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03 मई, 2021

संस्मरण:सिमरिया के दिनकर रत्न मुचकुंद की मृत्यु असंभव है

★रामाज्ञा शशिधर
【संस्मरण】


पूर्वज दिनकर की पुस्तक 'संस्मरण और श्रद्धांजलियां' की पहली पंक्ति है कि अपने समकालीनों की चर्चा करना बहुत ही नाजुक काम है।मेरे लिए मुझसे तेरह साल छोटे सिमरिया की दोमट माटी पर उगे और असमय मुरझाए मुचकुंद पर चर्चा करना असंभव काम है।लेकिन काल के आदेश को
कैसे ठुकरा सकता हूँ।उसकी जैसी मर्जी!
     मुचकुंद की बात कहां से शुरू करूँ!आरम्भ और अंत दोनों मातम से भरा है।इसलिए बीच से करता हूँ।वहां आग भी है और जनराग भी ।
        बात 2003 की है।मैं जेएनयू से किसान आंदोलन और हिंदी कविता के रिश्तों पर रिसर्च के दौरान जनपद जनपद भटक रहा था।उनदिनों क्षय रोग से उबरकर गांव आया था।
      जून का महीना।तपती दोपहरी।दालान के आगे पिताजी द्वारा पोसे गए जामुन के पेड़ के नीचे मेरी खाट।देखता हूँ- सांवली त्वचा और कमजोर काया का एक किशोर।उम्र लगभग 20 साल।धूप में तमतमाया तांबे सा चेहरा।खुली मुस्कान।हाथ में समयांतर।उसकी तह के नीचे इतिहास
का नोट्स।नमस्कार करते हुए खड़ा हुआ।पहचानने की कोशिश की।पहचान नहीं पाया।
     संजीव फिरोज़ ने अपनी धीमी गति का समाचार शुरू किया -यह मोनू हैं।मेरे भाई लगेंगे।ननिहाल में रहते थे।अब गांव में रह रहे हैं।इनके घर मे चार मर्डर हुआ था।आपको याद होगा।प्रतिबिंब की चर्चा सुनी है।आप से मिलना और बात करना चाहते थे।
        मोनू विचार की तरह शुरू हो गए-समाज इतिहास से सीख लेकर बदलता है।सिमरिया ने दिनकर से कितना सीखा है।जब दिनकर और उनकी किताबें गॉंव को नहीं बदल
पा रही तब आपलोग नाटक,गीत,झाल,ढोल से समाज कैसे
बदल देंगे।समाज को बदलने के लिए नया विचार और उस विचार का प्लेटफॉर्म चाहिए....इसलिए प्रतिबिंब में विचारबिंब होना चाहिए।
     मैं चुपचाप अपनी आदत के विरुद्ध पहली बार सुन रहा था-चीख से भरा स्वर।थूक के छींटों में लिपटी ध्वनियां।लहराते हुए हाथ।नाचती हुई लाल आंखें।फड़कती हुई भौंह।जैसे आग का पिघलता हुआ गोला हो!जैसे दिनकर का रश्मिरथी।जैसे सिमरिया घाट का प्रफुल्ल चाकी।जैसे जनकवि शक्र की इंकलाबी छापे की मशीन।जैसे घड़ियालों,मगरमच्छों की गंगा के ताल जल में नन्हीं मछरी।जैसे सिमरिया के फैले हुए उद्यानों बागीचों के बीच गूंजती हुई
कोई  दमदार चिड़िया।
       तब से जीवनपर्यंत मुचकुंद विचार की अलख जगाते रहे;बदलाव के नारे दोहराते रहे;डफली की धुन पर गीत गुनगुनाते रहे।और एक दिन कबीर की कविता हो गए-हंसा जाई अकेला/जग दर्शन का मेला।

