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17 मई, 2022

बनारस में लोकविद्या आंदोलन


        √रामाज्ञा शशिधर
बात काशी की है!अस्सी घाट की है।घाट दर घाट की है।
      बात शास्त्र की नहीं,लोक की है।शास्त्रार्थ की नहीं,लोकार्थ की है।वाक की नहीं,जर्नी की है।सेल्फी की नहीं, सेल्फ की है।सीढ़ी की नहीं,साधना की है।गोबर पुजैया की नहीं,ज्ञान उपासना की है।
      बात दर्शन अखाड़े की है।ज्ञान पंचायत की है।लोक विद्या आंदोलन की है यानी बात सतह, धूल और गाद के नीचे छुपे हुए मानव के श्रम रस की है, बनारस के ज्ञान रस की है।
      बात अपनी है और उनकी है।बात जितनी पुरानी है उससे ज्यादा नई है।जितनी नई है उससे भी आगे चली गई है।बात वाद की है,विवाद की है तथा सबसे ज्यादा संवाद की है।
      तो कुछ देर के लिए प्रिंटेड पोथी से मुंह मोड़िए।जैसे आधुनिकता से पूर्व और उत्तर दोनों वक्तों ने उसे अंगूठे पर रखा है,आप भी कुछ देर तर्जनी पर रखिए।लोक में घरिए।डिजीलोक में उतरिए।
      लोक लोग से होता है।लोग जीवित ध्वनि और दृश्य से बनते हैं।तरंगों पर सवार ध्वनियों के संकेतक और दृश्यों के चलचित्र ही लोक के आधार थे,हैं और रहेंगे।वाचिक लोक से उत्तर वाचिक डिजिलोक तक।बीच में प्रिंट का पमपुआ घाट आया था,अब उसका सत्य हरिश्चंद हो गया है।लोक से उत्तर लोक तक सब वाचिक ही वाचिक है।मनु से आंबेडकर तक प्रिंट के मकड़जाल हैं।
      लोक विद्या आंदोलन ढाई दशक से बुद्ध की जमीन से चल रहा है।वहां पोथी की हैसियत न्यून है;प्रिंट रुतबा हाशिए पर है; शासकीय ज्ञान के केंद्र का नाभिक लिजलिजा है;लाइब्रेरी,अनुसंधान, उपदेश,डिग्री और लिखा पढ़ी के तर्क लोक पर हुकूमत के सनातन पाखंड माने जाते हैं।
      लोक विद्या आंदोलन में ज्ञान का सारांश लोकज्ञान है।लोकज्ञान ही मूल,तर्कशील और अनुभवजन्य ज्ञान है।वही समाज की गति का आधार है।
       लोकज्ञान के ज्ञाता किसान हैं,शिल्पी हैं,कारीगर हैं,स्त्रियां हैं,आदिवासी हैं,लघु रोजगारी हैं।वे सब लोकज्ञान के तर्कशील वैज्ञानिक हैं,दार्शनिक हैं,रूपांतरकारी सामाजिक हैं,कलाविद हैं,शिल्प शिक्षक हैं।
        लोकज्ञानी जानते हैं कि घाट उत्तर आधुनिक घुड़दौड़ के मैदान नहीं,सदा से स्थिर साधना के शांति स्थल रहे हैं।लोकज्ञानी जानते हैं कि शांति के घाट अब शोर के घाट हो रहे हैं;भाव के घाट अब दांव के घाट हो रहे हैं;विचार के घाट अब प्रचार प्रसार के घाट हो रहे हैं;मोक्ष घाट अब बाजार के गलघोंट घाट हो रहे हैं।
  
   लोकविद्या आंदोलन का लोक संवाद बनारस  के घाटों पर बनारसी साड़ी की तरह फैल रहा है।अस्सी घाट पर ज्ञान पंचायत चल रही है।राजघाट पर दर्शन अखाड़े की आजमाइश है।बीच के घाटों पर कबीर के अनहद ज्ञान हैं,रैदास के बेगमी गान हैं, कीनाराम के अघोर तान हैं।हर ओर ज्ञान और तर्क की तरल लहरी है।
      1 मई को अस्सी घाट की ज्ञान पंचायत इसकी गवाह है।नगर भर से लोकविद्यामार्गी की जमघट लगी।ओझल गंगा और अपहरित असि के संगम पर।दिवस था मजूर का।याद थी भदैनी वाले नामवर सिंह की।एक प्रिंट का इलाज होना था-दूसरी परंपरा की खोज।
      सुनिए!ज्ञान पंचायत में इस अघोर का अछोर क्या है!


