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31 दिसंबर, 2017

अलविदा मंडीमार 17! स्वागत डंडीमार 18!

रामाज्ञा शशिधर

♨♨♨♨♨
मेरे लिए यह चुनना बेहद मुश्किल है कि हमारे समय को भाप के इंजिन ने ज्यादा प्रभावित किया या घन्टे मिनट सेकेंड बतानेवाली घड़ी के आविष्कार ने।अंततः
घड़ी इंजिन पर भारी हुई।2017 को  अलविदा और 2018 को वेलकम कहना घड़ी की जीत है।मुझे नहीं मालूम मुर्गे के गले में सूरज रखने वाली सभ्यता किस
तरह वर्ष के अंत और आरंभ के साथ व्यवहार करती होगी लेकिन अब की अदा तो ऐसी है।
       तो 17 को नंबर 1 से देखिए तो आपका  मन ख़ुशी से भरा दिखेगा।कहीं नदी तालाब पार्क माल घाट में कोहरा लिपटा गरीबों का गोआ तो कहीं सचमुच का सी सन सैंड स्किन फिश बियर के वेव पर सवार अपर मिड्ल क्लास और अमीरों का गोआ।अगर नंबर 7 की ओर से यादों में लौटिए तो दुःख,घृणा,यातना,हिंसा,मक्कारी,लिंचिंग,ट्रोलिंग,गुलामी,झूठ,पाखंड,अवसाद से भरा हुआ घड़ी का सूई नाच।इसका मतलब है 1 और 7 दोनों दो कोण हैं समय के।और कोण के बदलते ही समय की व्याख्या
बदल जाती है।यह है 17 के यूटोपिया से नॉस्टेल्जिया तक की यात्रा।नॉस्टेल्जिया हमेशा से पीड़ा के पंख पर सवार रहता है लेकिन यूटोपिया इतना डरावना कम ही होता है जैसा 17 का था।मेरे लिए तो 18 में कोई सांस्कृतिक और सामाजिक मुक्ति की उम्मीद कम ही दिखती है।
            मीडिया ने चेतना का पूर्णतः मंडीकरण कर दिया है।अब सोशल मीडिया हर तरह के गुंडों की सबसे बड़ी शरणस्थली है।वहां फेक ट्रॉल्स फरेब वेबफ़ा सेल्फ़ी सोल का घड़ी के सेकेण्ड के 60 वें हिस्से में सेलिब्रेशन चलता रहता है।हर आईपी और आईडी में छुपा हुआ चित्र धोखा हो सकता है।यानी जिसे केटरीना समझ रहे हैं वह 69 का फोसला हो सकता है।जिसे राम समझ रहे हैं वह रावण का एजेंट हो सकता है।साधू के वेश में गोश्तखोर  और आशिक के वेश में सीरियल किलर।...यानी जिससे आप फोन पर रोज सुनते हैं- आपकी बातें मीठी लगती  हैं -वह जापानी व्हाइट नहीं मुहल्ले के दुश्मन लंठराम की पॉलिटिकल विपन मिस झरियारानी हो सकती है।केप्सकम में बेबीकार्न चिल्ली पर जिसने आपके मैसेंजर या व्हाट्सअप या अकाउंट बॉक्स में न्योता दिया है वह सात समंदर पार ब्राजील के एक पिछड़े इलाके का हैकर है जो आपकी डिग्री फीस या इलाज का एकाउंट ट्रीट देने से पहले उड़ा चुका है।याद रखिए आप एक कैशलेस राष्ट्र के सुपर सिटीजन लगभग होने वाले हैं और विद्युत चुम्बकीय  वेव्हॉर्स पर सवार हैं।
        मेरे लिए वर्ष 17 घर बदलने और खुद को आत्मोन्मुख बनाने का साल रहा।मुझे हर कीमत पर अनुभव और शब्द की नई दुनिया रोमांच और रोमांस के जीवद्रव्य से भर देती है।साल 17 ने एक ऐसा ज्ञान चबूतरा विकसित करने का मौका दिया जो एक साथ रीयल और वर्चुअल दोनों है।जब लोग पत्थर चलाते हैं बरगद आसमान में जड़ और सर सहित  अपलिफ्ट हो जाता है।जब जिज्ञासु उसे पारदर्शी मन से खोजते वह हाज़िर हो जाता है।यानी मालवीय चबूतरा और दर्जन से अधिक ज्ञान विमर्श।17 ने मुझे 7 चाय अड़ियों का बुद्धत्व दिया जिसकी जड़ें ईस्ट इंडिया टी कम्पनी तक जाती हैं।अस्सी ने  कुछ शब्दउपजाऊ अच्छे किसान साथी दिए जो किसी यूनिवर्सिटी के दमघोंटू बजरज्ञानी से लाख दर्जे कुशल सृजन मन हैं।इस बार के ग्रीष्म में हिमालय की बर्फानी और जीवन भरी यात्रा सम्भव हुई जिसकी छाप आत्मा तक पर उतर गई।अपने घर में DLRC लाइब्रेरी की स्थापना और मदन कश्यप की उपस्थति में ग्रीन टी सहित बुक शेल्फ का आरम्भ से मैं एकाएक एलिट और पढ़ाकू दिखने लगा।दिनकर व्याख्यान श्रृंखला की यह मात्र शुरुआत है।
             इसबार की दीवाली,छठ,गुरुपूर्णिमा,क्रिसमस, एलटीसी यात्रा,नव वर्ष सब माँ की सेवा में समर्पित रहा।माँ विद्रोह और मुक्ति की अग्निशिखा है।मौत भी कभी कभी उससे घबड़ाती है।चाहता हूँ कि वह दुनिया के नजारों को और जिए।
             17 ने मेरे छद्म वैरियों को समय के खेत में गाजरघास सा बना दिया।जो लाट थे काठ हो गए,जो वाचक थे पाठ हो गए जो तीस थे साठ हो गए जो मॉल थे घाट हो गए जो बर्गर थे चाट हो गए जो किंगचेयर थे खाट हो गए जो प्रिन्स थे भाट हो गए जो क्षत्रिय थे जाट हो गए जो मूँछ थे ♨ट हो गए जो मलबरी थे टाट हो गए जो महल थे बाट हो गए जो मेगामार्ट थे गौसपुर गाँव के हाट हो गए।
         17 में खेत की दलाली में मंदी रही और स्लेट की कालाबजारी में मगजमारी।
      17 को मैंने 1 और 7 दोनों रुखों से देखा। कल मैं रुक्खा गुरु के साथ था और कल मैं ह्मबोट गुरु के साथ होना चाहता हूँ।ये दोनों प्राकृत और पालि के हीरो हैं।अलविदा 17!स्वागत18!चबूतरे पर जब भी आता हूँ खनेजा दीवार क्लॉक में हमेशा 8 ही क्यों बजते हैं।यह तो ईश्वर को ही पता होगा जो आजकल समय की भरपूर गिरफ्त में है।

