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27 फ़रवरी, 2018

बनारस में पकौड़ा पार्टी by रामाज्ञा शशिधर


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होली आ गई लेकिन वादा नहीं आया।भाषण आया,फोटू आए,लिंचिंग आई,डंडे आए,धमकी आई,घर घेरने खाकी आई,गाली आई,जाली आई,गाना आया,ताना आया लेकिन वादा नहीं आया।आया तो निगोड़ा वादा की जगह रेडियो आया,मन की बात आई,बुरे समय की रात आई,दो हजार का नोट तक आया ,लेकिन वादा नहीं आया।
           यह भी चमत्कार ही है कि जब आया भी तो चाय की प्याली में डुबकी लगा पकौड़ा अवतार में आया।मैं तो छह महीने से टीवी नहीं देखता हूँ।उस बुद्धू बॉक्स को चीनी के एक बोरे
में बंदकर तहखाने में डाल चुका हूँ।बड़ी राहत है।अब बेड पर
बम नहीं गिरता है,मूढ़ बहसबाजों का शोर और कुतर्क नहीं बरसता है।आतंकवाद, उग्रवाद, राष्ट्रवाद,देशभक्ति ,देशद्रोह ठंडा मतलब कोका कोला, कर लो दुनिया मुट्ठी में, भाइयो बहनो, जहां सोच है वहां शौचालय है जैसे मुहावरों से विश्वविद्यालय में होने का बोध ही खत्म होता जा रहा था।अब ठोस थिर ज्ञान जल में गोता लगाने का भरपूर मौका है।हर समय ध्यान रखनेवाली  बीवी भले सुबह ही डांट ले लेकिन शाम को बहुरूपिया एंकर की गाली डांट से मुक्त हूँ।इसलिए भले देश भर के पकौड़ाप्रेमियों का स्वाद राजनीतिक हो गया हो लेकिन मेरा पकौड़ा सिमरिया गाँव की होली के बौराए माहौल में घर में छनन मनन कर रहे बर्तन वाला ही है।स्वाद की याद को बचा लेना भी वर्तमान के बेस्वादू ढंग से खुद को बचा लेना है।
           बिहार की होली की पूर्व संध्या पर प्याज और हरा चना पकौड़ी का पुराना चलन है।फूल रसरंग में भींगने के साथ रवि फसल से निकले नवान्न का स्वाद लेना  भी होली में होलियाना होना है।मेरे घर गाँव जनपद में पकौड़ा सनातन स्वाद और कौशल है।कभी कभी लगता है कि चाय की लत तो अंग्रेजों की देन और परदेशी आदत है लेकिन पकौड़ा देशी हुनर और स्वाद है।
         पहले मैं साइकिल से चलता था लेकिन कुछ कार वाले चम्मच महीने में एक दिन पर्यावरण के नाम पर वीसी का पीछा करने लगे तो मैंने चिढ़कर साइकिल चलाना छोड़ दिया।आज उसका खामियाज़ा भुगत रहा हूँ।क्या किसी नेता या दल द्वारा पकौड़े का राजनीतीकरण कर दिया जाए तो होली पर पकौड़ा खाना भी छोड़ दूं।यह तो मूढ़ता और कूपमंडूकता का चरम रूप है।या कहिए परम रूप है।जब से बनारस में हूँ हर साल होली पर चार तरह की पकौड़ी और चार तरह की चटनी के साथ चाय पर सहज मित्रों को जरूर बुलाता हूँ।इस बार नए आवास पर पहली होली है।चारों ओर जंगल,पेड़,नई पुरानी पत्तियां और फूल पराग ऐसे हैं कि कभी कभी कालिदास का समय होने का भरम होता है।बनारस की होली रंगभरी एकादशी से शुरू होती और हफ्ता भर झूमती रहती है।यहां का व्यंजन स्ट्रक्चर बिहार से भिन्न है।काफी कुछ टिकाऊ और नफीस।लेकिन पकौड़ा तो शुद्ध बिहारी और मैथिल स्टाइल है।
          इसलिए इस बार डीएलआरसी पर पकौड़ा भोज ही नहीं बल्कि पकौड़ा चिंतन भी होना चाहिए।मित्र गण मुझे पकौड़ालाल न समझ लें तो पकौड़े के इतिहास याद और स्वाद पर खाते हुए बात करना दरअसल खेत,रसोई और भारतीयता के रिश्तों की खोज करना भी है।पकौड़ा ग्राम से आया है इंस्टाग्राम से नहीं।पकौड़े और पकौड़ी में देवर भाभी का रिश्ता है या जीजा शाली का या आशिक माशूका का पता नहीं लेकिन फागुन में और क्या हो सकता है।जब माल में एक स्क्रीन ब्वाय
और इंस्टा गर्ल एक दूसरे को फिंगर चिप और बेबी कोर्न क्रेप्सी से सम्बोधित कर रहे थे तब मुझे टोले की भाभी की गाली याद आई-"की यौ पकौड़ा।पैक गेलौं की!"-"हाँ यौ पकौड़ी।हमरा स छैक गेलौं की!"
           साथ में ग्रीन टी विद हनी लेमन पकौड़े के स्वाद को बढ़ाता है और फैट को घटाता है।चाय फिरंगी लिप्टन की होगी और सरसों तेल पतंजलि का।आजकल देश का भी यही हाल है।
      तो स्वाद शुरू कीजिए निराला की मशहूर कविता गरम पकौड़ी से।बुरे दिनों की अच्छी कविता!😃
😛नोट-आगमन पूर्व कन्फर्मेशन जरूरी है।पहले आओ पकौड़ा खाओ।बाद में आओ भाषण सुनाओ😃😃😃
         

