रामाज्ञा शशिधर
लेखक/अध्यापक
हिंदी विभाग, बीएचयू
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दो बैलों की कथा : स्वाधीनता संग्राम का रूपक
आलोचकों के बीच प्रेमचंद की अनेक कहानियों को लेकर अनेक तरह के पूर्वाग्रह हैं। अधिकांश पाठक 'दो बैलों की कथा' को बाल कहानी या पशु कहानी के रूप में देखते हैं। यह इस कहानी को देखने का सही नजरिया नहीं है।
'दो बैलों की कथा' कहानी का रचनाकाल 1931 है। यह उसी वर्ष 'हंस पत्रिका' के अक्टूबर महीने में छपी थी। उस दौर में प्रेमचंद की अनेक कहानियां सामने आयी। 1931 में 'दो बैलों की कथा' कहानी के इर्द-गिर्द ही उनकी आधा दर्जन से अधिक कहानियां आयी। एक तरह से यह प्रेमचंद की कहानियों के नए ढंग से विस्फोट का समय है।
यहां प्रेमचंद की उन कहानियों का जिक्र आवश्यक है जिन्हें वे 'दो बैलों की कथा' कहानी के आस-पास लिख रहे थे। उन कहानियों को ध्यान से देखने पर एक दिलचस्प तथ्य निकल कर सामने आता है। 1931 की जनवरी में प्रेमचंद की 'उन्माद' कहानी छपी, फरवरी में 'जेल' कहानी, मार्च मे 'डपोरसंख', अप्रैल में 'डिमांस्ट्रेशन,' जून में 'प्रेम का उदय' अगस्त में 'आखिरी तोहफा' और सितंबर में 'तावान' कहानी। यह बात गौर करने वाली है कि 'तावान' कहानी को प्रेमचंद छिपी हुई डकैती कहते हैं। इसी क्रम में अक्टूबर महीने में एक तरफ 'सद्गति' कहानी छपी और दूसरी तरफ 'दो बैलों की कथा' कहानी छपी जो हिंदी कथा साहित्य के लिए बड़ी घटना साबित हुई।
प्रेमचंद की इन कहानियों के शीर्षक और अतंर्वस्तु को देखने से यह स्पष्ट होता है कि लखनऊ में रहते हुए वे कहानियों के माध्यम से उस दौर में उपनिवेशवाद के खिलाफ चल रही आजादी की लड़ाई का एक क्रिटिक रच रहे थे। यह क्रिटिक वे कहानी के भीतर रच रहे थे।
'दो बैलों की कथा' कहानी की रूपात्मकता अद्भुत है। यह सिर्फ बाल कहानी या पशु कहानी नहीं है बल्कि यह संघर्षशील और गहरे राजनीतिक उद्देश्य की कहानी है। 1928 से लेकर 1931 के बीच जब यह कहानी लिखी जा रही थी उस समय देश के भीतर ब्रिटिश शासन और उसके देशी आधार के खिलाफ अनेक तरह के संघर्ष दिखाई पड़ते हैं।
1929 में गरम दल का नेतृत्व भगत सिंह करते हैं। सान्डर्स की हत्या होती है। 1930 के मार्च में महात्मा गांधी नमक सत्याग्रह आरंभ करते हैं और नमक बनाने के लिए साबरमती से दांडी तक की पैदल यात्रा होती है। यह कहानी हिन्दुस्तान के गांवों तक पहुंच जाती है। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और हिंसा के अनेक रूपों से जुड़ जाती है। 1930 की जनवरी में लाहौर में पूर्णस्वराज का नारा दिया जाता है। 1931 में भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी जाती है। 1931 में ही कांग्रेस अपने संघर्ष में किसानों और मजदूरों के संघर्ष को जोड़ती है। यह बहुत ही हलचल का समय है।