 


25 दिसंबर, 2017

सिमरिया घाट को धर्म का बाजार मत बनाइए

कुम्भ मेले पर की गई टिपण्णी:फेसबुक वाल से
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#सिमरिया एक धर्म धाम नहीं,नदी सभ्यता की धरा है!
😭😭😭😭😭😭😭😭😭😭😭😭😭😭😭😭
जिस मिट्टी और माँ के आँचल में मैं पैदा और बड़ा हुआ देखते देखते वह लालचियों के अभिनय का केंद्र हो गई।मैंने अपने बचपन में नानी और माँ के सहारे कल्पवास और जीवन का शुद्ध आध्यत्मिक रूप देखा था।किसानी,किंवदन्तियों,साहित्य कलाओं और लोक की यह धरती  धीरे धीरे बाबाओं और उनके लालची भक्तों के जबड़े में आती गई।खेत पहले कल्पवास में बदले और अब बिना सिमरिया से पूछे उसे सिमरिया धाम में बदल दिया गया।हर बात के लिए मिथक गढ़ा गया और मीडिया का दुरूपयोग हुआ।   सिमरिया और उसकी गंगा को आध्यत्म से चुनावी राजनीति और  बाजार का केंद्र बनाने वाले दिमाग हमारे समाज और संस्कृति के दुश्मन ही माने जाएंगे।वे ही आस्था को भीड़ में बदलने और उसकी मौत के जिम्मेदार हैं।दुर्भाग्य है कि वे कहीं शुद्ध बाबा बनकर खड़े हैं और अनेक बार नेता समाजसेवी पत्रकार एनजीओ संस्कृति रक्षक बनकर सक्रिय होते रहे हैं।हजारों साल से सीने पर एक किसानी सभ्यता और सरल शांत जीवन को पालती हुई एक नदी,खेत और गाँव को रौंदने की यह कहानी किसान,नदी और गाँव की हत्या करने वाले परजीवी वर्ग को दोषी करार देने वाले अफ़साने के रूप में लिखी जानी चाहिए।मैं व्यक्तिगत रूप से भीड़ में हुई मौतों से दुखी हूँ लेकिन उस आडम्बर और नियति  का क्या करूँ जो नदी की लाश पर ढोल इस लिए पीट रहे हैं कि कोई कोमल और प्रकृति प्रेमी उसकी कराह न सुन ले। फौरी सतही शब्द कारोबार को गहरे सरोकार में बदलते हुए शोर के भीतर की कराह और आह को सुने गुने और आगे बढ़कर हस्तक्षेप होना चाहिए।