        ◆
        टर्नर,जिम और दिनकर तीनों सही थे।टर्नर ने कहा कि 1918 की महमारी  युद्ध के जहाज पर चढ़कर यूरोप से भारत आयी और लगभग 2 करोड़ मनुष्यों को लील गई।जिम ने कहा कि सिमरिया- मोकामा घाट के अनेक श्रमिक
महामारी के गाल में समा गए।दिनकर ने देखा कि सिमरिया के दो सौ से अधिक परिजन पुरजन महामारी से खत्म हो गए।दिनकर ने यह भी देखा कि बचपन की पाठशाला के गुरुजी भूख के कारण महुआ चुनकर खा रहे हैं।ब्रिटिश दस्तावेज,औपनिवेशिक साहित्य से लेकर दिनकर-शक्र के लेखन में अकाल महामारी के दबे निशान को खोजने वाला
प्रतिभा सिमरिया में एक ही थी,मुचकुंद।मैंने साहित्य की यात्रा में ये चिह्न देखे और इतिहास प्रेमी मुचकुंद को उत्साहित किया।उसने वादा किया था कि बेगूसराय में घर बनाने के बाद आपके बताए तरीके और लिखे गए संक्षिप्त विवरण से सहयोग लेकर सिमरिया का विस्तृत इतिहास लिखूंगा।यह कार्य सिमरिया का कौन सपूत करेगा,अभी कोई
प्रकाश नहीं।

     ◆
            आह!मोनू हम सबको छोड़कर वेबक्त चले गए।अभी उनके जाने की उम्र नहीं थी।उनके जाने से सिमरिया और जनपद दोनों जगहों में रिक्ति बन गई है। उससे भी ज्यादा मेरे भीतर रेत की आंधी उड़ रही है।उनकी उपस्थिति का अभाव हम सबको लंबे समय तक परेशान और दुःखी करेगा।
     मोनू का मूल नाम तो मुचकुंद था।मुचकुंद यानी खुशबूदार सफेद फूलों का वृक्ष।लंबा, मजबूत और अल्हड़।
यह नाम तो ननिहाल से मिला होगा।सिमरिया तो तब ही छूट गया जब वे गर्भ में थे।दिनकर के यहां कुछ ही फूल हैं,वेणुवन है,दूब है,कास है।मुचकुंद सफेद,पीले सुगंधित फूलों का बौर। मुचकुंद के वृक्ष की उम्र लंबी होती है ।यह क्षणभंगुरता अनहोनी ही है।
    2019-21 इस पृथ्वी और भारत के लिए वैसे ही विनाशकारी है जैसे 1918-22 के महामारी वर्ष थे।1918-19 में महामारी से सिमरिया में लगभग दो सौ किसानों की मौत हुई थी।जनपद में शवों की संख्या बड़ी थी। तत्कालीन सिमरिया घाट शवों से पट गया था।इसका उल्लेख दिनकर से जुड़े साहित्य में भी मिलता है।दिनकर ने बाद की महामारी पर कविता भी लिखी है।
     मुचकुंद का जन्म और मरण दोनों दुखांत है।अक्सर जन्म खुशी का द्योतक होता है और मृत्यु मातम का।मुचकुंद का जन्म 27 जुलाई 1983 को हुआ।जब वे पैदा नहीं हुए थे ,उनके घर में चार हत्याएं हुईं।लगभग पूरा घर खत्म हो गया।दो चाचा भागवत सिंह और सिंकदर सिंह मारे गए,पिता रज्जन सिंह(राजेन्द्र प्रसाद सिंह)मारे गए,बुआ राजवती देवी मारी गई।गोली खाकर भी मां छुप गई और गर्भ रत्न को बचा लिया।आज पत्नी एकता ,ढाई वर्ष का नन्हा बेटा नयन प्रकाश के साथ बूढ़ी मां की मजबूत लाठी खो गई।
        वह दौर ऐसा ही था। तब सिमरिया में कविता की नहीं,बंदूक की खेती होती थी। इतिहास से बेखबर गांव को आजतक इहलाम नहीं है कि उसका बड़ा दुश्मन सात समुद्र पार है।ब्रिटिश रेलवे द्वारा डाले गए 100 वर्ष पुराने विष बीज अब विष वृक्ष बन रहे थे।कई दर्जन लाशें गिरी होंगी।मेरा बचपन भी उस माहौल से लगभग तबाह हो गया।वह कहानी और कभी।


