशित हुई थी. हर वर्ष किसी युवा कवि की श्रेष्ठ कविता पर मिलने वाले इस पुरस्कार के निर्णायक मंडल में अशोक वाजपेयी, अरुण कमल, उदय प्रकाश, अनामिका और पुरषोत्तम अग्रवाल हैं।
इस बार का पुरस्कार कई मायनो में अलग है.संभवत: अनुज पहला आदिवासी कवि है जिसे यह सम्मान मिलने की घोषणा हुई है.पिछले दिनों लगातार इस पुरस्कार की गिरती हुई साख और बढते हुए जुगाडतंत्र को लेकर इस पर सवालिया निशान लगते रहे हैं.अनुज सत्ता परिवर्तन के बरक्स व्यवस्था बदलाव के संभावनाशील कवि हैं.यह भाषाई कौशल,क्राफ्टगिरी,मध्यवर्गीय बहुवचनी छद्म,सत्ता विमर्श, प्रतिभाहीनता और साधो संस्कृति के विरुद्ध एक ऐसे कला मूल्य की स्वीकृति है जो बाजार,साम्राज्य और राज्य के जबड़े में गहरे फंसा है.यहाँ विशाल जनता का दुःख है,संघर्ष है,यातना है,प्रतिरोध है,स्वप्न है और है उसको पाने की अंतहीन जिजीविषा .हिंदी कविता का भविष्य इसी धारा से तय होगा .
बनारस इन दिनों नवजागरण से गुजर रहा है.दर्जनों छात्र और लेखक-शिक्षक कला और एक्टीविज्म को एक साथ जी रहे हैं.बीएचयू इसका मुख्य सेल्टर है.पिछले दिनों चाहे कृष्णमोहन के प्रमोद वर्मा युवा आलोचना सम्मान लेने का मसला हो,चाहे बिनायक सेन के मुद्दे पर प्रतिरोध अभियान का मसला हो,चाहे केदारनाथ सिंह से प्रमोद वर्मा संस्थान से अलग होने का मसला हो,चाहे साहित्य अकादेमी उपाध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के खिलाफ पाण्डुलिपि से जुड़ने के कारण परचा और घेराव अभियान हो या भोजपुरी अध्ययन केन्द्र में भाजपाई कलराज मिश्र को बुलाने का बायकाट अभियान हो, बी एच यू और हिंदी के छात्र- बुद्धिजीवी जन प्रतिरोध का नेतृत्व कर रहे हैं.
कविता की युगांतरकारी पुरानी प्रयोगशाला बनारस के बीएचयू के जबरदस्त साहित्यिक माहौल में अनुज लुगुन का निर्माण शुरू हुआ है जहाँ आधा दर्जन से अधिक छात्र कवि अभी हिंदी की मुख्य धारा में सक्रिय हैं.झारखण्ड के सिमडेगा जिले के जलडेगा पहानटोली गांव में जन्मे अनुज बेहद मितभासी ,सरल,एकांतपसंद और मिलनसार हैं.विकासात्मक आतंकवाद के माध्यम से राज्य द्वारा बर्बर तरीके से कुचले जा रहे आदिवासी समाज के वे सच्चे कवि हैं.
कविता की युगांतरकारी पुरानी प्रयोगशाला बनारस के बीएचयू के जबरदस्त साहित्यिक माहौल में अनुज लुगुन का निर्माण शुरू हुआ है जहाँ आधा दर्जन से अधिक छात्र कवि अभी हिंदी की मुख्य धारा में सक्रिय हैं.झारखण्ड के सिमडेगा जिले के जलडेगा पहानटोली गांव में जन्मे अनुज बेहद मितभासी ,सरल,एकांतपसंद और मिलनसार हैं.विकासात्मक आतंकवाद के माध्यम से राज्य द्वारा बर्बर तरीके से कुचले जा रहे आदिवासी समाज के वे सच्चे कवि हैं.
हिंदी विभाग की पत्रिका , प्रगतिशील वसुधा और समयांतर में उनकी कुछ कवितायेँ छप चुकी हैं.हिंदी के शोध छात्रों द्वारा बी एच यू में आयोजित राष्ट्रीय युवा कविता संगम-२०१० में लगभग ५० समकालीन कवियों के साथ कविता पाठ का उन्हें मौका मिला तथा पिछले माह दिल्ली में उनको कविता पाठ का मौका इंडिया हेबिटेट सेंटर में मिला.