22 दिसंबर, 2017

ग़ालिब और बनारस: चराग़े दैर

ब-खारित दारभ इंकि गुल-जमीने

बहार-आई सवाद-ए-दिल-नशीने

    मेरे ध्यान में फूलों से भरा एक नगर है जहाँ हर समय बसन्त ऋतु रहती है और यह एक अतिप्रिय नगर है।

कि मी-आयद व-दवा गाहे लाफश

         जहाँ आबाद उज बह-ए-तवाफश

    वह (बनारस) एक ऐसा नगर है कि दिल्ली को अब अपनी बड़ाई की डींग मारनी होती है तो वह इसकी परिक्रमा करने चली आती है।

         निगह रा दा ‘वा-ए-गुलशन अदाये

         अजाँ खुर्रम बहार-ए-आशनाये

    नजरें जब बनारस से दो चार होती हैं तो मित्रता की इस बहार से इतने दृश्य समेट लेती है कि स्वयं बसन्त होने का दावा करने लगती है।

         सुखन रा नाजिश-ए-मीनू कमाशी

         जगुल-बांग-ए-सताईश-हाय-ए काशी

    काशी की प्रशंसा से काव्य को स्वर्ग का गर्व प्राप्त हो जाता है।

         त’आल अल्लाह बनारस चश्म-ए-बद दूर

         बिहिश्त-एम-खुर्रम-फिरौंस-ए-मामूर

    बनारस एक हरा भरा सुन्दर स्वर्ग है। भगवान इसे बुरी नजरों से बचाये।

         बनारस रा कसे गुफ्ता कि चीनस्त

         हनोज उज गंग चीनश बर जबीनस्त

    किसी ने बनारस की प्रशंसा करते हुए कह दिया था कि बनारस चीन के समान सुन्दर है। तब से बनारस के माथे पर गंगा के रूप में त्यौरी पड़ी हुई है। (चीन अपनी चित्रशालाओं के लिए प्रसिद्ध है।)

         ब-खुश पुरकारी-ए-तर्ज-ए-वजूदश

         ज देहली भी-रसद हर दम दरुदश

    बनारस एक सुन्दर और मनमोहक चित्र है। दिल्ली हर समय इसकी उपासना करती रहती है।

         बनारस रा मगर दीदस्त दर ख्वाब

         कि मी-गदर्द ज नहरश-दर दहन आब

    शायद दिल्ली ने बनारस को स्वप्न में देख लिया है इसलिए दिल्ली के मुँह में पानी भर आया है और यह पानी नहर के रूप में बह रहा है।

         हसूदश गुफ्तन आईन-ए-अदब नेस्त

         वलेकिन गबतः गर बाशद’ अजब नेस्त

    यह कहना तो गलत होगा कि दिल्ली को बनारस से ईर्ष्या है। हाँ, अगर दिल्ली को बनारस जैसे बनने की इच्छा है तो इसमें आश्चर्य को कोई बात नहीं।

         तनासुख मुश्रबाँ चूँ लब कुशायंद

         ब-केश-ए-खेश काशी रा सतायंद

    आवागमन में विश्वास रखने वाले (हिन्दू) सदैव अपने धर्म के अनुसार काशी की उपासना और प्रशंसा करते हैं।

         कि हर कस कांदर्रों गुलशन ब-मीरद

         दिगर पेवन्द-ए-जिस्माने न गीरद

    जो व्यक्ति इस नगर (काशी) में मरता है वह दोबारा जन्म नहीं लेता। (उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है)

