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26 सितंबर, 2010

पीपली लाइव : किसान विरोधी प्रोपेगंडा


पीपली लाव : किसान 

 विरोधी प्रोपेगंडा 


  फिल्म : पीपली लाइव
निर्देशक : अनुषा रिजवी 
निर्माता : आमिर खान 
    गीत : संजीव शर्मा,गंगाराम स्वानंद, किरकिरे 
  संगीत : इंडियन ओशन 
कलाकार : ओमकार दास मानिकपुरी,रघुवीर यादव,  नसीरुद्दीन शाह,
              मलाइका शिनॉय,शालिनी वत्स,फारुख जफ़र,नवाजुद्दीन शिद्दिकी,   
              विशाल आदि 

अवधि : 107 मिनट 


टीवी पत्रकार अनुषा रिजवी को  किसान आत्महत्या और सरकारी मुआवजे  की खबर
से पीपली लाइव निर्माण की प्रेरणा मिली. पीपली लाइव अनुषा रिजवी की पहली और
आमिर खान की लगान के बाद दूसरी फिल्म है जिसका केन्द्रीय प्रश्न किसान है. समसामयिक
व लोकलुभावन लोक रागों और फ्रेंच संगीत निर्देशक माथिलास डुव्लेसी के पार्श्व  संगीत  से
आच्छादित १०७ मिनट की फिल्म का आरम्भ बहुत ही कल्पनाशील और रचनात्मक है.
             फिल्म का यथार्थमूलक और रचनात्मक पहलू यह भी है कि इसमें अधिकांश कलाकारों का
काम मौलिक और प्रभावशाली है. पीपली का नत्था किसान हबीब तनवीर क़ी नाट्य मंडली
 नया थियेटर का लोक कलाकार ओमकार दास मानिकपुरी सर्वाधिक शक्तिशाली किरदार है.
रघुवीर यादव हो या मलाईका शिनॉय ,नसीरुद्दीन शाह हो या फारूख जफ़र ,सृजनशील सम्भावना
का सिने-शिल्प सराहनीय है. फिल्म ऐसी नयी कला विधा है जिसमे कला के अनेक  नए पुराने रूपों
का खूबसूरत रसायन खप सकता है. यहाँ भी वह सब आमिरी अंदाज में है.
           लेकिन किसी फिल्म क़ी सराहना केवल कलाकारों क़ी शक्तिशाली भूमिका, समय के
 जलते हुए कथानक का चुनाव ,गीत गान , नामी गिरामी निर्माता, घिसे पिटे मुम्बइया फ़िल्मी
 लटके झटके से थोडा हटके से नहीं क़ी जा सकती. एक प्रतिनिधि फिल्म से कला प्रशंसकों क़ी
 एक ओर कला  के प्रभाव से उपजने वाले सौन्दर्य मूल्य  क़ी खोज रहती है वहीँ उससे पैदा होने
 वाले जीवन मूल्य क़ी जरूरत होती है.
             आमिर खान की नई फिल्म पीपली लाइव के कई घाट हैं. हर घाट पर कोई न कोई
जादू घटता है. एक घाट मीडिया का है. एक घाट राजनीति का है. एक घाट गांव
और शहर  के बढ़ते हुए फर्क का है. लेकिन फिल्म के आइडिया और थीम का सबसे
बड़ा  घाट भारतीय किसान जीवन की त्रासदी का  है. किसानों की बदकिस्मती से
सबसे ज्यादा राजनीतिक  हमला इसी घाट पर हुआ है. बालीवुड रंगरेज  है
बाबू,घाट घाट यहाँ घटता जादू.
             जिस तरह से इस फिल्म का आम चेतना और सत्ता की चेतना पर
प्रभाव पड़ा है ,यहाँ पी.साईनाथ जैसे एक्टिविस्ट पत्रकार का काम नकली और
हाशिये पर फेंका हुआ दीखता है.कला की वर्गीय बारीक राजनीति की जाँच इसलिए
भी जरूरी है क़ि पिछले दो दशकों में भारतीय कला  का सबसे केन्द्रीय
मुद्दा भूमंडलीकरण  है  तथा भारतीय यथार्थ का साम्राज्य-शक्ति बनाम
किसान.
           यह फिल्म राजनीति का सिनेमाई इस्तेमाल करते हुए भारतीय
यथार्थ के मुख्य मुद्दे के साथ वैसा ही बर्ताव करती है जैसा साम्राज्य
समर्थक संसदीय राजनीति. इस अर्थ में यह किसान विरोधी सिनेमाई प्रोपेगंडा
है और संसदीय राजनीति व साम्राज्यवाद की पैरोकार.
          यह अनायास नहीं है कि पीपली लाइव के दीवाने एलपीजी(उदारीकरण,निजीकरण,भूमंडलीकरण )
 माडल के कार्नवालिस मनमोहन सिंह हो
जाते हैं और विस्तारक आडवानी. और फिल्म डाइरेक्टर अनुषा रिजवी फिल्म
प्रमोशन पर बात करते करते कह उठती है कि ''राहुल जिस अंदाज में आम लोगों
संग गहरे अंदाज़ में जुड़ रहे हैं यह काबिलेतारीफ है.'' वह राहुल की
तारीफ़ करते हुए यह भूल जाती है कि नत्था जैसों के लिए जो गाँधी( मंनरेगा