प्रेमचंद की तत्कालीन कहानियों और उनके आस-पास घटित हो रही राजनीतिक-सामाजिक अंतर्वस्तु के बीच गहरा संबंध है। अगर 'दो बैलों की कथा' कहानी को उत्तर औपनिवेशिक विश्लेषण की दृष्टि से देखें तो यह राष्ट्रीय रुपक लगती है। फ्रेडरिक जॉनसन ने ठीक ही कहा है कि तीसरी दुनिया की कहानी या गल्प वहां का राष्ट्रीय रुपक ही नहीं विडंबनामूलक भी होता है।
'दो बैलों की कथा' राष्ट्रीय रुपक है। यह भले एक गांव की कहानी है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर चल रही राजनीतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व भी करती है। यह राष्ट्र के किसान वर्ग की इच्छाओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है। इस कहानी को सिर्फ किसान-ज़मींदार और किसान-ब्रिटिश संघर्ष के रूप में नहीं देखना चाहिए बल्कि गुलाम और मालिक के बीच के तनावों के रूप में भी देखना चाहिए जो तीसरी दुनिया के गुलाम देशों की कड़ी सच्चाई है।
पूंजीवाद और उपनिवेशवाद के दौर में वर्ग के दो रूप शोषक और शोषित ही नहीं बनते हैं बल्कि मालिक और गुलाम भी बनते हैं। पूंजीपति, श्रमिक, जमींदार और किसान के सामान्य रूप से यह रूप भिन्न होता है, गहरा होता है और सांस्कृतिक रूप से ज़्यादा घातक होता है।
कहानी के पहले खंड में गुलामी और विद्रोह का द्वंद्व दिखाया गया है। कहानी की शुरुआत हीरा और मोती नामक दो बैलों से होती है जो झूरी काछी के घर रहते हैं। एक दिन झूरी उन्हें अपने साले गया के यहां भेज देता है। यह बात दोनों बैलों के दिलों में चुभती है। उन्हें परायापन और निर्वासन का बोध होता है। झूरी से उनकी आत्मीयता का अलगाव होता है जिस कारण वे दोनों बगावत करते हैं। वे पगहा तोड़ते हैं और गया के घर से भागकर झूरी के घर चले आते हैं। यह उन दोनों का पहला विद्रोह है।
दूसरे खंड, में गया फिर से उन दोनों को झूरी के घर से अपने घर लाता है। उनका दमन करने के इरादे से वह उन्हें रास्ते भर बैलगाड़ी में जोतकर लाता है। घर पर उन्हें खाने के लिए सिर्फ सूखा भूसा देता है। अगले दिन उन्हें खेत में जोतने की कोशिश करता है। लेकिन वह दोनों खेत में खटने से इंकार कर देते हैं। वे खेत में चलते ही नहीं हैं जिस कारण गया उनकी खूब पिटाई करता है। घर पर भी उनका तरह तरह से शोषण करता है। उन्हें पीटता है। ठीक से चारा नहीं देता है। उनकी उपेक्षा करता है। अपमानित करता है। दोनों बैल यह सब बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। फिर भी वे दोनों गहरी सजा के उस ढांचे में आगे बढ़ते रहते हैं। एक दिन गया की बेटी उन दोनों बैलों को वहां से भागने के लिए मुक्त कर देती है। वे दोनों वहां से भाग जाते हैं। यहां भी ग़ुलामी से मुक्ति का संकेत है।
तीसरे खंड में, रास्ते में उन दोनों की मुलाक़ात एक सांड से होती है। सांड से बैल कभी जीतते नहीं हैं लेकिन इस कहानी में वे दोनों बैल योजनाबद्ध तरीके से संघर्ष करते है और उस सांड को हरा देते हैं।