नए बुद्ध के लिए नए सिद्धार्थ की जरूरत है

   √रामाज्ञा शशिधर
       【हरमन हेस के 'सिद्धार्थ' को पढ़ते हुए】
    

आज बुद्ध का लोकमान्य जन्मदिन है।मानव और मानवेतर अस्तित्व के अनुभव और कर्म का खास दिवस।प्रेम,करुणा,अहिंसा और विवेक के बोधिचित्त का संयुक्त जन्मोत्सव। मेरे लिए यह खास दिन है।
       मेरी दृष्टि से बुद्ध होना कठिन है लेकिन सिद्धार्थ होना कठिनतर है।
     बुद्ध कम ही होते हैं क्योंकि उनमें सिद्धार्थ होने की पात्रता नहीं होती या साधना नहीं होती।
         आज सिद्धार्थ उपन्यास से एक बार फिर गुजर गया।बोधिचित्त की  खोज में।
        बात जर्मन उपन्यास 'सिद्धार्थ' की कर रहा हूँ।जेनुइन लेखक हरमन हेस द्वारा सिद्धार्थ 1922 में रचा गया।यह  सिद्धार्थ उपन्यास के जन्म का सौंवा साल है।अब यह दुनिया की अनेक भाषाओं में उपलब्ध है।हर जगह मिलता है।इसपर मूवी भी बन चुकी है।
       उत्कृष्ट लेखक  हरमन हेस का उपन्यास सिद्धार्थ
दुनिया के अनेक पाठकों को जीवन जीने,समझने और करुणामयी होने की कला सिखाता रहता है।
     उपन्यास सिद्धार्थ बुद्ध के समकालीन भारतीय समय को केंद्र में रखकर नए सिद्धार्थ की निर्मिति की समानांतर कथा है।यह उपन्यास हमें बताता है कि बुद्ध बुद्ध रटने से नहीं,सिद्धार्थ होने से स्वयं को और समाज को जीया,समझा और बदला जा सकता है।
      इस उपन्यास का नायक सिद्धार्थ ऐसा नाविक है जो मानव जाति को दूसरे तट तक पहुंचाता है,पार उतारता है। आज जब  घाट,नदी और नाव जलेबीदार पिकनिक स्पॉट हैं न कि मुक्ति,शांति,विपश्यना और पार उतराई के माध्यम तब सिद्धार्थ होने की जरूरत और बढ़ जाती है।
         बुद्ध की मान्यता है कि नाव पार उतारने के लिए होती है,न कि रेत पर खींचने के लिए।आज बोट वोट है, बाजार है,धंधा है,विज्ञापन है और तटशोभा है।
       आज भारतीय समाज में युवा पीढ़ी चौराहे पर किंकर्तव्य विमूढ़ है।सत्ता,बाजार और समाज तीनों ने उसे भटका दिया है।
वह सर्वध्वंश,आत्मसंशय,चित्त विघटन और स्वप्नहीनता की शिकार है।तब उसके लिए एक ही रास्ता है कि सिद्धार्थ की
तरह विपस्सना (विशेष ढंग से देखना)से उस नव मार्ग की खोज करे जो स्वचेतस और सृष्टि चेतस दोनों के लिए आशा का दीप बने।
        मैं सिद्धार्थ से कुछ उद्धरण दे रहा हूँ।साथ ही जिज्ञासा,प्रश्न और ऊर्जा से भरी युवा पीढ़ी से अपील करता हूँ अगर जीवन निर्माण के लिए एक ही किताब पढ़नी हो तो सिद्धार्थ पढ़िए।     
        आप नए भारत का सिद्धार्थ बनिए।बुद्धत्व अपने आप मिल जाएगा।
         बुद्ध ने कहा था-इस जगत में अंधकार ही अंधकार है।मैं ज्ञान की आग के कुछ टुकड़े फेंक रहा हूँ।जितनी दूर तक रोशनी फैले।
          
      आत्ममुग्ध सेल्फीप्रकाश के समांतर आत्मबोधि सेल्फप्रकाश के कुछ टुकड़े आपके लिए है।शायद आपके चित्त में कुछ सूर्यकण स्फोट ले और  अंधेरे से संघर्ष करना शुरू कर दे। 

●वह कोई साधारण ब्राह्मण ,पूजा - पाठ करने वाला कोई आलसी पुरोहित नहीं बनेगा ; न चमत्कारी करिश्मे दिखाने वाला कोई लालची व्यापारी ; न कोई खोखला , गाल बजाने वाला वक्ता ; न कोई छुद्र , धूर्त पुरोहित ; और न ही भेड़ों के झुण्ड की कोई भली - सी , मूढ़ भेड़ भी । 

●उसको जितना मांझी सिखा सका उससे कहीं अधिक उसने नदी से सीखा । वह उससे लगातार सीखता रहा । सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु जो उसने उससे सीखी वह थी सुनना , शांत चित्त से एकाग्र होकर , प्रतीक्षा करते हुए , खुले मन से , बिना किसी आवेग के , बिना किसी इच्छा के , किसी तरह का निर्णय दिये बिना , बिना कोई धारणा बनाये । 

●बहुत कोमल ध्वनि कर रही थी नदी , कई - कई स्वरों में गाती हुई । सिद्धार्थ ने पानी में झाँककर देखा , और बहते हुए जल में उसके सामने छवियाँ प्रकट हुईं : उसके पिता दिखायी दिये , अकेले , अपने पुत्र के लिए शोक करते हुए ; स्वयं वह दिखायी दिया , अकेला , वह अपने दूर जा चुके पुत्र की लालसा के बन्धन में बँधा जा रहा था ; उसका बेटा दिखायी दिया , वह भी अकेला था , बच्चा , अपनी युवा इच्छाओं के दहकते हुए मार्ग पर लालच से भागता हुआ , हरेक अपने लक्ष्य की ओर भाग रहा था , हरेक अपने लक्ष्य के प्रति आसक्त था , हरेक दुःख झेल रहा था । नदी दुःख भरे स्वर में गा रही थी , चाहत से भरकर वह गा रही थी , चाहत से भरकर वह अपने लक्ष्य की दिशा में बहे जा रही थी , शोकाकुल स्वर में वह गाये जा रही थी । 

●प्रेम सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु प्रतीत होती है । संसार को आमूलचूल समझना , उसकी व्याख्या करना , उससे घृणा करना , यह महान चिन्तकों का काम हो सकता है । लेकिन मेरी रुचि तो केवल संसार को प्रेम करने योग्य बनने में है , उससे घृणा करने में नहीं है , उससे और स्वयं से दूर भागने में नहीं है , उसको और स्वयं को और समस्त सत्ताओं को अनुराग , सराहना और भरपूर सम्मान के भाव से देखने योग्य बनने में है ।
                           ★★