         चमन सरमायः एक-उम्मीद गर्दद

         ब-मुर्दन जिन्दःए-जावीद गर्दद

    उसकी आशाएँ फलती-फूलती हैं और वह यहाँ मर कर अमर हो जाता है।

         जिहे आसूदगी बख्श-ए-रवाँ-हा

         कि-दाग-ए-जिस्म मी-शायद ज जां-हा

    बनारस आत्माओं को सुख और शांति देता है और हृदय के तमाम दुखों को धो डालता है।

         शिगुफ्ती नेस्त दर आब-ओ-हवाइश

         कि तनहा जाँ शवद अंदर कफाइश

    यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि कोई केवल आत्मा के पीछे दौड़ता फिरे (शरीर के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा इस नगर को छोड़कर जाना नहीं चाहती।)

         बया ऐ गाफ़िल अज कैफ़िय्यत-ए-नाज

         निगाहे बर परी-जादानश अंदाज

    ऐ बेसुध! आ, और बनारस के परीजादों (अप्सराओं) पर एक नजर डाल।

         हम : जा-हा-ए-बे तन कुन तमाशा

         न-दारद आब-ओ-खाक ई जलवः हाशा

    बिना शरीर की इन आत्माओं को देख। ये मूर्तियाँ पानी और मिट्टी से मुक्त हैं। यानी बनारस की अप्सराएँ सिर से पैर तक आत्मा ही आत्मा हैं।

         निहाद-ए-शां चू बू ए-गुल गिरां नेस्त

         हमः जानंद जिस्मे दरमियाँ नेस्त

    इनका शरीर फूल की सुगंध की तरह हलका फुलका है। वह सब सिर से पाँव तक आत्मा की तरह पवित्र हैं।

         खस-ओ खारश गुलिस्तानस्त गोई

         गुबारश जौहर-ए-जानस्त गोई

    बनारस के काँटे और घास भी फूल के समान हैं और यहाँ की धूल भी आत्मा का सार है।

         दरीं देरीनः दैरिएतान-ए-नैरंग

         बहारश ऐमनस्त अज गर्दिश-ए-रंग

    इस परिवर्तनशील संसार में बनारस की रौनक और शोभा हर तरह के परिवर्तनों से सुरक्षित है।

         चि फ़रवर्दी, चि दै-माह-चि मरदाद

         ब-हर मौसम फ़िजाइश जन्नत आबाद

    बसन्त ऋतु हो, सर्द या ग्रीष्म ऋतु, हर ऋतु में बनारस का वातावरण स्वर्ग का समाँ पेश करता है।

         ज़ रंगों जलवः-हा गारत-गर-ए-होश

         बहार-ए-बिस्तर-ओ-नौरोज़-ए-आगोश

    अपने हाव भाव से ये प्रेमिकाएं प्रेमियों के होश और हवास लूट ले जाती हैं। ये बिस्तर के लिए बसन्त हैं और गोद के लिए ईद (इनके बिस्तर पर बैठते ही बसन्त ऋतु आ जाती है और प्रेमी की गोद में तो ईद के समान हर्ष और ऐश्वर्य प्राप्त होता है।)

        ज़ ताब-ए-जलब :-ए-ख्वेश आतश अफ़रोज़

         बुतान-ए-बुत परस्त-ओ-बरहमन सोज़

    ये प्रेमिकाएँ अपने जलवे (प्रदर्शन) की चमक-दमक से अग्निज्वाला पैदा करती हैं। ये स्वयं तो मूर्ति पूजा करती हैं, लेकिन ब्राह्मण खुद इनके प्रदर्शन की अग्नि ज्वाला में जल जाता है।

         ब-सामान ए-दो ‘आलम गुलिस्ताँरंग

         ज़ ताब-ए-रूख़ चिरागान-ए-लब-ए-गंग

    अपनी सौन्दर्य सामग्री से ये प्रेमिकाएँ एक हरे-भरे बाग का दृश्य प्रस्तुत करती हैं और इनके मुखड़ों की चमक दमक गंगा तट पर रखे हुए दीपकों का दृश्य दिखाती है।

         रसानदः अज़ ए-शुस्त-ओ शूये

         ब-हर मौजे नवेद-ए-आबरूये

    ये परियाँ स्नान करती हैं तो गोया पानी की लहरों को आदर और मान प्रदान करती हैं।

         क़यामत क़ामताँ मिज़गाँ दराजाँ

         ज़ मिज़गाँ बर सफ़-ए-दिल नेज़ः बाज़ाँ

    कमायत का सा लम्बा कद रखने वाली ये परियाँ अपनी लम्बी पलकों से हृदय पर तीर चलाती हैं।