गर्म पकौड़ी



गर्म पकौड़ी-
ऐ गर्म पकौड़ी,
तेल की भुनी
नमक मिर्च की मिली,
ऐ गर्म पकौड़ी !
मेरी जीभ जल गयी
सिसकियां निकल रहीं,
लार की बूंदें कितनी टपकीं,
पर दाढ़ तले दबा ही रक्‍खा मैंने

कंजूस ने ज्‍यों कौड़ी,
पहले तूने मुझ को खींचा,
दिल ले कर फिर कपड़े-सा फींचा,
अरी, तेरे लिए छोड़ी

बम्‍हन की पकाई
मैंने घी की कचौड़ी।

11 फ़रवरी, 2018

मालवीय चबूतरे पर ब्रेख्त और धूमिल विमर्श

🎸ब्रेख्त और धूमिल लड़ाकू कवि हैं, कुर्सीढाँकू छवि नहीं:मालवीय चबूतरा 🎧
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आज मालवीय चबूतरे की ओपन कक्षा ब्रेख्त और धूमिल की बहस पर केंद्रित रही।ब्रेख्त हिटलर के फासीवाद से लड़ने वाले ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं में युद्ध,रोटी,प्रेम और घृणा के प्रश्न तीखी और जन भाषा में उठाए जाते हैं।ब्रेख्त की कविता केवल जनरल के टैंक और हुक्मरान की तानाशाही की शिनाख्त ही नहीं करती बल्कि उनसे लड़ने की संवेदना और चेतना का नया नक्शा पेश करती है।ब्रेख्त ने यूनानी और भारतीय नाट्य मंचन के भावुकतामय प्रवाह को ब्रेक किया और ब्रेख्तीयन शैली को जन्म दिया।
        धूमिल अकविता और जनवादी कविता की टक्कर से पैदा हुए ऐसे कवि हैं जिन्होंने जनता,जनतंत्र और संसद के अंतर्विरोध को पॉलिटिकल मुहावरे में बदल दिया।धूमिल का थका हुआ तिरंगा इन दिनों उन्मादी राष्ट्रवाद और नस्ली संस्कृति
की गिरफ्त में है।ऐसा वक्त है जब धूमिल की कविता में रोटी से खेलनेवाला तीसरा आदमी संसद के मौन होने के बावजूद दिन के उजाले में दिख रहा है।
                ब्रेख्त की जन्मतिथि और धूमिल की निधन तिथि पर दोनों कवियों की क्रमशः एक एक कविता हाजिर है:
♨नया ज़माना

नया ज़माना यक्-ब-यक् नहीं शुरू होता ।
मेरे दादा पहले ही एक नए ज़माने में रह रहे थे
मेरा पोता शायद अब भी पुराने ज़माने में रह रहा होगा ।

नया गोश्त पुराने काँटें से खाया जाता है ।

वे पहली कारें नहीं थीं
न वे टैंक
हमारी छतों पर दिखने वाले
वे हवाई जहाज़ भी नहीं
न वे बमवर्षक,

नए ट्राँसमीटरों से आईं मूर्खताएँ पुरानी ।
एक से दूसरे मुँह तक फैला दी गई थी बुद्धिमानी

♨रोटी और संसद

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।