      मुचकुंद 19 अप्रैल,दिन सोमवार 2021 की सुबह हम सबको अलविदा कह गए।तब वे पीएमसीएच पटना में थे।उनकी मौत भी कोरोना वायरस की तरह काल के आघात से,अस्तव्यस्त,रहस्यमय और हृदयविदारक हुई।
      15 अप्रैल की शाम कलाकार साथी सीताराम जी ने पहली सूचना दी कि मोनू कोविडग्रस्त हैं।बेगूसराय के सृष्टि जीवन अस्पताल में ऑक्सीजन पर हैं।डॉक्टर का कहना है कि रेमडेसिविर दवा से ही जान बच सकती है।बेगूसराय में दवा की किल्लत है।

       मैंने डीएम,सीएमओ,सांसद से फेसबुक अपील की कि तुरत रेमडेसिविर की व्यवस्था हो।कल होकर दवा दिल्ली से आ गई।दवा दी गई लेकिन सीटी स्कैन में फेफड़े का अधिकांश हिस्सा घिर चुका था।डॉक्टर ने हाथ उठा दिया।रामनाथ सिंह ने पटना ले जाने का सुझाव दिया।
       मैंने सीएम और स्वाथ्यमंत्री को ट्वीटर टैग करते हुए निवेदन किया कि दिनकर की धरती के लाल को एम्स,पटना में एक बेड चाहिए।वह अंधड़ में बगुले की खबर थी।तभी स्वास्थ्यमंत्री ट्वीटर पर टैग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक बुजुर्ग कार्यकर्ता की बेड बिना मौत की खबर पढ़ी।बेटे का दर्द मंत्री पर गुस्से में फूट पड़ा था।मैं निराश हो गया।
        जिस दिनकर मंच पर नेता,मंत्री आकर माला से लद जाते,वैधता पाते और सुर्खी बटोरते,उस मंच के सबसे सुगंधित फूल के लिए कोई राहत और चाहत नहीं।हे दिनकर!ग्रामीण मित्र अवधेश कुमार से आग्रह किया कि जनपद के सांसद या  सत्ताधारी दल के किसी नेता से निवेदन कीजिए।
उन्होंने बताया कि बीजेपी जिलाध्यक्ष श्री राजकिशोर सिंह ने
स्वास्थ्य मंत्री से आग्रह किया है।कल होकर पता चला कि उनकी बात और फोन को मंत्री अनसुनी कर गए।
      यह भाग्य कहिए कि मुचकुंद की साली पीएमसीएच में नर्स हैं और सिर्फ उनकी कोशिश से भर्ती हुई।सीटी स्कैन की हालत से साफ था कि परिणाम कुछ भी हो सकता है।परिणाम सामने आया।
       बाद में रामप्रवेश सिंह,प्रवीण प्रियदर्शी,बब्लू दिव्यांशु,विनोद बिहारी और मेरे विद्यार्थी पंकज कुमार व रूपम से जो जानकारी मिली उससे समझ में आया कि नानी के शव संस्कार से लौटने के बाद मोनू बेगूसराय-बरौनी लगातार भागते हुए डॉक्टरों के निर्देशानुसार कोविड टेस्ट,अन्य टेस्ट एवं दवा से सम्बद्ध थे।
      ◆