चौथे खंड में, वे दोनों एक खेत में मटर खाते हुए पकड़े जाते हैं और कांजी हाउस पहुंचा दिए जाते हैं। वहां वे गुलाम जानवरों को दीवार तोड़कर आजाद करते हैं। हीरा की रस्सी नहीं खुलती है इसलिए मोती भी वहां से नहीं भागता है। दोनों फिर से पकड़े जाते हैं। यहां गुलामी के वक्त गरम और नरम विचारों में प्रेम और मित्रता की गहराई को दिखाया गया है। इसके बाद उन्हें वहां बिना खाना पानी के एक सप्ताह रखा जाता है जिससे दोनों का शरीर गल जाता है। वे ठठरियों में बदल जाते हैं।
किसान झूरी के यहां हीरा और मोती को प्रेम मिला, आत्मीयता मिली और जीवन का रस मिला। गया के घर उन्हें श्रम और गुलामी के साथ उपेक्षा और अनादर मिला लेकिन कांजी हाउस में उनके साथ की गई क्रूरता चरम पर थी। उन्हें खाना नहीं दिया गया, पानी नहीं दिया गया और जब शरीर गल गया तब अंत में उन्हें एक कसाई के हाथ बेच दिया गया।
अंतिम खंड, में कसाई उन्हें जिस रास्ते से ले जाता है, वह उन दोनों का पहचाना हुआ रास्ता है। उन्हें अपने घर का रास्ता याद आ जाता है और वे दोनों विद्रोह कर अपने घर पहुंच जाते हैं। किसान झूरी देशज साथी को देखकर प्रसन्न होता है और उन्हें गले से लगा लेता है। कसाई उन्हें लेने के लिए उनके पीछे झूरी के घर पहुंच जाता है और उन पर अपना कब्जा जमाने की कोशिश करता है। लेकिन मोती उसे गांव के बाहर तक खदेड़कर आता है और अपनी जिंदगी की रक्षा करता। यहां किसान और कसाई के बीच संघर्ष दिखाया गया है।
कहानी के अर्थ विमर्श को गहराई से देखने पर कई संस्तर दिखाई पड़ते हैं। इसका कथाशिल्प प्रेमचंद की अन्य कहानियों से ज्यादा सघन है। प्रेमचंद की कहानियों में नाटकीयता, घटना, अनुभव, चरित्र निर्माण और भाषा ये पांचों तत्व रूप के तौर पर उपनिवेशवाद से आते हैं। अपने समय का यथार्थ ही किसी भी रचना का रूप और अंतर्वस्तु का निर्माण करता है। एक साहित्यिक रचना की समझ और बोध के लिए रुप से अंतर्वस्तु की तरफ चलना चाहिए। इसलिए पहले इस कहानी के रूप को देखते हैं।
उपनिवेशवाद एवं जमींदार वर्ग दोनों की चक्की में उस दौर का भारत पिस रहा था। खासकर किसान भारत पिस रहा था। 1857 से लेकर 1931 के बीच अनेक तरह के घटनात्मक और नाटकीय मोड़ भारत में आए। प्रेमचंद की कहानियों के कथानक में नाटकीयता एक शक्तिशाली डिवाइस की तरह है। 'दो बैलों की कथा' पांच खंडों में है और इन पांच खंडों में पांच नाटकीय मोड़ आए हैं। नाटकीयता का संबंध गहरे रूप से घटना से होता है। इस कहानी में घटनाएं लगातार बदलती रहती हैं।
कहानी में पूरे किसान जीवन का अनुभव है। किसान के बैलों से और अपने खेतों से संबंध को गहरे रूप से यहां दिखाया गया है। प्रेमचंद केवल किसानों, मजदूरों और स्त्रियों के चरित्र निर्माण में माहिर कलाकार नहीं हैं बल्कि वे पशुओं को भी चरित्र के रूप में ढालने और उन्हें मनुष्य के रूप में पेश करने में माहिर हैं।
कहानी के दोनों बैल हीरा और मोती दो विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनका स्वाधीनता संग्राम से गहरा संबंध है। हीरा अहिंसावादी है। नरम स्वभाव का है और नरम दल की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है जबकि मोती उग्र, आक्रोशी और क्रांतिकारी है। वह गरम दल की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है। इस तरह दोनों राष्ट्रीय रुपक में बदल जाते हैं।