समयांतर जैसी महत्वपूर्ण प्रतिबद्ध पत्रिका ने अनुज पर जून-२०११ में जरूरी लेख और कविता प्रकाशित की जो इस ब्लाग पर भी मौजूद है..बनारस में अनुज की लोकधर्मी व् अगिनधर्मी कविता के हजारों चाहने वाले हैं और हिंदी और आदिवासी समाज में कवि का ठीक से पहुंचना बाकी है.
बारूद के ढेर पर बैठी लुगुन की कविता यह सवाल करती है कि ऐसा क्यों है कि जब आदिवासी जनता का दुःख सत्ता और हिंदी बौद्धिकता द्वारा ज्यादा तिरस्कृत हो रहा है तब कविता में आया दुःख पुरस्कृत हो रहा है.कौन नहीं जानता कि हिंदी के दर्जनों लेखक,शिक्षक ,पत्रकार ,स्तंभकार ,छात्र तक सलवा जुडूम के भूतपूर्व संचालक की संस्था,पत्रिका ,पुरस्कार ,गोष्ठी,किताब में डोमाजी उस्ताद की तरह पालथी मार कर, लुगुन के पात्रों के दमन की चीख की अनसुनी कर जश्न मनाते रहे हैं.लुगुन की कविता का सम्मान उन सबका अपमान है जो आदिवासी समाज के जन संहार पर या तो खामोश हैं या उसके कारिंदों से दोस्ती गांठ कर अपनी आत्मा के दलाल बने हुए हैं.सवाल बाकी है कि अनुज का सम्मान वर्चस्व संस्कृति द्वारा जन संस्कृति की कंडीशनिंग का प्रयास साबित होगा या प्रतिरोधी संस्कृति की धार को तेज करने में हिंदी की कठमुल्ला बौद्धिकता का जनवादीकरण होगा.फ़िलहाल ५० करोड से बड़ी आबादी वाली हिंदी में कोई ग़दर नहीं है. और गदर्ची? और गद्दार?
अघोषित उलगुलान
अलसुबह दांडू का काफिला
रुख करता है शहर की ओर
और सांझ ढले वापस आता है
परिंदों के झुण्ड-सा
और सांझ ढले वापस आता है
परिंदों के झुण्ड-सा
अजनबीयत लिये शुरू होता है दिन
और कटती है रात
अधूरे सनसनीखेज किस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
और कटती है रात
अधूरे सनसनीखेज किस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन!
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन!
वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
जहर बुझे तीर से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आंच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल
जहर बुझे तीर से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आंच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल
शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल
लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ
गुफाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल
लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ
गुफाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ
इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गये
रेमंड का सूट पहनने के बाद।
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गये
रेमंड का सूट पहनने के बाद।
कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लवारिस लाश पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लवारिस लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता
बोलते हैं बोलने वाले
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
बोलते हैं लोग केवल
उनके धर्मांतरण पर
उनके धर्मांतरण पर
चिंता है उन्हें
उनके ‘हिंदू’ या ‘इसाई’ हो जाने की
उनके ‘हिंदू’ या ‘इसाई’ हो जाने की
यह चिंता नहीं कि
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलबे
और लोहे की ढेंकी में
कूटती है उनकी आत्मा
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलबे
और लोहे की ढेंकी में