 ),जवाहर(जवाहर रोजगार योजना ), लालबहादुर(फिल्म में बिना जल का कल ),
इंदिरा(इंदिरा आवास योजना) आजादी के इतने सालों में मर्ज का मरहम नहीं बन
सके उनके लिए राहुल रामवाण किस तरह बनेंगे. आमिर खान पहले फिल्म से पूरी
तरह असम्बद्ध  किसानों पर आधारित लोक गीत बेचकर बाजार में  प्रमोशन का
वातावरण बनाते हैं, बाद में सत्ता,मीडिया और बुद्धिजीवी के सामने कला
यथार्थ को झूठलाने का प्रोपेगंडा रचते हैं.
          कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए यदि पीपली लाईव  देश और विश्व मंच
पर किसान और हाशिये की तबाही,हिंसा और ह्त्या की राजनीति करने वाली
भूमंडलीकरण की सत्ता द्वारा आमिर की फिल्मों में सर्वाधिक पुरस्कार
बटोरे. आस्कर मिलना भी नामुमकिन नहीं. पुरस्कार  की बढती संख्या का मतलब
होगा भारतीय किसान की तबाही के यथार्थ के विचलन की प्रशंसा ,जनद्रोही
वर्त्तमान संसदीय राजनीति के किसान विरोधी अभियान का समर्थन, मध्यवर्ग की
हाशिया  विरोधी लालचपूर्ण चेतना की तुष्टि, बहुराष्ट्रीय और राष्ट्रीय
सेवा पूँजी के फैलाव की राह सफाई तथा नव साम्राज्य की नीतियों का आह्वान.
           किसी कला की जाँच तीन कला औजारों से होनी चाहिए- कला का जन्म
किन हालातों की देन है, कला की आतंरिक ताकत क्या है, कला का जन जीवन पर
प्रभाव क्या है.
             पीपली  लाइव का जन्म भूमंडलीकरण की देन है.दो दशकों में
कार्पोरेट विकास की आंधी से इंडिया और भारत के बीच की खाई बहुत बड़ी हो
गयी है. भारत में किसान, आदिवासी, श्रमशील, स्त्री और दलित का जीवन
हाहाकार कर रहा है. दो लाख किसानों की आत्महत्या, देश के सैकड़ों जिलों
की जनता का राज्य दमन के खिलाफ सशस्त्र विरोध में खड़ा होना और
नंदीग्राम,सिंगूर,विदर्भ,वारंगल,तेलंगाना, बस्तर,दंतेवाडा जैसी घटनाएँ इस
बात के बाहरी संकेत हैं कि  जमीन,खनिज,जंगल,जल और श्रम की लूट व
कारपोरेटीकरण किस सीमा तक पहुँच गयी है.यह नयी किस्म की कार्पोरेट
जमींदारी है जिसमे खेत -अपहरण के लिए उसे अलाभकर बनाना  और किसानों की
ह्त्या-आत्महत्या जरूरी प्रक्रिया है. इसलिए भारतीय कला में किसान
त्रासदी का मुद्दा मीडिया, संसदीय चुनाव और दूसरे  सवालों के सामने
केन्द्रीय राजनीतिक मुद्दा है. इन हालातों की देन है पीपली लाइव. लेकिन
कला इन हालातों का विकृत,यथार्थ विरोधी और सत्ता समर्थक रूप पेश करती है.
कैसे?
             कला का  सिने रूप यह है कि नत्था किसान द्वारा  बैंक से एक
लाख ठगने की साजिश से फिल्म शुरू होती है. इस हड़प अभियान में सहयोगी की
भूमिका में नत्था का भाई,पत्नी, जमींदार-महाजन- जनपदीय नेता,अखबार,चैनल,
योजनाकार ,सत्ता सभी शामिल हैं.  फिल्म में  जो सरकार बैंक के माध्यम से
सूदखोरी करती है ,जमीन छीनती है वही किसानों द्वारा  आत्महत्या करने के
हालात देखकर  कर्ज माफ़ी का एलान भी करती है. यह है सरकार का
बहुरूपियापन.
           इसका मतलब यह है कि भारतीय समाज में  दो लाख किसानों की
आत्महत्या का सम्बन्ध भूमडलीकरण के हालात से न होकर सरकार की ठगी करने से
है. दूसरी बात,किसान का परिवार ऐसा क्रूर ,स्वार्थी और जटिल धूर्त है जो
अपने सदस्य को आत्महत्या के लिए उकसाता है. पी साईनाथ की सुनिये,''यह
आपदा वैश्विक,राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नीतियों से संचालित होती है.खाद्य
उत्पादन खतरनाक रूप से ठहराव की स्थिति में है.राहत पेकेज एक अफसरशाही
छद्म है. लोगों के जीवन के बदले में राहत पेकेज पूर्ण रूप से कितना
अप्रासंगिक है. लाखों परिवारों ने आत्महत्या का सामना नहीं किया है