         ब-मस्ती मौज रा फ़र्मूदः आराम

         ज़ नग्ज़ी आब रा बख्शीदः अंदाम

    अपनी मस्ती से इन्होंने लहरों को शान्ति प्रदान की है और अपनी लताफत (कोमलता) से पानी को शरीर प्रदान किया है। इनकी मस्ती और कोमलता का दृश्य देखने के लिए पानी की लहरें रुक गई हैं।

         पतादः शोरिशे दर क़ालब-ए-आब

         चू माही सद दिलश दर सीनः बेताब

    इन्होंने पानी के शरीर में हलचल डाल दी है। मछलियों के रूप में सैकड़ों दिल पानी के सीने पर तड़पते दिखाई देते हैं।

             बहाराँ दर शिता-ओ-सैफ़ ज आफाक़

         ब-काशी मी-कुनंद किश्लाक़-ओ-यीलाक़

    सारे विश्व की बसन्त ऋतु अपनी सर्दी और गर्मी गुजारने के लिए काशी वास करती है। यानी यहाँ का मौसम समशीतोष्ण है। (न अधिक गर्म न अधिक ठंडा)

        बवद दर अर्ज-ए-बाल-अफ़शानि-ए नाज

         खिज़ानश संदल-ए-पेशानि-ए-नाज

    यद्यपि बनारस की पतझड़ ऋतु में भी माथे पर लगी हुई संदल के गुण हैं तथापि वह सदैव यहाँ से जाने के लिए अपने पंख खोले रहती है।

         ब-तस्लीम-ए-एवा-ए आँ चमन जार

         ज मौज गुल बहाराँ बस्तः जुन्नार

    इस बाग (बनारस) में सर्वप्रियता प्राप्त करने के लिए बसन्त ऋतु ने फूलों का जनेऊ पहन लिया है। (बसन्त ने भी हिन्दू धर्म धारण कर लिया है ताकि वह हिन्दुओं के इस तीर्थ स्थान में सर्वप्रियता प्राप्त कर सके।)

         फ़लक रा कश्कः-उश बर जबीं नीस्त

         पस ई रंगीनि-ए-मौज-ए-शफ़क़ चीस्त

    अगर बनारस ने आकाश के माथे पर तिलक नहीं लगाया तो फिर उषा में यह लालिमा कहाँ से आई है (उषा में जो लालिमा है वह आकाश के माथे पर टीका है और टीका लगवाने के लिए आकाश ने बनारस के सामने सिर झुकाया होगा)।

         कफ़ ए-हर खाकश अज़ मस्ती कुनिश्ते

         सर-ए-हर खारश अज़ सबज़ी बिहिश्ते

    बनारस की मुट्ठी भर मिट्ठी एक अग्निशाला (पारसियों का उपासना गृह) के बराबर है और यहाँ का हर काँटा हरियाली में एक स्वर्ग के समान है।

         सवादश पायः-तख्त-ए-बुत परस्ताँ

         सरापाइश जियारतगाह-ए-मस्ताँ

    बनारस मूर्ति पूजकों की राजधानी है और धर्म के नशे में चूर लोगों का तीर्थ स्थान है।

         ‘इबादत-खानः ए-नाकूसियानस्त

         हमाना ‘काबः-ए-हिन्दूस्तानस्त’

    बनारस शंख बजाने वाले (हिन्दुओं) का उपासना गृह और हिन्दुस्तान का काबा (महान तीर्थ) है।

         सरापा नूर-ए-एज़द चश्म-ए-बद्दूर

    बनारस की प्रेमिकाएं तूर पर्वत की ज्वाला के समान सुन्दर, सूक्ष्म और पवित्र हैं। ये सिर से पाँव तक भगवान की ज्योति हैं। भगवान इन्हें बुरी नजर से बचाए।

         मियां-हा नाजुक-अी-दिल हा तुवाना

         ज़ नादानी ब-कारे खेश दाना

    बनारस की प्रेमिकाओं की कमरें नाजुक और हृदय बहुत मजबूत हैं। देखने में ये तो भोलीभाली मालूम होती हैं लेकिन अपने कार्य (प्रेमियों का दिल उड़ा ले जाने) में बहुत ही होशियार और चतुर हैं।

         तबस्सुम बसकि दर लब-हा तबीईस्त

         दहन-हा रश्क-ए-गुल-हा-ए-रबी ईस्त

    उनके अधरों पर मुस्कान बहुत ही स्वाभाविक लगती है और उनके मुख बसंत ऋतु के लिए ईर्ष्या-जनक हैं (फूलों से भी ज्यादा सुन्दर और नाजुक हैं)।