कूटती है उनकी आत्मा
बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।
लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल।
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल।
दांडू जाए तो कहां जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में।
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में।
निर्णायक उदय प्रकाश की कविता चयन पर टिपण्णी
उलगुलान‘ किसी अन्य अस्मिता की किसी विजातीय भाषा के शब्दकोश से आयातित एक अटपटा-सा लगने वाला कोई शब्द भर नहीं है, जिसकी आनुप्रासिक ध्वन्यात्मकता किसी प्रगीत-काव्य के लिए उपयुक्त हो और यह हिंदी की सवर्ण-नागर कविता के छंद-प्रबंध और उसके ऐंद्रिक-मानसिक आस्वाद की किसी शातिर सांस्कृतिक परियोजना में खप कर निरर्थक हो जाए और अपना ऐतिहासिक-मानवीय संदर्भ खो डाले। ‘अघोषित उलगुलान’ में इतिहास और सामुदायिक स्मृति की गहरी, उद्वेलनकारी, बेचैन-खंडित स्वप्नों और अनिर्णीत आकांक्षाओं की उथल-पुथल से भरी एक ऐसी अनुगूंज है, जिसे आजादी के बाद की हिंदी कविता में पहली बार इतनी सघनता और तीव्रता के साथ युवा कवि अनुज लुगुन की कई कविताओं में लगातार सुना-पढ़ा जा रहा है।
अनुज लुगुन की कविता ‘अघोषित उलगुलान’ उन्नीसवीं सदी के ब्रिटिश राज के उत्पीड़न और गुलामी से अपनी मुक्ति और ‘अबुआ दिसूम’ (स्वाधीनता) के लिए संघर्ष करते और बलिदान देते आदिवासियों के ऐतिहासिक महावृत्तांत की आजादी के 64 साल बाद भी विडंबनापूर्ण समकालीन निरंतरता को बहुत गहरी मार्मिकता, आलोचनात्मक विवेक और अंतर्दृष्टि के साथ व्यक्त करती है। कॉर्पोरेट पूंजी और नयी तकनीकी के आक्रामक साम्राज्य द्वारा अपदस्थ की जा चुकी लोकतांत्रिक और विचारधारात्मक राजनीति के पतन और विघटन के बाद, अपनी धरती, घर, जंगल और अपनी पहचान तक के लिए जूझते और आत्मरक्षा या प्रतिरोध के न्यूनतम प्रयत्नों के लिए भी अभूतपूर्व दमन और संहार झेलते आदिवासियों के कठिन जीवन अनुभवों को व्यक्त करने वाली यह कविता समकालीन हिंदी कविता की अब तक परिपोषित, पुरस्कृत और परिपुष्ट परंपरा में एक विक्षेप या प्रस्थान की तरह है। उस ओर प्रस्थान, जहां इतिहास की मुख्यधारा से बाहर, हाशिये में फेंक दी गईं जातियां, वर्ग, समुदाय और दबी-कुचली निरस्त्र अस्मिताएं समूचे प्राणपन के साथ अपने अस्तित्व और अधिकार के लिए जूझ रही हैं। कविता में उस दिशा की ओर प्रस्थान जहां हिंदी की समकालीन युवा कविता तत्सम की चतुर वक्रोक्तियों और दयनीय श्लेष या फारसी के अधपके-अधकचरे छद्म भाषिक अभिजात का सतही कौतुक नहीं रचती, बल्कि जहां कविता अपने समय और सभ्यता के गहरे अंतर्विरोधों और संकटों में फंसे सबसे वंचित और सत्ताहीन मनुष्यता के मूल अनुभवों की ओर जाती है। यह कविता की एक बार फिर अपनी जड़ों की ओर वापसी है, जहां से वह अपनी संरचनाओं और अभिव्यक्तियों के लिए एक नयी, जीवित, व्यवहृत और प्रासंगिक काव्य-भाषा हासिल करेगी। गहरे अनुभवजन्य आलोचनात्मक विवेक के साथ अनुज लुगुन की कविता इस जीवन के विरोधाभासी और द्वंद्वात्मक प्रसंगों और बिंबों को विरल सहजता के साथ अपने पाठ में विन्यस्त करती है और अपने समय के सत्य के बारे में एक ऐसा ऐतिहासिक वक्तव्य देती है, जिसे छुपाने और ढांकने के लिए भाषा के अन्य उद्यम, संसाधन और उपकरण पूरी ताकत और तकनीक के साथ वर्षों से लगे हैं। वह सच यह है कि किसी भी अस्मिताबहुल राज्य और समाज में स्वतंत्रता, विकास, अधिकार, संस्कृति, भाषा और कविता का कोई एकल, इकहरा, एकात्मक और इकतरफा रूप नहीं होता। कुछ की स्वतंत्रता, विकास और संस्कृति बहुतेरी वंचित अस्मिताओं के औपनिवेशीकरण, विनाश और उनके सांस्कृतिक उन्मूलन का जरिया बनती है।
