दूरदर्शन और द पब्लिक एजेंडा (१-१५ मार्च २०१२)से साभार
एक तरह से ये दलित वर्ग से आते हैं। उस समाज के अनुभवों और उससे मिली आलोचनात्मक दृष्टि के चलते भी उनकी कविता में विविधता आयी है। इन्होंने किसिम किसिम की कविताएं लिखी हैं। छंद के प्रयोग किये हैं। बिना छंद भी लिखा है।
लोकगीत की शैली में लिखा है।शशिधर बहुत ही साफ़-सुथरी भाषा लिखते हैं, जो बोलचाल की भाषा होती है। संस्कृताऊ नहीं। कई तरह के प्रयोग इन्होंने किये हैं। और कभी-कभी फैंटेसी में जाते हैं। बल्कि "बुरे समय में नींद' फैंटेसी जैसी कविता है। थोड़ी लंबी है वह। कुछ इस तरह शुरू होती है
कविता- "इस बुरे समय में
देर अबेर आती है नींद
नींद के साथ ही शुरू होता है सपना।
अंत में कहते हैं-
यह कैसा सपना है
जिसमे कभी मुर्गे नहीं देते बांग
गंगनहौनी' -क्या बढ़िया शब्द इस्तेमाल किया है!-
"गंगनहौनी नहीं गाती बटगीत
रात चलती है चांद की लाश कंधे पर उठाये।'
कहीं कहीं जब वे फैंटेसी में उड़ते हैं, तो मुक्तिबोध वाला जो रंग है, वह दिखाई देता है।
उनकी एक छंदबद्ध कविता है, "बदलो जी'
कुछ इस तरह - "बदलो जी, बदलो जी
पोखर के पानी को
सड़ी हुई छानी को
बासी कहानी को
बदलो जी बदलो जी
जंग खाई रांपी को
लग्गे की नापी को
नागरिक की कापी को
बदलो जी बदलो जी
ताले की चाबी को
धमकी को दाबी को
झूठी कामयाबी को
बदलो जी बदलो जी
बोरसी की आग को
दिल और दिमाग को
घिसे-पिटे राग को
बदलो जी बदलो जी।'
एक कविता इनकी है रजाई पर। शायद ही किसी को रजाई पर कविता लिखने की बात सूझी हो।
कभी कभी सांस्कृतिक विषयों पर लिखते हैं। कदलीपत्रम कविता है, बासमती गीत है, छठ का पूआ है।
पुस्तक दो खंडों में बटी है- सामने घाट और सिमरिया घाट। सिमरिया घाट की कविताओं में अपनापन ज्यादा है। उसका छंद, उसकी भाषा भी अलग है।
सामने घाट वाली कविताओं में देखें- बनारस के बुनकर मशहूर हैं, बनारस के बुनकरों द्वारा शिल्प बुना जाता है, बाकी कबीर की परंपरा में जुलाहे भी हैं। तो बुनकरों पर लिखा है इन्होंने। एक कविता इस संग्रह में नया आपातकाल है। बुद्धिजीवियों के खिलाफ लिखा है इन्होंने। धूमिल की तरह ये भी बुद्धिजीवियों के कुछ ज्यादा ही विरोधी मालूम होते हैं। तो विविधता इतनी है इनमें।
समाज के विभिन्न तबकों के संघर्षों में साझीदारी और उससे मिली आलोचनात्मक दृष्टि के चलते भी विविधता आयी है इनमें। ठीक कहा कि ये एक एक्टिविस्ट की कविताएं हैं।
रेडियो पर भजन प्रसारित होता है, इस पर भी एक कविता है। भूख पर कविता बहुत अच्छी है। चार रंग भूख के दिखाये हैं। "मुंडेर पर कौआ'। "परमिट कोटा' पर भी लिखा है उन्होंने। एक कविता भाषा पर भी इनकी है। एक विचित्र शीर्षक है "चुंबन झाग'। तो चुंबन झाग है। खरबूजे पर भी लिखी है कविता। नाव पर भी एक जर्जर नैया है। यानी इनकी दुनिया एक बहुत बड़ी दुनिया है। भरीपूरी दुनिया है। और उस दुनिया में ये इंवॉल्व हैं। उन चीजों को डूबकर देखना और साथ ही टिपण्णी करते समय तटस्थ होकर बेबाकी से टिप्पणी करना। रामाज्ञा शशिधर की कविता में जो धार है, मैं कहूंगा कि वह धूमिल वाली परंपरा में है जो एक अरसे बाद मुझे दिखी है।
कुल मिलाकर बदलाव पर जोर है कि बदलो। जबकि आजकल आम तौर से लोग यथास्थिति के पक्ष में हैं। इस तरह कविता कि दुनिया में लगभग एक नयी आवाज ने पहचान बनायी है। मेरा खयाल है कि इस पर कवियों का भी ध्यान जाना चाहिए और पाठकों का भी।
2 टिप्पणियां:
भाई रामाज्ञा जी के बहुचर्चित काव्य संग्रह 'बुरे समय में नींद' पर हमारे वक्त के मूर्धन्य आलोचक नामवर सिंह जी ने बेहद सटीक टिप्पणी की है. ...लेकिन मुझे लगता है कि धूमिल की परम्परा का कवि बताकर नामवर जी ने भाई रामाज्ञा जी के सामने एक चुनौती भी पेश की है. हाँ, मेरी जानकारी में कई साल पहले नामवर जी ने मेरे बेहद आत्मीय संजय कुंदन जी के काव्य संग्रह 'काग़ज़ के प्रदेश में' की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए सार्वजनिक मंच से कुछ ऐसी ही टिप्पणी की थी और उन्हें भी धूमिल की परम्परा का कवि बताया था. संभव हो, आदरणीय नामवर जी अपनी सोच के प्रति ईमानदार हों...लेकिन क्यूंकि धूमिल की परम्परा बहुत अच्छी नहीं मानी जाती हिंदी समाज में इसलिए भाई रामाज्ञा जी नामवर जी की इस टिप्पणी को संजीदगी से लें. मेरी शुभकामनाएं उनके साथ हैं. शुक्रिया. - शशिकांत
नामवर जी की टिपण्णी अपने आप में एक बहुत बड़ा certificate है शशिधर जी के लिए | गंगनाहोनी जैसे देशज शब्दों के प्रयोग में माहिर है शशिधर जी | थोड़े आलसी हैं लिखते कम हैं | मेरी तरफ से हार्दिक बधाई |
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