उपनिवेशवाद अपनी औपनिवेशिक वासना, आकांक्षा और अनंत क्रूरता के साथ भारत में रहा इसलिए प्रेमचंद की कहानियों में विउपनिवेशन की प्रक्रिया हर जगह दिखाई देती है। उस समय शोषण के दो रुप थे। पहला बाह्य शोषण था जो ब्रिटिशर्स करते थे और दूसरा आंतरिक शोषण था जो उनके देशी आधार जमींदार करते थे।
भारत में औपनिवेशिक शासन किसानों की लूट और शोषण पर आधारित था। किसानों के शोषण का सबसे बड़ा औजार 'लगान' था। भारतीय किसानों से ज्यादा से ज्यादा लगान लेने के लिए अंग्रेजों ने भारत की पुरानी कृषि सभ्यता को नष्ट कर यहां इंग्लैंड की जमींदारी व्यवस्था लागू कर दी थी जिससे फ़सल की आधे से ज्यादा हिस्सा जमींदारों और अंग्रेजों के पास लगान के रूप में चला जाता था। परिणामतः किसानों को भुखमरी से भरी जिंदगी बितानी पड़ती थी।
इस कहानी में तीन स्तरीय उपनिवेशन है। पहला ब्रिटिशर्स द्वारा किसानों का उपनिवेशन है। दूसरा देशी जमींदार और महाजन द्वारा किसानों, बैलों और पूरे श्रमिक ढांचे का उपनिवेशन है। यह बात ध्यान देने वाली है कि उपनिवेश में शोषण का शिकार सिर्फ मनुष्य ही नहीं होता है बल्कि पशु भी होता है और प्रेमचंद उस पशु के शोषण और संवेदना तक पहुंचकर लिखने वाले लेखक हैं। तीसरा किसान द्वारा जानवर का उपनिवेशन है जिसका संबंध केवल औपनिवेशिक प्रक्रिया तक नहीं हैं बल्कि 21वीं सदी तक है। इस सदी में मनुष्य पर्यावरणीय मार्क्सवाद और पर्यावरणीय समाजवाद की बात कर रहा है; मनुष्य केंद्रित सभ्यता को पारितंत्र और प्रकृति केंद्रित सभ्यता की ओर ले जाने के लिए नए नए विचार खोज रहा है तब इस कहानी की सार्थकता और बढ़ जाती है।
पशु के प्रति मनुष्य की क्रूरता कृषि क्रांति के बीच से आयी है। मनुष्य जिसे कृषि के क्षेत्र में क्रांति मानता है दरअसल इन दिनों इतिहास का एक चिंतन उसे मानव सभ्यता में मानव द्वारा मानव और पशुओं को धोखे से गुलाम बनाने का दौर मानता है। यह सत्य है कि बीस हजार सालों की कृषि सभ्यता मनुष्यता की निर्मिति की सभ्यता रही है लेकिन उससे ज्यादा यह मनुष्यता पर तरह तरह की क्रूरता और बंधनों की सभ्यता रही है क्योंकि इसी दौर में प्रकृति, मनुष्य और जानवर गुलाम हुए हैं। पूंजीवाद मनुष्य और प्रकृति की क्रूरता, गुलामी, दमन और शोषण का चरम विकास है।
कहानी में पहले स्तर पर दो जानवरों का उपनिवेशन है जिसके उपनिवेशक क्रमिक रूप से अंग्रेजी सत्ता है। अंग्रेजों को भारतीय किसानों से हर हाल में लगान चाहिए होता था, जिसके लिए वे किसानों को तरह तरह से सताते थें। उनके डर से ज्यादा फ़सल उगाने के लिए किसान अपने पशुओं का शोषण करते थे। फसल से प्राप्त लगान जमींदारों के माध्यम से अंग्रेजी सत्ता हड़प लेती थी। उपनिवेश के लोग सभी तरह की सुख-सुविधाओं से भर जाते हैं और विलासिता का जीवन जीते हैं। दोनों बैल हीरा और मोती इस शोषण का विरोध करते हैं और खेतों में चलने से मना कर देते हैं।