         मेरा मानना है कि अगर समय पर उचित स्वास्थ्य व्यवस्था व सलाह मिलती तो मुचकुंद की जान बच सकती थी।यह हैरानी होगी कि एंटीजन और आरटी-पीसीआर दोनों टेस्ट निगेटिव आए और एंटीजन ने भरम पैदा किया।सिस्टम की बलिहारी कहिए कि दूसरा टेस्ट मौत के बाद मिला और सरकार के खाते में मुचकुंद नॉन कोविड मरीज हैं।
         दुनिया भर के डॉक्टर और वैज्ञानिक कह रहे हैं कि
तीस फीसदी टेस्ट रिपोर्ट गलत है,रेमडेसिविर सिर्फ पहले सप्ताह में मोडरेट मरीज पर सिर्फ ऑक्सीजन लेवल बनाए रखने के लिए सफल है, आवश्यक दवा और परहेज पहले दिन से जरूरी है।उसके बावजूद मुचकुंद का
इलाज उचित दिशा में शायद नहीं रह पाया।सिमरिया के साथी रामप्रवेश जी से मुचकुंद लगातार संपर्क में थे।उनका भी यही मानना था।खैर!पब्लिक स्वस्थ्य सिस्टम के लिए
मोनू भविष्य के आंदोलन के प्रतीक बन सकते हैं ताकि भविष्य में लाखों मोनू को बचाया जा सके।
      ◆

         मुचकुंद की मृत्यु विचार की मृत्यु है।वे सिमरिया की दोमट मिट्टी पर विचार के पेड़ थे।उनके साथ बिताए संस्मरण व कार्यों का वर्णन करूँ तो एक किताब बन सकती है।
        कुछ यादें यहां जरूरी हैं।वे 2003 में प्रतिबिंब से जुड़े। उनके कारण 1998 से सक्रिय प्रतिबिंब गीत,नुक्कड़ नाटक,कविता पाठ से  ग्रामीण क्षेत्र में विचार निर्माण की ओर मुड़ गई।संस्कृति का क्रांतिकारी पहलू पुस्तिका इस बात का प्रमाण है कि दर्जनों गोष्ठियां गांव गांव हुईं।हमलोगों ने जनेऊ और कोका-पेप्सी दोनों से सामूहिक मुक्ति ली।मनुवाद और साम्राज्यवाद दोनों पर प्रहार।प्रेमचंद की किताब सरकार द्वारा पाठ्यक्रम से हटाने पर मुचकुंद के नेतृत्व में प्रेमचंद कथा अभियान चला।मुचकुंद एक्टिविस्ट बने,संगठन कर्ता हुए,इतिहास के विद्यार्थी हुए। समयांतर पत्रिका अपने ग्रामीण पते पर मंगाकर जनपद को बांटने लगे।इसतरह जनपद के बौद्धिकों लेखकों से संपर्क संवाद घना होता गया।
     प्रतिबिम्ब के कारवां में शामिल प्रवीण प्रियदर्शी,केदारनाथ भास्कर, तरुण,पंकज,चेतन,शिवदास,मुकेश दास,अविनाश अशेष,
संजीव फ़िरोज,राधे,श्यामनंदन निशाकर,बबलू दिव्यांशु,अशोक झा,विनोद बिहारी झा आदि नामों का एक
कारवां है जिन्होंने कला,साहित्य,संस्कृति और विमर्श के माध्यम से सिमरिया और आस पास के गांवों में जन जागरण
का  अभियान चलाया।मेरे द्वारा लिखे दो नुक्कड़ नाटक 'जात पांत पूछे सब कोई' और 'मैं हूँ भ्रष्टाचार' को लेकर प्रतिबिंब गांव गांव तक पहुंचा।मोनू इसी टीम के सक्रिय साथी थे।
      ◆
बीएचयू में बीएड के दौरान एडमिशन से लेकर अंतिम सत्र तक उनके निर्माण में मैं जो कुछ सहयोग कर सकता था,करता रहा।काशी अस्सी क्षेत्र मेरे लिए साधना और मुक्ति का क्षेत्र है।चाय,काफी,पान के दर्जनों अड्डे और सैकड़ों बुद्धिजीवी,कवि,लेखक,पत्रकार,नेता,शिक्षक,गुंडे,पर्यटक,एक्टिविस्ट,पागल,साधु,गाउल सब मेरी जान हैं।तुलसीदास,धूमिल,नामवर सिंह,काशीनाथ सिंह और मेरी उसी अस्सी की
की अंतरराष्ट्रीय चाय अड़ी के वे स्पीकर भी हुए।
      ◆