         अदा-ए-यक गुलिस्तां जलवः सरशार

         खिराम-ए-सद कयामत फितनः दर बार

    इनकी अदाओं के मस्त जलवे बसन्त ऋतु का दृश्य प्रस्तुत करते हैं। ये अपनी चाल से कयामत पैदा करती हैं।

         ब-लुत्फ़ अज़ मौज-ए-गौहर नर्म रौ-तर

         ब-नाज़ अज़ खून-ए-आश़िक गर्म रौ तर

    बनारस की प्रेमिका की चाल कोमलता में मोतियों की लहर से ज्यादा नर्म है और नाज व अदा में प्रेमी के लहू से ज्यादा तेज रफ्तार है।

         ज़ अंगेज़-ए-क़द अंदाज़-ए-खिरामे

         ब-पा-ए-गुलबने गुस्तर्दः दामे

    ये गज-गामिनियाँ अपने लम्बे कद के साथ जब मीठी चाल चलती हैं तो जमीन पर फूलों के चित्र बन जाते हैं, जो जाल के समान लगते हैं।

         ज़ रंगों जलवः-हा गारत-गर-ए-होश

         बहार-ए-बिस्तर-ओ-नौरोज़-ए-आगोश

    अपने हाव भाव से ये प्रेमिकाएँ प्रेमियों के होश और हवास लूट ले जाती हैं। ये बिस्तर के लिए बसन्त हैं और गोद के लिए (इनके बिस्तर पर बैठते ही बसन्त ऋतु आ जाती है और प्रेमी की गोद में तो ईद के समान हर्ष और ऐश्वर्य प्राप्त होता है।)

         ज़ ताब-ए-जलब :-ए ख्वेश आतश अफ़रोज़

         बुतान-ए-बुत परस्त-ओ-बरहमन सोज़

    ये प्रेमिकाएँ अपने जलवे (प्रदर्शन) की चमक-दमक से अग्निज्वाला पैदा करती हैं। ये स्वयं तो मूर्ति पूजा करती हैं, लेकिन ब्राह्मण खुद इनके प्रदर्शन की अग्नि ज्वाला में जल जाता है।

         ब-सामान ए-दो ‘आलम गुलिस्ताँरंग

         ज़ ताब-ए-रूख़ चिरागान-ए-लब-गंग

    अपनी सौन्दर्य सामाग्री से ये प्रेमिकाएँ एक हरे-भरे बाग का दृश्य प्रस्तुत करती हैं और इनके मुखड़ों की चमक दमक गंगा तट पर रखे हुए दीपकों का दृश्य दिखाती है।

         रसानदः अज़ अदा ए-शुस्त-ओ शूये

         ब-हर मौजे नवेद-ए-आबरूये

    ये परियाँ स्नान करती हैं तो गोया पानी की लहरों को आदर और मान प्रदान करती है।

         क़यामत क़ामताँ मिज़गाँ दराजाँ

         ज़ मिज़गाँ बर सफ़-ए-दिल नेज़ः बाज़ाँ

    कयामत का सा लम्बा कद रखने वाली ये परियाँ अपनी लम्बी पलकों से हृदय पर तीर चलाती हैं।

         ब-तन सरमायः ए-अफज़ाइश-ए-दिल

         सरापा मुज़्दा-ए-आसाइश-ए-दिल

    इनका दृश्य दिल में प्रेम की आग लगाता है और इनका मिलाप दिल को आनन्द प्रदान करता है।

         ब-मस्ती मौज रा फ़र्मूदः आराम

         ज़ नग्ज़ी आब रा बख्शीद : अंदाम

    अपनी मस्ती से इन्होंने लहरों को शांति प्रदान की है और अपनी लताफत (कोमलता) से पानी को शरीर प्रदान किया है। इनकी मस्ती और कोमलता का दृश्य देखने के लिए पानी की लहरें रुक गई हैं।

         पतादः शोरिशे दर क़ालब-ए-आब

         चू माही सद दिलश दर सीनः बेताब

    इन्होंने पानी के शरीर में हलचल डाल दी है। मछलियों के रूप में सैकडऋाsं दिल पानी के सीने पर तड़पते दिखाई देते हैं।