उपनिवेशवाद में 'लैप्स ऑफ लैंग्वेज' यानी भाषा का गायब होना ग़ुलामों की एक विचित्र विशेषता है। इसमें जनता मूक हो जाती है। उसको अपने हक के लिए बोलने की आजादी नहीं होती है। तात्कालीन दौर में भारतीय जनता भी मूक हो गई थी। प्रेमचंद इस कहानी के जानवरों के माध्यम से उपनिवेशित गुलाम की गायब हुई भाषा को वापस लाने की कोशिश करते हैं।
'दो बैलों की कथा' शीर्षक को देखने से पता चलता है कि प्रेमचंद यहां कथा की बात कर रहे हैं, कहानी की नहीं। कथा और कहानी में फर्क है। कहानी आधुनिकता और साम्राज्यावाद के साथ आयी है। वह प्रिंटिंग मशीन की देन है जबकि कथा वाचिक परंपरा से आयी है। दुनिया में कथा की परंपरा कहानी से पुरानी है और भारत में भी। यहां दो बैलों की कथा है, कहानी नहीं।
प्रेमचंद भारतीय कथा परम्परा और उसकी वाचिकता से पूर्णतः परिचित थे इसलिए इस कहानी में उन्होंने भारतीय कथा परंपरा से ही रूपक लिया है। इस तरह प्रेमचंद 'दो बैलों की कथा' कहानी के रूप और संरचना के माध्यम से पाठक को भारतीय कथा परंपरा में आने वाले पशु-पक्षियों और उनकी वाचिकता से रूबरू करवाते हैं।
कहानी का परिवेश ग्रामीण है जो बच्चे, जानवर, खेत, किसान और पारिवारिक जीवन हर जगह दिखाई देता है। कहानी में जब हीरा और मोती गया के घर से पगहा तोड़कर अपने मालिक झूरी के घर वापस आ जाते हैं तब उन्हें देख बच्चे उत्सव मनाने लगते हैं। उनमें से एक बच्चा कहता है कि "बैल नहीं हैं वे उस जनम के आदमी हैं।" इससे पता चलता है की इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद एक तरफ औपनिवेशिक शोषित किसानों का क्रिटिक रच रहे थे तो दूसरी तरफ पशु और मनुष्य के बीच के संबंधों पर भी क्रिटिक रच रहे थे। इस तरह यह कहानी दोनों स्तरों पर एक साथ चलती है।
प्रेमचंद श्रम और अधूरी इच्छा के बीच के मनोविज्ञान को इस कहानी में रचते हैं। बैल श्रम का प्रतीक है जो आजीवन बिना किसी विरोध के किसानों के लिए श्रम करता है। उसकी अपनी कोई विचारधारा नहीं होती है। किसान उससे इतना अधिक काम लेता है कि उसे अपने दिमाग़ को चलाने का समय ही नहीं मिलता है। इस कहानी के दोनों बैलों की तरह ही गुलाम भारत के किसानों की स्थिति थी। वे किसान भी इन्हीं की ही तरह जी तोड़ मेहनत करते थे लेकिन अपने लिए नहीं, जमींदारों और अंग्रेजों के लिए करते थें। इनसे जितना काम लिया जाता था उतना खाने को नहीं दिया जाता था जिससे इनके सोचने समझने की क्षमता वैसे ही खत्म होती चली गई। पूरा का पूरा ब्रिटिश उपनिवेशवाद किसानों के इसी श्रम के शोषण पर टिका था।
प्रेमचंद उपनिवेशवाद में राजनीति और अर्थनीति के समांतर सांस्कृतिक इच्छा और आकांक्षा की सामूहिक एवं वैयक्तिक अभिव्यक्ति के भी लेखक हैं। इस कसौटी पर यह कहानी केवल बैलों और किसानों के आर्थिक संघर्ष की कहानी नहीं है बल्कि सांस्कृतिक इच्छाओं की पूर्णता की भी कहानी है।