         बीएचयू से बीएड करने के बाद मुचकुंद डीएवी में शिक्षक भी हुए।शिक्षा दान के साथ दिनकर मिशन के लिए उनका बाद का जीवन पूर्णतः समर्पित हो गया।दिनकर पुस्तकालय और दिनकर मंच से साहित्य की गंगा बहाकर उन्होंने दिनकर पुस्तकालय के साहित्यिक स्वरूप को जनपद,राज्य और राष्ट्र की हलचल से नए सिरे जोड़ दिया।
    मुचकुंद का एक गुण नई पीढ़ी के लिए ज्यादा प्रेरणादायक है।वह गुण है उनका पढाकूपन।वे जब दिनकर पुस्तकालय से जुड़े,तब जनपद से लेकर जनपद से बाहर तक दिनकर पुस्तकालय के पाठक फैल गए।वे जिस तरह
जनपद भर में समयांतर पत्रिका घूमघूमकर बांटते थे,वैसे ही
दिनकर पुस्तकालय की किताब झोले में लेकर लोगों को पढ़ाने लगे।वे चलता फिरता पुस्तकालय हो गए जिनके झोले
में किसिम किसिम की पुस्तकें रहती थीं।शिक्षक,लेखक,पत्रकार,नाट्यकर्मी,नेता,अफसर सभी को उन्होंने पुस्तक संस्कृति और अध्ययन स्वभाव से जोड़ा।यह अक्षर विरोधी दौर में उनका बड़ा योगदान था।पाठक संस्कृति को बनाकर ही पुस्कालय जीवित रह सकता है।
      मुझे याद है।जब वे बीएड करने बीएचयू आए तो अपनी
अदा के अनुसार झगड़ा कर मेरी मेंबरशिप रिनुअल की और
एक मुश्त वर्षों का सदस्यता शुल्क लिया।उनका तर्क अकाट्य था कि आप दिनकर पुस्तकालय के भीम राव आंबेडकर हैं।आपके हाथों लिखे संविधान के नियमानुसार हमलोग चुनाव समिति का करते और नेता बनते हैं।आपने पुस्तकालय दीवार निर्माण में ईंट, सीमेंट,बालू  व्यव्यस्था लेकर पुस्तक की खरीद,ढुलाई, जिल्दसाजी तक की है तब उससे दूर कैसे हो सकते हैं।इतना ही नहीं वे
मेरे लिए पुस्तकालय से पुस्तक निर्गत कराकर बनारस में लाते और पढ़ाते थे।मोनू को नई किताबें और नए विचार किसी भी चीज़ से ज्यादा पसंद थे।इस आदत के कारण
मैं उन्हें ज्यादा चाहने लगा था।जब भी कोई नई किताब
चर्चित होती,मैं उन्हें तुरत सूचित करता।कुछ किताबें उपलब्ध
भी कराता।वे कोशिश करते कि पहले उसे पढ़ें और जरूरी
हो तो दिनकर पुस्तकालय के लिए खरीद करवाएं।गुरुवर
प्रो मैनेजर पांडेय द्वारा संपादित गुलाम भारत के आर्थिक शोषण पर आधारित सखाराम देउस्कर की दुर्लभ पुस्तक 'देश की बात' जब मैंने उन्हें सिमरिया में भेंट की,वे उछल पड़े।बोले-इसे पुस्तकालय में हरहाल में होना चाहिए।इसे
हर नौजवान को पढ़ना चाहिए ताकि पता चले कि हमारा शोषण किस तरह हुआ था।

