🎸ब्रेख्त और धूमिल लड़ाकू कवि हैं, कुर्सीढाँकू छवि नहीं:मालवीय चबूतरा 🎧
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आज मालवीय चबूतरे की ओपन कक्षा ब्रेख्त और धूमिल की बहस पर केंद्रित रही।ब्रेख्त हिटलर के फासीवाद से लड़ने वाले ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं में युद्ध,रोटी,प्रेम और घृणा के प्रश्न तीखी और जन भाषा में उठाए जाते हैं।ब्रेख्त की कविता केवल जनरल के टैंक और हुक्मरान की तानाशाही की शिनाख्त ही नहीं करती बल्कि उनसे लड़ने की संवेदना और चेतना का नया नक्शा पेश करती है।ब्रेख्त ने यूनानी और भारतीय नाट्य मंचन के भावुकतामय प्रवाह को ब्रेक किया और ब्रेख्तीयन शैली को जन्म दिया।
धूमिल अकविता और जनवादी कविता की टक्कर से पैदा हुए ऐसे कवि हैं जिन्होंने जनता,जनतंत्र और संसद के अंतर्विरोध को पॉलिटिकल मुहावरे में बदल दिया।धूमिल का थका हुआ तिरंगा इन दिनों उन्मादी राष्ट्रवाद और नस्ली संस्कृति
की गिरफ्त में है।ऐसा वक्त है जब धूमिल की कविता में रोटी से खेलनेवाला तीसरा आदमी संसद के मौन होने के बावजूद दिन के उजाले में दिख रहा है।
ब्रेख्त की जन्मतिथि और धूमिल की निधन तिथि पर दोनों कवियों की क्रमशः एक एक कविता हाजिर है:
♨नया ज़माना
नया ज़माना यक्-ब-यक् नहीं शुरू होता ।
मेरे दादा पहले ही एक नए ज़माने में रह रहे थे
मेरा पोता शायद अब भी पुराने ज़माने में रह रहा होगा ।
नया गोश्त पुराने काँटें से खाया जाता है ।
वे पहली कारें नहीं थीं
न वे टैंक
हमारी छतों पर दिखने वाले
वे हवाई जहाज़ भी नहीं
न वे बमवर्षक,
नए ट्राँसमीटरों से आईं मूर्खताएँ पुरानी ।
एक से दूसरे मुँह तक फैला दी गई थी बुद्धिमानी
♨रोटी और संसद
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
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