अनुज लुगुन की कविता ‘अघोषित उलगुलान’ को वर्ष 2010 का प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार देते हुए मुझे गर्व और सार्थकता, दोनों की अनुभूति हो रही है।
एक कविता और
यह पलाश के फूलने का समय है
जंगल में कोयल कूक रही है
जाम की डालियों पर
पपीहे छुआ-छुई खेल रहे हैं
गिलहरियों की धमाचौकड़ी
पंडुकों की नींद तोड़ रही है
यह पलाश के फूलने का समय है।
यह पलाश के फूलने का समय है
उनके जूड़े में खोंसी हुई है
सखुए की टहनी
कानों में सरहुल की बाली
अखाड़े में इतराती हुई वे
किसी भी जवान मर्द से कह सकती हैं
अपने लिए एक दोना
हड़ियाँ का रस बचाए रखने के लिए
यह पलाश के फूलने का समय है।
यह पलाश के फूलने का समय है
उछलती हुईं वे
गोबर लीप रही हैं
उनका मन सिर पर ढोए
चुएँ के पानी की तरह छलक रहा है
सरना में पूजा के लिए
साखू के पत्ते परबांस के तिनके नचा रही हैं
यह पलाश के फूलने का समय है।
(2)
यह पलाश के फूलने का समय है
रेत पर बने बच्चों के घरौन्दों से
उठ रहा है धुआँ
हवाओं में घुल रही है बारूद
चट्टानों से रिसते पानी पर
सूरज की चमक लाल है और
जंगल की पगडंडियों में दिखाई पड़ता है दाँतेवाड़ा
यह पलाश के फूलने का समय है।
यह पलाश के फूलने का समय है
नियमागिरि से निकले नदी के तट पर
केन्दू पक कर लाल है
हट चुकी है मकड़े की जाली
गुफाओं को खबर है
खदानों में वेदान्ता का विज्ञापन टँगा है
साखू के सागर
सारण्डा की लहरों में
बिछ गई हैं बारूदी सुरंगें
हर दस्तक का रंग यहाँ लाल है
यह पलाश के फूलने का रामय है।
दूर-दूर तक
जंगल का हर कोना पलाश है
साखू पलाश है
केन्दू पलाश है
सागवान पलाश है
पलाश आग है
आग पलाश है
जंगल में पलाश के फूल को देख
आप भ्रमित हो सकते हैं कि
जंगल जल रहा है
जंगल में जलते आग को देख
आप कतई न समझें पलाश फूल रहा है
यह पलाश के फूलने का समय है और
जंगल जल रहा है।
साहित्य लेखन , अध्यापन, पत्रकारिता और एक्टिविज्म में सक्रिय. शिक्षा-एम्.फिल. जामिया मिल्लिया इस्लामिया तथा पी.एचडी.,जे.एन.यू.से.
समयांतर(मासिक दिल्ली) के प्रथम अंक से ७ साल तक संपादन सहयोग.इप्टा के लिए गीत लेखन.बिहार और दिल्ली जलेस में १५ साल सक्रिय .अभी किसी लेखक सगठन में नहीं.किसान आन्दोलन और हिंदी साहित्य पर विशेष अनुसन्धान.पुस्तकालय अभियान, साक्षरता अभियान और कापरेटिव किसान आन्दोलन के मंचों पर सक्रिय. . प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए कार्य. हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं हंस,कथादेश,नया ज्ञानोदय,वागर्थ,समयांतर,साक्षात्कार,आजकल,युद्धरत आम आदमी,हिंदुस्तान,राष्ट्रीय सहारा,हम दलित,प्रस्थान,पक्षधर,अभिनव कदम,बया आदि में रचनाएँ प्रकाशित.
किताबें प्रकाशित -1.बुरे समय में नींद 2.किसान आंदोलन की साहित्यिक ज़मीन 3.विशाल ब्लेड पर सोयी हुई लड़की 4.आंसू के अंगारे 5. संस्कृति का क्रन्तिकारी पहलू 6.बाढ़ और कविता 7.कबीर से उत्तर कबीर
फ़िलहाल बनारस के बुनकरों का अध्ययन.प्रतिबिम्ब और तानाबाना दो साहित्यिक मंचों का संचालन.
सम्प्रति: बीएचयू, हिंदी विभाग में वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर के पद पर अध्यापन.
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