यह कहानी गहरे अर्थों में इतिहासबोध और स्मृति की वापसी की कहानी है जिसको वापस लौटाया नहीं जा सकता है। आज मनुष्य सभ्यता के जिस मोड़ पर खड़ा है वहां नई टेक्नोलॉजी ने बैलों की उपयोगिता को खत्म कर दिया है। इसलिए बैलों की संख्या बहुत कम हो गई है। वृद्ध पूंजीवादी सभ्यता से बैल गायब होते जा रहे हैं।
पाठ में एक तरफ श्रम के समानंतर बैलों की इच्छा और आकांक्षा का कथन है तो दूसरी तरफ किसानों की आर्थिक विषमता के समानंतर सांस्कृतिक इच्छा की पूर्ति का आख्यान भी। भारत के किसानों के हाथों में धान है तो कंठ में गान भी है। इसी इच्छा को व्यक्त करती हुई उपकार फिल्म में यह गाना गाया गया है कि मेरे देश कि धरती सोना उगले उगले हीरे मोती। जबकि आज भी भारत में किसानों को सिर्फ आर्थिक इकाई के रूप में ही देखा जाता है, सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में नहीं।
उपनिवेशवाद हिंसा पर आधारित व्यवस्था है हसलिए इस कहानी में हीरा और मोती पर हिंसा के कई रूप दिखाई पड़ते हैं। गया द्वारा की गयी हिंसा, कांजी हाउस के लोगों द्वारा की गयी हिंसा और सांड द्वारा की गयी हिंसा। अंत में कसाई के हाथों की हिंसा।
दोनों बैल हिंसा के खिलाफ प्रतिहिंसा करते हैं। इस कहानी में मोती हमेशा से गरम दल का होने के कारण प्रतिरोध करता है और हीरा नरम दल का होने के कारण त्याग, तपस्या,सत्य और अहिंसा द्वारा असहयोग को एक उग्र संघर्ष में बदलने की कोशिश करता है। मोती हिंसा का जवाब हमेशा प्रतिहिंसा से देता है और हीरा अहिंसा के सहारे उसका सहयोग करता है। इस तरह मोती की अगुआई में हीरा की जीत होती है। 1930 में प्रेमचंद जानवरों के माध्यम से मनुष्य की मुक्ति का आख्यान रच रहे थें।
कहानी की शुरुआत में प्रेमचंद गाय, कुत्ता और गधा तीन जानवरों का जिक्र करते हैं और कहते हैं कि ये तीनों समय समय पर हिंसक होते हैं। गाय भी सींग मारती है। जिस समय वह बियाती है वह अपने बच्चों की रक्षा के लिए सिंहनी की तरह लड़ती दिखाई पड़ती है। कुत्ता भी कभी कभी क्रोध में आता है। गधे के विषय में उनका मानना है कि गधा केवल बैशाख में कुलेल करता है। वह वैशाख नंदन है। इस कहानी में जब हीरा-मोती दीवार तोड़ सभी जानवरों को कांजी हाउस से बाहर भगा देते हैं तब सिर्फ गधे ही बाहर नहीं जाते हैं। उन्हें डर रहता है कि अगर वे फिर से पकड़े गये तो उन्हें बहुत मार खानी पड़ेगी।
प्रेमचंद के अनुसार सीधापन संसार के लिए उययुक्त नहीं है। भारत वासियों की अफ्रीका में इसीलिए दुर्दशा हुई थी और अमेरिका में उन्हें घुसने नहीं दिया गया था क्योंकि वे सीधे थे। अगर उन्होंने भी पत्थर चलाना सीख लिया होता तो वे भी सभ्य कहलाते। अफ्रीका और अमेरिका में हुए मुक्ति संग्राम का इस कहानी पर विशेष प्रभाव है। भारत के किसानों, गांवों और पशुओं पर शोषण का जो चक्र चला उस पर प्रेमचंद केवल राष्ट्रीय विचारधाराओं की छाप नहीं लेते हैं बल्कि अंतरर्राष्ट्रीय संघर्षों, घटनाओं और मुक्ति आंदोलनों से भी प्रेरणा लेते हैं।