            एक संस्मरण और।2007 में जब दिनकर शताब्दी वर्ष आने वाला था।गर्मी छुट्टी में मैं बीएचयू की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर एक महीने ग्राम सुख लेने सिमरिया पहुंचा।मोनू आ धमके।बोले-दिनकर जी हमलोगों को माफ नहीं करेंगे।मैंने कहा-ऐसा क्यों बोल रहे हो?वे शुरू हो गए-सरजी,गांव का माहौल ठीक नहीं है।समिति भी बिखर गई है।दिलीप भारद्वाज,सेठ जी,परमानंद जी और राजेश जी-सब पिछले साल से ही मुंह फुलाकर अपने अपने घर बैठे हैं।दिनकर शताब्दी सर पर है।लोग क्या कहेंगे!फिर मुचकुंद जी ने अपनी अदा से मुझपर महाजाल फेंक दिया-सर जी!अगर आप हरेक के दरबाजे पर चलकर कहिए तो एका हो सकता है।हुआ भी वही।मैं महीनों लगा रहा। दिनकर शताब्दी वर्ष कैसे मने और सिमरिया भूमि को साहित्यिक तीर्थ कैसे बनाया जाए,यह योजना शुरू में मुचकुंद, प्रवीण,सजीव फिरोज़ और मैंने मौखिक रूप से तैयार की।दिनकर पुस्तकालय पर बैठक करवायी।फिर क्या था!भूली हुई शक्ति
दिनकर पंथियों को याद आ गई।वे चल पड़े।कारवां बन
गया।2007 में जेएनयू से बड़े आलोचक और मेरे शोधगुरु मैनेजर पांडेय,पटना से अग्रज कवि अरुण कमल और मेरे विभाग से प्रखर दिनकर अध्येता प्रो अवधेश प्रधान साहित्य
मंच पर आए।सचाई तो यह है कि दिनकर  सदी वर्ष के लिए  मैंने जिस तरह ग्रामीण दिनकरपंथियों को जोड़ा तथा सालभर की पूरी रूपरेखा प्रकाशित कर दी;इसका मूल कारण तो मोनू की प्रतिबद्धता ही है।
         जबतक सिमरिया और दिनकर के अक्षर रहेंगे मुचकुंद उस साहित्यिक प्रांगण में रश्मिरथी की तरह चमकते रहेंगे।सिमरिया को मुचकुंद की यादों के लिए बहुत कुछ दिल खोलकर करना चाहिए।जब भी मैं गांव आऊंगा और सिमरिया की दीवारों पर दिनकर की उगी हुई काव्य पंक्तियां देखूंगा तब मेरी आँखें भर उठेंगी।
         मुचकुंद!तुम विज्ञापन-प्रचार के दौर में सुलगते हुए विचार थे।तुम दुनिया बदलने आए थे,खुद ही बदल गए।मैं स्वीकार करता हूँ कि तुम मेरे गुरू थे,मैं तुम्हारा शिष्य।तुम्हारी हर फटकार से प्यार का अमृत झरता था।तुम सिमरिया के आकाश का ध्रुवतारा हो।अटल और अमर!सेल्फी युग में लाइट ऑफ सेल्फ!युवा बुद्ध!
                  --------
दिनकर मुचकुंद के लिए गाते रहेंगे-
  
      आवरण गिरा,जगती की सीमा शेष हुई
      अब पहुंच नहीं तुमतक इन हाहाकारों की
       नीचे की महफ़िल उजड़ गयी, ऊपर कल से
       कुछ और चमक उट्ठेगी सभा सितारों की

                              
    
    
        
     
       

     
         

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

बहुत मार्मिक संस्मरण गुरुजी