         ज़-बस-अजं-ए-तमन्ना मी-कुनद गंग

         ज़ मौज आगोश हा वा मी कुनद गंग

    गंगा नदी इन्हें अपनी गोद में लेने के लिए पूरे उत्साह के साथ बाहें खोल हुए है।

         ज-ताबे-ए-जल्वाः हा बेताब गश्तः

         गुहर-हा दर सदफ-हा आब गश्तः

    इनके जलवों की चमक-दमक के सामने मोती सीपी के अन्दर पानी-पानी हुए जा रहे हैं।

         मगर गोई बनारस शाहिदे-हस्त

         ज गंगश सुबह-ओ-शाम आईनः दर दस्त

    ऐसा लगता है कि बनारस एक प्रेमिका है जो दिन-रात गंगा का आइना अपने हाथों में लिए हुए है।

         नियाज़-ए-अक्स-रुए-आँ परी चेहर

         फलक दर जर गिरिफ्त आईन अज मेहर

    परियों जैसा मुखड़ा रखने वाली इस प्रेमिका को आकाश ने सूर्य रूपी सोने का आईना भेंट किया है ताकि इस आईने में अपना प्रतिबिम्ब देख सके।

         ब-नाम एजद जिहे हुस्न-ओ-जमालश

         कि दर आईनः मी-रक्सद मिसालश

    वाह! वाह! क्या रूप और सौजन्य है। सूर्य के आइने में बनारस का प्रतिबिम्ब नृत्य कर रहा है।

         बहारिसािन-ए-हुस्न-ए-ला-उबालीस्त

         ब-किश्वर-हा समर दर बे-मिसालीस्त

    बनारस निश्चित सौन्दर्य का एक ऐसा बाग है जिसमें बसन्त ऋतु रहती है। अनुपम होने के कारण सारी दुनियाँ में इसकी कहानी मशहूर हो चुकी है।

         ब-गंगश अक्स ता परतौ फिगन शुद

         बनारस खुद नजीर-ए-खेशतन शुद

    बनारस ने जब गंगा में अपना प्रतिबिम्ब देखा तो स्वयं मिसाल बन गया।

         चू दर आईनः-ए-आबश नमूदंद

         गजदं ए-चश्म-ए-जख्म अज वे रबूदंद

    बनारस का प्रतिबिम्ब दिखाई दिया तो उसकी मिसाल (नजीर) पैदा हो गई। इस तरह उसे बुरी नजर लगने का कोई डर नहीं रहा (अगर अनुपम रहता तो नजर लगने का डर था)।

         ब चीन न-बवद निगारिस्तान चू ओ

         ब-गेती नेस्त शारिस्तान चू ओ

    चीन में भी बनारस जैसी चित्रशाला नहीं। ऐसा शहर तो संसार में कहीं नहीं।

         बयाबाँ दर बयाबाँ लालः जारश

         गुलिस्ताँ दर गुलिस्ताँ नौ बहारश

    बनारस के जंगलों में लाल फूलों के खेत के खेत हैं और इसके बागों में सदैव बसन्त ऋतु रहती है।

         शबे पुर्सा-दम-अज़ रौशन-बयाने

         ज गर्दिश-हा-ए-गर्दू राज-दाने

    एक रात मैंने एक ऐसे बुद्धिजीवी से पूछा जो संसार और आकाश की गर्दिश का भेद जानता था।

         कि बीनी नेकोई-हा अज जहाँ रफ्त

         वफा-ओ-मेहर-ओ आर्ज अज जहाँ रफ्त

    तुम देख सकते हो कि संसार से भलाई, वफादारी प्रेम और शर्म व हया सभी कुछ उठ गई हैं।

         ज ईमां-हा ब-जुज नामे न-माँदः

         बगैर अज दानः ओ-दामे न-माँदः

    धर्म का केवल नाम रह गया है, और छल कपट के सिवा अब कुछ नहीं रहा।

         पिदर-हा तश्नः ए-खून-ए-पिसर-हा

         पिसर-हा दुश्मन-ए-जान-ए-पिदर-हा

    पिता पुत्रों के रक्त का प्यासा है और पुत्र पिता की जान का दुश्मन

         बरादर ब-बरादर दर स्तेजस्त

         बफाक अज शश जिहत रू दर गुरेजस्त

    भाई-भाई से लड़ रहा है, मेल-मिलाप और प्रेम समाप्त हो रहे हैं।

         ब-दीं बे-पर्दगी-हा-ए-अलामत

         चि रा पैदा नमी गदर्द कयामत

    इतने स्पष्ट चिन्हें के होते हुए प्रलय क्यों नहीं आती ?

         ब-नफ्ख-ए-सूर तावीक अज पये चीस्त

         कयामत रा अनाँ-गीर-ए-जुनूँ कीस्त

    प्रलय का शंख बजने में क्या देन है और प्रलय को कौन रोके हुए है?