,लेकिन समान विपत्तियों का सामना किया है.इसीलिए यह जानना महत्वपूर्ण है
कि कृषि सम्बन्धी समस्याएँ आत्महत्या की समस्याओं से काफी बड़ी है.''
          नत्था का परिवार पर्यटक की आँखों से देखा परिवार है जिसके लिए
जान से ज्यादा एक लाख रूचि का विषय है. पी साईनाथ का विदर्भ के अध्ययन पर
आयी रिपोर्ट का  कहना है कि भारतीय  किसान समाज में " ऐसी जवान विधवाएं
रही हैं जिन्होंने अपनी कन्या शिशुओं के साथ स्वयं को मार डाला क्योंकि
वे उन्हें देह व्यापार करने वालों के बीच छोड़ना नहीं चाहती थीं.'' बनारस
में  मैं स्वयं ऐसी घटनाओं का साक्षी रहा हूँ. इस फिल्म में किसान जीवन
के समाजशात्र और मनोविज्ञान का आभाव है. यही कारण  है कि नत्था दर्शकों
के लिए करोड़ों किसानो का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्हें हास्य मजाक में
बदल देता है और हमारे समाज की  सर्वाधिक त्रासद परिघटना उपहास की वस्तु
बन जाती है.
                      सचाई यही है कि करोड़ों नत्था किसान देश की
सत्ता,मीडिया, बाजार, पूंजीपति वर्ग और मध्य वर्ग के लिए मजे और मजाक की
चीज हैं. इसलिए उनकी  ताकत का फायदा लेने की रणनीति पर बनी पीपली लाइव के
लिए भी नत्था मजाक का पात्र है.
                       फिल्म में मीडिया की टीआरपी कथा का सुन्दर
फिल्मांकन है . लेकिन गौरतलब है कि इसकी बुनावट यथार्थपरक है कि
नहीं.किसान आत्महत्या कभी मीडिया का टीआरपी एजेंडा नहीं रहा है. पी
साईनाथ का शोध है कि'' विदर्भ में जून यात्रा पहली यात्रा थी.इससे पहले न
तो कृषिमंत्री और न ही मुख्यमंत्री किसी के घर गए और न किसी ने गांव
वालों के साथ बैठकर यह जानने की कोशिश की कि क्या हो रहा है.जब बाम्बे
में फैशन वीक चल रहा था तो पांच सौ  से अधिक मान्यता प्राप्त पत्रकारों
ने 'फैशन वीक' को कवर किया था. उसी समय विदर्भ में बाहर के छः से कम
पत्रकार थे. फैशन माडल्स रैम्प पर सूती वस्त्रों  का प्रदर्शन कर रहे थे.
वहां से एक उड़ान की दूरी पर सूत उगाने वाले लोग आत्महत्या कर रहे थे.''
वस्तुतः  मीडिया कार्पोरेट पूंजीवाद के विस्तार का अश्वमेध  घोड़ा
है,फ्रंट लाइन ट्रूप्स है.
                पीपली लाइव मीडिया को थीम में बड़ी जगह देकर एक साथ तीन
काम करती है. एक तरफ वह किसान यथार्थ की भयानक त्रासदी को शामिल करने से
बच जाती है, दूसरी तरफ सत्ता की आलोचना करने से छूटकारा पा लेती है वहीँ
मीडिया को काल्पनिक यथार्थ का श्रेय देकर टीआरपी युद्ध के सहारे अपनी
टीआरपी बढ़ा लेती है. इसका प्रमाण वे गीत भी हैं जिनका इस पटकथा से कोई
रिश्ता नहीं बनता है और जो इस फिल्म की टीआरपी का  महत्वपूर्ण  करण है.
कहना न होगा कि मीडिया  के छद्म युद्ध में सेक्स है, अंधविश्ववास है,
बाजार है,सिनेमा उद्योग है,धर्म और साम्प्रदायिकता  है, पुराण है लेकिन
किसान कहीं नहीं है.
             यह कितना दुखद है कि 'पांच अंधे  और हाथी कथा' की तरह
पीपली लाइव की समीक्षा में कोई किसान आत्महत्या की बात कर रहा है, कोई
मीडिया अंतर्कथा का किस्सा सुना रहा है, कोई गांव  और शहर की बढती हुई
दूरी पर चिंता जता रहा है. जरूरत है पूरे हाथी की जटिल संरचना को समझने
की और उसके हमलावर रूप को फिल्म द्वारा विकृत करने की कलात्मकता की
पड़ताल करने की . वह हाथी जो इतना मदांध, हिंसक और दमनकारी है कि हरी
फसलों  के साथ  भारतीय  किसान का जीवन और सपने चर रहा  है , खेतों का
पानी  सूंड से चूसकर बोतलों में हमें ही बेच रहा है, हमारे ही घर में
युद्ध वाहक बन रहा है, हमारी ही हार के  मातम में हमारे  घर के मोखे पर
अपना  जीत जुलूस घुमा रहा है .


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