प्रेमचन्द के सामने कहानी मनोरंजन की वस्तु नहीं है बल्कि वह मनुष्य की मुक्ति की वस्तु है। कृषि संस्कृति से बैल का बहुत गहरा संबंध है। प्रेमचन्द कहते हैं कि बैल का गुनाह यह है कि वह सीधा और श्रमजीवी है। बैल के शोषण के चार बिन्दु विचारणीय हैं। पहला, जब वह पैदा होता है तो उसे दूध से दूर रखा जाता है। दूसरा, बैल स्वयं बैल नहीं होता है। वह सांड़ की प्रजाति का है। लेकिन किसानों ने बधियाकरण का तरीका अपनाकर उसकी सेक्स ग्रंथि को महरूम कर दिया जो सभ्यता के इतिहास में बहुत बड़ी क्रूरता थी । आनंद और सृजन का अधिकार केवल मनुष्य का नहीं है बल्कि सभी जीव जन्तुओं और प्राणियों का है। तीसरी क्रूरता, बैल का श्रम से संबंध जोड़ा गया। खूंटे की गुलामी और श्रम उससे पूछकर उसपर नहीं लादी गयी है। चौथी यह कि कसाई खाना का रास्ता शेर को नहीं दिखाया गया। लोमड़ी को कसाई खाना नहीं भेजा गया लेकिन बैल को भेजा गया है ।
प्रेमचंद के कथा साहित्य में पात्रों के जो नाम लिए जाते हैं वह गहरी व्यंजकता से आते हैं। इस कहानी में बैलों के नाम हीरा-मोती हैं जो समृद्धि के प्रतीक हैं। भारत सोने की चिड़िया रहा है। हीरा और मोती सचमुच यहां के खेतों में अनाज के रूप में उपजते रहे हैं। इस समृद्ध देश को हर तरह से उपनिवेशवाद ने लूटा है। यहां के धन का अपनी औद्योगिक क्रान्ति में उपयोग किया है। इसलिए ब्रिटेन जो कुछ बना वह भारत की लूट से बना है ।
1960 के दशक में बैल सिनेमा में आते थे और कृषि सभ्यता का जो पारंपरिक रूप था उसकी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति करते थे। इस कहानी में प्रेमचन्द दरअसल हीरा और मोती को श्रम का श्रेय प्रदान करते हैं और किसान से आगे बढ़कर श्रेय देते हैं। अगर बैल ना हो तो खेती नहीं हो सकती है। जो लगान ज़मींदार को मिलता है वह बैल और किसानों के संयुक्त श्रम का उत्पादन है। यहां गुलामी दो स्तरों पर है। पशु के स्तर पर यह पूरी कृषि क्रांति के दौर में सांड से बैल बनाने की प्रक्रिया में है लेकिन औपनिवेशिक दौर में एक किसान की गुलामी है; भारतीय जनता की गुलामी है। पगहा गुलामी का प्रतीक है जिसे हीरा और मोती तीस के दशक में तोड़ते हैं।
दूसरे खण्ड में, हीरा और मोती गया का खेत जोतने से इंकार कर देते हैं क्योंकि यहां प्रतिरोधी चेतना है। लगातार दोनों का शोषण होता है तथा पिटाई होती है। स्वतंत्रता संग्राम से इसका गहरा सम्बन्ध है। कहानी में हीरा और मोती गया के यहां भोजन करने से इंकार कर देते हैं। अनशन, उपवास, असहयोग ये तीनों बैलों के भीतर की कार्यवाही में मौजूद है।
तीसरे खंड में, सांड एवं बैल का युद्ध होता है। सांड़ को कृषि संबंधी कार्यों से आजादी प्राप्त है। वह यहां स्वायत्तता और स्वच्छंदता का प्रतीक है। सांड़ झुंड में नहीं होता है।