         सू-ए काशी ब-अंदाज-ए-इशारत

         तबस्मुम कर्द-ओ गुफ्ता ई इमारत

    उसने काशी की ओर इशारा किया और मुस्कराकर कहा कि यही नगरी प्रलय को रोके हुए है।

         कि हक्का नेस्त साने रा गवारा

         कि अज हम रेजद ईं रंगी बिना रा

    सत्य तो यह है कि भगवान ऐसी सुन्दर नगरी को नहीं मिटाना चाहते।

         बलंद उफ्तादः तमकीन-ए-बनारस

         बवद बर औज-ए-ओ अंदेशः ना-रस

    बनारस की प्रतिष्ठा बहुत बड़ी है। उसकी ऊँचाई और बड़ाई पर हमारा ख्याल भी नहीं पहुँच सकता।

         इला ऐ गालिब ए-कार ओफ्तादः

         ज चश्म-ए-यार-ओ-अगयार ओफ्तादः

    ऐ काम से गए हुए और अपने पराए की नजरों से गिरे हुऐ गालिब।

         ज़ खेश-ओ-आशना बेगानाः गश्तः

         जुनूँ गुल कर्दः ओ-दीवानाः गश्त

    तुम मित्रों और सम्बन्धियों से बेगाना हो चुके हो और तुम दीवाने हो गये हो।

         चि मेहश्वर सरग़द आब-ओ-गिल-ए तू

         दरेगा अज तू-ओ-अज दिल-ए-तू

    तुम यह कैसी पागलपन की बातें कर रहे हो? तुम पर और तुम्हारे दिल पर असफोस है।

         चि जूयो जलवः ज़ीं रंगी चमन-हा

         बिहश्त खेश शौ अज खूँ शुदन-हा

    इन रंगीन बागों में सुन्दर दृश्य क्यों ढूँढ रहे हो? तुम अपने ही दिल के अन्दर इन दृश्यों को देख सकते हो।

         जुनूनत गर बा-नफ्स-ए-खुद तमामस्त

         जु काशी ता ब-काशाँ नीम गामस्त

    अगर तेरी दीवानगी निपुण है तो काशी से काशान (इराक देश के एक शहर का नाम) तक आधे कदम का फासला ही तो है। निपुण मनुष्य के लिए सभी दूरियाँ और मुश्किलें समाप्त हो जाती है।

         फिरो-मांदन ब-काशी ना रसाईस्त

         खुदा रा ई चि काफिर माज़राईस्त

    काशी में रह जाओगे तो मंजिल पर कैसे पहुँचोगे? यह क्या गजब कर रहे हो (काशी में रहने का निश्चय कर लिया था लेकिन कलकत्ते का कार्य कैसे सम्पन्न होता?)।

         अजीं दावा ब अताश शोय लब रा

         ब-ख्वाँ गम-नामः ए-जौक तलब रा

    तुझे ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं तू अपने काम को जारी रख। (यात्री का काम होता है यात्रा करना)

         ब जाशी लख्ते काशानः याद आर

         दरीं जन्नत अजाँ वीरानः याद आर

    काशी में थोड़ी देर के लिए अपने घर को याद कर। इस स्वर्ग में उस वीराने का भी ख्याल कर।

06 दिसंबर, 2017

पप्पू की चाय अड़ी से चाय की राजनीति सीखिए

यह अस्सी पर खास तरह से बनती हुई चाय
है। पहले भट्ठी दूध पानी को खूब खौलाती
है।फिर वह गिलास में कूद पड़ता है। फिर छन्नी
में काले दाने बिछ जाते हैं।फिर केतली से
बूँद बूँद बौखलाया हुआ जल टहलने लगता है।काला रस तबतक टपकता है जबतक
गिलास का चेहरा गुस्सैल न हो जाए। अंत
में दिमाग ठंडा और जीभ मीठी करने के
लिए चीनी पेंदी में चुपचाप बैठ जाती है।
उधर एक घंटे से इंतज़ार में बैचेन दिल दिमाग आँख कान हाथ मुंह गिलास पर
झपट पड़ते हैं। फिर शुरू होती संसद
से सड़क तक पर बहस...उसे छोडिये।
फिलहाल अपनी धारा के हिसाब से भाजपाई
सपाई कांग्रेसी कम्युनिष्टि बसपाई गिलास
थाम लीजिये। इससे बाहर हैं तो बाहर
रहिये।संसद जारी है...