दिनकर ने कहा है- भैंसें और सांड का अपना इलाका होता है और वही इलाका विकसित होकर मनुष्य में राष्ट्रवाद का रूप ले लेता है। सांड अकेला आ रहा है और उससे दोनों बैल तकनीक के तहत युद्ध लड़तें हैं जिसमें स्वाधीनता संग्राम के संघर्ष की तकनीक शामिल है। गरम दल और नरम दल दोनों बैल तकनीक अपनाते हैं और भाईचारा, एकता और अपनी संघर्ष चेतना के सहारे आगे बढ़ाते हैं। वे शान से लड़ते हैं और सांड़ को हराकर खदेड़ देते हैं।
दोनों बैलों के संवाद के रुप में एक जगह प्रेमचंद लिखते हैं कि "जब दोहरी मार पड़ेगी तो अपने आप यह भागेंगे।" यह साधारण मार नहीं है। ये स्वाधीनता संग्राम की हिंसा और अहिंसा की दोहरी मार है। नरम दल और गरम दल की दोहरी मार।
कहानी में सांड ज़मींदार का प्रतीक है जिसे वासनात्मक आनंद की आजादी है। हिंसा और आक्रामकता की आजादी है। घूमने फिरने की आजादी है। पहचान और अस्मिता की आजादी है। दूसरी तरफ एक बड़ी आबादी है जिसकी चेतना और सोच का बधियाकरण हो चुका है। कहानी में कांजी हाउस जेलखाने का प्रतीक है। हीरा और मोती के कांजी हाउस की दीवार तोड़ने का जो रूपक है वह गुलामी से भारतीय जनता को मुक्त करने का रूपक है ।
चौथे खंड में, वे हीरा और मोती सारे जानवरों को आजाद करते हैं। गधे जाना नहीं चाहते हैं। लेकिन बड़ी कोशिश के बाद हीरा गधे को भी अपनी सींग के माध्यम से आजाद करता है और उसे समझाता है कि यहां से भाग जाओ। जिस कांजी हाउस को तुम अपना आजादखाना समझते हो, वह तुम्हारा गुलामखाना है।
पांचवें खंड में, डुग्गी बजती है, हजारों लोग जुटते हैं और दोनों जानवरों को भूखा रखा जाता है। हीरा पगहा नहीं तोड़ पाता है। वह सत्याग्रही है। नरम दल का है और गांधीवाद का प्रतीक है। वहां पर मोती भारतीयता का रिश्ता निभाता है। वह कहता है कि दोनों मिलकर रहेंगे। एकता स्वाधीनता संग्राम की बुनियादी विचारधारा थी जिसे तोड़ने के लिए उपनिवेशवाद और उसके देशी आधार ने तमाम कोशिशें की थीं।
प्रेमचन्द भारतीय सभ्यता मनुष्य और प्रकृति के सहअस्तित्व के लेखक हैं। इस कहानी में हीरा मोती झूरी के थान तक पहुंच जाते हैं। कसाई उन्हें झूरी से हथियाने की तमाम कोशिश करता है। उस पर पत्थर फेंकता है। लड़ाई करता है। यहां किसान और कसाई का संघर्ष दिखाया गया है।
कहानी में दढ़ियल कसाई पूंजीवाद और उपनिवेशवाद का प्रतीक है जिसको मोती खदेड़कर गांव के सिवान तक ले जाता है और कहानी यहां खत्म होती है। उपनिवेशवाद का समाधान उपनिवेश से सम्पूर्ण मुक्ति में है। हीरा अंत में कहता है कि तुम उस कसाई पर हमला कर रहे हो अगर वह गोली मार दे तो मोती जवाब देता है " मर जाऊँगा पर उसके काम तो ना आऊँगा " यह गुलामी से मुक्ति की रुपक कथा है। 'दो बैलों की कथा’ प्राकृतिक, मानवीय और राष्ट्रीय मुक्ति की कथा है जिसका अपने इतिहास से गहरा संबंध है।
2 टिप्पणियां:
शानदार विश्लेषण सर।
राष्ट्रीय नवजागरण के आलोक में प्रेमचंद की कहानियों का बेहतरीन मूल्यांकन।
बधाई सर।
शुक्रिया पढ़ने के लिए।
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